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दिवाली के संग : दोहा का रंग संजीव 'सलिल' * दिया चन्द्र को साँझ ने, दीपक का उपहार. निशा जली, काली हुई, कौन बचावनहार?? * अँधियारे ने धरा पर, चाहा था अधिकार. तिलक लगा भू ने दिया, दीपक बंदनवार.. * काश दीप से सीख लें, हम जीवन-व्यवहार. मोह न आरक्षण करें, उजियारें संसार.. * घर-अंगना, तन धो लिया, रूप संवार-निखार. अपने मन का मैल भी, प्रियवर कभी बुहार.. * दीपशिखा का रूप लाख, हो दीवानावार. परवाना खुद जल-मरा, लेकिन मिला न प्यार.. * मिले प्यार को प्यार तब, जब हो प्यार निसार. है प्रकाश औ' ज्योति का, प्यार सांस-सिंगार.. * आयी आकर चली गयी, दीवाली कह यार. दीवाला निकले नहीं, कर इसका उपचार.. * श्री गणेश-श्री लक्ष्मी, गैर पुरुष-पर नार. पूजें, देख युवाओं को, क्यों है हाहाकार?? * पुरा-पुरातन देश है, आज महज बाज़ार. चीनी झालर से हुआ, है कुम्हार बेकार.. * लीप-पोतकर कर लिया, जगमग सब घर-द्वार. 'सलिल' न सोचा मिट सके, मन में पड़ी दरार.. * सब जग जगमग हो गया, अब मन भी उजियार. दीनबन्धु बनकर 'सलिल', पंकिल चरण पखार.. **********

दोहा सलिला/मुक्तिका दिवाली के संग : दोहा का रंग संजीव 'सलिल'                                                    * दि...