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सोमवार, 10 दिसंबर 2018

soratha

 एक सोरठा: 
उद्यम से हो सिद्ध, कार्य मनोरथ से नहीं।
'सलिल, लक्ष्य हो बिद्ध, सतत निशाना साधिए।।
*

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

doha, soratha, rola, kundaliya

कुण्डलिया का वृत्त है दोहा-रोला युग्म 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[लेखक परिचय: जन्म: २०-८-१०५२, मंडला मध्य प्रदेश। शिक्षा: डी. सी. ई., बी. ई. एम्. आई. ई., एम्. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकरिता। प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव भक्ति गीत, २. भूकंप के साथ जीना सीखें लोकोपयोगी तकनीकी, ३. लोकतंत्र का मकबरा कवितायेँ, ४. मीत मेरे कवितायेँ, ५. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत, ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य,  काव्यानुवाद: सौरभ:, यदा-कदा। संपादित: ९ पुस्तकें, १६ स्मारिकाएँ, ८ पत्रिकाएँ। ३६ पुस्तकों में भूमिका लेखन, ३०० से अधिक समीक्षाएँ, अंतरजाल पर अनेक ब्लॉग, फेसबुक पृष्ठ ६००० से अधिक रचनाएँ, हिंदी में तकनीकी शोध लेख, छंद शास्त्र में विशेष रूचि। मेकलसुता पत्रिका में दोहा के अवदान पर पर ३ वर्ष तक लेखमाला, हिन्दयुग्म.कोम में छंद लेखन पर २ वर्ष तथा साहित्यशिल्पी.कोम में ८० अलंकारों पर लेखमाला। वर्तमान में साहित्यशिल्पी में 'रसानंद है छंद नर्मदा' लेखमाला में ८० छंद प्रकाशित। संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
*

कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३ पर यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण, रोला का प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंद हैं। इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते। 
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए। 
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है। 
उदाहरण: 
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।। 
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए। 

दोहा और सोरठा:
दोहा की तरह सोरठा भी अर्ध सम मात्रिक छंद है. इसमें भी चार चरण होते हैं. प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व  चतुर्थ चरण सम कहे जाते हैं. सोरठा में दोहा की तरह दो पद (पंक्तियाँ) होती हैं. प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं.  दोहा और सोरठा में मुख्य अंतर गति तथा यति में है. दोहा में १३-११ पर यति होती है जबकि सोरठा में ११ - १३ पर यति होती है. यति में अंतर के कारण गति में भिन्नता होगी ही.
दोहा के सम चरणों में गुरु-लघु पदांत होता है, सोरठा में यह पदांत बंधन विषम चरण में होता है. दोहा में विषम चरण के आरम्भ में 'जगण' वर्जित होता है जबकि सोरठा में सम चरणों में. इसलिए कहा जाता है-

दोहा उल्टे सोरठा, बन जाता - रच मीत.
दोनों मिलकर बनाते, काव्य-सृजन की रीत.

कहे सोरठा दुःख कथा:

सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान को पूरी मार्मिकता के साथ गाकर दोहा लोक मानस में अम्र हो गया। कथा यह कि कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया. मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ छंद) में गाते आ रहे हैं-

वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या. 

दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल की अपनी भाषा होती है और आज के दोहाकार को आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें- 

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.

असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.
संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय. 


बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.
हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास 


पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.
सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.


अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.

