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मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

द्विपदी

द्विपदी 
*
परवाने जां निसार कर देंगे. 
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम. 
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते 
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*
संवस

मंगलवार, 10 जुलाई 2018

dwipadi

द्विपदी:
करें शिकवे-शिकायत आप-हम, दिन-रात अपनों से।
कभी गैरों से कोई बात मन की, कह नहीं सकता।।
*

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

dwipadi

द्विपदियाँ (अश'आर)
*
बना-बना बाहर हुआ, घर बेघर इंसान
मस्जिद-मंदिर में किये, कब्जा रब-भगवान
*
मुझे इंग्लिश नहीं आती, मुझे उर्दू नहीं आती
महज इंसान हूँ, मुझको रुलाई या हँसी आती
*
खुदा ने खूब सूरत दी, दिया सौंदर्य ईश्वर ने
बनें हम खूबसूरत, क्या अधिक चाहा है इश्वर ने?
*
न नातों से रखा नाता, न बोले बोल ही कड़वे
किया निज काम हो निष्काम, हूँ बेकाम युग-युग से
*

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

dwipadi

एक द्विपदी :
*
मन अमन की चाह में भटका किया है
भले बेमन ही सही पर मन जिया है
*

मंगलवार, 9 जून 2015

dwipadi: aansu -sanjiv

द्विपदियाँ (शे'र)
संजीव
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं 
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया 
*

बुधवार, 20 मई 2015

dwipadi salila: sanjiv

द्विपदी सलिला:
संजीव
*
वक़्त सुनता ही नहीं सिर्फ सुनाता रहता
नजर घरवाली की ही इसमें अदा आती है
*
दिखाया आईना मैंने कि वो भी देख सके 
आँख में उसकी बसा चेहरा मेरा ही है
*
आसमां को थाम लें हाथों में अपने हम अगर 
पैर ज़माने के लिये जमीं रब हमें दे दे
*
तुम्हें जानना है महज इसलिए ही
दुनिया के सारे शिखर नापते हैं
*
दिले-दिलवर को खटखटाते रहे नज़रों से 
आँख का डाकिया पैगाम कभी तो देगा
*
बेरुखी लाख दिखाये वो सरे-आम मगर 
नज़र जो मिल के झुके प्यार भी हो सकती है
*
अंत नहीं है प्यास का, नहीं मोह का छोर
मुट्ठी में ममता मिली, दिनकर लिया अँजोर
*
लेन-देन जिंदगी में इस कदर बढ़ा
बाकी नहीं है फर्क आदमी-दूकान में
*
साथ चलते हाथ छूटे कब-कहाँ- कैसे कहें
बेहतर है फिर मिलें मन मीत! हम कुछ मत कहें
*
सारे सौदे वो नगद करता है जन्म से ही रहे उधार हैं हम सारी दुनिया में जाके कहते हैं भारत में हुए सुधार हैं हम *




दोहा सलिला:
संजीव
*
जो दिखता होता नहीं, केवल उतना सत्य 
छोटे तन में बड़ा मन, करता अद्भुत कृत्य
*
ओझा कर दे टोटका, फूंक कभी तो मन्त्र 
मन-अँगना में भी लगे, फूलों का संयंत्र
*
नित मन्दिर में माँगते, किन्तु न होते तृप्त 
दो चहरे ढोते फिरे, नर-पशु सदा अतृप्त
*
जब जो जी चाहे करे, राजा वह ही न्याय
लोक मान्यता कराती, राजा से अन्याय
*
पर उपकारी हैं बहुत, हम भारत के लोग 
मुफ्त मशवरे दें 'सलिल', यही हमारा रोग
*


