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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

AMNE-SAMNE:

आमने-सामने

सिनेमा मेरी ज़िंदगी: अभय देओल

साक्षात्कार : माधवी शर्मा गुलेरी


(मुंबई के जुहू इलाके में पहुंचकर किसी राहगीर से बंगला नंबर 22 का पता पूछा तो उसने कहा... धर्मेन्द्र का बंगला? मैं कुछ पसोपेश में पड़ी क्योंकि अभय देओल का इंटरव्यू लेने निकली थी और अभय ने जो पता एसएमएस किया था, उससे लगा था कि वो उनके ही घर का पता होगा, लेकिन वहां पहुंचकर पता चला कि बंगला केवल धर्मेन्द्र का नहीं, बल्कि पूरे देओल परिवार का है, क्योंकि धर्मेन्द्र इन सबके अपने हैं। इस दौर में जहां परिवार बिखर रहे हैं, वहीं यह एक ऐसा परिवार है, जो अपनी जड़ें मज़बूती से जमाए हुए है। इस ख़ानदान की नई पीढ़ी के अगुवा हैं... अभय देओल, जो धर्मेन्द्र के छोटे भाई अजीत देओल के पुत्र हैं। बड़े भाई सनी और बॉबी ने जहां एक तरफ़ एक्शन को अपना हथियार बनाया, वहीं अभय ने शायद ही किसी फ़िल्म में गुंडों की पिटाई करने वाला किरदार निभाया हो। वे थोड़े अलग किस्म के देओल हैं, हटकर सोचते हैं, अलग तरह की फ़िल्में करते हैं और उनका यही अंदाज़ फ़िल्म इंडस्ट्री में एक अलग पहचान बनाने का सबब बन गया है। एक स्निग्ध मुस्कान के साथ अभय ने स्वागत किया और दिल से कीं, दिल की बातें...)   

आपका जन्म मुंबई में हुआ और यहीं पले-बढ़े, किस तरह की यादें जुड़ी हैं इस शहर से?
मैं आम शहरी लड़कों की तरह हूं। हम गांव में पैदा हुए हों या शहर में, अंतर केवल सुविधाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर में होता है। तकनीक और शिक्षा के स्तर पर हम थोड़े बेहतर होते हैं, बस। बचपन सभी का एक-सा होता है। मेरा बचपन साधारण रूप से बीता। स्कूल-कॉलेज की यादें और दोस्तों के साथ की गई मस्ती नहीं भूलती।
अभिनेता बनने का ख़याल कब और कैसे आया? 
बचपन से ही ख़ुद को बड़े परदे पर एक्टिंग करते देखना चाहता था। स्कूल में नाटकों में हिस्सा लिया है। स्टेज पर मैं आत्मविश्वास से भरा लड़का था, जबकि पढ़ाई और दूसरी चीज़ों में औसत, लेकिन फ़िल्मों में आने से परहेज़ करता रहा, क्योंकि जो भी हमारे घर आता, वो यही कहता कि बड़े होकर तो तुम एक्टर ही बनोगे। सिर्फ़ इसलिए एक्टर नहीं बनना चाहता था क्योंकि मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि फ़िल्मी थी। जब 19 साल का हुआ तो यह बात गहरे पैठ गई कि मैं फ़िल्मों के लिए ही बना हूं और यही एक काम है जो मैं ईमानदारी से कर पाऊंगा।
देओल परिवार से होने के कारण करियर में कितनी मदद मिली?
मेरी पहली फ़िल्म सोचा न था धर्मेन्द्र अंकल ने ही प्रोड्यूस की थी। जब इम्तियाज़ अली से मिला और उन्होंने मुझे स्क्रिप्ट सुनाई तो मैंने उनसे कहा था कि यह कहानी सनी भैया को बहुत पसंद आएगी। ऐसा हुआ भी। सनी भैया ने कहानी सुनते ही कहा कि इसका किरदार तो बिल्कुल अभय जैसा है। फ़िल्म बनी और लोगों को पसंद आई। मुझे इससे ज़्यादा मदद क्या मिल सकती थी!
सोचा न था के बाद किस तरह की चुनौतियां सामने आईं?
सोचा न था से दो स्टार निकले... एक थे इम्तियाज़ अली और दूसरी आयशा टाकिया। मुझे ज़्यादा ऑफर नहीं मिल रहे थे। फ़िल्म इंडस्ट्री में मुझे लेकर दिलचस्पी नहीं थी। जिन्हें दिलचस्पी थी, वो मुझे थर्ड लीड के रोल ऑफर कर रहे थे। उनके बैनर बड़े थे लेकिन रोल छोटे थे। एक तरह से इंडस्ट्री ने तय कर दिया था कि फ़ॉर्मूला फ़िल्में मेरे लिए नहीं हैं और मुझे हीरो बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, अगर कोशिश करूंगा तो फ्लॉप हो जाऊंगा। मेरी पहली दो फ़िल्में फ्लॉप हो चुकी थीं और मैंने सोचा क्यों न अब अपनी पसंद का ही काम करूं। फिर मैंने एक चालीस की लास्ट लोकल और मनोरमा सिक्स फीट अंडर जैसी छोटे बजट की फ़िल्में साइन कीं। यहीं से मेरी सफलता की शुरुआत हुई। मुझे समझ आ गया था कि मुझे कैसी फ़िल्में करनी हैं।
आपने ज़्यादातर कम बजट की फ़िल्में की हैं, कोई पछतावा है
?
एक समय था जब मैं असफल एक्टर था। मेरे साथ काम करने या मुझे पैसे देने के लिए कोई तैयार नहीं था। उस वक़्त मैंने पैसे को नहीं, अपनी सोच को महत्व दिया। मैं अलग सोचता था और यह मानता था कि अगर अच्छा काम करूंगा तो पैसा अपने-आप आ जाएगा। अच्छा ही हुआ कि शुरुआत असफल रही, कम-से-कम इस वजह से मैं प्रयोग कर पाया। अपने किए पर पछतावा नहीं है। लेकिन हां, अब पैसे के बारे में ज़रूर सोचता हूं।