रोला को लें जान
इस लेखमाला का श्रीगणेश रोला छंद से किया जा रहा है। रोला एक चतुश्पदीय अर्थात चार पदों (पंक्तियों ) का छंद है। हर पद में दो चरण होते हैं। रोला के ४ पदों तथा ८ चरणों में ११ - १३ पर यति होती है. यह दोहा की १३ - ११ पर यति के पूरी तरह विपरीत होती है ।हर पड़ में सम चरण के अंत में गुरु ( दीर्घ / बड़ी) मात्रा होती है ।
११-१३ की यती सोरठा में भी होती है। सोरठा दो पदीय छंद है जबकि रोला चार पदीय है। ऐसा भी कह सकते हैं के दो सोरठा मिलकर रोला बनता है। आइये, रोला की कुछ भंगिमाएँ देखें-
सब होवें संपन्न, सुमन से हँसें-हँसाये।
दुखमय आहें छोड़, मुदित रह रस बरसायें॥
भारत बने महान, युगों तक सब यश गायें।
अनुशासन में बँधे रहें, कर्त्तव्य निभायें॥
**************
भाव छोड़ कर, दाम, अधिक जब लेते पाया।
शासन-नियम-त्रिशूल झूल उसके सर आया॥
बहार आया माल, सेठ नि जो था चांपा।
बंद जेल में हुए, दवा बिन मिटा मुटापा॥ --- ओमप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
*****************
नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला- रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल-तारे मंडल हैं।
बंदी जन खग-वृन्द शेष फन सिहासन है॥
****************
रोला को लें जान, छंद यह- छंद-प्रभाकर।
करिए हँसकर गान, छंद दोहा- गुण-आगर॥
करें आरती काव्य-देवता की- हिल-मिलकर।
माँ सरस्वती हँसें, सीखिए छंद हुलसकर॥ ---'सलिल'

रोला और सोरठा 

सोरठा में दो पद, चार चरण, प्रत्येक पद-भार २४ मात्रा तथा ११ - १३ पर यति रोला की ही तरह होती है किन्तु रोला में विषम चरणों में गुरु-लघु चरणान्त बंधन नहीं होता जबकि सोरठा में होता है. सोरठा तथा रोला में दूसरा अंतर पदान्त का है. रोला के पदांत या सम चरणान्त में दो गुरु होते हैं जबकि सोरठा में ऐसा होना अनिवार्य नहीं है.

सोरठा विषमान्त्य छंद है, रोला नहीं अर्थात सोरठा में पहले - तीसरे चरण के अंत में तुक साम्य अनिवार्य है, रोला में नहीं.

दोहा के पहले-दूसरे और तीसरे-चौथे चरणों का स्थान परस्पर बदल दें अर्थात दूसरे को पहले की जगह तथा पहले को दूसरे की जगह रखें. इसी तरह चौथे को तीसरे की जाह तथा तीसरे को चौथे की जगह रखें तो रोला बन जायेगा. सोरठा में इसके विपरीत करें तो दोहा बन जायेगा. दोहा और सोरठा के रूप परिवर्तन से अर्थ बाधित न हो यह अवश्य ध्यान रखें।  

दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.
करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.

सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.
अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.

सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.
है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?

दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.
ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?

दोहा तथा रोला के योग से कुण्डलिनी या कुण्डली छंद बनता है.

उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़। 
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है,  है वहीं, सच मानो अंधेर।।
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
करें देश हित कार्य, सियासत भूल हर समय।।    
*
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
दोहा:
समय-समय की बात है
१११ १११ २ २१ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
समय-समय का फेर।
१११ १११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
जहाँ देर है, है वहीं
१२ २१ २ १२ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
सच मानो अंधेर
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
रोला:
सच मानो अंधेर (दोहा के अंतिम चरण का दोहराव)
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
मचा संसद में हुल्लड़
१२ २११ २ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु [प्रभाव गुरु गुरु] के साथ यति
हर सांसद को भाँग 
११ २११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
पिला दो भर-भर कुल्हड़
१२ २ ११ ११ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु (प्रभाव गुरु गुरु) के साथ यति
भाँग चढ़े मतभेद 
२१ १२ ११२१  = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दूर हो, करें न संशय
२१ २ १२ १ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु के साथ यति
करें देश हित कार्य 
करें देश-हित कार्य = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
सियासत भूल हर समय
१२११ २१ ११ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु के साथ यति
उदाहरण -
०१. कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
०२. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़। 
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत। 
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०३. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०४. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०५. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०६. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।। 
(इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा। 
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०७. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।। 
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन। 
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।। 
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर 
कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०८. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट 
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट 
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०९. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।। 
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
१०. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।