शनिवार, 16 मई 2015

dwipadi: sanjiv

द्विपदी सलिला
संजीव
*
रूप देखकर नजर झुका लें कितनी वह तहजीब भली थी 
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़के उसे तका है
*
रंज ना कर बिसारे जिसने मधुर अनुबंध
वही इस काबिल न था कि पा सके मन-रंजना
*
घुँघरू पायल के इस कदर बजाये जाएँ
नींद उड़ जाए औ' महबूब दौड़ते आयें
*
रन करते जब वीर तालियाँ दुनिया देख बजाती है
रन न बनें तो हाय प्रेमिका भी आती है पास नहीं
*
जो गिर-उठकर बढ़ा मंजिल मिली है
किताबों में मिला हमको लिखित है
*
दुष्ट से दुष्ट मिले कष्ट दे संतुष्ट हुए
दोनों जब साथ गिरे हँसी हसीं कहके 'मुए'
*
सखापन 'सलिल' का दिखे श्याम खुद पर
अँजुरी में सूर्स्त दिखे देख फिर-फिर
*
किस्से दिल में न रखें किससे कहें यह सोचें
गर न किस्से कहे तो ख्वाब भी मुरझाएंगे
*
अजय हैं न जय कर सके कोई हमको 
विजय को पराजय को सम देखते हैं
*
हम हैं काँटे न हमको तुम छूना
जब तलक हो न जाओ गुलाब मियाँ
*

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

dwipadiyaan:

द्विपदियाँ: 

इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए 
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया 

दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मारा 
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ 

दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ 
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ 

दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठ है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया 
*

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

aaj ki rachna

दोहा :

तुलसी जब तुल सी गयी, नागफनी के साथ
वह अंदर यह हो गयी, बाहर विवश उदास. 

शे'र :
लिए हाथों में अपना सर चले पर
नहीं मंज़िल को सर कर सके अब तक

मुकतक :

मेरा गीत शहीद हो गया, दिल-दरवाज़ा नहीं खुला
दुनियादारी हुई तराज़ू, प्यार न इसमें कभी तुला
राह देख पथराती अखियाँ, आस निराश-उदास हुई
किस्मत गुपचुप रही देखती, कभी न पाई विहँस बुला

हाइकु :

ईंट रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता

जनक छंद :

नोबल आया हाथ जब
उठा गर्व से माथ तब
आँख खोलना शेष अब

सोरठा :

घटे रमा की चाह, चाह शारदा की बढ़े
गगन न देता छाँह, भले शीश पर जा चढ़े

क्षणिका :

पुज परनारी संग
श्री गणेश गोबर हुए
रूप - रूपए का खेल
पुजें परपुरुष साथ पर
लांछित हुईं न लक्ष्मी

***

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

rochak charcha: she'r kisi ka, wahawhi kisi ko... nida fazli


रोचक चर्चा:
शेर किसी का, वाहवाही किसी को...
 

 
 
