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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा:
'नील वनों के पार' श्रृंगार की बहार  
आचार्य संजीव वर्मा सलिल'
*
[कृति विवरण: नील वनों के पार, गीतसंग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण, २००८, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, प्रकाशक-रचनाकार संपर्क- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
*
"नील वनों के पार" ख्यात नवगीतकार श्री निर्मल शुक्ल के ऐसे आरंभिक गीतों का संग्रह है जिनमें नवगीत की सामान्य से भिन्न आहट सुनाई देती है। शुक्ल जी जिस पृष्ठभूभि से साहित्य का संस्कार ग्रहण करते हैं वहाँ, सरलता और विद्वता की गंगो-जमुनी धारा सतत प्रवाहित होती रही है। उन्हें देशज बोली, प्रांजल भाषा और बैंक अधिकारी होने के नाते शब्द-शब्द की सटीकता पर सतर्क दृष्टि रखने का संस्कार मिला है। उनके हर गीत की हर पंक्ति में भाषिक प्रौढ़ता के दर्शन होते हैं। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्याराधक प्रो. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' के अनुसार "नवगीत पारंपरिक गीत का ही पूर्ण परिपक्व रसाढ्य फल है और परिपक्वता तथा मधुर-फलत्व के बिंदु तक पहुँचने के लिए एक रचना को लम्बी तपन-यात्रा-प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है... नील वनों के पार का प्रत्येक गीत इस तथ्य का प्रत्यायक है कि निर्मल जी ने गीत-साधना को संपूर्ण गरिमा और गंभीरता के साथ स्वायत्त किया है। परंपरा, प्रयोग और प्रगति ने इनके गीतों को शक्तिमत्ता प्रदान की है। अमिधा, लक्षणा और व्यंजना नामक शब्द-शक्तियों के संगम अर्थ के स्नातक हैं गीत-बटुक। इनके गीत जिस संवेदना-फलक पर अभिव्यक्त हुए हैं वह उदात्त अनुभूतियों और अवदात कल्पनाओं पर आधृत हैं।"

मंगलाचरण में "अहं शिवोस्मि" शीर्षक  गीत में कवि प्रार्थना करता है- 
"हे त्रिविध, त्रिपुरारि शंकर
अलख ज्योतित कीजिए 
रिक्त है मेरा कमंडल 
ज्ञान से भर दीजिए"। 

सर्वज्ञात है कि भोले भंडारी के लिए कुछ अदेय नहीं है। शिव प्रकृति के स्वामी हैं, अत: उन्हें प्रसन्न करने का सुगम उपाय प्रकृति का सौंदर्य-गायन करना ही हो सकता - 
पहन बिछौने 
मौलसिरी के,
तू भी नव परिधान 
वल्लरियों में 
हरसिंगार की 
गुँथी चादरें तान
यह कस्तूरी 
नहीं बावरे 
उनकी गंध समाई है। 

प्रकृति ऋतु-अनुसार ऋतुराज का स्वागत, श्रृंगार और मनुहार की डगर पर पग धरकर करने से नहीं चूकती। जीत में हार और हार में जीत की अनुभूति को अभिव्यक्त करती लेखनी, देह के महकने, साँस के बहकने के पलों में महमहाती मेंहदी की गुनगुनाहट की साखी देती है-
महमहाई  
जीत के 
कुछ हार की मेंहदी 
गात महके 
साँस बहकी 
खो गये 
अभिजात मन 
घोलकर संतूर के 
सुर-तार-सप्तक में 
यमन 
गुनगुनाई 
गीत 
उपसंहार की मेंहदी 

पर्व की तरह प्रतीत होते सुहाने दिनों में रात-रात भर जागकर गुलमोहर के लाल पत्तों को अंक में भरते दिन लाज से गड़ें, निराकार शब्दों के आकार नैनों में तिरने की कल्पना ही अधरों पर गुनगुने उपहार आधार भूमि बने यह स्वाभाविक है। निर्मल जी की प्रयोगधर्मी प्रवृत्ति बिंब संयोजन में लीक से हटकर अपनी राह आप बनाती है। 'मन हिरना को हँस बनाने' की कल्पना जितनी मौलिक है उतनी ही रोमांचक भी। प्रकाश के पंख को छूने के लिए कुमकुम की सौगंध खाकर, सोंधी हल्दी से सनी हथेली नेहातुर अनुगंध को आमंत्रित कर, मन को पावन नीर और तन को कैलाश का हिम बना रहा कवि पलाश का रंग भरकर सुबह की धूप बनाता है। ऐसी अभिनव अनुभूति और उसकी अप्रचलित अभिव्यक्ति अपनी मिसाल आप आप है।
सुबह-सुबह की धूप बना लूँ
भर दूँ रंग पलाश का
मन हिरण को हंस बना लूँ
छू लूँ पंख प्रकाश का
सोंधी हल्दी सनी हथेली
कुमकुम की सौगंध
रह रहकर आमंत्रित करती
नेहातुर अनुगंध
मन को पवन नीर बना लूँ 
तन को हिम कैलाश का

अर्पण और समर्पण की रामायण रचते समय अक्षत-रोली, और देहरी-द्वार महकने लगें तो आनंद शतगुणित हो जाता है-
अक्षत महके
रोली महकी
महके देहरी-द्वार,
इंद्रधनुष के रंग बारे
हो गये बंदनवार
चौबारे में
मिली बानगी
महकी हुयी बयार की

प्रीत की रीत निरखता-परखता गीत सुध-भध भूल जाए, रात स्थाई को आँचल में बाढ़ ले और प्रभात अंतरा दोहराता रहे, तो रग-रग में मधुरता व्याप्त होगी ही-   

बुधवार, 19 सितंबर 2018

samiksha

कृति चर्चा:
'हरापन बाकी है' इसलिए कि नवगीत जिन्दा है 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
[कृति विवरण: हरापन बाकी है, नवगीत संग्रह, देवेंद्र सफल, प्रथम संस्करण २०१६, पृष्ठ १२०, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, मूल्य २५०/-, दीक्षा प्रकाशन, ११७/क्यू /७५९-ए, शारदा नगर, कानपुर २०८०२५, चलभाष ९४५१४२४२३३, ९००५२२२२६६, ८५६३८११६१५ ]
*
वर्तमान संक्रांति काल में मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के बावजूद अधिकाधिक व्यक्तिनिष्ठ होता जा रहा है। फलत:, पति-पत्नी, भाई-बहिन, पिता-पुत्र जैसे अभिन्न संबंधों में भी दूरी (स्पेस) की तलाश की जा रही है। अधिकतम पाने और कुछ न देने की कामना ने परिवार को कष्ट-विक्षत कर दिया है। 'कुनबा' और 'खानदान' शब्दकोशों में कैद होकर रह गए हैं, 'व्यक्ति' अकेलेपन का शिकार होकर कुंठा, संत्रास, ऊब, घुटन, यांत्रिक नीरसता, मूल्यहीनता, संदेह, छल, कपट, निराशा का शिकार होकर नशे व आत्महत्या की ओर बढ़ता जा रहा है। विस्मय यह कि यह प्रवृत्ति साधनहीनों की अपेक्षा साधन सम्पन्नों में अधिक व्याप्त है। जन सामान्य हो या विशिष्ट वर्ग सफल होने की कीमत दोनों को चुकानी पड़ती है। गेहूँ के साथ चाहे-अनचाहे पिसना ही घुन की नियति है। इसलिए अंतत:, सकल समाज तथाकथित प्रगति की कीमत चुकाते-चुकाते नि:शेष होता जाता है। इस सबके बावजूद कलम हाथ में लेकर उद्घोषणा करना कि 'हरापन बाकी है' सचमुच हिम्मत की बात है। श्री देवेंद्र 'सफल' यह घोषणा दमदारी से कर रहे हैं इसलिए कि उनके हाथ में कलम और साथ में नवगीत की ताकत है। देवेंद्र 'सफल' १९९८ से २०१६ के मध्य 'पखेरू गंध के', 'नवांतर', 'लेख लिखे माटी ने', 'सहमी हुई सदी' शीर्षक नवगीत संकलनों के माध्यम से गीत-गगन में उड़ान भर चुके हैं। नित नया आसमान नापने की आदत 'हरापन बाकी है' की शक्ल  में समय को सच का आईना दिखा रहा है।

देवेंद्र जी के नवगीत समकालिक अन्य नवगीतकारों से भिन्न इस मायने में हैं कि इनमें किताबी विसंगति, विडंबना और त्रासदी पर जमीनी सचाई को वरीयता दी गयी है। देवेंद्र छद्म मार्मिकता के लिए घड़ियाली आँसू नहीं बहाते, वे दैनंदिन जीवन की कसक को उद्घाटित करते हैं-
हर करवट में बेचैनी है
भटक रहा मन इधर-उधर
सारी रात न सोने देता
दरकी दीवारों का घर

यहाँ कोई आसमान नहीं टूटा पड़ रहा, किंतु सर पर छाँव होने के बावजूद अघटित घटित होने की आशंका न जीने देती है, न मरने। बात यही तक सीमित नहीं है-
अब घर नहीं रहा घर जैसा
बाजारों का है जमघट
संबंधों की सेल लगी है
कीमत नित्य रही है घट

ज्यादा से ज्यादा पाने की दावेदारी, रसोई में कलह, घातक मंसूबे, और कुचलें, तू-तू मैं-मैं एकता की चाह रखने के बाद भी निराशा की बाढ़.... यह हर घर की व्यथा-कथा है। इन नवगीतों का कथ्य रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा है और भाषा आम आदमी द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले शब्दों से बनी है। अत:, पाठक को अपनी खुद की अनुभूति कही गयी प्रतीत होती है-
पिछले साल पड़ा सूखा तो
रोई मुनिया की महतारी
देबी की किरपा से अबकी
गौना देने की तैयारी   
जो संबंधी तने-तने थे
लगे तनिक वो भी निहुरे हैं

हिंदी के साहित्य जगत में जिनसे सीखा उन्हें भुला देने की कुटैव व्याप्त है। कामयाब उर्दू शायर अपने से कम कामयाब उस्ताद का भी शुक्रिया अदा करते हुए मुशायरों में फख्र के साथ खुद को उनका शागिर्द बताता है लेकिन हिंदी का छोटे से छोटा कवि भी ऐसा जताता है मानो सब कुछ माँ के पेट से सीख कर आया हो। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में सद्य प्रकाशित दोहा शतक मंजूषा के तीन भागों में दोहाकार के परिचय में काव्य गुरु का नाम इसीलिये जोड़ा गया कि रचनाकारों में गुरु का स्मरण और गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव हो। देवेंद्र जी की ईमानदारी यह कि वे प्रो. रामस्वरूप सिंदूर को स्मरण करते हुए उनके कथन को उद्धृत कर 'अपनी बात' का श्री गणेश करते हैं- "मेरे काव्य-गुरु स्मृति-शेष प्रो. रामस्वरूप सिंदूर के कथनानुसार "गीत का कवि कालातीत, अनंतता का कवि होता है। समयातीत होकर भी गीत समय-शून्य नहीं होता। वह समय में रहकर भी समय का अतिक्रमण करता है।'

