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मंगलवार, 18 मार्च 2025

मार्च १८, नदी, निमाड़ी, दोहा, फागुन, सॉनेट, मुक्तिका, यमक

सलिल सृजन मार्च १८ 
*
पूर्णिका
मन के अंदर
छिपा समंदर
.
जाने, कहे न 
सत्य कलंदर
.
गोरख आया
भाग मछंदर
.
खुद से हारा
सदा सिकंदर
.
मन की बातें
करें नरिंदर
.
स्वार्थ सियासत
संसद अंदर
.
हमें क्षमा कर
हे शिव शंकर
०००
पूर्णिका
हर दिन होली रात दिवाली
मना करें आनंद सभी
संग रहें आनंदकंद आ
दूर न खुद से खुदा कभी
श्वास-श्वास माधवी सुमन सम
महके बहके चहक अभी
कोयल-कूक सलिल लहरों जस
कल-कल कविता करें जभी
फुलबगिया में हो बासंती
छटा-घटा साकार तभी
०००
यमकीय दोहे
कर तब करतब जब न हो, तुझे दूसरा काम।
रह अकाम बेकाम मत, सलिल श्रेष्ठ निष्काम।।
होली होली हो रही, होगी होली यार।
गोली गोली चूसकर, छेंके गोल हजार।।
लाई लाई-बताशा, झट जाकर बाजार।
आई आई तमाशा, करता राजकुमार।।
ठाकुर ठाकुर को करे, काम पड़े पर याद।
ठकुरानी मुस्का रहीं, सुनकर घंटी नाद।।
वा नर है वानर सदृश, नटखट चंचल खूब।
फल पा विफल न सफल हो, गया हर्ष में डूब।।
१८.३.२०२५
०००
मुक्तिका
(पदभार २४)
बेख्याल से...
***
बेखयाल से खयाल हो रहे हैं आजकल
कीच लगा कीच लोग धो रहे हैं आजकल
*
प्रेम चाहते हैं आप नफ़रतें उगा रहे
चैन-अमन बिना दाम खो रहे हैं आजकल
*
मुस्कुरा रहे हैं होंठ लालियाँ लगा लगा
हाल-ए-दिल न पूछना रो रहे हैं आजकल
*
पा गए जो कुर्सियाँ न जड़ जमीन में रही
रोज अहंकार बीज बो रहे हैं आजकल
*
निज प्रशस्ति गा रहे हैं चीख चीख काग भी
राजहंस मौन दीन मूँद आँखें सो रहे
१८.३.२०२४
***
सॉनेट
अस्ति
'अस्ति' राह पर चलते रहिए
तभी रहे अस्तित्व आपका
नहीं 'नास्ति' पथ पर पग रखिए
यह भटकाव कुपंथ शाप का
है विराग शिव समाधिस्थ सम
राग सती हो भस्म यज्ञ में
पहलू सिक्के के उजास तम
पाया-खोया विज्ञ-अज्ञ ने
अस्त उदित हो, उदित अस्त हो
कर्म-अकर्म-विकर्म सनातन
त्रस्त मत करे, नहीं पस्त हो
भिन्न-अभिन्न मरुस्थल-मधुवन
काम-अकाम समर्पित करिए
प्रभु चरणों में नत सिर रहिए
१८-३-२०२३
•••
दोहे फागुन के
फागुन फगुनायो सलिल, लेकर रंग गुलाल।
दसों दिशा में बिखेरें, झूमें दे दे ताल।।
*
जहँ आशा तहँ स्मिता, बिन आशा नहिं चैन।
बैज सुधेंदु सलिल अनिल, क्यों सुरेंद्र बेचैन।।
*
अफसाना फागुन कहे, दे आनंद अनंत।
रूपचंद्र योगेश हैं, फगुनाहट में संत।।
*
खुशबू फगुनाहट उषा, मोहक सुंदर श्याम।
आभा प्रमिला हमसफ़र, दिनकर ललित ललाम।।
*
समदर्शी हैं नंदिनी, सचिन दिलीप सुभाष।
दत्तात्रय प्राची कपिल, छगन छुए आकाश।।
*
अनिल नाद सुन अनहदी, शारद हुईं प्रसन्न।
दोहे आशा के कहें, रसिक रंग आसन्न।।
*
फगुनाहट कनकाभिती, दे सुरेंद्र वक्तव्य।
फागुन में नव सृजन हो, मंगलमय मंतव्य।।
*
सुधा सुधेन्दु वचन लिए, फगुनाए हम आप।
मातु शारदा से विनय, फागुन मेटे ताप।।
*
मुग्ध प्रियंका ज्योत्स्ना, नवल किरण आदित्य।
वर लय गति यति मंजुला, फगुनाए साहित्य।।
*
किरण किरण बाला बना, माथे बिंदी सूर्य।
शब्द शब्द सलिला लहर, गुंजित रचना तूर्य।।
*
साँची प्राची ने किया, श्रोता मन पर राज।
सरसों सरसा बसंती, वनश्री का है ताज।।
*
छगन लाल पीले न हो, मूठा में भर रंग।
मूछें रंगी सफेद क्यों, देखे दुनिया दंग।।
*
धूप-छाँव सुख-दुःख लिए, फगुनाहट के रंग।
चन्द्रकला भागीरथी, प्रमिला करतीं दंग।।
*
आभा की आभा अमित, शब्द शब्द में अर्थ।
समालोचना में छिपी, है अद्भुत समर्थ।।
१८-३-२०२३
***
मुक्तिका
*
मन मंदिर जब रीता रीता रहता है।
पल पल सन्नाटे का सोता बहता है।।
*
जिसकी सुधियों में तू खोया है निश-दिन
पल भर क्या वह तेरी सुधियाँ तहता है?
*
हमसे दिए दिवाली के हँस कहते हैं
हम सा जल; क्यों द्वेष पाल तू दहता है?
*
तन के तिनके तन के झट झुक जाते हैं
मन का मनका व्यथा कथा कब कहता है?
*
किस किस को किस तरह करे कब किस मंज़िल
पग बिन सोचे पग पग पीड़ा सहता है
१८-३-२०२१
***
गीत
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
१२.३.२०१८
***
मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, सच्चा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
समय की सूखी नदी पर आँसुओं की अँगुलियों से
दिल ने बेहद बेदिली से, दर्द का किस्सा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, दुबारा रिश्ता लिखा
१८-३-२०१६
***
निमाड़ी दोहा:
जिनी वाट मंs झाड नी, उनी वांट की छाँव.
मोह ममता लगन, को नारी छे ठाँव..
१८-३-२०१०
*