जीवन का टर्निंग पॉइंट?
जब मैं पढ़ाई के लिए लॉस एंजेलिस गया। इससे पहले मैं 18 साल तक मुंबई में संयुक्त परिवार में, सुरक्षित वातावरण में रहा था। हमारा परिवार बहुत पारंपरिक है। मां का बहुत लाडला था मैं। लॉस एंजेलिस जाने के बाद पता चला कि मैं अपने परिवार पर कितना निर्भर था और मेरा सामान्य ज्ञान कितना कम था। आर्थिक रूप से दूसरे छात्रों के मुकाबले मैं बेहतर स्थिति में था, लेकिन पढ़ाई के साथ-साथ काम भी करता था ताकि अपने पैरों पर खड़ा हो सकूं। एडजस्ट करने में कुछ महीने लगे। लेकिन मेरा असली विकास वहीं से शुरू हुआ। अब अच्छा-बुरा सब सामने था और मैं हर चीज़ से ख़ुद जूझ रहा था। दुनिया कितनी बड़ी है, इसमें तरह-तरह के लोग हैं, आत्मनिर्भर होना क्या होता है... यह सब मैंने वहीं जाकर सीखा।
अच्छा अभिनेता बनने के लिए क्या ज़रूरी है?
ईमानदारी। यूं तो ज़िंदगी में हर काम के लिए ईमानदार होना ज़रूरी है, लेकिन एक अभिनेता में यह गुण होना ही चाहिए। अगर अभिनेता ईमानदार है तो यह उसके अभिनय में नज़र आता है। परदे पर कोई भी इमोशन दिखाने के लिए ईमानदार होना पहली शर्त है, चाहे वो ख़ुशी का भाव हो या उदासी का। संवेदनशीलता भी ज़रूरी है। अगर आप संवेदनशील नहीं हैं तो आप अच्छे अभिनेता कभी नहीं बन सकते।
फ़िल्मों में नाच-गानों से परेहज़ की ख़ास वजह? 
मैं शुरू से ही इस धारणा के ख़िलाफ़ हूं कि फ़िल्म की सफ़लता के लिए उसमें नाच-गाना होना ज़रूरी है। यह बात मेरी समझ से बाहर है कि अगर रोमांस है, कॉमेडी है, ड्रामा है, लेकिन नाच-गाना नहीं है तो वो फ़िल्म हिट नहीं हो सकती। अच्छी कहानी और अच्छे डायलॉग्स काफी होते हैं, किसी फ़िल्म की कामयाबी के लिए। देव डी में गाने बैकग्राउंड में थे लेकिन फ़िल्म को अच्छा रिस्पॉन्स मिला। ओए लक्की, लक्की ओए में भी ऐसा ही था। अच्छा गीत-संगीत बेशक़ मनोरंजक होता है लेकिन आजकल फ़िल्मों में मनोरंजन के नाम पर गाने बेवजह ठूंस दिए जाते हैं जिनसे कहानी का कोई मतलब नहीं होता।

आपको इंडस्ट्री में आठ साल हो गए हैं। इस दौरान ख़ुद में क्या बदलाव देखते हैं? 
अब काफी सुरक्षित महसूस करने लगा हूं। मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ा है। मैं उन सभी लोगों का तहे-दिल से शुक्रग़ुज़ार हूं जिन्होंने मेरा साथ दिया है और मेरे काम को पसंद किया है। बचपन में मैं शर्मीला और डरपोक लड़का था। मेरे अंदर आत्मविश्वास की काफी कमी थी। लेकिन अब मेरे अंदर से डर निकल गया है। पूरा डर नहीं निकला है, हम सबके थोड़े-बहुत डर होते ही हैं, लेकिन मैं अब नॉर्मल हो गया हूं।


सफलता के क्या मायने हैं
?

