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बुधवार, 6 मई 2009

मात नर्मदे गोविन्द प्रसाद तिवारी 'देव', मंडला


ॐ रुद्रतनया नर्मदे, शत शत समर्पित वन्दना।

हे देव वन्दित, धरा-मंडित , भू तरंगित वन्दना॥

पयामृत धारामयी हो, ओ तरल तरंगना।

मीन, कच्छप मकर विचरें, नीर तीरे रंजना॥

कल-कल करती निनाद, उछल-कूद भँवर जाल।

दिव्य-रम्य शीतालाप, सत्य-शिवम् तिलक भाल॥

कोटि-कोटि तीर्थराज, कण-कण शिव जी विराज।

देव-दनुज नर बसते, तट पर तेरे स्वकाम।

मोदमयी अठखेलियाँ, नवल धवलित लहरियाँ।

अमरकंटकी कली, भारती चली किलकारियाँ॥

ओ! विन्ध्यवासिनी, अति उत्तंग रंजनी।

अटल, अचल, रागिनी, स्वयं शिवा-त्यागिनी॥

पाप-तापहारिणी, दिग्-दिगंत पालिनी।

शाश्वत मनभावनी, दूर दृष्टि गामिनी॥

पर्वत, गुह, वन, कछार, पथराया वन-पठार।

भील, गोंड, शिव, सांवर, ब्रम्हज्ञानी वा नागर।

सुर-नर-मुनियों की मीत, वनचर विचरें सप्रीत।

उच्च श्रृंग शाल-ताल, मुखरित वन लोकगीत॥

महामहिम तन प्रभाव, तीन लोक दर्शना।

धन-जन पालन स्वभाव, माता गिरी नंदना॥

निर्मल जल प्राण सोम, सार तोय वर्षिणी।

साधक मन सदा रटत, भक्ति कर्म- मोक्षिणी॥

ध्यान धरूँ, सदा जपूँ, मंगल कर वर्मदे।

मानस सतत विराज, देवि मातृ नर्मदे!!

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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

नमन नर्मदा : कृष्ण गोप, मंडला.

माँ सुकुमारी वत्सल सलिला, उज्जवल मधुमय क्षीर नर्मदा।

मध्य प्रान्त की जीवन रेखा, विस्तृत नेहिल नीर नर्मदा॥

उर्वर मिट्टी रच कछार में, सब्जी-फल भर देती है।

मछुआरों को मछली देती, हरती तट की पीर नर्मदा॥

फसल सम्पदा बाँट रहा है अमृत जल जीवनकारी।

मेकल का मस्तक ऊंचा है, अंचल की जागीर नर्मदा॥

बस्ती के मकान जुड़ने को, बालू के भंडार विपुल।

मंदी-मस्जिद गढ़ हैं, स्वयं सजाती तीर नर्मदा॥

सुर सरिता के हरे-भरे तट, आशाओं के पोषक हैं।

कोई किनारा कैसे छोड, हर मन की जंजीर नर्मदा॥

गंगा की मैया कहलाती, पापनाशिनी वरदानी।

दर्शन से ही पुण्यदायिनी, देखें नयन अधीर नर्मदा॥

हर महानता उद्गम क्षण में, होती लघुतम बीजाकार।

एक विहंगम नदी कपिल धारा तक क्षीण लकीर नर्मदा॥

विविध स्वरुप अमरकंटक से सिन्धु तीर सौराष्ट्र तलक।

कहीं चपल चंचलता कल-कल, कहीं गहन गंभीर नर्मदा॥

पूर्वमुखी सारी नदियों से, अलग कहानी कहती है।

पूरब से पश्चिम को बहती, अद्भुत एक नजीर नर्मदा॥

नश्वर है शरीर माटी का, अजर अमर आत्मा सबकी।

साक्षी है बनने-मिटने की, अमर-धार अशरीर नर्मदा॥

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