'हरापन बाकी है' का रचनाकार गाँव और शहर दोनों से समान अपनत्व के साथ जुड़ा है, उसे आम आदमी की पीड़ा से सरोकार है। वह दोनों अंचलों की वस्तिस्थिति, विसंगतियों और विडंबनाओं को उद्घाटित करता है। उसकी भाषा में कथ्य और पात्र के अनुकूल भाषा और शब्दों का व्यवहार किया गया है। उपले, महतारी, जानी, कलेवा, मन्नत, बहुरे, कुठला, बरोठे, कागा, मुंडेर, तिरिया, किरपा, निहुरे, डिठौने, काठ, मुहाचाई, दहे, खटिया जैसे ठेठ देशज शब्दों के साथ त्राण, भूमंडलीकरण, अनिवासी, पुष्ट, आसीन, संग्राम, तमस, पार्श्व, वेदिका, परिहास, नव्य, संताप, सरिता, मेघ, अनुनय, अन्तस्, लंबोदर, सहोदर, क्षत्रप, अवसाद, चरण, अरुणिम आदि संस्कृत निष्ठ शब्दों, वेलकम, होर्डिंग, बैनर, टी. वी., बंपर, जींस, टी-शर्ट, मिनी, रैम्प, मैडम, डेवलपमेंट, पाकिट, क्रास, गुड लक वगैरह अंग्रेजी शब्दों के साथ अन्य भाषाओँ के प्रचलित शब्द भी उपयोग किये गए हैं। अरबी ( अमन, आमीन, आसार, इशारे, इंसानियत, उजाले, कबीले, गायब, जुल्म, गमगीन, तमाशाई, नज़र आदि),  और फारसी (ख़ाक, खातिर, खुशहाली, खुशियाँ, खुशबू, तख़्त, दर्द, दरमियान, दरियादिली, दस्तूर, दुकां, दुश्मन वगैरह) के शब्दों को भी सफलता के साथ सफल जी ने प्रयोग किया है।

इन गीतों की मुहावरेदार भाषा इनकी ताकत है। गीतकार शब्द युग्मों (धूल-धूसरित, ताना-बाना, घर-द्वार, लिपे-सँवारे, चैता-बन्ना, रंग-बिरंगे, जादू-टोने, हँसूँ-गाऊँ, खुसुर-पुसुर, व्यंग्य-बाण, सुख-दुःख. दुःख-दर्द, कुर्सी-गद्दी, अस्थि-पिंजर, नोच-खसोट, चेतन, अवचेतन, शब्द-अर्थों, संगी-साथी, प्रणय-गाथाएँ, आग-बबूला, रिश्ते-नाते, विधि-विधान, सुर-ताल, दाँव-पेंच,बने-बिगड़े, यक्ष-प्रश्न, ज्ञानी-ध्यानी, हरे-भरे, नीति-निर्धारक, बंदूक खंजर, खेल-खिलौने, तरु-लता-पल्लव, लय-सुर-ताल, जाती धर्म भाषा आदि ), और शब्दावृत्ति (तने-तने, शुभ-शुभ, माथे-माथे, गहरे-गहरे, भद्दी-भद्दी, सोच-सोच, पल-पल, झर-झर, रह-रह, तू-तू मैं-मैं, अपने-अपने, भीतर-भीतर, डरे-डरे, देख-देख, थकी-थकी आदि ) की ताकत जानता है और उसने उनका भली-भाँति उपयोग किया है। यथास्थान मुहावरों और लोकोक्तियों के  उपयोग ने सोने में सुहागा का कार्य किया है- चिकना घड़ा, सीना तानना, सपने बुने, कीच उछालना, भाग्य सराहना, रद्दी के भाव, हाथ के तोते उड़े जैसे प्रयोग नवगीतों के भाव पक्ष को सशक्त करते हैं।

आजकल नवगीत या तो अनभिज्ञता के कारण या अकारण ही विराम चिन्हों का प्रयोग नहीं करते।   देवेंद्र जी का व्याकरणिक पक्ष मजबूत है। इस कृति में उन्होंने योजक चिन्ह (-) का उपयोग विविध अर्थों में किया है। ओस-कण ओस के कण, हँसूँ-गाऊँ हँसूँ और गाऊँ, आते-जाते आते या जाते, पुष्प-गंध पुष्प की गंध, सूत्र-से सूत्र जैसे, नज़र-वाले जिससे दिखाई दे। नए रचनाकारों को इससे सीख लेना चाहिए क्यों कि छंद की आवश्यकतानुसार अक्षर कम-अधिक करना हो तो विराम चिन्ह बहुत उपयोगी होते हैं।

अंग्रेजी में कहावत है- 'टू एरर इस ह्युमन' अर्थात गलती करना मनुष्य का स्वभाव है। 'कैसे हंस लें?' में कवि अनुनासिक चिन्ह का उपयोग करने में चूक गया है। हंस = उच्चारण हन्स = पक्षी, हँस अर्थात हँसना क्रिया। एक और त्रुटि राग-द्वेश में 'ष' के स्थान पर 'श' का उपयोग करने से हुई है।

सफल जी ने कथ्य और प्रसंग के अनुरूप प्रतीकों का उपयोग किया है। तेजी से पनपी नागफनी, हो गए प्रवासी स्वप्न सभी, आँगन में पंछी उतरे हैं, वर्षों बाद बज रही पायल, श्वासों पर पहरे ही पहरे, मन में बसे कबीले, टूटा नहीं जुड़ाव, भूख मुँह फाड़े, जाने कितनी बार ढहे आदि ऐसे शब्द-प्रयोग हैं जो शब्दकोशीय अर्थ की सीमा का उल्लंघन कर अपने अर्थ से अधिक भाव संप्रेषित करते हैं। ऐसे प्रयोगों से 'कम कहने से अधिक समझना' की परंपरा अनजाने ही सही जी उठी है। नवगीत को ऐसे प्रयोग सारगर्भित बनाते हैं।

देवेंद्र जी ने नवगीतों के कथ्य में एकपक्षीय न होकर संतुलन साधने की सफल कोशिश की है। 'सीता को पीटे राम धनी' में स्त्री-प्रताड़ना है, 'माँ को अपनी परवाह नहीं' में स्त्री की त्यागवृत्ति और खुद के प्रति लापरवाही है तो 'आशीष दे रही महतारी' में स्त्री-गौरव है। 'बेटा ब्याहा हम छले गए में' स्त्री ही स्त्री की बैरी के रूप में हैं। 'रैम्प पर जलवे बिखेरें / उर्वशी मैडम' तथा 'फटी जींस, बिकनी के ऊपर / बैकलेस है टॉप / राधारानी पहने घूमें / साधु भूलते जाप' में देह-दर्शन को प्रगति समझती स्त्री, 'दुखी रसोई घर की पीड़ा / समझे बढ़कर कौन / आँख कान मुख हाथों वाले / साधे रहते मौन' में' स्त्री की व्यथा को समझ कर नासमझ बनता समाज, 'समझ न आये / कौन गलत है, कौन सही / शबरी अपने आँसू / पीते सोच रही' में परिवर्तन के लिए चिंतन की और उन्मुख होती स्त्री अनेक बिंब इन नवगीतों में उभरते हैं और पाठक को चिंतन करने के लिए प्रेरित करते हैं।   

राजनीति के विविध रूप सफलता के साथ इन गीतों में प्रतिबिंबित हुए हैं। 'शातिर मुखिया क्या जाने कब / चल दे कैसी चाल', 'चतुर राजा जन सभा में / दे रहा भाषण', घूरें शातिर खड़े मछेरे / दाना डालें शाम-सवेरे,  'न्याय आँख पर पट्टी बांधे / अपराधी बेखटके / राजा सोया हुआ / पहरुए करें / खूब मनमानी', बौने से हो गए शीर्ष कद / दूषित मन इतने मटमैले / दोषी कौन कहे दूजे को / ढोंगी अमर बेल से फैले', 'भरोसा कैसे करें / इतना हुआ नैतिक पतन / हमारे ही नीति निर्धारक / हमें छलने लगे' आदि गीत जैसे-जैसे समय बीतेगा अधिकाधिक प्रासंगिक होते जाएँगे।

'जींस में ऐसा असर गायब हुई धोती' में परंपरा पर हावी होती अधुनातनता, 'होर्डिंग बैनर लगाये धूर्त व्यापारी' में हावी होता पूंजीवाद', 'मुझे डराने आ पहुँचा / मँहगाई का बैताल' में जमीनी सचाई, चाँद-सितारे छूकर भी हम / मन से अभी आदिवासी हैं' तथा 'खुला-खुलापन कहने को है / सहज सी सिमटी मुद्राएँ में अंतर्विरोध, 'जूझ रहे हम अंधकार से / हाथों की छिन गई मशालें में' विडंबना, 'साहूकार सुबह आ धमका / बोला ब्याज निकाल' में शोषण, मन के बंधन / बंधन लगते' में बेबसी, 'क्या कहें कैसे बताएँ / होंठ पर कितनी कथाएँ' तथा 'मन की अपनी लाचारी है / थिर हैं पाँव / सफ़र जरी है' में असमंजस आदि भावनाएँ व्यक्त कर कवि ने अपनी सामर्थ्य की झलक दिखाई है। 'हम विजयी नायक' शीर्षक नवगीत एक भिन्न भाव-मुद्रा के माध्यम से कवि की सामर्थ्य का परिचय देता है।

'हार न मानो, जीवन में हैं / यक्ष-प्रश्न अनगिन', सच न झूठ से हार मानता / हार सोचना भी अनुचित है, 'मंजिल के संदेशे आते / लगते हम किस्मतवाले हैं' द्युति चमके मचले पुरवाई / रस-विभोर उमगे तरुणाई', 'शक्ति के आधार हैं / अरुणिम सवेरे' तथा 'घोर अँधेरा अब न सहेंगी / खोल रही हैं बंद खिड़कियाँ / चौखट बढ़कर / लाँघ रही हैं / दृष्टि नई / दे रही बेटियाँ', 'आओ, हम यूँ शुरुआत करें / सुख-दुःख बाँटे / कुछ बात करें' आदि में आशावाद की झलक से नवगीत को एकांगी होने से बचाना सफल जी की ऐसी सफलता है जिससे अधिकांश नवगीतकार वंचित रहे हैं. संभव है कि वैचारिक प्रतिबद्धता से ग्रस्त पूर्वाग्रही समीक्षक ऐसे नवगीतों को नवगीत मानाने से ही इनकार कर दें किंतु देवेंद्र जी को उनकी परवाह ना करते हुए ऐसे नवगीत इतनी अधिक संख्या में रचने चाहिए कि नवगीत की भावी परिभाषा पराजय, कुंठा, पीड़ा से अधिक संघर्ष, प्रयास, विश्वास और साफल्य के रूप में हो। 'उजाला बनकर / अँधेरी / रात को खलिए' तथा 'आनेवाली पीढ़ी को हम / आओ, सुखद जवानी दे दें / अपने जले पाँव हों चाहे / उनको शाम सुहानी दे दें' जैसे नवगीत वास्तव में नयेपन की ओर बढ़ते नवगीत की ऐसी भाव मुद्राएँ हैं जिन्हें स्वीकारने में संकीर्ण-दृष्टि आलोचक को समय लगेगा। नए नवगीतकारों को यह परंपरा सुदृढ़ बनाने के प्रयास कर खुद को स्थापित करना होगा ताकि नवगीत भी कल्पना के खुले आकाश में साँस ले सके।
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समीक्षक संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संसथान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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रविवार, 16 सितंबर 2018