***

मंगलवार, 10 अक्टूबर 2017

haiku, kashanika, janak chhand, soratha, sher, doha, muktak

हाइकु:
ईंट रेत का 
मंदिर मनहर 
देव लापता
क्षणिका :
*
पुज परनारी संग
श्री गणेश गोबर हुए.
रूप - रूपए का खेल,
पुजें परपुरुष साथ
पर
लांछित हुईं न लक्ष्मी
***
जनक छंद :
नोबल आया हाथ जब 
उठा गर्व से माथ तब 
आँख खोलना शेष अब
सोरठा :
घटे रमा की चाह, चाह शारदा की बढ़े 
गगन न देता छाँह, भले शीश पर जा चढ़े
***
शे'र : 
लिए हाथों में अपना सर चले पर 
नहीं मंज़िल को सर कर सके अब तक
दोहा :
तुलसी जब तुल सी गयी, नागफनी के साथ
वह अंदर यह हो गयी, बाहर विवश उदास.
मुकतक :
मेरा गीत शहीद हो गया, दिल-दरवाज़ा नहीं खुला
दुनियादारी हुई तराज़ू, प्यार न इसमें कभी तुला
राह देख पथराती अखियाँ, आस निराश-उदास हुई
किस्मत गुपचुप रही देखती, कभी न पाई विहँस बुला
***

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

doha-soratha

आज का दोहा
*
मुल्ला जी ने मुर्गियाँ, जमकर करीं हलाल।
अब न हाथ लग सकेंगी, मन में आज मलाल।।
*
मुल्ला चाहें हलाला, इज़्ज़त करें हलाक़।
गयी हाथ से औरतें, अगर न रहा तलाक़।।
*
आज का सोरठा
घर का मालिक आज, महीनों बाद न पिट रहा।
नहीं पद रही डाँट, रखे हुए व्रत मालकिन।।
*
आज तनिक आराम, बेलन-झाड़ू को मिला।
बार-बार हो तीज, मन रहे हैं ईश से।।
*

  

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

doha, soratha, rola, kavya chhand, dwpadi

दोहा
जैसे ही अनुभूति हो, कर अभिव्यक्ति तुरंत
दोहा-दर्पण में लखें, आत्म-चित्र कवि-संत
*
कुछ प्रवास, कुछ व्यस्तता, कुछ आलस की मार
चाह न हो पाता 'सलिल', सहभागी हर बार
*

सोरठा
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
रोला
सब स्वार्थों के मीत, किसका कौन सगा यहाँ?
धोखा देते नित्य, मिलता है अवसर जहाँ
राजनीति विष बेल, बोकर-काटे ज़हर ही
कब देखे निज टेंट, कुर्सी ढाती कहर ही
*
काव्य छंद
सबसे प्यारा पूत, भाई जाए भाड़ में
छुरा दिया है भोंक, मजबूरी की आड़ में
नाम मुलायम किंतु सेंध लगाकर बाड़ में
खेत चराते आप, अपना बेसुध लाड़ में
*  
द्विपदी
पत्थर से हर शहर में, मिलते मकां हजारों
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

doha, soratha, mukatak

दोहा सलिला 
*
मन मीरां तन राधिका,तरें जपें घनश्याम।
पूछ रहे घनश्याम मैं जपूँ कौन सा नाम?
*
जिसको प्रिय तम हो गया, उसे बचाए राम।
लक्ष्मी-वाहन से सखे!, बने न कोई काम।।
*
प्रिय तम हो तो अमावस में मत बालो दीप।
काला कम्बल ओढ़कर, काजल नैना लीप।।
*
प्रियतम बिन कैसे रहे, मन में कहें हुलास?
विवश अधर मुस्का रहे, नैना मगर उदास।।
*
चाह दे रही आह का, अनचाहा उपहार।
वाह न कहते बन रहा, दाह रहा आभार।।
*
बिछुड़े आनंदकंद तो, छंद आ रहा याद।
बेचारा कब से करे, मत भूलो फरियाद।।
*
निठुर द्रोण-मूरत बने, क्यों स्नेहिल संजीव। 
सलिल सलिल सा तरल हो, मत करिए निर्जीव।।  
*
सोरठा 
मन बैठा था मौन, लिखवाती संगत रही। 
किसका साथी कौन?, संग खाती पंगत रही।।
*  
मुक्तक 
मन जी भर करता रहा, था जिसकी तारीफ 
उसने पल भर भी नहीं, कभी करी तारीफ
जान-बूझ जिस दिन नहीं, मन ने की तारीफ 
उस दिन वह उन्मन हुई, कर बैठी तारीफ   
*

