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शनिवार, 11 जून 2011

सामयिक दोहे: ------- संजीव 'सलिल'

सामयिक दोहे:
संजीव 'सलिल'
*
अर्ध रात्रि लाठी चले, उठते हैं हथियार.
बचा न सकता राज्य पर, पल में सकता मार..

शर्म करे कुछ तो पुलिस, जन-रक्षा है धर्म.
धर्म भूल कर कर रही, अनगिन पाप-कुकर्म..

बड़ा वही जो बचाता, मारे जो वह हीन.
क्षमा करे जो संत वह, माफी मांगे दीन..

नहीं एक कानून है, नहीं एक है नीति.
आतंकी पर प्रीति है, और संत हित भीति..

होता हावी लोक पर, जब-जब शासन-तंत्र.
तब-तब होता है दमन, बचा न सकता मंत्र..

लोक जगे मिल फूँक दे, शासन बिना विचार.
नेता को भी दंड दें,  तब सुधरे सरकार..

आई. ए. एस. अफसर करें, निश-दिन भ्रष्टाचार.
इनके पद हों ख़त्म तब, बदलेगी सरकार..

जनप्रतिनिधि को बुला ले, जनगण हो अधिकार.
नेता चले सुपंथ पर, तब तजकर अविचार..

'सलिल' न हिम्मत हारिये, करिए मिल संघर्ष.
बलिपंथी ही दे सके, जनगण-मन को हर्ष..


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