समीक्षा मौन की झंकार, गीत संग्रह, संध्या सिंह

कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.कृति चर्चा:
"मौन की झंकार" गीत में नवगीत का संस्कार 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[कृति विवरण: मौन की झंकार, गीत संग्रह, संध्या सिंह, प्रथम संस्करण २०१७, आई. एस. बी. एन. ९७८-९३-८४७७३-४१-०, पृष्ठ ८८, आवरण  बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, मूल्य १५०/-, अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद ५, चलभाष ०९९१११७९३६८, ०९८११२७९३६८, रचनाकार संपर्क: डी १२२५ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष: ७३८८१७८४५९, ७३७६०६१०५६। ]
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              गीति काव्य और मानव सभ्यता का साथ चोली-दामन का सा है। आदिकाल से कलकल-कलरव, गर्जन-तर्जन, रुदन-हास के साथ पलता-बढ़ता मानव अन्य प्राणियों की तुलना में 'नाद' को अधिक सघनता से ग्रहण कर अभिव्यक्त कर सका। अंतर्नाद तथ बहिर्नाद का सम्यक संतुलन विविध ध्वनियों को सुन, ग्रहण, स्मरण तथा अभिव्यक्त कर क्रमश: एकालाप व वार्तालाप का विकास कर वाचिक परंपरा का वाहक बना। श्रुति-स्मृति  की परंपरा विद्वद्वर्ग में विकसित हुई तो लोक में लोकगीत (लोरी, जस, देवी गीत, मिलन गीत, विरह गीत, आल्हा, बम्बुलिया, राई, बटोही, कजरी, फाग, कबीर आदि) और लोककथाओं का प्रचलन हुआ। विविध शैलियों और शिल्पों का समन्वय कर गीति काव्य 'स्व'  को 'सर्व' से सम्बद्ध करने का सेतु बना। समय तथा स्थितियों से साक्षात् करते स्वर, ताल से संयुक्त होकर गति-यति-लय का सहयोग पाकर सत्-शिव-सुंदर के वाहक बने। सतत परिवर्तित होते देश-काल-परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में गीत की वाचिक परंपरा लोकगीत, जनगीत, आव्हान गीत, विरुदावली, भक्ति गीत, प्रणय गीत आदि पड़ावों से होते हुए जन-जीवन के खुरदुरे यथार्थ को संवेदनशीलता  से स्पर्श करते हुए 'नवगीत' की संज्ञा से अभिषिक्त कर दी गई। विडंबना यह कि दीर्घकालिक पराधीनता तथा सद्य प्राप्त स्वाधीनता के संधि काल में पारंपरिक परंपराओं पर नवीन मूल्यों की चाहत हावी होती गई। राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धताओं ने साहित्य में भी गुटबंदी को जन्म दिया। फलत:, प्रगतिवाद के नाम पर सामाजिक वैषम्य-विडंबना, टकराव-बिखराव, दर्द-पीड़ा की अभिव्यक्ति को ही प्रगतिवाद कह दिया गया। उत्सव, आल्हाद, सुख, हर्ष, मिलन, सहयोग, साहचर्य, सद्भाव आदि भावनाओं को परित्यक्त मानने के दुराग्रह को लोक ने अस्वीकार कर दिया।  लोक-जीवन के प्राणतत्व  उत्सवधर्मिता का वास्तविक आकलन न कर प्रगतिवादी कविता के प्रति लोक की उदासीनता को गीत का कारण मान लिया गया। विधि का विधान यह कि 'गीत' के मरण की घोषणा करनेवाले मर गए पर गीत छंद की विरासत के साथ न केवल जिंदा रहा आया, अपितु उसकी वंश परंपरा लोक से जीवन-सत्व पाकर पहले की तुलना में दिन-ब-दिन अधिकाधिक परिपुष्ट होती रही।

              नवगीत ने इन परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी जड़ों को मजबूत करने के साथ-साथ नव शाखों और नव पल्लवों के रूप में जीवन के सभी अंगों को अंगीकार किया। अपने उद्भव काल में निर्धारित की गई परिभाषा और मानकों को मार्गदर्शक मानते हुए भी नवगीत ने उन्हें पिंजरे की तरह नहीं माना और मुक्ताकाश में उड़ान भरते हुए मानव-मन और जीवन की विविध अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर खुद को सार्थक सिद्ध किया। नवगीत को नव भाव-मुद्रा के साथ बिना कोई दावा किए पूरी शिद्दत के साथ अंगीकार करनेवाली कलमों में लखनऊ की सरजमीं पर रचनारत संध्या सिंह का भी शुमार है। संध्या जी की कृति 'मौन की झंकार' में वरिष्ठ नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी ने ठीक ही लिखा है कि संध्या जी उन कुछ में हैं जो शब्द की लय और अर्थ की लय को इस तरह अपने से जोड़े हुए हैं कि गद्य रचते हुए भी कथ्य की आधुनिकता, समकालीनता के बावजूद छांदस बनेनी रहे। नवगीत की पाठशाला के मंच पर विदुषी शारद सुता पूर्णिमा बर्मन के सत्संग में नवगीत का ककहरा पढ़कर अभिव्यक्ति विश्वम् का प्रतिष्ठित पुरस्कार पाकर अपने लेखन की प्रामाणिकता सिद्ध करनेवाली संध्या जी आत्मलीन रचनाकार तो हैं किन्तु आत्मीमुग्ध रचनाकार नहीं हैं। वे अग-जग की खोज-खबर रखकर भी 'पर' की अनुभूति को 'स्व' की तरह अनुभव कर अभिव्यक्त कर पाती हैं-
'सहेजो जरा
प्रेम की मछलियों को
कि तट पर खड़ा है अभी तक मछेरा'

              निजता और सार्वजनिकता को 'दो में एक' की तरह देखती संध्या जी जानती हैं कि 'घर-घर में मिट्टी के चूल्हें हैं' किंतु वे ही घर को घर बनाये रखते हैं -
'भीतर पानी में कंपन है
भले जमी हो काई
पिंजरे की चिड़िया सपने में
अंबर तक हो आई
मन की अपनी मुक्त उड़ानें
तन के सख्त नियम'

              सामयिक समस्याओं और पारिस्थितिक विडंबनाओं को देखती-स्वीकारती, उनसे जूझने का दर्द झेलने के बाद भी जिजीविषा अपने सपने नहीं छोड़ती-
'जीवन का अब गद्य जरा सा
गीतों में ढलने दो ...
.... कंटक पथ और घना अँधेरा
मंथन में बस मिला हलाहल
पाँव छिले हैं कल देखेंगे
बंजर जैसा ठोस धरातल
अभी मुलायम नरम गुदगुदे
सपने पर चलने दो।'

              इन नवगीतों में किताबी आलंकारिक तथा क्लिष्ट प्राध्यापकीय भाषा से बचते हुए परिमार्जित रूप में अपनी बात कही गई है जो आम आदमी के मन तक पहुँचती है-
'छाया छत
विश्राम ठिकाने
बने रहे पथ में अनजाने
झोंके बादल
और फुहारें
आए केवल रस्म निभाने
बीज लिए मुट्ठी में फिरते बंजर-बंजर'

              अभिव्यक्ति का सबल वाहक बनकर गीत मानव मात्र ही नहीं सकल सृष्टि (प्रकृति, पर्यावरण, जीवन मूल्य आदि) के कुशल-क्षेम की कामना करता हुआ रूढ़ियों-आडंबरों से संघर्ष कर सामाजिक सरोकारों से हाथ मिलाते हुए नर-नारी, शासक-शासित के मध्य समन्वय और समझ की नव संस्कृति को सबल बना रहा है। 'मौन की झनकार' के नवगीतों में अन्तर्निहित पंच तत्वों सटीकता, सरलता, सरसता, संक्षिप्तता तथा मौलिकता के शब्द सुमनों को संवेदना के सूत्र (धागे) में पिरोकर प्रस्तुत किया गया है। दिन भर जीवन संघर्षों से जूझने के बाद गीत थकता-चुकता नहीं, प्रकृति और समाज के सानिन्ध्य में अंतर्मन की अनुभूतियों को सम्यक बिंबों, प्रतीकों, उपमानों, रूपकों आदि के माध्यम से अभिव्यक्त कर आनुप्रसिक सौंदर्य की छटा बिखेरता है- 'रस्ता रोक रही चट्टानें / पत्थर से सब बंद मुहाने / पर्वत की पूरी साजिश है / उठती लहर दबाने की' और यह भी कि 'देह सहेजी बड़े जतन से  / लेकिन रही निरंतर ढलती / बहुत कसी मुट्ठी में लेकिन / उम्र रेत सी रही निकलती' पर गीत यह भी जानता है कि 'मगर नदी ने जिद ठानी है / सागर तक बह जाने की।', 'मछली को फरमान दे दिया / आसमान में उड़ना सीखे', सर्प सरीखे दिन जहरीले /नागिन जैसी रात विषैली', आज घटा ने पानी फेरा / मेहनत के अरमानों पर' आदि ही अंतिम सत्य नहीं है। संध्या जी का नवगीतकार वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध नवगीतकारों की तुलना में भिन्न और बेहतर इसलिए है कि जीवन को समग्रता में देखकर उसका आकलन करता है। 'करो आज जगमग दसों ही दिशाएँ / दिए के तले भी न छूटे अँधेरा', 'तुम भले पतवार तोड़ो / नाव को मँझधार मोड़ो / हम भँवर / से पार होकर / ढूँढ लेंगे खुद किनारे', लहरों की पाजेब पहनकर / जल के ऊपर थिरक रही है / ये उत्सव की शाम।' जैसी गीति रचनाओं में नवगीत को घिसे-पिटे कलेवर से निकालकर वैसी ही  उत्सवधर्मी भाव मुद्रा दी गयी है जैसी 'काल है संक्रांति का' के कुछ नवगीतों में है किंतु अपनी मौलिकता को बनाये रखकर। नवगीत की पिछली अर्ध सदी में नकारात्मता के स्वर प्रधान रहे हैं किन्तु संध्या जी के नवगीत नव रचनाधर्मियों को दिशा दिखाते हैं कि नवगीत में हर्ष, उमंग, उल्लास, आल्हाद वर्जित नहीं है, उसकी अभिव्यक्ति का तरीका पारंपरिक तरीके से यत्किंचित भिन्न अवश्य है।

