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शनिवार, 27 जुलाई 2019

एक रचना पुरुष

एक रचना 
पुरुष 
*
तुम्हें न देखूँ 
तो शिकायत 
किया करता हूँ अदेखा
पुरुष हूँ न.
.
तुम्हें देखूँ
तो शिकायत
देखता हूँ
पुरुष हूँ न.
.
काश तुम लो
आँख मुझसे फेर
मुझको कर अदेखा
जी सकूँ मैं चैन से
पुरुष हूँ न.
***
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

शनिवार, 13 जुलाई 2019

कविता

एक कविता:
सीखते संज्ञा रहे...
संजीव 'सलिल'
*
सीखते संज्ञा रहे हम.
बन गये हैं सर्वनाम.
क्रिया कैसी?
क्या विशेषण?
कहाँ है कर्ता अनाम?
कर न पाये
साधना हम
वंदना ना प्रार्थना.
किरण आशा की लिये
करते रहे शब्द-अर्चना.
साथ सुषमा को लिये
पुष्पा रहे रचना कमल.
प्रेरणा देती रहें
नित भावनाएँ नित नवल.
****
१३-७-२०११
#हिंदी_ब्लॉगिंग

मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

कविता

कविता:
अपनी बात:
संजीव 
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है 
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ हमको तो मुस्काना है
*
२३-४-२०१५

बुधवार, 5 सितंबर 2018

kavita

कविता:
आत्मालाप:
संजीव 'सलिल'
*
क्यों खोते?, क्या खोते?,औ' कब? 
कौन किसे बतलाये?
मन की मात्र यही जिज्ञासा
हम क्या थे संग लाये?
आए खाली हाथ
गँवाने को कुछ कभी नहीं था.
पाने को थी सकल सृष्टि
हम ही कुछ पचा न पाये.
ऋषि-मुनि, वेद-पुराण,
हमें सच बता-बताकर हारे
कोई न अपना, नहीं पराया
हम ही समझ न पाये.
माया में भरमाये हैं हम
वहम अहम् का पाले.
इसीलिए तो होते हैं
सारे गड़बड़ घोटाले.
जाना खाली हाथ सभी को
सभी जानते हैं सच.
धन, भू, पद, यश चाहें नित नव
कौन सका इनसे बच?
जब, जो, जैसा जहाँ घटे
हम साक्ष्य भाव से देखें.
कर्ता कभी न खुद को मानें
प्रभु को कर्ता लेखें.
हम हैं मात्र निमित्त,
वही है रचने-करनेवाला.
जिससे जो चाहे करवा ले
कोई न बचनेवाला.
ठकुरसुहाती उसे न भाती
लोभ, न लालच घेरे.
भोग लगा खाते हम खुद ही
मन से उसे न टेरें.
कंकर-कंकर में वह है तो
हम किससे टकराते?
किसके दोष दिखाते हरदम?
किससे हैं भय खाते?
द्वैत मिटा, अद्वैत वर सकें
तभी मिल सके दृष्टि.
तिनका-तिनका अपना लागे
अपनी ही सब सृष्टि.
कर अमान्य मान्यता अन्य की
उसका हृदय दुखाएँ.
कहें संकुचित सदा अन्य को
फिर हम हँसी उड़ायें..
कितना है यह उचित?,
स्वयं सोचें, विचार कर देखें.
अपने लक्ष्य-प्रयास विवेचें,
व्यर्थ अन्य को लेखें..
जिनके जैसे पंख,
वहीं तक वे पंछी उड़ पायें.
ऊँचा उड़ें,न नीचा
उड़नेवाले को ठुकराएँ..
जैसा चाहें रचें,
करे तारीफ जिसे भायेगा..
क्या कटाक्ष-आक्षेप तनिक भी
नेह-प्रीत लाएगा??..
सृजन नहीं मसखरी,न लेखन
द्वेष-भाव का जरिया.
सद्भावों की सतत साधना
रचनाओं की बगिया..
शत-शत पुष्प विकसते देखे
सबकी अलग सुगंध.
कभी न भँवरा कहे: 'मिटे यह,
उस पर हो प्रतिबन्ध.'
कभी न एक पुष्प को देखा
दे दूजे को टीस,
व्यंग्य-भाव से खीस निपोरे
जो वह दिखे कपीश..
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित
चार दिनों का साथ.
जीते-जी दें कष्ट
बिछुड़ने पर करते नत माथ?
माया है यह, वहम अहम् का
इससे यदि बच पाये.
शब्द-सुतों का पग-प्रक्षालन
करे 'सलिल' तर जाये.
******
५-९-२०१५