सोमवार, 9 सितंबर 2024

सितंबर ९, शिव, निमाड़ी, मालवी हाइकु, बुंदेली दोहा, धर्म, दोहा, श्रुत्यानुप्रास, महथा

सलिल सृजन सितंबर ९
*
नवगीत:
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
९-९-२०२१
***
卐 ॐ 卐
निमाड़ी मुक्तिका
*
दुनिया रंग-बिरंगी
छे मतलब को संगी
म्हारो-थारो भूलो
बण जा सच्चो जंगी
रेवा महिमा भारी
जल पी तबियत चंगी
माटी केसर चंदन
म्हिनत अपणो अंगी
निरमल हिरदा जिनगी
करी लेव मनमंगी
***
मालवी हाइकु
*
मात सरसती!
हात जोड़ी ने थारा
करूँआरती।
*
नींद में सोयो
जागी ने घणो रोयो
फसल खोयो।
*
मालवी बोली
नरमदा का पाणी
मिसरी घोली।
*
नींद में सोयो
टूट गयो सपनो
पायो ने खोयो।
*
कदी नी चावां
बड़ा बंगला, चावां
रेवा-किनारा
*
बिना टेका के
राम भरोसे कोई
छत ने टिकी।
*
लिखणेवाळा!
बोठी न होने दीजे
कलमहुण।
९-९-२०२०
***
विमर्श
*
धर्म क्या है?
जिसे धारण किया जाए वह धर्म है।
किसे धारण किया जाए?
जो धारण करने योग्य हो।
धारण करने योग्य क्या है?
परिधान या आचरण?
अस्थि-मांस को चर्म का परिधान प्रकृति ही पहना देती है।
क्या चिरकालिक मानव सभ्यता केवल परिधान पर परिधान पहनने तक सीमित है या वह अाचार का परिधान धारण कर श्रेष्ठता का वरण करती है?
मानव देह मिलते ही तन को कृत्रिम परिधान पहना दिया जाता है। पर्व और उल्लास के हर अवसर पर नूतन परिधान पहन कर प्रसन्नता जाहिर की जाती है। जीवन साथी के चयन करते समय उत्तम परिधान धारण किया जाता है। यहाँ तक कि देहांत के पूर्व भी दैनिक परिधान अलग कर भिन्न परिधान में काष्ठ पर जलाया या मिट्टी में मिलाया जाता है।
क्या इससे यह निष्कर्ष निकालना सही होगा कि परिधान ही सभ्यता, संस्कृति या धर्म है?
कदापि नहीं।
परिधान आचार का संकेतक है । परिधान सामाजिक, आर्थिक स्थिति दर्शाता है। परिधान आचार को नियंत्रित नहीं कर सकता। परिधान धारण करनेवाले से तदनुरूप आचरण की अपेक्षा की जाती है। आचरण परिधान से भिन्न हो तो आलोचना और निंदा की जाती है। न्यायालय में न्यायकर्ता, अधिवक्ता और वादी-प्रतिवादी को परिधान से पहचाना तो जाता है पर प्रतिष्ठा अपने आचरण से ही प्राप्त होती है।
स्पष्ट है कि सुविचार से प्रेरित आचार न कि परिधान धर्म है।
सेवा से जुड़े हर वर्ग पंडित, न्यायाधीश, चिकित्सक, पुलिस, अधिवक्ता, पुलिस आदि का परिधान निश्चित है जबकि व्यवसाय से जुड़े वर्ग के लिए निश्चित परिधान नहीं है।
परिधान का उद्देश्य दायित्वों की अनुभूति कराकर तदनुसार आचरण हेतु प्रेरित करना है। चतुर व्यवसायी भी परिधान निर्धारित करने लगे हैं ताकि उनके कर्मचारी प्रतिष्ठान के प्रति लगाव व दायित्व का प्रतीति निर्धारित कार्यावधि के बाद भी करें।
क्या शासकीय पदों पर परिधान आमजन के प्रति दायित्व का प्रतीति कराता है? कराता तो किसी कार्यालय में कोई नस्ती लंबित न होती। कोई अधिवक्ता पेशी न बढ़वाता, हड़ताल न करता, कोई मरीज चिकित्सा बिना न मरता।