              नवगीतों की भाषा को प्रवाहमयी बनाये रखने के लिए कवयित्री ने अपने उपकरण खुद ईजाद किये हैं। ''शब्दावृत्ति'' एक ऐसा ही उपकरण है। इन गीतों में शब्दों के दुहराव से उत्पन्न आनुप्रसिकता ने सरसता का संचार करने के साथ-साथ कथ्य पर बल भी दिया है। जनम-जनम, ऊपर-ऊपर, भरी-भरी, ऊबी-ऊबी, जहाँ-जहाँ, वहाँ-वहाँ, भीतर-भीतर, नस-नस, बूँद-बूँद, कब-कब, बुला-बुला, मना-मना, कदम-कदम, परत-परत, खंड-खंड, रौंद-रौंद, रेंग-रेंग, टिक-टिक, सदियों-सदियों, जन्मों-जन्मों, बहक-बहक, छम-छम, भीग-भीग, घूँट-घूँट, रह-रह, तिल-तिल, बदल-बदल, सहमी-सहमी, भुला-भुला, कंकर-कंकर, किरन-किरन, सोना-सोना, सिक्का-सिक्का, लहर-लहर, हटा-हटा, पात-पात, टहनी-टहनी, बीत-बीत, गली-गली, पंखुरी-पंखुरी, अक्षर-अक्षर, उपवन-उपवन, फूल-फूल, उजड़ा-उजड़ा, सहमे-सहमे, सँभल-सँभल, फिसल-फिसल, थल-थल, पिघल-पिघल, फूल-फूल, घूम-घूम, गलियों-गलियों, वहीं-वहीं, डब-डब, छिप-छिप, धीमे-धीमे, पत्ता-पत्ता आदि शब्द-युग्मों के माध्यम से भाव अथवा क्रिया का सघनीकरण अभिव्यक्त किया गया है।

              नवगीत भली-भाँति जानता है विसंगतियों से दो-चार होता हुआ आम आदमी ही नहीं, गरीब और कमजोर मनुष्य भी उत्सवधर्मी रसात्मकता के सहारे अभावजयी हो जाता है-
खिड़की-खिड़की हवा बाँटती
चिट्ठी फूलों की
पंखुड़ियों का बिछा गलीचा
खुशबू का पंडाल
पवन बसंती मादक धुन पर
गढ़े तिलस्मी जाल
इस उत्सव ने सहला दी है
चुभन बबूलों की

              नचिकेता जिस प्रयोगधर्मी नव्यता के दुराग्रह से दूर रहने की सलाह देते हैं, संध्या जी के नवगीतों में उसकी झलक दूर-दूर तक नहीं है। मौन की झंकार की कवयित्री गीत-नवगीत के विभाजन को गीत के लिए हानिप्रद मानकर कथ्य को 'स्व' से 'सर्व' तक पहुँचाने की प्रक्रिया के रूप में छंद को अंगीकार करती है और शब्दों का चयन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए करते समय हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी या बोली के आधार पर नहीं करती। परिणामत: गीत-पंक्तियाँ वह कह पाती हैं जिसे कहने के लिए उन्हें रचा गया है।

              समय और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सवाल उठाए बिना समाधान नहीं मिल सकता, इसलिए किसी को कटघरे में खड़े किए बिना, आरोप-प्रत्यारोप किए बिना सत्य की अदालत में संध्या जी पूछती हैं-
'ऊबे दिन बासी रातों से
कैसे नयी कहानी लिख दें....
... उधर झोल है संबंधों में
इधर अहं के तार कसे हैं
यहाँ सिर्फ उपदेश नसीहत
सपने तो उस पार बसे हैं
आन-बान की संगीनों में
कैसे साफ़ बयानी लिख दें।

              सम्पन्नता को सुखदाई मानकर किसी भी कीमत पर पाने के लिए लडती-मरती जीवन शैली से असहमत संध्या जी कहती हैं-
'यश वैभव के हिम पर्वत पर
रिश्तों की गर्माहट खोती'
और
'तमगे और तालियाँ अकसर
तन्हाई का जंगल बोतीं'
प्यार बंधन बनकर क्यों आता है-
प्यार तुम्हारा इसी शर्त पर
हुनर हदों से बाहर दीखे
मछली को फरमान दे दिया
आसमान से उड़ना सीखे'
और इसका दुष्परिणाम
'दिए हारकर जो सपनों को
त्यागपत्र मंजूर हो गए'

              अंधियारों के हाथों पराजित होना सपनों को मंजूर नहीं है। यह जिजीविषा का नया स्वर इस सदी के नवगीतकारों ने नवगीत को दिया है और इसी के बल पर नवगीत भावी को सपने देते हुए कहेगा-
जब सपनों पर लगे फफूंदी
जीवन में चौमासा आये
जब पीड़ा के अंकुर पनपें
उत्सव पर सीलन छा जाए
तब सूर्योदय के पहले ही
तन के श्याम पट्ट पर लिख दूँ
उजियारे के अक्षर'

              'मौन की झंकार' से जिस यात्रा का आगाज़ हुआ है, उसका अंजाम अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा होगा, यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है और इसी भरोसे के सहारे संध्या जी के आगामी नवगीत संकलन की प्रतीक्षा की जा सकती है।
[चर्चाकार संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ईमेल: salilsanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४]
***

शनिवार, 15 सितंबर 2018

समीक्षा:


कृति चर्चा:
"शब्द वर्तमान" भाव विद्यमान
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
कृति विवरण: शब्द वर्तमान, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१८, आकार २०.५ से. x १४ से., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १२८, मूल्य १२०/- , बोधि प्रकाशन, सी ७६ सुदर्शनपुरा औद्योगिक क्षेत्र विस्तार, नाला रोड, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, चलभाष ९८२९०१८०८७, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क आई.सी.५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९१ ७८६९१९३९२७, ९७१३५४४६४२, समीक्षक संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८ ]
*

विश्ववाणी हिंदी ने वाचिक परंपरा से विरासत में प्राप्त जिन रचना विधाओं मे सर्वाधिक लाड़ जिस रचना विधा को दिया है, वह गीति विधा है। देश-काल-परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में गीत विधा सतत परिवर्तित होती रही है। गीत का कथ्य, भाव, भंगिमाएँ, शब्दावली, शैली आदि हे इन्हीं बिंब, प्रतीक और अलंकार भी परिवार्तित होते रहे हैं. यह परिवर्तन इतनी तीव्र गति से हुआ है कि गीत कविता और गद्य की तरह होकर अगीत और गद्यगीत की संज्ञा से भी अभिषिक्त किया गया। विविध बदलावों के बाद भी गीत की लय या गेयता बरक़रार रही किंतु अगीत और गद्य गीत ने इससे भी मुक्त होने का प्रयास किया और तथाकथित प्रगतिवादी कविता ने गीत-किले में सेंध लगाकर उसे समाप्त करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। यह गीत की जिजीविषा ही है कि सकल उठा-पाठक के बाद भी गीत अमरबेल की तरह फिर-फिर उठ खड़ा हुआ और पूर्वपेक्षा अधिकाधिक आगे बढ़ता गया।

भारत के ह्रदय प्रदेश नर्मदांचल में आधुनिक हिंदी (खड़ी बोली) अपने शुद्धतम रूप में बोली-लिखी जाती है। इस अंचल के रचनाकार प्रचार-प्रसार को महत्व न दे, रचनाकर्म को स्वांत: सुखाय अपनाते रहे हैं। फलत:, वे चर्चा में भले ही न बने रहते हों किंतु रचनाधर्मिता में हमेशा आगे रहे हैं। जयप्रकाश श्रीवास्तव इसी परंपरा के रचनाकार हैं जो कहने से अधिक करने में विश्वास करते हैं। मन का साकेत गीत संग्रह (२०१२) तथा परिंदे संवेदना के गीत-नवगीत संग्रह (२०१५) के बाद अब जयप्रकाश जी शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह के साथ गीत संसद में दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वे नरसिंहपुर जिले की लोक परंपरा और शिक्षकीय भाषिक संस्कार की नीव पर आम आदमी की व्यथ-कथा की ईटों में आशा निराशा का सीमेंट-पानी मिश्रित मसाला मिलते हुए जिजीविषा की कन्नी से नवगीत की इमारत खड़ी करते हैं। जय प्रकश जी के नवगीतों में समसामयिक समस्याओं से आँखें चार करते हुए दर्द से जूझने, विसंगतियों ले लड़ने और अभाव रहते हुए भी हार न मानने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। इन नवगीतों में मानव मन की जटिलता है, संबंधों में उपजता-पलता परायापन है, स्मृतियों में जीता गाँव, स्वार्थ के काँटों से घायल होता समरसता का पाँव, गाँव की भौजाई बनने को विवश गरीब की आकांक्षा है, विश्वासों को नीलम कर सत्ता का समीकरण साधती राजनीति है, गाँवों को मुग्ध कर उनकी आत्मनिर्भरता को मिटाकर आतंकियों की तरह घुसपैठ करता शहर है। जयप्रकाश जी शब्दों को शब्दकोशीय अर्थों से मिली सीमा की कैद में रखकर प्रयोग नहीं करते, वे शब्दों को वृहत्तर भंगोमाओं का पर्याय बना पाते हैं। उनके गीत आत्मलीनता के दस्तावेज नहीं, सार्वजनीन चेतना की प्रतीति के कथोकथन हैं। इनकी भाषा लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता तथा उक्ति वैचित्र्य से समृद्ध है।

''कल मिला था
शहर में इक गाँव
सपनों की लिए गठरी''
सपनों को खुला आकाश न मिलकर गठरी मिलना ही इंगित करता है कि सपनों को देखनेवाले गाँव हालत चिंतनीय ही हो सकती है-
"आँखों में नमी ठहरी.....
सत्ता हो गई बहरी.....
और अंतत: लांघता झूठ की देहरी।"
बुभुक्षति किं न करोति पापं.... विडम्बना यह कि शहर के हाल भी बेहाल हैं-
"तुम्हीं बताओ
शहर कहाँ है?
अभी यही था
गया कहाँ है?
घर सारे बन गए दुकानें......
कुछ तो बोलो
आम आदमी
आखिर क्यों
लाचार यहाँ है?....
चौपट सारी हुई व्यवस्था
मूक-बधिर
कानून जहाँ है।"
इतना ही होता तो गनीमत होती।
हद तो यह कि जंगल की भी खैर नहीं है-
"लिख रहा मौसम कहानी
दहकते अंगार वन की
धरा बेबस
जन्मती हर और बंजर
हवाओं के
हाथ में बुझे खंजर"
और अंतत:
"यह चराचर जगत फानी
बन गया समिधा हवन की।"