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

kavita: purush

एक रचना 
पुरुष 
*
तुम्हें न देखूँ 
तो शिकायत 
किया करता हूँ अदेखा
पुरुष हूँ न.
.
तुम्हें देखूँ
तो शिकायत
देखता हूँ
पुरुष हूँ न.
.
काश तुम लो
आँख मुझसे फेर
मुझको कर अदेखा
जी सकूँ मैं चैन से
पुरुष हूँ न.
***
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

बुधवार, 20 जून 2018

व्यंग्य रचना

व्यंग्य रचना:
अभिनंदन लो 
*
युग-कवयित्री! अभिनंदन लो....
*
सब जग अपना, कुछ न पराया
शुभ सिद्धांत तुम्हें यह भाया.
गैर नहीं कुछ भी है जग में-
'विश्व एक' अपना सरमाया.
जहाँ मिले झट झपट वहीं से
अपने माथे यश-चंदन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
मेरा-तेरा मिथ्या माया
दास कबीरा ने बतलाया.
भुला परायेपन को तुमने
गैर लिखे को कंठ बसाया.
पर उपकारी अन्य न तुमसा
जहाँ रुचे कविता कुंदन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
हिमगिरी-जय सा किया यत्न है
तुम सी प्रतिभा काव्य रत्न है.
चोरी-डाका-लूट कहे जग
निशा तस्करी मुदित-मग्न है.
अग्र वाल पर रचना मेरी
तेरी हुई, महान लग्न है.
तुमने कवि को धन्य किया है
खुद का खुद कर मूल्यांकन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
कवि का क्या? 'बेचैन' बहुत वह
तुमने चैन गले में धारी.
'कुँवर' पंक्ति में खड़ा रहे पर
हो न सके सत्ता अधिकारी.
करी कृपा उसकी रचना ले
नभ-वाणी पर पढ़कर धन लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
*
तुम जग-जननी, कविता तनया
जब जी चाहा कर ली मृगया.
किसकी है औकात रोक ले-
हो स्वतंत्र तुम सचमुच अभया.
दुस्साहस प्रति जग नतमस्तक
'छद्म-रत्न' हो, अलंकरण लो
युग-कवयित्री अभिनंदन लो....
***
टीप: श्रेष्ठ कवि की रचना को अपनी बताकर २३-५-२०१८ को प्रात: ६.४० बजे काव्य धारा कार्यक्रम में आकाशवाणी पर प्रस्तुत कर धनार्जन का अद्भुत पराक्रम करने के उपलक्ष्य में यह रचना समर्पित उसे ही जो इसका सुपात्र है)

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

कविता

कविता:
अहसास
*
'अहसास' तो अहसास है
वह छोटा-बड़ा
या पतला-मोटा नहीं होता.
'अनुभूति' तो अनुभूति है
उसका मजहब या धर्म नहीं होता.
'प्रतीति' तो प्रतीति है
उसका दल या वाद नहीं होता.
चाहो तो 'फीलिंग' कह लो
लेकिन कहने से पहले 'फील' करो.
किसी के घाव को हील करो.
कभी 'स्व' से आरम्भकर
'सर्व' की प्राप्ति करो.
अब तक अपने लिए जिए
अब औरों के लिए मरो.
देखोगे,
मौत का भय मिट गया है.
अँधेरे का घेरा सिमट गया है.
विष रुका गया है कंठ में
और तुम
हो गए हो नीलकंठ'
***