दिलीप कुमार और सायरा बानो
मशहूर फ़िल्म अभिनेता दिलीप कुमार को शेर सुनाने का शौक है
दिलीप कुमार उर्फ़ यूसुफ ख़ान, राज कपूर, देव आनंद और राजकुमार के ज़माने में ट्रेजिडी किंग कहे जाते थे.
हालांकि उनकी वे फ़िल्में भी कम अहम नहीं हैं जिनमें वह हँसते, मुस्कुराते और शरारतें करते नज़र आते हैं.
उनके समकालीनों में सिर्फ़ राजकुमार ही ऐसे अभिनेता थे जो स्क्रीन पर शेर इस तरह सुनाते थे कि मुश्किल से मुश्किल लफ़्जों वाले शेर पर भी सिनेमा हाल में लोग तालियाँ बजाते थे.
फ़िल्म ‘बुलंदी’ में डायरेक्टर इस्माईल श्रॉफ ने उनसे डाक्टर इक़बाल का एक शेर पढ़वाया था.
शेर था-ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है.
पार्टीशन के बाद भारत में फ़ारसी और अरबी की जगह भाषा में इलाक़ाई ज़ुबानों के लफ़्जों से तालमेल ज़्यादा बढ़ा है.
दिलीप कुमार और पृथ्वी राज कपूर की मुग़ले आज़म अब फ़िल्मों के संवादों में नज़र नहीं आती.
साहिर लुधियानवी ने फ़िल्मों की ज़ुबान में इसी तब्दीली के कारण अपने संग्रह में शामिल एक नज़्म को जब फ़िल्म ‘प्यासा’ का एक गीत बनाया तो किताब में नज़्म की लाइन सना ख़्वाने तकदीसे मशरिक़ कहाँ है (पश्चिम की पवित्रता के प्रशंसक) को 'जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ हैं' से बदल दिया.
फ़िल्म कला के साथ एक कारोबार भी है और हर कारोबार का पहला उसूल ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचना होता है.
कारोबार का संबंध धार्मिक सीमाओं या भाषा-विवाद की रेखाओं से नहीं होता, समाज कैसे बदलता है, वह इस पर नहीं सोचता, समाज में किस समय क्या चलता है, वह इसको खोजता है.
राजकुमार अस्थमा के मरीज़ थे. मर्ज़ की इस मजबूरी को उन्होंने डायलॉग अदायगी का स्टाइल बना लिया था.
वह हर वाक्य को चबा-चबा कर और अपनी तरह से तोड़-तोड़ के बोलते थे.
उनके दर्शकों को उनका यह स्टाइल पसंद भी आता था. यही वजह थी कि ‘ख़ुदी’ और ‘रज़ा’ जैसे कठिन लफ़्जों के होते हुए भी, फ़िल्म में इक़बाल के शेर पर भी उन्होंने तालियाँ बजवा ली थीं.
फ़िल्म की लोकप्रियता ने इस शेर को भी लोकप्रिय बना दिया है.
अब यह आम बोलचाल में भी नज़र आता है और लोक सभा में भी बोला जाता है कि एक बार ममता बैनर्जी ने जब अपने बंगाली लहजे में ख़ुदी के ‘ख़’ के नीचे की और ‘रज़ा’ के ‘ज़’ के नीचे की बिंदियाँ निकाल कर जब लोक सभा में इसे दोहराया तो तालियों के शोर से पूरा हॉल गूंज उठा था.
राजकुमार की तरह दिलीप साहब का भी अपना बोलने का तरीका है.
रूक-रूक कर माथे पर एक साथ कई बल उभार कर, लफ़्जों को आवाज़ के उतार-चढ़ाव से संवार कर, जुमलों के बीच में थोड़ी-थोड़ी ख़ामोशियों को उतार कर वह अपने देखने और सुनने वालो को दीवाना बना देते थे.
किसी और को श्रेय
राजकुमार की तुलना में स्क्रीन पर तो उन्होंने बहुत कम शेर पढ़े हैं, लेकिन घरेलू महफ़िलों और मुशायरों के स्टेज पर उन्हें शेर सुनाते अक्सर सुना है.
मुंबई के एक मुशायरे की शुरुआत तो उन्हीं की पढ़ी हुई ग़ज़ल से हुई. उस ग़ज़ल के दो शेर आज भी ज़हन में हैं.
इस शान से वह आज पए-इम्तहाँ चले
कितनो ने पाँव चूम के पूछा कहाँ चले
जब मैं चलूँ तो साया भी मेरा न साथ दे
जब वह चलें, ज़मीन चले, आसमाँ चले.
दिलीप साहब की शुरू की तालीम उर्दू के अंजुमन हाईस्कूल बम्बई में हुई है.
उन्हें उर्दू शायरी से लगाव भी है. जोश, नज़ीर अकबराबादी, दाग़, और फैज़ उनके पसंदीदा शायर हैं जिनकी नज़्में और ग़ज़ले वह स्टेज से सुनाते नज़र आते हैं और सुनाने से पहले शायर का नाम भी ज़रूर बताते हैं.
लेकिन मुंबई के उस मुशायरे में जलील मानकपुरी की ग़ज़ल फैज़ के नाम से सुना गए.
दूसरे दिन हर भाषा के अख़बारों में फैज़ साहब ने जो लिखा नहीं था, वह उनके नाम से जुड़ गया और जलील मानकपुरी जिनके संकलन में यह ग़ज़ल मौजूद है, वह इस रचना से हाथ धो बैठे.
जलील मानकपुरी दाग़ देहलवी के समकालीन थे और दाग़ के बाद नवाब हैदराबाद के उस्ताद भी बनाए गए थे.
जलील के एक बेटे मुश्ताक जलीली मुंबई में फ़िल्म राइटर थे. कई फ़िल्मों के संवाद और पटकथा उन्हीं की क़लम का नतीजा है.
अख़बारों में जब उन्होंने अपने वालिद के साथ यह नाइंसाफ़ी देखी तो बहुत ग़ुस्से में आए लेकिन कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि दिलीप साहब की शोहरत के मुक़ाबले में मुश्ताक जलीली की फ़िल्मी हैसियत कम थी.