जय प्रकाश जी के नवगीतों का मुखड़ा और सम वजनी पंक्तियाँ सार कह देती हैं, अंतरा तो उनका विस्तार जैसा होता है-
"उड़ मत पंछी
कटे परों से
बड़े बेरहम गिद्ध यहाँ के
(अंतरा)
तन से उजले
मन के काले
बन बैठे हैं सिद्ध यहाँ के
(अंतरा) सत्ता के
हाथों बिकते हैं
धर्मभ्रष्ट हो बुद्ध यहाँ के
(अंतरा)
खींच विभाजन
रेखा करते
मार्ग सभी अवरुद्ध यहाँ के।
अब अंतरे देखें तो बात स्पष्ट हो जायेगी।
१. नोंच-नोंच कर
खा जायेंगे
सारी बगिया
पानी तक को
तरस जायेगी
उम्र गुजरिया,
२. हकदारी का
बैठा पहरा
साँस-साँस पर
करुणा रोती
कटता जीवन
बस उसाँस पर,
३. तकदीरों के
अजब-गजब से
खेल निराले
तदबीरों पर
डाल रहे हैं
हक के ताले।
नवगीत लेखन में पदार्पण कर रही कलमों के लिए मुखड़े अंतरे तथा स्थाई पंक्तियों का अंतर्संबंध समझना जरूरी है।

विदेश प्रवास के बीच बोस्टन में लिखा गया नवगीत परिवेश के प्रति जयप्रकाश जी की सजगता की बानगी देता है-
तड़क-भक है
खुली सड़क है
मीलों लंबी खामोशी है।

जंगल सारा
ऊँघ रहा है
चिड़िया गाती नहीं सवेरे
नभ के नीचे
मेघ उदासी
पहने बैठे घोर अँधेरे
हवा बाँटती
घूम रही है
ठिठुरन वाली मदहोशी है।

जयप्रकाश जी ने मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग कम किंतु कुशलता से किया है-
"मन का क्या है
रमता जोगी, बहता पानी
कभी हिरण सा भरें कुलाँचें
कभी मचलता निर्मल झरना",
या "मुर्दों की बस्ती में
जाग रहे मरघट हैं",
"सुविधा के खाली
पीट रहे ढोल हैं
मंदी में प्रजातंत्र
बिकता बिन मोल है",
"अंधों के हाथ
लग गई बटेर
देर कहें या इसको
कह दें अंधेर" आदि

उक्ति वैचित्र्य के माध्यम से इंगितों में बिन कहे कह जाने की कला इन नवगीतों में सहज दृष्टव्य है- सपनों की गठरी, झूठ की देहरी, अक्षर की पगथली, शब्दों के जंगल, अर्थों के बियाबान, यग का संत्रास, सभ्यता के दोराहे, संस्कार मीठे से, अंधेरों की लम्बी उम्र, सूर्य के वंशज, हौसलों के सहारे, चल की महफिल, मँहगाई की मार, संबंधों का बौनापन, अपनेपन के वातायन, हरकतों का खामियाजा, साँसों का व्यापार, चाँद की हँसुली, देह के आल्हाद, शब्द के शहतीर, वन के कारोबार, मस्तियों की गुलाल, चाँदनी के गाँव आदि दृष्टव्य हैं।

भूमिका में ख्यात नवगीतकार और समीक्षक डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' ने ठीक ही आकलन किया है- "यहाँ समूचा युग प्रतिबिंबित है।" नवगीत का कथ्य समसामयिक आदमी के दर्द और पीड़ा, समाज में व्याप्त विसंगतियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं, न जीने न मरने देने वाली मारक परिस्थितियों आदि के बीच से उठाया जाता है। जीवन संघर्ष, आशा-निराशा, भटकाव-अटकाव आदि नवगीत को सचाई का आईना बना देती हैं।

नवगीत आधुनिक युग बोध और पारंपरिक लोक चेतना के सम्मिलन से उपजे क्रिया व्यापार और उसके परिणाम पर संवेदनशील मन की प्रतिक्रिया है। नवगीत व्यक्ति में उपजा समष्टि बोध है, जय प्रकाश जी के नवगीत इसकी पुष्टि करते हैं-
"उठ रहा है
धुआँ चारों ओर से
आग ये कैसी लगी है?"

नवगीत वैयक्तिक पीड़ा का सामान्यीकरण है-
"रात चटकी
चूड़ियों सी
धुला काजल
नहीं लौटा
गया जबसे /
दूत बादल
पिया के
जाने कहाँ है ठाँव
बेबस मन हुए हैं।

साधारण दृश्य को असाधारण संवेदना के साथ अभिव्यक्त करने में जय्प्रक्ष जी का सानी नहीं है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार "अनुभव का अनुभव होना अनुभूति है।" लघुकाय, खंडित, अमूर्त और देखकर अदेखे किये गए बिंब के माध्यम से संवेदना को अधिक मार्मिक और तीक्ष्ण बनाते हैं ये नवगीत-
"सर्द तन्हाई
बुझाने बर्फ कूदी
धूप पोखर में
लिपटकर सपने
आँखों से झरे
पात पीपल के
खदकने से डरे
देख धुंधलापन
सड़क ने आँख मूँदी
शहर ठोकर में।"

नवगीतों में अल्प विराम, अर्ध विराम, विस्मय बोधक चिन्ह आदि की अपनी उपादेयता होती है किन्तु जयप्रकाश जी पदांत में पूर्णविराम के अतिरिक्त अन्य किसी विराम चिन्ह का प्रयोग नहीं करते। भँवरे के स्थान पर भंवरे का प्रयोग त्रुटि पूर्ण है।

प्राकृतिक आपदाओं के समय से गगन विहारियों द्वारा आसमान से जन-विपदा का जायजा लेना जले पर नमक छिड़कने की तरह प्रतीत होता है-
"दुखती रग पर
हाथ धरकर
पूछते हैं हाल
पीठ पर चढ़
हँस रहा है
आज भी बैताल
आँसुओं से
लड़ रहे हैं जंग
सपने आँख में ठहरे।

'शब्द वर्तमान" के नवगीत केवल व्यथा-कथा नहीं है, उनमें लोक मंगल भी परिव्याप्त है। इस दृष्टि से ये गीत अधिक पूर्ण हैं-
अनगिनत किरणें सजा
थाल में लाई उषा
धरा का मंगल हुई।
लिपे आँगन धूप से
पक्षियों के मधुर गान
हो गया तम निर्वासन
दिशाएँ सब दीप्तिमान
अर्ध्य सूरज को चढ़ा
प्रकृति उज्जवल हुई।

तुम कहाँ हो शीर्षक गीत श्रृंगार समेटे हैं-
गीत मन के द्वार
देने लगे दस्तक
तुम कहाँ हो?
शब्द आँखों से
चुराकर ले गये सपने
अक्षरों की अँगुलियाँ
मंगल लगी लिखने
उचारे हैं साँसों ने
स्वस्तिक के अष्टक
तुम कहाँ हो?

संकीर्णतावादी समीक्षक ऐसे प्रयोगों को नवगीत न माने तो भी कोई अंतर नहीं होता। नवगीत सतत नयी भाव-भंगिमाओं को आत्मसात करता रहेगा। जय प्रकाश जी के ये नवगीत परिवर्तन की आहट सुना रहे हैं। 
***

गुरुवार, 13 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा :
"मुखर अब मौन है": सुन-समझता कौन है?
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: मुखर अब कौन है, गीत संग्रह, डॉ. मधु प्रधान, प्रथम संस्करण २०१६, आकार पृष्ठ १०९ मूल्य २५०/-, , आवरण पेपरबैक बहुरंगी २१.५ से. x १४ से., व्ही. पी. पब्लिशर्स, डब्ल्यू २, ८६२ बसंत विहार, नौबस्ता, कानपुर, चलभाष ९४५०३३१३४०, ईमेल vppublishers@gmail.com, रचनाकार संपर्क: ३ ए /५८-ए आजाद नगर, कानपुर, चलभाष ०९२३६०१७६६६, ०८५६२९८४८९५]
*
"मुखर अब मौन है" विश्ववाणी हिंदी के गीति काव्य की छायावादी विरासत को सहेजने-सम्हालने ही नहीं जीनेवाली वरिष्ठ गीतकार डॉ. मधु प्रधान की बहु प्रतीक्षित कृति है। छायावादी भावधारा को साहित्यकारों की जिस पीढ़ी ने प्राण-प्राण से पुष्पित करने में अपने आपको अर्पित कर दिया उनका साहचर्य और उनसे प्रेरणा पाने का सौभाग्य मधु जी को मिला है। पूज्य मातुश्री स्व. शांति देवी व बुआ श्री महीयसी महादेवी के श्री चरणों में बैठकर कुछ सुनने-सीखने का सौभाग्य मुझे भी मिला है।  कृष्णायनकार स्व. द्वारकाप्रसाद मिश्र, मांसलतावाद के जनक स्व. रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', नर्मदांचल के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि स्व. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', श्री चंद्रसेन 'विराट', डॉ. रोहिताश्व अस्थाना तथा गुरुवर श्री सुरेश उपाध्याय आदि ने गीत और छंद की आधारभूत समझ विकसित करने में पथ-प्रदर्शन किया। 'मुखर अब मौन है' से संवाद करते हुए स्मृतियाँ ताजी हो रही हैं। मधु जी के इन गीतों में यत्र-तत्र मधु की मिठास व्याप्त है। जीवन में प्राप्त दर्द और पीड़ा को पचाकर मिठास के गीत गाने के लिए जिस जीवट और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है वह मधु जी में है। पद्मभूषण नीरज जी ने ठीक ही कहा है- "उनके भीतर काव्य-सृजन की सहज क्षमता है इसीलिए अनायास-अप्रयास उनके गीतों में बड़े ही मार्मिक बिंब स्वयं ही उतरकर सज जाते हैं।"

छायावादी गीत परंपरा में पली-बढ़ी मधु जी ने सौंदर्यानुभूति को जीवन-चेतना के रूप में अपने गीतों में ढाला है। उनका मानस जगत कामना और कल्पना को इतनी एकाग्रता से एकरूप करता है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अंतर नहीं रह जाता। स्मृतियों के वातायन से झाँकते हुए वर्तमान के साथ चलने में असंगति और स्मृति-भ्रम का खतरा होता है किंतु मधु जी ने पूरी निस्संगता के साथ कथ्य के साथ न्याय किया है-


"मेरे मादक
मधु गीतों में
तुमने कैसी तृषा जगा दी।
मैं अपने में ही खोई थी
अनजानी थी जगत रीति से
कोई चाह नहीं थी मन में
ज्ञात नहीं थे गीत प्रीत के
रोम-रोम अब
महक रहा है
तुमने सुधि की सुधा पिला दी।"
सुधियों की सुधा पीकर बेसुध होना सहज-स्वाभाविक है।

मधु जी के ये गीत साँस के सितार पर राग और विराग के सुर एक साथ जितनी सहजता से छेड़ पाते हैं वह अनुभूतियों को आत्मसात किये बिना संभव नहीं होता।