आचार, आचरण या कर्तव्य ही धर्म है। यही करणीय अर्थात करने योग्य कर्म है। 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते' कहकर श्री कृष्ण इसी कर्म मनुष्य ही नहीं जीव का भी अधिकार कहते हैं। 'मा फलेषु कदाचन' कहकर वे तुरंत ही सचेत करते हैं कि फल सा परिणाम कर्मकर्ता का अधिकार नहीं है।
दैनंदिन जीवन में हमारे कितने कर्म इस कसौटी पर खरे हैं? यह कसौटी आत्मानुशासन की राह दिखाती है। तब स्व+तंत्र, स्व+आधीन का अर्थ उच्छृंखलता, उद्दंडता, बल प्रयोग नहीं रहता। तब अधिकार पर कर्तव्य को वरीयता दी जाती है।
अपने आचरण को स्वकेंद्रित रखकर देव और दानव चलते हैं जबकि मनुष्य अपने आचरण को सर्वकेंद्रित, सर्वकल्याणकारी बनाकर मानव संस्कृति का विकास करता है। मानव होना देव और दानव होने से बेहतर है। इसीलिए तो देव भी मानव रूप में अवतरित होते हैं। प्रकृति के नियमानुसार मानवावतार देव ही नहीं दानव भी लेते हैं किंतु उन अति आचारियों (अत्याचारियों) को अनुकरणीय नहीं माना जाता।
धर्म कर्म का पूरक ही नहीं पर्याय भी है। प्राय: हम निज कर्महीनता का दोष अन्यों या परिस्थितियों को देते हैं, यह वृत्ति उतनी ही घातक है जितनी कर्मश्रेष्ठता का श्रेय स्वयं लेना। जो इसके विपरीत आचरण करते हैं, वे ही महामानव बनते हैं।
कर्म धर्म को जीवन मर्म मानना ही एकमात्र राह है जिस पर चलकर आदमी मनुष्य बन सकता है। बकौल ग़ालिब 'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना। धर्म आदमी को इंसान बनने का पथ दिखाता है पर धर्मगुरु रोकता है। वह जानता है कि आदमी इंसान बन गया तो उसकी जरूरत ही न रहेगी।
अपने धर्म पर चलकर मरना परधर्म को मानकर जीने से बेहतर है। इसलिए औरों को नहीं खुद को आत्मानुशासित करें तब दिशाएँ भी परिधान होंगी, तब दिगंबरत्व भी गणवेशों से अधिक मर्यादित होगा, तब क्षमा माँगने और करने की औपचारिकता नहीं आत्मा का आभूषण होगी।
***
***
दोहा दुनिया
*
खोटे करते काम हम, खरे खरे कर काम।
सृजनशील जीवन जिएँ, मानक रचें ललाम।।
*
सम आमोद विनोद नित, करते लेखन कर्म।
कर्मदेव आराध्य हैं, सृजन कर्म ही धर्म।।
*
श्री वास्तव में हो तभी, होता है आलोक।
अगर न आत्मालोक तो, जीवन होता शोक।।
*
ग्यान परिश्रम प्रेम के, तीन वेद पढ़ आप।
बनें त्रिवेदी कीर्ति तब, दस दिश जाती व्याप।।
*
राय न रवि देता कभी, तम हरता चुपचाप।
पूजित होता जगत में, कीर्ति न सकते नाप।।
*
वंदन हो जग श्रेष्ठ का, तब मिटते है नेष्ठ।
नहीं उम्र से कार्य से, होता है मनु ज्येष्ठ।।
*
अपने जब अपनत्व से, करें मान-सम्मान।
तब ही ऐसा मानिए, हैं सच्चे इंसान।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ का, ध्येय करें चुप कर्म।
शोर प्रचार न हो अधिक, तभी मिलेगा धर्म।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ में, जाग्रत सभी दिमाग।
ले अनुभव की बाँसुरी, गाते जीवन राग।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ की, मात्र एक है चाह।
देश-हितों हित काम कर, दिखा सकें मिल राह।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ में, शेष नहीं है मोह।