इसलिए वह अपने बाप के साथ की गई नाइंसाफ़ी को इंसाफ़ में नहीं बदलवा सके. अदब में ऐसी ही नाइंसाफ़ियों की कई मिसालें मिलती हैं.
कभी किसी बड़ी घटना से किसी का शेर ऐसा चिपक जाता है कि इतिहास में वह इसी तरह के ग़लत नाम से जुड़ जाता है.
इसकी एक मिसाल आज़ादी की लड़ाई के क्राँतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल है, उन्हें देशप्रेम के अपराध में अंग्रेज़ हुकूमत ने फाँसी दी थी.
फाँसी का फँदा गर्दन में डालने से पहले उन्होंने अंग्रेज़ राज को ललकारते हुए एक शेर पढ़ा था-
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है.
और यह पिछले कई वर्षों से उन्हीं के नाम से मशहूर है. रामप्रसाद भी शायर थे. बिस्मिल उनका तख़ल्लुस था.
लेकिन यह मतला उनका नहीं है. इसके शायर का नाम बिस्मिल अज़ीमावादी था. इसी ग़ज़ल का एक और शेर यूँ है.
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे ए आसमाँ
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है.
बिस्मिल अज़ीमावादी की यह ग़ज़ल पहली बार जिस अख़बार में छपी थी उसकी कापी कलकत्ता की नेशनल लाइब्रेरी में महफ़ूज़ है.
ग़ज़ल के प्रतीक, बिंब और ख़याल परंपरागत शायरी जैसे हैं लेकिन रामप्रसाद जी की ट्रेजेडी ने इन प्रतीको, बिंबो और शब्दों को नए मानी पहना दिए.
अब इनका अर्थ वह नहीं है जो शायर के ख़यालों में था. ऐसे बहुत से शेर हैं जो होते हैं किसी के लेकिन उन्हें शोहरत मिलती है किसी और नाम से.
बहुत से शेर ऐसे भी हैं जो बोलचाल में तो शामिल होते हैं लेकिन वे हक़ीक़त में किस की क़लम का नतीजा है, यह मालूम नहीं होता, जाँ निसार अख़्तर अच्छे शायर और कई फ़िल्मों के नगमा निगार थे.
उनकी आख़िरी फ़िल्म कमाल अमरोही की रज़िया सुल्तान थी. फ़िल्म तो कामयाब नहीं हुई मगर उनका गीत, ऐ दिले नादाँ....आरज़ू क्या है, जुस्तुजू क्या है. ख़ैयाम की धुन में काफ़ी मशूहर हुआ.
वह मुज़तर खैरावादी के छोटे बेटे थे, मुज़तर का कोई दीवान नहीं छपा लेकिन उनके शेर अक्सर लोगों की ज़ुबान पर है.
काफ़ी समय पहले जाँ निसार अख़्तर ने एक ग़ज़ल के संबंध में, जो बहादुर शाह ज़फ़र के नाम से मंसूब थी, उसे मुज़तर की ग़ज़ल बताया है. ग़ज़ल का मतला है.
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्ते ग़ुबार हूँ.
यह ग़ज़ल ज़फ़र के संकलन में नहीं है.
जाँ निसार अख़्तर जब मुज़तर का संग्रह तैयार कर रहे थे तो उन्हें ग़ज़ल की डायरी में यह ग़ज़ल मिली थी, लेकिन इसके बावजूद पढ़ने वाले ग़ज़ल के मिज़ाज को ज़फ़र के इतिहास से जब जोड़कर देखते हैं तो उन्हें इसमें आख़िरी मुग़ल की हिकायत नज़र आती है.
यह मुज़तर की होते हुए ज़फ़र के नाम से मशहूर है.

शनिवार, 6 जुलाई 2013

kuchh dwipadiyan --sanjiv

कुछ द्विपदियाँ: 
संजीव 
*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो 
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
ane wale laut kar aa jayen to  
aane valon ko jagah hogee kahan?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं 
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
manch se kuchh paatr yadi jayen naheen 
manch par kuchh paatr kaise aayenge?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना 
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर 
jo gaye too unkaa maatam mat mana
shesh hain jo unkee bhee kuchh fiqr kar 
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को 
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
moh-maya taj gaye the teerth ko
mukt maya se hue to shok kyon?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो 
hai sansar asaar to chhutane ka kyon shok?
gaye saar kee khoj men, mila saar khush ho
*

शनिवार, 15 मई 2010

तितलियाँ : कुछ अश'आर संजीव 'सलिल'

 तितलियाँ : कुछ अश'आर

संजीव 'सलिल'

तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?

कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियाँ ही बैग की रौनक बनी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com