"प्राणी मात्र
खिलौना उसका
जिसमें सारी सृष्टि समाई ...
... आगत उषा-निशा का स्वागत
ओस धुले पथ पर आमंत्रण
पर मन की उन्मादी लहरें
खोज रहीं कुछ मधु-भीगे क्षण
 किंतु पता
किसको है किस पल
 ले ले समय
विषम अंगड़ाई।"

उनके गीतों में छायावाद (वे सृजन के / प्रणेता, मैं / प्रकृति की / अभिव्यंजना हूँ , कौन बुलाता / चुपके से / यह मौन निमंत्रण / किसका है, तुम रहे / पाषाण ही / मैं आरती गाती रही, शून्य पथ है मैं अकेली / हो रहा आभास लेकिन / साथ मेरे चल रहे तुम आदि) के साथ कर्म योग (मोह का परिपथ नहीं मेरे लिए / क्यूं (क्यों) करूँ मुक्ति का अभिनन्दन / मैं गीत जन्म के गाऊँगी, धूप ढल गयी, बीत गया दिन / लौट चलो घर रात हो गई आदि) का दुर्लभ सम्मिश्रण दृष्टव्य है।

काव्य प्राणी की अन्तश्चेतना में व्याप्त कोमलतम अनुभूति की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति है।  इसमें जीवन के हर उतार-चढ़ाव, धूप-छाँव, फूल-शूल,  सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इस तरह होती है कि व्यक्ति का नाम न हो और प्रवृत्ति का उल्लेख हो जाए। कलकल और कलरव , नाद और ताल, रुदन और हास काव्य में बिंबित होकर 'स्व' की प्रतीति 'सर्व' के लिए ग्रहणीय बनाते हैं। मधु जी ने जीवन में जो पाया और जो खोया उसे न तो अपने तक सीमित रखा, न सबके साथ साझा किया। उन्होंने आत्मानुभव को शब्दों में ढालकर समय का दस्तावेज बना दिया। उनके गीत उनकी अनुभूतियों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वे स्वयं अनुपस्थित होती हैं लेकिन उनकी प्रतीति पाठक / श्रोता को अपनी प्रतीत होती है। इसीलिये वे अपनी बात में कहती हैं- "रचनाओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण कारक होते हैं जो सृजन को जमीन देते हैं और उनका पोषण करते हैं। वे बीज रूप में अंतस में बैठ जाते हैं और समय पाकर अंकुरित हो उठते हैं।"

रचनाकार की भावाकुलता कभी-कभी अतिरेकी हो जाती है तो कभी-कभी अस्पष्ट, ऐसा उसकी ईमानदारी के कारण होता है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने की अकृत्रिमता या स्वाभाविकता ही इसका करक होती है। सजग और सतर्क रचनाकार इससे बचने की कोशिश में कथ्य को बनावटी और असहज कर बैठता है। 'काग उड़ाये / सगुन विचारे' के सन्दर्भ में विचारणीय है कि काग मुंडेर पर बैठे तो अतिथि आगमन का संकेत माना जाता है (मेरी अटरिया पे कागा बैठे, मोरा जियरा डोले, कोई आ रहा है)।

"कहीं नीम के चंचल झोंके
बिखरा जाते फूल नशीले"
के संदर्भ में तथ्य यह कि महुआ, धतूरा आदि के फूल नशीले होते हैं किंतु नीम का फूल नशीला नहीं होता।
इसी प्रकार तथ्य यह है कि झोंका हवा का होता है पेड़-पौधों का नहीं, पुरवैया का झोंका या पछुआ का झोंका कहा जाता है, आम या इमली का झोंका कहना तथ्य दोष है।

'मेरे बिखरे बालों में तुम / हरसिंगार ज्यों लगा रहे हो' के सन्दर्भ में पारंपरिक मान्यता है कि हरसिंगार, जासौन, कमल आदि पुष्प केवल भगवान को चढ़ाये जाते है। इन पुष्पों का हार मनुष्य को नहीं पहनाया जाता। बालों को मोगरे की वेणी, गुलाब के फूल आदि से सजाया जाता है।

मधु जी का छंद तथा लय पर अधिकार है, इसलिए गीत मधुर तथा गेय बन पड़े हैं तथापि 'टु एरर इज ह्युमन' अर्थात 'त्रुटि मनुष्य का स्वभाव है' लोकोक्ति के अनुसार 'फूलों से स्पर्धा करते (१४) / नए-नए ये पात लजीले (१६) / कहीं नीम के चंचल झोंके (१६) / बिखरा जाते फूल नशीले (१६) के प्रथम चरण में २ मात्राएँ कम हो गयी हैं। यह संस्कारी जातीय पज्झटिका छंद है जिसमें ८+ गुरु ४ + गुरु का विधान होता है।

केन्द्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा निर्धारित वर्तनी मानकीकरण के प्रावधानों का पालन न किए जाने से अनुस्वार (बिंदी) के प्रयोग में कहीं-कहीं विसंगति है। देखें 'सम्बन्ध', 'अम्ब'र  तथा 'अकंपित'। इसी तरह अनुनासिक (चंद्र बिंदी) के प्रयोग में चूक 'करूँगी' तथा 'करूंगी' शब्द रूपों के प्रयोग में हो गयी है। इसी तरह उनके तथा किस की में परसर्ग शब्द के प्रयोग में भिन्नता है। उद्धिग्न (उद्विग्न), बंधकर (बँधकर), अंगड़ाई (अँगड़ाई), साँध्य गगन (सांध्य गगन), हुये (हुए), किसी और नाम कर चुके (किसी और के नाम कर चुके), भंवरे (भँवरे), संवारे (सँवारे), क्यूं (क्यों) आदि में हुई पाठ्य शुद्धि में चूक खटकती है।

डॉ, सूर्यप्रसाद शुक्ल जी ने ठीक ही लिखा है "जीवन सौंदर्य की भाव मई व्यंजन ही कल्पना से समृद्ध होकर गीत-प्रतिभा का अवदान बनती है.... मानस की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द-सामर्थ्य की एक सीमा तो होती है, जहाँ वाणी का विस्तार भाव-समाधि में समाहित हो जाता है... इस स्थति को ही 'गूँगे का गुड़' कह सकते हैं। 'मुखर अब मौन है' में जिस सीमा तक शब्द पहुँचा है, वह प्रिय स्मृति में लीन भाव समाधी के सूक्ष्म जगत का आनंदमय सृजन-समाहार ही है जिसमें चेतना का शब्दमय आलोक है और है कवयित्री के सौंदर्य-भाव से प्रस्फुटित सौंदर्य बोध के लालित्य का छायावादी गीत प्रसंस्करण।"

संकलन के सभी गीत मधु जी के उदात्त चिंतन की बानगी देते हैं। इन गीतों को पढ़ते हुए महीयसी महादेवी जी  तथा पंत जी का स्मरण बार-बार हो आता है।
"कोई मुझको बुला रहा है
बहुत दूर से
आमंत्रण देती सी लहरें
उद्वेलित करतीं
तन-मन को
शायद सागर
का न्योता है
मेरे चिर प्यासे
जीवन को
सोये सपने जगा रहा है
बहुत दूर से"

"भूल गए हो तुम मुझको पर
मैं यादों को पाल रही हूँ"
कहीं अँधेरा देख द्वार पर
मेरा प्रियतम  लौट न जाए
देहरी पर ही खड़ी रही मैं
रात-रात भर दिया जलाये
झंझाओं से घिरे दीप को
मैं यत्नों से संभाल रही हूँ"
में प्रेम की उदात्तता देखते ही बनती है।मधु जी का यह गीत संग्रह नयी पीढ़ी के गीतकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए. भाषिक प्रांजलता, सटीक शब्द चयन, इंगितों में बात कहना, 'स्वानुभूति' को 'सर्वानुभूति' में ढालना, 'परानुभूति' को 'स्वानुभूति' बना सकना सीखने के लिए यह कृति उपयोगी है। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार मधु जी की रचनाएँ नई पीढ़ी के लिए मानक की तरह देखी जायेंगी, इसलिए उनका शुद्ध होना अपरिहार्य है।
***

सोमवार, 10 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

इस हवा को क्या हुआ - रमेश गौतम

- शिवानंद सिंह सहयोगी
भाई रमेश गौतमजी ने अपने निवेदन में लिखा है ‘बचपन में अक्सर पिता की जन-संवेदना अवचेतन में कहीं संग्रहीत होती रहती थी जो बड़े होने पर निरंतर प्रबल होती गई।’ अपने परिवार की संस्कृति की धरोहर को सँजोना कोई आसान काम नहीं है। आजकल जो पुस्तकें निकल रही हैं, कहीं भी कोई पुस्तक अब ‘सरस्वती वन्दना’ से प्रारम्भ नहीं होती। यह एक पारिवारिक संस्कारों की ही देन है कि भाई गौतमजी ने ८० गीतो से समृद्ध अपनी पुस्तक का प्रारम्भिक गीत ही ‘अक्षरा वन्दना’ यानि कि ‘भाषा वन्दना’, कह सकते हैं कि ‘हिंदी वन्दना’ से की है, और लिखा है-
‘माँ अक्षरा अमृतमयी
हिंदी तुझे शत-शत नमन

