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शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

पर्यावरण गीत: किस तरह आये बसंत

पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
संजीव
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.
जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

geet

एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-पुंज वह जो झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
***********************

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

navgeet

एक रचना -
भुन्सारे चिरैया
*
नई आई,
बब्बा! नई आई
भुन्सारे चरैया नई आई
*
पीपर पै बैठत थी, काट दओ कैंने?
काट दओ कैंने? रे काट दओ कैंने?
डारी नें पाई तो भरमाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
सैयां! नई आई
*
टला में पीयत ती, घूँट-घूँट पानी
घूँट-घूँट पानी रे घूँट-घूँट पानी
टला खों पूरो तो रिरयाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
गुइयाँ! नई आई
*
फटकन सें टूंगत ती बेर-बेर दाना
बेर-बेर दाना रे बेर-बेर दाना
सूपा खों फेंका तो पछताई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
लल्ला! नई आई
*
८-२-२०१६ 

बुधवार, 31 जुलाई 2013

paryavaran geet: apradhee -SANJIV

पर्यावरण गीत:
अपराधी संजीव
*
हम तेरे अपराधी गंगा, हम तेरे अपराधी
ज्यों-ज्यों दवा कर रहे, त्यों-त्यों बढ़ती जाती व्याधी …
*
बढ़ती है तादाद हमारी, बढ़ती रोज जरूरत,
मन मंदिर में पूज रहे हैं, तज आस्थाएँ मूरत।
सूरत अपनी करें विरूपित, चाहें सुधरे सूरत-
कथनी-करनी भिन्न, ज़िन्दगी यह कैसी आराधी…
*
भू माता की छाती पर, दल दाल नहीं शर्माते,
वन काटें, गिरि खोद, पूर सर करनी पर इतराते।
भू डोले, नभ-वक्ष फटे, हम करते हैं अनदेखी-
निर्माणों का नाम, नाश की कला 'सलिल' ने साधी…
*
बिजली गिरती अपनों पर, हम हाहाकार मचाते,
भुला कच्छ-केदार, प्रकृति से तोड़ रहे हैं नाते।
मानव हैं या दानव? सोचें, घटा तनिक आबादी-
घटा मुसीबत की हो पाए तभी गगन में आधी…
*

मंगलवार, 28 जून 2011

पर्यावरण गीत : हुआ क्यों मानव बहरा? -- संजीव 'सलिल'

पर्यावरण गीत :
हुआ क्यों मानव बहरा?
संजीव 'सलिल'
*
हुआ क्यों मानव बहरा?...

कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़,  न लेकिन कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?...

कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लगता है भयभीत, नीर है ठहरा-ठहरा.....

लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
कहीं न मिलता कुआँ, मधुर जल गहरा-गहरा....

शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..
जलसंरक्षण कर, बारिश में व्यर्थ बहा मत.
अंजुरी भर-भर पान किये जा जल है अमृत.
हर सर, नदी, ताल पर दे अब पहरा-पहरा.....
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