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सोमवार, 22 दिसंबर 2014

dhoop-chhanv

धूप -छाँव:

गुजरे वक़्त में कई वाकये मिलते हैं जब किसी साहित्यकार की रचना को दूसरे ने पूरा किया या एक की रचना पर दूसरे ने प्रति-रचना की. अब ऐसा काम नहीं दिखता। संयोगवश स्व. डी. पी. खरे द्वारा गीता के भावानुवाद को पूर्ण करने का दायित्व उनकी सुपुत्री श्रीमती आभा खरे द्वारा सौपा गया. किसी अन्य की भाव भूमि पर पहुँचकर उसी शैली और छंद में बात को आगे बढ़ाना बहुत कठिन मशक है. धूप-छाँव में हेमा अंजुली जी के कुछ पंक्तियों से जुड़कर कुछ कहने की कोशिश है. आगे अन्य कवियों से जुड़ने का प्रयास करूंगा ताकि सौंपे हुए कार्य के साथ न्याय करने की पात्रता पा सकूँ. पाठक गण निस्संकोच बताएं कि पूर्व पंक्तियों और भाव की तारतम्यता बनी रह सकी है या नहीं? हेमा जी को उनकी पंक्तियों के लिये धन्यवाद।  

हेमा अंजुली 
इतनी शिद्दत से तो उसने नफ़रत भी नही की ....
जितनी शिद्दत से हमने मुहब्बत की थी.
सलिल: 
अंजुली में न नफरत टिकी रह सकी 
हेम पिघला फसल बूँद पल में गयी 
साथ साये सरीखी मोहब्बत रही-
सुख में संग, छोड़ दुख में 'सलिल' छल गयी  
*
हेमा अंजुली
तुम्हारी वो एक टुकड़ा छाया मुझे अच्छी लगती है
जो जीवन की चिलचिलाती धूप में
सावन के बादल की तरह
मुझे अपनी छाँव में पनाह देती है
सलिल 
और तुम्हारी याद 
बरसती की बदरी की तरह 
मुझे भिगाकर अपने आप में सिमटना 
सम्हलना सिखा आगे बढ़ा देती है. 
*
हेमा अंजुली
कभी घटाओं से बरसूंगी ,
कभी शहनाइयों में गाऊंगी,
तुम लाख भुलाने कि कोशिश कर लो,
मगर मैं फिर भी याद आऊंगी ...
सलिल 
लाख बचाना चाहो
दामन न बचा पाओगे 
राह पर जब भी गिरोगे 
तुम्हें उठाऊंगी 
*
हेमा अंजुली
छाने नही दूँगी मैं अँधेरो का वजूद
अभी मेरे दिल के चिराग़ बाकी हैं
.
सलिल
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे 
रूह में खनक के देखो कि आग बाकी है  
*
हेमा अंजुली
सूरत दिखाने के लिए तो 
बहुत से आईने थे दुनिया में 
काश कि कोई ऐसा आईना होता 
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण 
बस इसलिए ही आइना सूरत रहा है देख 
*

.