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शनिवार, 29 जुलाई 2017

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा-
आरक्षण कोयल को देकर
कागा
करते काँव.
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

सोमवार, 10 जनवरी 2011

नवगीत : ओढ़ कुहासे की चादर संजीव वर्मा 'सलिल

नवगीत : 

ओढ़ कुहासे की चादर

 संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओढ़ कुहासे की चादर,

धरती लगाती दादी।

ऊँघ रहा सतपुडा,

लपेटे मटमैली खादी...

*
सूर्य अंगारों की सिगडी है,

ठण्ड भगा ले भैया।

श्वास-आस संग उछल-कूदकर

नाचो ता-ता थैया।

तुहिन कणों को हरित दूब,

लगती कोमल गादी...
*

कुहरा छाया संबंधों पर,

रिश्तों की गरमी पर।

हुए कठोर आचरण अपने,

कुहरा है नरमी पर।

बेशरमी नेताओं ने,

पहनी-ओढी-लादी...
*
नैतिकता की गाय काँपती,

संयम छत टपके।

हार गया श्रम कोशिश कर,

कर बार-बार अबके।

मूल्यों की ठठरी मरघट तक,

ख़ुद ही पहुँचा दी...
*
भावनाओं को कामनाओं ने,

हरदम ही कुचला।

संयम-पंकज लालसाओं के

पंक-फँसा-फिसला।

अपने घर की अपने हाथों

कर दी बर्बादी...
*
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,

फ़िर-फ़िर बसना है।

बस न रहा ख़ुद पर तो,

परबस 'सलिल' तरसना है।

रसना रस ना ले,

लालच ने लज्जा बिकवा दी...


*
हर 'मावस पश्चात्

पूर्णिमा लाती उजियारा।

मृतिका दीप काटता तम् की,

युग-युग से कारा।

तिमिर पिया, दीवाली ने

जीवन जय गुंजा दी...




*****