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

karyashala

कार्य शाला 
निम्न पंक्ति से सोरठा पूरा करें 
मिले न मन को चैन, मीठी वाणी सुने बिन
*
मेरे प्यासे नैन, रात-रात भर जागते -मिथलेश बड़गैयां 
*
मिलें नैन से नैन, सोचे दिल धड़कनें गिन -संजीव
*

karyashala- doha/soratha

कार्यशाला 
*
दोहा 
मीठी वाणी सुने बिन, मिले न मन को चैन। 
बढ़ें धड़कनें सोचकर, कब लड़ पाएँ नैन?
२ पद (पंक्तियाँ), चार भाग (चरण)
प्रत्येक पद १३ + ११ = २४ मात्राएँ
[विषम चरण पहला और तीसरा = १३ मात्राएँ
सम चरण दूसरा और चौथा = ११ मात्राएँ
सम चरण के अंत में समान तुक व गुरु-लघु (जैसे चैन, नैन) आवश्यक।
विषम चरण के आरम्भ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) न हो।]
सम चरण के अंत में समान तुक का बन्धन नहीं है।
*
सोरठा
मिले न मन को चैन, मीठी वाणी सुने बिन।
कब लड़ पाएँ नैन?, बढ़ें धड़कनें सोचकर।।
[प्रत्येक पद ११ + १३ = २४ मात्राएँ
विषम चरण पहला और तीसरा = ११ मात्राएँ
सम चरण दूसरा और चौथा = १३ मात्राएँ
विषम चरण के अंत में समान तुक व गुरु-लघु (जैसे चैन, नैन) आवश्यक।
सम चरण के आरम्भ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) न हो।]
विषम चरण के अंत में समान तुक का बन्धन नहीं है।
*
टीप -
हर दोहा सोरठा में, और हर सोरठा दोहा में नहीं बदला जा सकता।
ऐसा केवल तभी किया जा सकता है जब सार्थकता बनी रहे।
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गुरुवार, 21 जुलाई 2016

नवगीत

दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित 
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।

चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।। 

मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत  - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।

चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
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२०-७-२०१६
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navgeet

सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।

नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।

घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।

गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।  
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२०-७-२०१६
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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

rasanand de chhand narmada

रसानंद दे छंद नर्मदा ८ 

दोहा का रचना विधान, २३ प्रकार तथा विविध रसों के दोहों का आन्नद लेने के बाद अब देखिये विविध भाषा रूपों के दोहे। 
  

बुन्देली दोहा-




मन्दिर-मन्दिर कूल्ह रै, चिल्ला रै सब गाँव.




फिर से जंगल खों उठे, रामचंद के पाँव..- प्रो. शरद मिश्र. 




छत्तीसगढी दोहा-




चिखला मती सीट अऊ, घाम जौन डर्राय.




ऐसे कायर पूत पे, लछमी कभू न आय.. - स्व. हरि ठाकुर 




बृज दोहा-




कदम कुञ्ज व्है हौं कबै, श्री वृन्दावन मांह.




'ललितकिसोरी' लाडलै, बिहरेंगे तिहि छाँह.. -ललितकिसोरी




उर्दू दोहा-




सबकी पूजा एक सी, अलग-अलग हर रीत.




मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाये गीत.. - निदा फाज़ली 




मराठी द्विपदी- (अभंग)




या भजनात या गाऊ, ज्ञानाचा अभंग.




गाव-गाव साक्षरतेत, नांदण्डयाचा चंग.. -- भारत सातपुते




हाड़ौती दोहा-




शादी-ब्याऊँ बारांता , तम्बू-कनाता देख.




'रामू' ब्याऊ के पाछै, करज चुकाता देख.. -रामेश्वर शर्मा 'रामू भैय्या' 




भोजपुरी दोहा-




दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.




एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरत उदान.. -- सलिल 




निमाड़ी दोहा-




जिनी वाट मं$ झाड़ नी, उनी वाट की छाँव.