स्वर और व्यंजन में निहित
तू ही प्रथम परिशोध है
तेरे बिना सम्भव कहाँ
अनुभूतियों पर शोध है
तो काल चिन्तन की कला
तू शब्द है, तू ही सृजन’
।।।।।।।
‘निर्गुण सगुण के रूप में
तू ने हरी मन की व्यथा
तू ने रचे साखी सबद
तू ने रची मानस-कथा
सत्संग से तू ही बनी
पद, सोरठा, दोहा, भजन’
कहा जा सकता है कि इस ‘अक्षरा वन्दना’ में रचनाकार ने हिंदी साहित्य के इतिहास, छंद निरूपण-व्यवस्था, रस-अलंकरण, रचना कर्म, संगीत का आरोह-अवरोह, बाँसुरी की तान आदि को एक बाँसुरीवादक की तरह ध्वनित करने का भरपूर प्रयास किया है। साखी, सबद, मानस-कथा, पद, सोरठा, दोहा, भजन और कामायनी के बिम्ब और प्रतीक का मानवीकरण हिंदी के इतिहास का विभाजन कालक्रम के आधार पर अपने गीत के ‘स्थायी’ और ‘अंतरों’ में रचनाकार ने कर दिया है। सुप्रसिद्ध भाषाविद डा। कमल सिंह ने अपने शोध से यह सिद्ध किया है कि ‘बाबा गोरखनाथ ही हिंदी के प्रथम कवि है’ और उन्होंने ही सर्व प्रथम ‘दोहा’ लिखा जिसे ‘सबदी’ का नाम दिया। रचनाकार ने बाबा गोरखनाथ, सूर, तुलसी, कबीर, विद्यापति, मीरा और जयशंकर प्रसाद के युग तक का सजीव दृश्य प्रस्तुत किया है। निर्गुण, सगुण का उल्लेख कर वेद-पुराण को भी एक जगह एकत्रित कर दिया है और यह उनकी अध्ययनशीलता का ही परिणाम है।
भाई गौतमजी ने पृथ्वी के प्राकृतिक आँचल को भी अपनी रचना का अंग बनाया है, जो उनके प्रकृति प्रेम को एक आकार देता है। जैसे कि ‘गुलमोहर के रंग वाले दिन’, ‘एक बादल’, ‘नदी की धार’, ‘शरद वधू’, ‘तीर्थयात्रा’, ‘आहटें’, ‘दो धूप के टुकड़े’, ‘कोहरे की मनमानी’, ‘नदी ठहरो’, ‘नदी अकेली रहती है’, ‘जानती है सच नदी भी’, ‘निर्वसन तरु’, ‘तन से नदी कामायनी’ आदि। प्रक्रति चित्रण तो ऐसा है कि लगता है कि रचनाकार प्रकृति की गोद में कहीं एकांत में बैठकर गीत को आकार दे रहा है-
‘बावली-सी खोजती-फिरतीं
दिशाएँ शाम को
लोग कितना भूल बैठे हैं
सुबह के नाम को
मन्दिरों के द्वार पर
ठिठकी खड़ी हैं अर्चनाएँ’
या
पुलों को बाँधने वालों
नदी की धार तो देखो
दिखाई अब नहीं देती
कहीं जलधार की कल-कल
बहुत रोई पटककर
पत्थरों पर सिर यहाँ हलचल
दिशा बदले बहावों पर
समय की मार तो देखो’
या
‘श्वेत शीतल छंद
लिखती हैं हवाएँ
गुनगुनाती ओस
भीगी प्रार्थनाएँ
गूँथ हरसिंगार वेणी में सुवर्णा
बँध गई सुप्रभात के आलिंगनों में’
भाई गौतमजी ने अपने गीतों में आजकल के पारिवारिक और सामाजिक संबंध के बीच की स्थिति को भी रचना का एक विषय बनाया है। समय के साथ भारतीय समाज भारतीय संस्कृति से बहुत दूर होता जा रहा है। भारतीय समाज, पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण आँख मूँदकर करने लगा है। विदेशी सभ्यता, भारतीय सभ्यता में ठीक उसी तरह घर बनाती जा रही है, जिस प्रकार हिंदी भाषा में अँगरेजी भाषा के शब्द। ‘बूढ़े माँ-बाप’, ‘मेरा भी है जन्म जरूरी’ आदि में यह प्रकरण देखा जा सकता है। माँ और बाप आजकल घर में एक बंधक के रूप में अकेलेपन के बीच जीवन व्यतीत कर रहे हैं और बच्चे उनकी खोज-खबर भी नहीं लेते। नौकरीपेशा पर जाना और वरिष्ठ जनों का ध्यान न रखना की समस्या भयावह रूप में आजकल देखी जाने लगी है। बहु और बेटे ‘माँ-बाप’ को अपने सिर का एक बोझ समझने लगे हैं। पिता या माँ यदि सेवानिवृत्ति भत्ता पाने वाले हैं और दो या तीन बच्चे हैं तो सबकी दृष्टि उनके भत्ते पर होती है। माँ-बाप से पुत्रों का संबंध एक दुधारू गाय की तरह का रह गया है। देखा तो अब यह भी गया है कि मौत के बाद माँ-बाप को मुखाग्नि देने के लिए कोई उपलब्ध नहीं है, घर में दुर्गन्ध फैलने पर पड़ोसी पुलिस को सूचना देता है और वह उसे अपने विवेक से ठिकाने लगा देती है। रचनाकार ने आधुनिक संबंधों का एक मानवीय और हृदय को द्रवित करनेवाला चित्र प्रस्तुत किया है-
धनकुबेर पुत्रों का
धन्य है समाज

रोती देहरी
मिला कैसा अभिशाप
भेज दिए वृद्धाश्रम
बूढ़े माँ-बाप
काटकर जड़ें
नापे अपना कद आज
।।।।।
शिखरों को छूने में
भूले बुनियाद
संबंधों का करते
धन में अनुवाद
नयनों का नीर मरा
आती कब लाज
अभावों की जिन्दगी जीने वाले समाज के एक शब्द-चित्र का मानवीकरण देखने योग्य है, जिसका माध्यम एक वृक्ष है, कोई पौधा नहीं। वृक्ष भी नन्हा सा। नाटे कद का कोई व्यक्ति और अत्यंत धनहीन भी, जो फुटपाथ पर झोंपड़ी बनाकर रहने के लिए विवश है। उस नन्हें वृक्ष के पास ऊँचे महलों में रहनेवाले धनी लोगों की भीड़ है, जिन्हें बरगदों की भीड़ से चिन्हित किया गया है। कहा जा सकता है कि यह नन्हा वृक्ष गाँव से शहर पहुँचा हुआ कोई व्यक्ति है, जो अपनी रोजी-रोटी के लिए शहर के आकाश को ताक रहा है और महलों वाले लोग उसके अस्तित्व को उछाल रहे है और जो उसकी समस्या है उसे दूर करने की कोई नहीं सोचता। रचनाकार की पकड़ सामाजिकता पर कितनी मजबूत है ये पंक्तियाँ उसकी कहानी बताती हैं-
‘एक नन्हा वृक्ष हूँ
अपने समय की धूप में
झुलसा हुआ

भाल पर आकाश ने
उपहार में टाँगा मरुस्थल
दूर होता ही गया
प्यासे अधर से बूँद भर जल
रेत पर बोया गया स्वर
प्रार्थना का
बादलों ने कब छुआ’
गौतमजी ने राजनीति के राजनीतिकरण के खट्टे नीबूं को भी हथेलियों से दबाकर बहुत निचोड़ा है। राजनेता केवल अपने और अपने परिवार का हित सोचते हैं। समाजवाद या साम्यवाद एक नारा बनकर रह गया है और केवल वोट प्राप्त करने का एक साधन भर है। आम आदमी की बातकर, आम आदमी के सिर पर एक बोझ बन जाते हैं नेता। गरीबी मिटाने वाले अपनी गरीबी मिटाने में सफल हो जाते हैं किन्तु गरीबों की झोंपड़ी को एक टिन की चादर भी नहीं दिला पाते, आश्वासन के सिवा, छत की बात तो दूर की कौड़ी है। समाजवाद और साम्यवाद जो पूँजीवाद का विरोध करते हैं, पूँजी के महल में सो रहे हैं और दो जून की रोटी सड़क पर कल भी थी, आज भी है। आम आदमी की आवाज को जोर से उठाया है गीतकार ने अपने गीतों में। भाई गौतमजी कहते हैं-
‘छोड़-छाड़ रात को गई
चाँदनी पता नहीं कहाँ
बूँद-बूँद प्यास दिन जिया
बाँधकर हथेलियाँ यहाँ
फाइलों में खोदते कुआँ
देखते महोदय को हम’
या
‘आँधियाँ
सहता रहा दिन का किला
रात को हर बार
सिंहासन मिला
दें किसी सोनल किरण
को दोष क्या
जब अँधेरे ही चुने’
या
‘मर्म कहाँ छू पाते मन का
अंश किसी भाषण के
अब निष्कर्ष नहीं मिलते हैं
अनशन-आन्दोलन के
कागज की नावें तैराते
लहरों की हलचल में’
या ‘डालकर दो धूप के टुकड़े
हमारे द्वार पर
सूर्य तुम भी दूर हमसे हो गये’
किन्तु इतना होते हुए भी गीतकार का मन निराश नहीं है, वह जानता है ‘नर हो न निराश करो मन को’ और इन दुरभिसंधियों से दो-दो हाथ करने का निश्चय करता है और अपनी बात को ‘एक नन्हें दीप’ से कहलवाता है, इन छद्मनाम छद्मवेशी नेताओं को। जैसे कि-
‘चक्रवातों से लड़ेगा
फिर समर में
एक नन्हें दीप ने निश्चय किया’
या
‘मन में करो उजाला
खोलो रोशनदान निरीक्षक
भीतर की सँकरी गलियों में
तम है बहुत अभी तक
धूप पहनकर
नहीं निकलते
इन अँधियारों में क्यों’

भाई गौतमजी ने ‘मेरा भी जन्म जरूरी है’ के माध्यम से ‘भ्रूणहत्या’ की भी ‘पूछताछ’ और ‘जाँच पड़ताल’ अपने शब्दों में ठीक तरह से की है। यह कौन कराता है ‘भ्रूणहत्या’ माँ या पिता। मेरा क्या दोष है ? मेरा एक गीत है ‘भ्रूण कन्या’, ‘भ्रूण कन्या’ कहती है ‘कन्या होकर, हमने कोई पाप किया है / तुमने, उसने, सबने पश्चाताप किया है / पैदा होती तो पुरुष की आधी होती मैं / रानी लक्ष्मीबाई, इंदिरा गांधी होती मैं / होती राधा, हरती बाधा, आँधी होती मैं / खेल खेलकर, फिर कैसा प्रलाप किया है / कन्या होकर, हमने कोई पाप किया है।’ भाई गौतमजी भी कहते हैं-
‘माँ मैं भी दुनिया
देखूँगी
देना दो नयना
मेरा क्या है दोष
पक्ष माँ मेरा सुन लेती
जीवन देने से पहले
क्यों मृत्युदण्ड देती
मेरा भी है
जन्म जरूरी
माँ सबसे कहना’
चिंता है भाई गौतमजी को घर से विलुप्त होती गौरैयों की, कहते हैं विकास के नाम पर बढ़ते इस महानगर के विस्तार से –
‘गौरय्या भी एक घोंसला
रख ले
इतनी जगह छोड़ देना महानगर’

‘माँ’ केवल ‘माँ’ होती है। ’माँ’ को भी अपने शब्दों में स्मरण किया गया है भाई गौतमजी ने-
‘माँ तूने ही
पंख दिए हैं
तूने ही आकाश दिया है
बूँद-बूँद
तू रिक्त हुई माँ
मैंने सुख भरपूर जिया’

‘पिता’ और ‘माँ’ एक सिक्के के दो पहलू हैं, ‘पिता’ को स्थान न देना जीवन को अधूरा छोड़ने के समान था, यह कैसे सम्भव था। भाई रमेश गौतमजी ने ‘पिता’ को भी उचित स्थान दिया है अपने शब्दों में। कहते हैं-
‘आकाशकुसुम तोड़े
लहरों को बाँध लिया
अंतर में रहे हिमालय सा विश्वास पिता’
‘माँ’ और ‘पिता’ के लिए इतने भावुक और मार्मिक कहन के उपरान्त और कुछ अवशेष नहीं बचता है। समग्रत: कहा जा सकता है कि भाई गौतमजी नवगीत के माध्यम से समाज के हर विसंगति को लपेटे में ले रहे हैं और इनके नवगीत हिंदी की मुख्यधारा के गीत हैं जो हिंदी साहित्य की एक धरोहर हैं। ‘इस हवा को क्या हुआ’ के विषय में जनमानस की सोच ही पढ़कर बताएगी कि यह ‘हवा’ पाठक के मन को कितना स्पर्श करती है किन्तु यह कृति समीक्षकों को विवेचन-विश्लेषण के लिए उन्हें उकसाएगी अवश्य। भाई गौतमजी नवगीत के लिए जो कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे, वह हिंदी साहित्य में समादृत होगा।
२७.३.२०१८ 
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गीत नवगीत संग्रह- इस हवा को क्या हुआ, रचनाकार- रमेश गौतम, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११००३० , प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. ४००, पृष्ठ- २०८, समीक्षा- शिवानंद सिंह सहयोगी, आइएसबीएन संख्या-९७८-८१-७४०८-९९०-८

