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बुधवार, 2 दिसंबर 2009

नवगीत: पलक बिछाए / राह हेरते... संजीव 'सलिल'

नवगीत:




आचार्य संजीव 'सलिल'



पलक बिछाए

राह हेरते...

*

जनगण स्वामी

खड़ा सड़क पर.

जनसेवक

जा रहा झिड़ककर.

लट्ठ पटकती

पुलिस अकड़कर.

अधिकारी

गुर्राये भड़ककर.

आम आदमी

ट्रस्ट-टेरते.

पलक बिछाए

राह हेरते...

*

लोभ,

लोक-आराध्य हुआ है.

प्रजातंत्र का

मंत्र जुआ है.

'जय नेता की'

करे सुआ है.

अंत न मालुम

अंध कुआ है.

अन्यायी मिल

मार-घेरते.

पलक बिछाए

राह हेरते...

*

मुंह में राम

बगल में छूरी.

त्याग त्याज्य

आराम जरूरी.

जपना राम

हुई मजबूरी.

जितनी गाथा

कहो अधूरी.

अपने सपने

'सलिल' पेरते.

पलक बिछाए

राह हेरते...

*

नवगीत: जब तक कुर्सी, तब तक ठाठ...

नवगीत:

जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
नाच जमूरा,
नचा मदारी.
सत्ता भोग,
करा बेगारी.
कोइ किसी का
सगा नहीं है.
स्वार्थ साधने
करते यारी.
फूँको नैतिकता
ले काठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बेच-खरीदो
रोज देश को.
अस्ध्य मान लो
सिर्फ ऐश को.
वादों का क्या
किया-भुलाया.
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को.
झूठ आचरण
सच का पाठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
मन पर तन ने
राज किया है.
बिजली गायब
बुझा दिया है.
सच्चाई को
छिपा रहे हैं.
भाई-चारा
निभा रहे हैं.
सोलह कहो
भले हो साठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*