आप न करता बगावत, किंतु रोकता द्रोह।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ है, अनुभव का पर्याय।
कर्तव्यों को पाल कर, लिखें नया अध्याय।।
*
९-९-२०२९
***
अलंकार चर्चा : ५
श्रुत्यानुप्रास अलंकार
समस्थान से उच्चरित, वर्णों का उपयोग
करे श्रुत्यानुप्रास में, युग-युग से कवि लोग
वर्णों का उच्चारण विविध स्थानों से किया जाता है. इसी आधार पर वर्णों के निम्न अनुसार वर्ग बनाये गये हैं.
उच्चारण स्थान अक्षर
कंठ अ आ क ख ग घ ङ् ह
तालु इ ई च छ ज झ ञ् य श
मूर्द्धा ऋ ट ठ ड ढ ण र ष
दंत लृ त थ द ध न ल स
ओष्ठ उ ऊ प फ ब भ म
कंठ-तालु ए ऐ
कंठ-ओष्ठ ओ औ
दंत ओष्ठ व
नासिक भी ङ् ञ् ण न म
जब श्रुति अर्थात एक स्थान से उच्चरित कई वर्णों का प्रयोग हो तो वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. अक्सर आया कपोत गौरैया संग हुलस
यहाँ अ क आ क ग ग ह कंठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
२. इधर ईद चन्दा-छटा झट जग दे उजियार
यहाँ इ ई च छ झ ज ज य तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
३. ठोंके टिमकी डमरू ढोल विषम जोधा रण बीच चला
यहाँ ठ, ट, ड, ढ, ष, ण मूर्धाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
४. तुलसीदास सीदत निसि-दिन देखत तुम्हारि निठुराई
यहाँ त ल स द स स द त न स द न द त त न दन्ताक्षरों का प्रयोग किया गया है.
५. उधर ऊपर पग फैला बैठी भामिनी थक-चूर हो
यहाँ उ ऊ प फ ब भ म ओष्ठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
६. ए ऐनक नहीं तो दो आँख धुंधला देखतीं
यहाँ ए, ऐ कंठव्य-तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
७. ओजस्वी औलाद न औसर ओट देखती
यहाँ ओ औ औ ओ कंठ-ओष्ठ अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
८. वनराज विपुल प्रहार कर वाराह-वध हित व्यथित था
यहाँ व दंत-ओष्टाक्षर का प्रयोग किया गया है.
९. वाङ्गमय भी वाञ्छित, रणनाद ही मत तुम करो
यहाँ ङ् ञ् ण न म नासिकाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
९-९-२०१५
***
दोहा सलिला :
बुंदेली दोहा
*
का भौ काय नटेर रय, दीदे मो खौं देख?
कई-सुनी बिसरा- लगा, गले मिटा खें रेख.
*
बऊ-दद्दा खिसिया रए, कौनौ धरें न कान
मौडीं-मौड़ां बाँट रये, अब बूढ़न खें ज्ञान.
*
पुरोवाक्:
आचार्य संजीव
*
पुरुषार्थ और भाग्य एक सिक्के के दो पहलू हैं या यूँ कहें कि उनका चोली-दामन का सा साथ है. जब गोस्वामी तुलसीदास जी 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'हुइहै सोहि जो राम रचि राखा' में से किसी एक का चयन नहीं कर पाते तो आदमी भाग्य और कर्म के चक्कर में घनचक्कर बन कर रह जाए तो क्या आश्चर्य?
आदि काल से भाग्य जानने और कर्म को मानने प्रयास होते रहे हैं. वेद का नेत्र कहा गया ज्योतिष शास्त्र जन्म कुंडली, हस्त रेखा, मस्तक रेखा, मुखाकृति, शगुनशास्त्र, अंक ज्योतिष, वास्तु आदि के माध्यम से गतागत और शुभाशुभ को जानने का प्रयास करता रहा किन्तु त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ भी काल को न जान सके और महाकाल के गाल में समा गये.
