मुक्तिका:
फिर ज़मीं पर.....
संजीव 'सलिल'
*
फिर ज़मीं पर कहीं काफ़िर कहीं क़ादिर क्यों है?
फिर ज़मीं पर कहीं नाफ़िर कहीं नादिर क्यों है?
*
फिर ज़मीं पर कहीं बे-घर कहीं बा-घर क्यों है?
फिर ज़मीं पर कहीं नासिख कहीं नाशिर क्यों है?
*
चाहते हम भी तुम्हें चाहते हो तुम भी हमें.
फिर ज़मीं पर कहीं नाज़िल कहीं नाज़िर क्यों है?
*
कौन किसका है सगा और किसे गैर कहें?
फिर ज़मीं पर कहीं ताइर कहीं ताहिर क्यों है?
*
धूप है, छाँव है, सुख-दुःख है सभी का यक सा.
फिर ज़मीं पर कहीं तालिब कहीं ताजिर क्यों है?
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ज़र्रे -ज़र्रे में बसा वो न 'सलिल' दिखता है.
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यों है?
*
पानी जन आँख में बाकी न 'सलिल' सूख गया.
फिर ज़मीं पर कहीं सलिला कहीं सागर क्यों है?
*
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
कुछ शब्दों के अर्थ : काफ़िर = नास्तिक, धर्मद्वेषी, क़ादिर = समर्थ, ईश्वर, नाफ़िर = घृणा करनेवाला, नादिर = श्रेष्ठ, अद्भुत, बे-घर = आवासहीन, बा-घर = घर वाला, जिसके पास घर हो, नासिख = लिखनेवाला, नाशिर = प्रकाशित करनेवाला, नाज़िल = मुसीबत, नाज़िर = देखनेवाला, ताइर = उड़नेवाला, पक्षी, ताहिर = पवित्र, यक सा = एक जैसा, तालिब = इच्छुक, ताजिर = व्यापारी, ज़र्रे - तिनके, सलिला = नदी, बहता पानी, सागर = समुद्र, ठहरा पानी.
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 26 सितंबर 2010
मुक्तिका: फिर ज़मीं पर..... संजीव 'सलिल'
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