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

kavita- baad deepawali ke

गीति रचना :
बाद दीपावली के... कविता, दीवाली के बाद 
संजीव
*
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
कह रहे 'अंत भी एक प्रारम्भ है.
खेलकर अपनी पारी सचिन की तरह-
मैं सुखी हूँ, न कहिये उपालम्भ है.
कौन शाश्वत यहाँ?, क्या सनातन यहाँ?
आना-जाना प्रकृति का नियम मानिए.
लाये क्या?, जाए क्या? साथ किसके कभी
कौन जाता मुझे मीत बतलाइए?
ज्यों की त्यों क्यों रखूँ निज चदरिया कहें?
क्या बुरा तेल-कालिख अगर कुछ गहें?
श्वास सार्थक अगर कुछ उजाला दिया,
है निरर्थक न किंचित अगर तम पिया.
*
जानता-मानता कण ही संसार है,
सार किसमें नहीं?, कुछ न बेकार है.
वीतरागी मृदा - राग पानी मिले
बीज श्रम के पड़े, दीप बन, उग खिले.
ज्योत आशा की बाली गयी उम्र भर.
तब प्रफुल्लित उजाला सकी लख नज़र.
लग न पाये नज़र, सोच कर-ले नज़र
नोन-राई उतारे नज़र की नज़र.
दीप को झालरों की लगी है नज़र
दीप की हो सके ना गुजर, ना बसर.
जो भी जैसा यहाँ उसको स्वीकार कर
कर नमन मैं हुआ हूँ पुनः अग्रसर.
*
बाद दीपावली के सहेजो नहीं,
तोड़ फेंकों, दिए तब नये आयेंगे.
तुम विदा गर प्रभाकर को दोगे नहीं
चाँद-तारे कहो कैसे मुस्कायेंगे?
दे उजाला चला, जन्म सार्थक हुआ.
दुख मिटे सुख बढ़े, गर न खेलो जुआ.
मत प्रदूषण करो धूम्र-ध्वनि का, रुको-
वृक्ष हत्या करे अब न मानव मुआ.
तीर्थ पर जा, मनाओ हनीमून मत.
मुक्ति केदार प्रभु से मिलेगी 'सलिल'
पर तभी जब विरागी रहो राग में
और रागी नहीं हो विरागी मनस।
इसलिए हैं विकल मानवों के हिये।
चल न पाये समय पर रुके भी नहीं
अलविदा कह चले, हरने तम आयें फिर
बाद दीपावली के दिए जो बुझे.
*
salil.sanjiv@gmail.com

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

kavita- diya

दिया :
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
***********************
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kavita- diya

एक कविता:
दिया
संजीव 'सलिल'
*
राजनीति क साँप
लोकतंत्र के
मेंढक को खा रहा है.
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है.
जब तक जनता
मूक होकर सहे जाएगी.
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चरे जाएगी..
एकता की लाठी ले
भैंस को भगाओ अब.
बहुत अँधेरा देखा
दीप एक जलाओ अब..
*********************
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रविवार, 1 अक्टूबर 2017

एक रचना

एक रचना-
*
हल्ला-गुल्ला,  शोर-शराबा,
मस्ती-मौज, खेल-कूद, मनरंजन,
डेटिंग करती फ़ौज.
लेना-देना, बेच-खरीदी,
कर उपभोग. नेता-टी.व्ही.
कहते जीवन-लक्ष्य यही.

कोई न कहता लगन-परिश्रम,
संयम-नियम, आत्म अनुशासन,
कोशिश राह वरो.
तज उधार, कर न्यून खर्च
कुछ बचत करो.
उत्पादन से मिले सफ़लता
वही करो.

उत्पादन कर मुक्त लगे कर उपभोगों पर.
नहीं योग पर रोक लगे केवल रोगों पर.
तब सम्भव रावण मर जाए.
तब सम्भव दीपक जल पाए.
...

बुधवार, 27 सितंबर 2017

kavita

कविता:
शेर के बाड़े में
कूदा आदमी
शेर था खुश 
कोई तो है जो
न घूरे दूर से
मुझसे मिलेगा
भाई बनकर.
निकट जा देखा
बँधी घिघ्घी
थी उसकी
हाथ जोड़े
गिड़गिड़ाता:
'छोड़ दो'
दया आयी
फेरकर मुख
चल पड़ा
नरसिंह नहीं
नर-मेमने
जा छोड़ता हूँ
तब ही लगा
पत्थर अचानक
हुआ हमला
क्यों सहूँ मैं?
आत्मरक्षा
है सदा
अधिकार मेरा
सोच मारा
एक थप्पड़
उठा गर्दन
तोड़ डाली
दोष केवल
मनुज का है
***
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