ज्ञान का विधिवत अध्ययन, आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण, अवधारणाओं परिकल्पन परीक्षण तथा प्राप्त परिणामों का आगमन-निगमन, निगमन-आगमन पद्धतियों अर्थात विशिष्ट से सामान्य और सामान्य से विशिष्ट की ओर परीक्षण जाकर नियमित अध्ययन हो तब विषय विज्ञान माना जाता है. यंत्रोपकरणों, परीक्षण विधियों और परिणामों को हर दिन प्रामाणिकता के निकष पर खरा उतरना होता है अन्यथा सदियों की मान्यता पल में नष्ट हो जाती है.
भारतीय ज्योतिष शास्त्र और सामुद्रिकी विदेशी आक्रमणों, ग्रंथागारों को जलाये जाने और आचार्यों को चुन-चुन कर मरे जाने के बाद से 'गरीब की लुगाई' होकर रह गयी है जिसे 'गाँव की भौजाई' मानकर खुद को ज्योतिषाचार्य कहनेवाले पंडित-पुजारी-मठाधीश तथा व्यवसायी गले से नहीं रहे, उसका शीलहरण भी कर रहे है. फलतः, इस विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण की कोई सुव्यवस्था नहीं है. शासन - प्रशासन की ओर से विषय के अध्ययन की कोई योजना नहीं है, युवा जन इस विषय को आजीविका का माध्यम बनाने हेतु पढ़ना भी चाहें तो कोई मान्यता प्राप्त संस्थान या पाठ्यक्रम नहीं है. फलतः जन सामान्य नहीं विशिष्ट और विद्वान जन भी विरासत में प्राप्त आकर्षण और विश्वास के कारण तथाकथित ज्योतिषियों के पाखंड का शिकार हो रहे हैं.
अंधकार में दीप जलने का प्रयास करनेवालों में श्री कृष्णमूर्ति के समान्तर श्री विद्यासागर महथा और उनकी विदुषी पुत्री श्रीमती संगीता पुरी प्रमुख हैं. प्रस्तुत कृति दोनों के संयुक्त प्रयास से विकसित हो रही नवीन ज्योतिष-अध्ययन प्रणाली 'गत्यात्मक ज्योतिष' का औचित्य, महत्त्व, मौलिकता, भिन्नता और प्रामाणिकता पर केंद्रित है. इस कृति का वैशिष्ट्य प्रचलित जन मान्यताओं, अवधारणाओं तथा परम्पराओं की पड़ताल कर पाखंडों, अंधविश्वासों तथा कुरीतियों की वास्तविकता उद्घाटित कर ज्योतिष की आड़ में ठगी कर रहे छद्म ज्योतिषियों से जनगण को बचने के लिये सत्योद्घाटन करना है. श्री महथा ने ज्योतिष को अंतरिक्षीय गृह-पथों कटन बिन्दुओं को गृह न मानने अथवा सभी ग्रहों के कटन बिन्दुओं को समान महत्व देकर गणना करने का ठोस तर्क देकर गत्यात्मक ज्योतिष प्रामाणिकता सिद्ध की है.
यह ग्रंथ जड़-चेतन, जीव-जंतु, मानव तथा उसके भविष्य पर सौरमंडल के ग्रहों की गति के प्रभावों का अध्ययन तथा विश्लेषण कर समयपूर्व भविष्यवाणी की आधार भूमि निर्मित करता हैA श्री महथा रचित आगामी ग्रन्थ उनके तथा सुशीला जी द्वारा विश्लेषित कुंडलियों के आँकड़े व् की गयी भविष्यवाणियों के विश्लेषण से गत्यात्मक ज्योतिष दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर लोकप्रियता अर्जित करेगा अपितु शिक्षित बेरोजगार युवा पीढ़ी अध्ययन, शोध और जीविकोपार्जन का माध्यम भी बनेगा, इसमें संदेह नहीं। मैं श्री विद्यासागर जी तथा संगीता जी के इस भगीरथ प्रयास का वंदन करते हुए सफलता की कामना करता हूँ.
९-९-२०१४
***

