छत्तीसगढ़ी में दोहा:
--संजीव 'सलिल'
हमर देस के गाँव मा, सुन्हा सुरुज विहान.
अरघ देहे बद अंजुरी, रीती रोय किसान..
जिनगानी के समंदर, गाँव-गँवई के रीत.
जिनगी गुजरत हे 'सलिल', कुरिया-कुंदरा मीत..
महतारी भुइयाँ असल, बंदत हौं दिन-रात.
दाई! पैयाँ परत हौं. मूंडा पर धर हात..
जाँघर तोड़त सेठ बर, चिथरा झूलत भेस.
मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस..
बाँग देही कुकराकस, जिनगी बन के छंद.
कुररी कस रोही 'सलिल', मावस दूबर चंद..
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divyanarmada.blogspot.com
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
छत्तीसगढ़ी में दोहा: --संजीव 'सलिल'
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