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गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

geet

एक रचना:
*
मुर्दा मन ही
मुर्दा तन की
करे नुमाइश।
*
संबंधों के अनुबंधों को
प्रतिबंधों सम जिसने जाना।
माया-मोह, लोभ-लालच ही
साध्य जिसे, अपना बेगाना। 
नहीं निधन पर 
अश्रु बहाने की भी 
वहाँ रही गुंजाइश।
मुर्दा मन ही
मुर्दा तन की
करे नुमाइश।
*
जानेवाला चला गया पर
बेगाना तो डटा खड़ा है।
चित्र खिंचाने का लालच भी
तनिक न छोटा बहुत बड़ा है। 
साक्ष्य जुटा लूँ,  
काम वक़्त पर आये  
है इतनी फरमाइश।
मुर्दा मन ही
मुर्दा तन की
करे नुमाइश।
*
माटी का ही गढ़ा घरौंदा
माटी ने माटी से मिलकर।
माटी के कुछ बना खिलौने
विदा हुआ माटी में मिलकर। 
हाय विधाता!
सबक न सीखी  
अब भी रंजिश।
मुर्दा मन ही
मुर्दा तन की
करे नुमाइश।
*

 

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

geet: shrikant mishr 'kant'

गीत:

भारती उठ जाग रे !...... 

- श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’












है कहां निद्रित अलस से 
स्वप्न लोचन जाग रे !
प्रगति प्राची से पुकारे
भारती उठ जाग रे ! 

मलय चन्दन सुरभि नासा
नित नया उत्साह लाती
अरूणिमा हिम चोटियों से
पुष्प जीवन के खिलाती

कोटिश: पग मग बढ़े हैं
रंग विविध ले हाथ रे !

भारती उठ जाग रे !

ज्ञान की पावन पुनीता
पुण्य सलिला बह रही
आदि से अध्यात्म गंगा
सुन तुझे क्या कह रही
विश्व है कौटुम्ब जिसका
चरण रज ले माथ रे!
भारती उठ जाग रे !

नदी निर्झर वन सुमन सब
वाट तेरी जोहते
ध्वनित कलकल नीर चँचल
मृगेन्द्रित मन मोहते !
कोटिश: कर साथ तेरे
अनृत झुलसा आग रे !
भारती उठ जाग रे !

युग भारती फिर जाग रे !
जाग रे ! .. फिर जाग रे !