नेह, मोह, ममता, लगन, को नारी छे छाँव.. -- सलिल 




हरयाणवी दोहा-




सच्चाई कड़वी घणी, मिट्ठा लागे झूठ.




सच्चाई कै कारणे, रिश्ते जावें टूट.. --रामकुमार आत्रेय. 




राजस्थानी दोहा-




करी तपस्या आकरी, सरगां मिस सगरोत. 




भागीरथ भागीरथी, ल्याया धरा बहोत.. - भूपतिराम जी.



गोष्ठी के अंत में कहा जाने वाला -



कथा विसर्जन होत है, सुनहुं वीर हनुमान. 


जो जन जहाँ से आयें हैं, सो तहँ करहु पयान..



दोहा और सोरठा:


दोहा की तरह सोरठा भी अर्ध सम मात्रिक छंद है. इसमें भी चार चरण होते हैं. प्रथम व तृतीय चरण विषम 


तथा द्वितीय व  चतुर्थ चरण सम कहे जाते हैं. सोरठा में दोहा की तरह दो पद (पंक्तियाँ) होती हैं. प्रत्येक पद 

में २४ मात्राएँ होती हैं. 



दोहा और सोरठा में मुख्य अंतर गति तथा यति में है. दोहा में १३-११ पर यति होती है जबकि सोरठा में ११ - 



१३ पर यति होती है. यति में अंतर के कारण गति में भिन्नता होगी ही.


दोहा के सम चरणों में गुरु-लघु पदांत होता है, सोरठा में यह पदांत बंधन विषम चरण में होता है. दोहा में 



विषम चरण के आरम्भ में 'जगण' वर्जित होता है जबकि सोरठा में सम चरणों में. इसलिए कहा जाता है-


दोहा उल्टे सोरठा, बन जाता - रच मीत.


दोनों मिलकर बनाते, काव्य-सृजन की रीत.


कहे सोरठा दुःख कथा:


सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान को पूरी मार्मिकता के साथ गाकर 


दोहा लोक मानस में अम्र हो गया। कथा यह कि कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल 

अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में 

उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर 

उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया. मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। 

अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारन वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को 

मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के 

किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ 

छंद) में गाते आ रहे हैं-


वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.


सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या. 


दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य 


यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल की अपनी भाषा होती है और आज के दोहाकार को 

आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें- 


कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.

पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.


असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.

संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय. 


बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.

हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास 


पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.

सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.


अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.


सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.


रोला और सोरठा 



सोरठा में दो पद, चार चरण, प्रत्येक पद-भार २४ मात्रा तथा ११ - १३ पर यति रोला की ही तरह होती है 


किन्तु रोला में विषम चरणों में गुरु-लघु चरणान्त बंधन नहीं होता जबकि सोरठा में होता है.


सोरठा तथा रोला में दूसरा अंतर पदान्त का है. रोला के पदांत या सम चरणान्त में दो गुरु होते हैं जबकि 

सोरठा में ऐसा होना अनिवार्य नहीं है.


सोरठा विषमान्त्य छंद है, रोला नहीं अर्थात सोरठा में पहले - तीसरे चरण के अंत में तुक साम्य अनिवार्य है, 

रोला में नहीं.


इन तीनों छंदों के साथ गीति काव्य सलिला में अवगाहन का सुख अपूर्व है.



दोहा के पहले-दूसरे और तीसरे-चौथे चरणों का स्थान परस्पर बदल दें अर्थात दूसरे को पहले की जगह तथा 


पहले को दूसरे की जगह रखें. इसी तरह चौथे को तीसरे की जाह तथा तीसरे को चौथे की जगह रखें तो 

रोला बन जायेगा. सोरठा में इसके विपरीत करें तो दोहा बन जायेगा. दोहा और सोरठा के रूप परिवर्तन से 

अर्थ बाधित न हो यह अवश्य ध्यान रखें 


दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.

करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.


सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.


अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.


सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.


है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?


दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.

ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?


दोहा तथा रोला के योग से कुण्डलिनी या कुण्डली छंद बनता है.


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