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

जहाँ दरक कर गिरा समय भी - राघवेन्द्र तिवारी

- डॉ. जगदीश व्योम
‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ राघवेन्द्र तिवारी का नवगीत संग्रह है जिसमें उनकी विविधरंगी एक सौ चौदह रचनाएँ हैं । राघवेन्द्र तिवारी के पास अनुभव का विशाल खजाना है तो लोक जीवन की अनुभूतियाँ भी हैं। वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसे कहने के लिए उनके पास टटके प्रतीक और मुहावरे हैं। पारिवारिक रिश्तों के बीच खट्टे मीठे अछूते अनुभव उनके नवगीतों में एक अलग किस्म की ताजगी का अहसास कराते हैं। छन्द पर उनकी पकड़ गजब की है यही कारण है कि वे गीत की लय कहीं टूटने नहीं देते हैं। वे इस तरह से गीत रचते हैं मानो बात कर रहे हों ।

गाँव के जीवन में बहुत सारी विविधताएँ होती हैं, वहाँ सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं होता है तमाम जगह ऐसे आँसू होते हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते। कर्ज का रोग इतना भयानक है कि वह गाँव के भरे पूरे परिवारों को निगल जाता है, शुरू में तो यह अच्छा लगता है पर जब यह किसी अजगर की तरह जब अपने षिकार को अच्छी तरह से जकड़ लेता है तो फिर उसे कोई बचा नहीं पाता। कर्ज की यह त्रासदी जीते जागते इंसान को तोड़ कर रख देती है- 
खेत से लौटी नहीं अम्मा  
कर्ज में दोहरी हुई दालान से  
पिता चिन्तित 
एक टूटी हुई औरत खोजते हैं । पृ०- १७

गाँव के जीवन में तो कठिनाइयाँ हैं ही लेकिन शहरों की अपनी अलग तरह की समस्याएँ हैं। यहाँ भीड़ तो है पर अपनापन गायब है। यह किसी भोपाल, इन्दौर, कानपुर, लखनऊ या दिल्ली की नहीं बल्कि कमोबेश सभी शहरों की समस्या है, सब अपने में खोये हुए हैं, लगता है हर गली में अविवेक पसरा हुआ है, समूचे मौसम में ही तपेदिक फैल गया है जिसे देखकर एक संवेदनशील व्यक्ति को लगता है वह कहाँ आ गया- 
शब्द बौने हैं  
झरोखे में कहीं भी  
मुड़ी मेहराबें  
हवा रुकती नहीं भी  
गैल में अविवेक  
मौसम में तपेदिक 
इस शहर में हम 
कहाँ से आ गये पृ०-२०

आपस के मखमली रिश्ते इतने बारीक होते हैं कि उनके धागे कहाँ कहाँ से निकलते हैं यह खोज पाना मुश्किल हो जाता है हाँ उन्हें महसूस किया जा सकता है। आपसी गिले शिकवे मन की ग्रंथियों को सुलझाते रहते हैं। ऐसे गीत अकेले में गुनगुनाने के लिए होते हैं-
अधिक तो देते नहीं कुछ  
कम कभी करते नहीं  
कौन से स्कूल में 
आखिर पढ़े हो  
तनिक भी डरते नहीं  
तुम वहाँ से थे जहाँ  
से शब्द होते थे शुरू  
दूब तुम थे, काँस तुम थे  
और थे खस, गोखुरू  
कौन से उपकार की  
खातिर खड़े हो 
बात से फिरते नहीं  [पृ०-२२]

घर में अम्मा का न होना कितना सूनापन भर देता है इसे तब जाना जा सकता है जब अम्मा चली जाती है। इस अभाव को केवल और केवल महसूस किया जा सकता है-
अम्मा बिन घर सूना-सूना  
ताका करता 
लुटी राज सत्ता को जैसे  
देख रहा हो  
सैनिक कोई महासमर में [ पृ०-२९]

जिसे देखो वही असन्तुष्ट दिखाई देता है, अपने परिवेश से, सामाजिक व्यवस्था से, राजनीति से, व्यवस्था से परन्तु अपने समय की व्यवस्थाओं से सन्तुष्ट न होकर कंधे उचकाते रहना और स्वयं कोई निदान न खोजकर औरों को गरियाते रहने से कुछ नहीं होने वाला है, यह यथार्थ है। भीड़ का हिस्सा न बनकर कुछ करना ही इसका एकमात्र निदान है-
इस तरह कंधे न उचकाओ 
हो सके तो भीड़ से हटकर  
नया करतब दिखाओ  [पृ०-४४]

हम यह जानते हैं कि क्या उचित है और क्या अनुचित है फिर भी हम साहस नहीं जुटा पाते हैं कि सच का साथ दे सकें, रचनाकार प्रकारान्तर से बदजमीजों का विरोध करने का साहस जुटाने की ही बात कह रहा है- 
कलफ जैसे धुल रहे हैं  
हम कमीजों के  
मानते आभार आये 
बदतमीजों के  [पृ०-४६]

एक खेतिहर के लिए खेती ही उसका सब कुछ है जब खेती उजड़ती है तो एक किसान टूट जाता है और केवल किसान ही नहीं टूटता है समूचा परिवार चिन्ता के भँवर में बह जाता है- 
चिन्तायें लिये 
खेत की  
कहाँ चली गई 
केतकी ?  [पृ०-५४]

गिरता हुआ जल का स्तर बेहद चिन्ता का विषय है। यहाँ जल के स्तर की चिन्ता के साथ ही जीवन में व्यापत चिन्ता की ओर भी संकेत किया गया है। राजधानियों के तालाब जब आपसी रंज में डूब जायें तो फिर मछलियों को चिन्ता तो होगी ही । तालाब हमारी जल संस्कृति के भी परिचायक रहे हैं ये केवल तालाब ही नहीं होते थे पूरी संस्कृति और सभ्यता के जीवन्त रूप भी होते थे। उनका विलुप्त हो जाना शुभ नहीं है- 
पूछती मछली  
बता दो पता पानी का 
रंज में डूबा हुआ तालाब है  
क्यों राजधानी का  [ पृ०-५५]

दिन रूपी चिड़िया भला बहेलिये के हाथ कहाँ लगती है, समय गतिशील है यह किसी के लिए रुकता नहीं है। इस दार्शनिक विचार को इतनी सहजता से व्यक्त करना रचनाकार के भाषा सामर्थ्य का परिचायक है-
बहेलिये ! 
कहाँ लिये तू  
अपना जाल  
दिन-चिड़िया  
उड़ चली  
ले अपनी लग्गियाँ सम्हाल   [पृ०-६७]

पहाड़ों पर हुई त्रासदी को भुलाने में सदियाँ लगेंगीं। लेकिन इस त्रासदी के केन्द्र में कहीं न कही मानव ही है, पहाड़ों से वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से पहाड़ खोखले हो गये, हमें इस ओर विचार करने की दिशा इस नवगीत से मिलती है-
पल भर में जल में 
समा गये 
वृक्ष रहित खोखले पहाड़  
अब करें क्या बूढ़े हाड़   [पृ०-९२]

घर परिवार में बड़े बुजुर्गो का यूँ तो सम्मान किया जाता है, उनका ध्यान भी रखा जाता है परन्तु बुजुर्गो के प्रति उपेक्षा भी कम नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि यह समस्या पहले नहीं थी, पहले भी उपेक्षा होती थी परन्तु अब कुछ अधिक होने लगी है। गाँवों में भी इस तरह की उपेक्षा बूढ़ों के प्रति देखने में आ जाती है । कई बार तो घर के बच्चों को भी उनके पास नहीं जाने दिया जाता है । तमाम बूढ़ी स्त्रियों को डायन तक बता दिया जाता है । रचनाकार ने इस त्रासदपूर्ण स्थिति का इतना जीवन्त चित्रण किया है कि शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले। भाषा का जैसा सहज और जीवन्त रूप इस नवगीत में है, वह रचनाकार को एक सिद्ध नवगीतकार के रूप में लाकर खड़ा कर देता है। नवगीत का एक एक शब्द बोलता हुआ प्रतीत होता है- 
बापू के चौथे की चिन्ता  
बेटा करता है  
अच्छा लगता बुड्ढा 
मर, घर खाली करता है 
खाँस-खखार सुना करती थी 
जब जब घर वाली 
ताने दे-दे कर परोसती थी  
वह हर थाली 
‘इनको आग तपाकर धोना’  

कहती महरी से 
चीजें स्वच्छ रहें घर में 
तब घर, घर लगता है 
छोटे बच्चों को आज्ञा थी 
उधर नहीं जाना 
इस बुड्ढे में बुरी आत्मा है 
घर ने माना 
तभी इस उमर तक जिन्दा है  
कब का मर जाता 
बिना मरे ही नर्क भोगता  
यह यम लगता है 
बाप मरे के अग्रिम धन के 
चक्कर में बेटा.....। [ पृ०- १ १०] 

गीत और नवगीत के अन्तर पर प्रायः चिन्तन, मनन और विमर्ष होता रहता है । नवगीत, गीत का ही अगला संस्करण है, गीत में जब अपने आस-पास होने वाली गतिविधियों को ऐसी भाषा और शैली में अभिव्यक्त किया जाय जिसमें ताजगी हो, नयापन हो, समसामयिक सन्दर्भ हों, वर्तमान मुहावरा हो, अपने साथ-साथ जन सामान्य की भी चिन्ता हो तो वही नवगीत है। कुल मिलाकर राघवेन्द्र तिवारी का यह नवगीत संग्रह समय सापेक्ष परिस्थितियों का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। समाज की विविध परिस्थितियों, दुख-दर्द, आशा-निराशा, बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और गिरते मूल्यों का ऐसा सजीव चिट्ठा है जो पाठक को झकझोरता है। लय में पिरोए गए ये शब्द युगों युगों तक अपने समय की कहानी कहते रहेंगे। 
१९.७.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - जहाँ दरककर गिरा समय भी, रचनाकार- राघवेन्द्र तिवारी, प्रकाशक- पहले पहल प्रकाशन, २५-ए, प्रेस काम्प्लेक्स, भोपाल,  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- ११६, ISBN ७८.९३.९२२ १२.३६.९  समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।