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शुक्रवार, 23 जून 2017

mukatak

🌱 मुक्तक 🍀🌵
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हम हैं धुर देहाती शहरी दंद-फंद से दूर पुलकित होते गाँव हेर नभ, ऊषा, रवि, सिंदूर कलरव-कलकल सुन कर मन में भर जाता है हर्ष किलकिल तनिक न भाती, घरवाली लगती है हूर. * तुम शहरी बंदी रहते हो घर की दीवारों में पल-पल घिरे हुए अनजाने चोरों, बटमारों में याद गाँव की छाँव कर रहे, पनघट-अमराई भी सोच परेशां रहते निश-दिन जलते अंगारों में **********************************************

बुधवार, 17 अगस्त 2016

laghukatha

लघुकथा-
टूटती शाखें
*
नुक्कड़ पर खड़े बरगद की तरह बब्बा भी साल-दर-साल होते बदलावों को देखकर मौन रह जाते थे। परिवार में खटकते चार बर्तन अब पहले की तरह एक नहीं रह पा रहे थे। कटोरियों को थाली से आज़ादी चाहिए थी तो लोटे को बाल्टी की बन्दिशें अस्वीकार्य थीं। फिर भी बरसों से होली-दिवाली मिल-जुलकर मनाई जा रही थी।
राजनीति के राजमार्ग के रास्ते गाँव में घुसपैठ कर चुका शहर ने टाट पट्टियों पर बैठकर पढ़ते बच्चे-बच्चियों को ऐसा लुभाया कि सुनहरे कल के सपनों को साकार करने के लिए अपनों को छोड़कर, शहर पहुँच कर छात्रावसों के पिंजरों में कैद हो गए।
कुछ साल बाद कुछ सफलता के मद में और शेष असफलता की शर्म से गाँव से मुँह छिपाकर जीने लगे। कभी कोई आता-जाता गाँववाला किसी से टकरा जाता तो राम राम दुआ सलाम करते हुए समाचार देता तो समाचार न मिलने को कुशल मानने के आदी हो चुके बब्बा घबरा जाते। ये समाचार नए फूल खिलने के कम हो होते थे जबकि चाहे जब खबरें बनती रहती थीं टूटती शाखें।
***

शनिवार, 22 नवंबर 2014

navgeet:

नवगीत:

वृक्ष ही हमको हुआ 
स्टेडियम है 

शहर में साधन हजारों
गाँव में आत्मबल 
यहाँ अपनापन मिलेगा 
वहाँ है हर ओर छल
हर जगह जय समर्थों की 
निबल की खातिर 
नियम है 

गगन छूते भवन लेकिन 
मनों में स्थान कम 
टपरियों में संग रहते 
खुशी, जीवट, हार, गम 
हर जगह जय अनर्थों की 
मृदुल की खातिर 
प्रलय है

***
 
  

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

गीत : किस तरह आये बसंत?... --संजीव 'सलिल'

गीत : किस तरह आये बसंत?... --संजीव 'सलिल'

गीत :                                                                                                                                                                              

किस तरह आये बसंत?...

मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.

जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.

खुशी बिदा हो गयी'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
*

सोमवार, 17 मई 2010

दोहा का रंग : छत्तीसगढ़ी के संग ---संजीव वर्मा 'सलिल'

दोहा का रंग : छत्तीसगढ़ी के संग

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
महतारी छत्तिसगढ़ी, बार-बार परनाम.
माथ नबावों तोरला, बनहीं बिगरे काम..
*
बंधे रथे सुर-ताल से, छत्तिसगढ़िया गीत.
किसिम-किसिम पढ़तच बनत, गारी होरी मीत..
*

कब परधाबौं अरघ दे, सुरज देंव ल गाँव.
अँधियारी मिल दूर कर, छा ले छप्पर छाँव..
*
सुख-सुविधा के लोभ बर, कस्बा-कस्बा जात.
डउका-डउकी बाँट-खुट, दू-दू दाने खात..
*
खुल्ली आँखी निहारत, हन पीरा-संताप.
भोगत हन बदलाव चुप, आँचर बर मुँह ढांप..
*   
कस्बा-कस्बा जात हे, लोकाचार निहार.
टुटका-टोना-बैगई,  झांग-पाग उतार..
*
शोषण अउर अकाल बर, गिरवी भे घर-घाट.
खेत-खार खाता लीहस, निगल- सेठ के ठाठ..
*
हमर देस के गाँव मा, सुनहा सुरज बिहान.
अरघ देहे बद अंजुरी, रीती- रोय किसान..
*

जिनगानी के समंदर, गाँव-गँवई के रीत.                      
जिनगी गुजरत हे 'सलिल', कुरिय-कुंदरा मीत..
*
महतारी भुइयाँ असल, बंदत हौं दिन-रात.
दाई! पइयां परत हौं, मूँड़ा पर धर हात..
*
जाँघर टोरत सेठ बर, चिथरा झूलत भेस.
मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस..
*
बाँग देही कुकराकस, जिनगी बन के छंद.
कुररी कस रोही 'सलिल', 'मावस दूबर चंद..
*
छेंका-बांधा बहुरिया, सारी-लुगरा संग.
अंतस मं किलकत-खिलत, हँसत- गाँव के रंग..
*
गुनगुनात-गावत-सुनत, अइसन हे दिन-रात.
दोहा जिनगी के चलन, जुरे-जुरे से गात..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

गीतिका: झुलस रहा गाँव ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'


नवगीत :
झुलस रहा गाँव 
संजीव 'सलिल'
*
झुलस रहा गाँव  
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा हुआ है माल में नक़ल..

गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..

'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com