गुरुवार, 21 जून 2012

:छंद सलिला: घनाक्षरी --संजीव 'सलिल'



:छंद सलिला:
घनाक्षरी 
संजीव 'सलिल'
*
सघन संगुफन भाव का, अक्षर अक्षर व्याप्त.
मन को छूती चतुष्पदी, रच घनाक्षरी आप्त..
तीन चरण में आठ सात चौथे  में अक्षर.
लघु-गुरु मात्रा से से पदांत करते है कविवर..
*
लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को हमेशा गले, हँस के लगाइए|

लात मार दूर करें, दशमुख सा अनुज, शत्रुओं को न्योत घर, कभी भी न लाइए|

भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|

छल-छद्म, दाँव-पेंच, द्वंद-फंद अपना के, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||
*
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|


पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|

चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह, कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|

गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||
(श्रृंगार तथा हास्य रस का मिश्रण)
*
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|

आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|

चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है|

गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं, जग है असार पर, सार बिन चले ना|


मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच, काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|

मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|

रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी, दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||
(श्लेष अलंकार वाली अंतिम पंक्ति में 'नार' शब्द के तीन अर्थ ज्ञान, पानी और स्त्री लिये गये हैं.)
*
बुन्देली  

जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुन गाइए|  

ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक हो अभावबिनत रहे सुभाव, गुनन सराहिए|

किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़फालतू करें होड़, नेह सों निबाहिए|  

हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों वाम, देस-वारी जाइए||


छत्तीसगढ़ी

अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसानधरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे|  

बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहावमहुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे|

बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको ओतियाय, टूरी इठलावथे|  

भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोलघोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे||  


निमाड़ी

गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव s बटोs वोs, उल्लूs की दुम हुयो

मनख
s को सुभाsव छे, नहीं सहे अभाव छे, हमेसs खांव-खांव छे, आपs से तुम हुयो|

टीला
पाणी झाड़s नद्दी, हाय खोद रएs पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पता नामालुम हुयो|

 
'सलिल' आँसू वादsला, धsरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा, दूरs माsतम हुयो||

मालवी:

दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम|
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम||


कवित्त
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, बिजुरी गिरे धरा पे, फूल नभ से झरे|
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो, नैना हैं भरे-भरे|
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया, दिल धीर धरे|
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे टरे||
 राजस्थानी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़ तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?, होड़ तरां-तरां का.||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का||
हिन्दी+उर्दू
दर्दे-दिल पीरो-गम, किसी को दिखाएँ मत, दिल में छिपाए रखें, हँस-मुस्कुराइए|
हुस्न के ऐब देखें, देखें भी तो नहीं लेखें, दिल पे लुटा के दिल, वारी-वारी जाइए|
नाज़ो-अदा नाज़नीं के, देख परेशान हों, आशिकी की रस्म है कि, सिर भी मुड़ाइए|
चलिए ऐसी चाल, फालतू मचे बवाल, कोई करें सवाल, नखरे उठाइए||
भोजपुरी
चमचम चमकल, चाँदनी सी झलकल, झपटल लपकल, नयन कटरिया|
तड़पल फड़कल, धक्-धक् धड़कल, दिल से जुड़ल दिल, गिरल बिजुरिया|
निरखल परखल, रुक-रुक चल-चल, सम्हल-सम्हल पग, धरल गुजरिया|
छिन-छिन पल-पल, पड़त नहीं रे कल, मचल-मचल चल, चपल संवरिया||
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