सफ़लता आनी-जानी चीज़ है। सफ़लता को सिर पर चढ़ने देंगे तो यह अपने बोझ से आपको ज़मीन पर ले आएगी। आप सफ़ल हैं तो सहज रहें, नहीं हैं तो भी सहज रहें। इंसान को सफ़लता के लिए नहीं, संतुष्टि के लिए काम करना चाहिए। जैसे ही आप संतुष्ट नज़र आएंगे, जीवन के हर मोड़ पर आप अपने-आप को सफ़ल इंसान ही पाएंगे।

आपके लिए सिनेमा का क्या अर्थ है?

मेरे जीवन का अटूट हिस्सा है सिनेमा। मेरे लिए इसके वही मायने हैं जो मायने मेरी ज़िंदगी के हैं। जैसे ज़िंदगी में ख़ुशी, ग़म, गुस्सा, निराशा और संतुष्टि के भाव होते हैं, वैसे ही भाव मैं सिनेमा में भी महसूस करता हूं। अगर मुझे कुछ बोलना हो, निकालना हो या दिखाना हो तो ये मैं सिर्फ़ फ़िल्म के ज़रिए कर सकता हूं। सिनेमा मेरा प्रेरणास्रोत है।

अनुराग कश्यप आपकी तुलना जॉनी डैप से करते हैं... 

वो ऐसा कहते हैं तो ज़रूर कोई बात होगी। जब मैंने
देव डी का आयडिया लिखा था तब मैंने भी अनुराग के बारे में ही सोचा था। मुझे पता था कि यह फ़िल्म अनुराग ही बना पाएंगे। अनुराग बहुत मौलिक हैं। वे वही फ़िल्में बनाते हैं जिनमें उनका विश्वास है। इस मामले में अनुराग कभी कोई समझौता नहीं कर सकते, चाहे आपको फ़िल्म अच्छी लगे या न लगे।

दिबाकर बैनर्जी के साथ काम करना कैसा अनुभव रहा
?

बहुत अच्छा तजुर्बा रहा। हम दोनों अच्छे दोस्त हैं। एक अभिनेता के तौर पर मेरी ख़ासियत और मेरी कमज़ोरियों को दिबाकर जानते हैं। मैं भी जानता हूं कि बतौर निर्देशक उन्हें क्या चाहिए। हम दोनों में अच्छी ट्यूनिंग है।

किस्मत या भाग्य पर कितना भरोसा है
?

किस्मत और भाग्य... ये दोनों अलग चीज़ें हैं मेरे लिए। मैं मानता हूं कि किस्मत में जो लिखा है, वो होना ही है, लेकिन हमारा भाग्य हमारे हाथ में होता है। मेरी किस्मत में शायद यह लिखा था कि मैं अभिनेता बनूंगा। पर मैं अच्छा अभिनेता कहलाऊंगा या बुरा अभिनेता, यह मेरे हाथ में है। मेरी लगन, मेहनत और समझ तय करेगी कि मेरे भाग्य में कितना अच्छा अभिनेता होना है।

किस काम में सबसे ज़्यादा सुकून मिलता है
?

एक्टिंग में। भविष्य में फ़िल्में प्रोड्यूस और डायरेक्ट करना चाहता हूं।

एक्टिंग के अलावा क्या पसंद है
?

मुझे कुत्ते बहुत पसंद हैं। तीन बार काटा भी है कुत्तों ने, लेकिन कुत्ता ऐसा प्राणी है जो आपकी आंखों में देखकर अपने वफ़ादार होने का सबूत दे देता है। हमारे घर में कुत्ते ज़रूर नज़र आएंगे आपको। इसके अलावा, म्यूज़िक सुनना अच्छा लगता है। घूमना बहुत पसंद है। डीप सी डायविंग अच्छी लगती है। 


जब शूट पर नहीं होते, तब क्या करते हैं
?

मैं दुनिया का सबसे आलसी इंसान हूं। खाली वक़्त मिलता है तो टीवी देखकर सो जाता हूं।

खाने में क्या पसंद है
?

पंजाबी खाना। इसके अलावा जापानी और इटैलियन भोजन पसंदीदा है।


ख़ुद को फिट रखने के लिए क्या करते हैं
?

ज़्यादातर योग, स्विमिंग और
'क्राव मगा' करता हूं। 'क्राव मगा' इज़रायली मार्शल आर्ट का एक फॉर्म है। पहले वेट-लिफ्टिंग नहीं करता था, लेकिन अब शुरू कर दिया है।

घर में कौन-कौन है
?

बहुत सारे लोग हैं... माता-पिता, ताया-तायी, सनी और बॉबी भैया, उनकी पत्नियां और बच्चे।

सबसे बड़ा सपना क्या है
?

दिल से चाहता हूं कि पूरी दुनिया में शांति कायम हो। देश की ग़रीबी ख़त्म हो जाए। जब सड़कों पर बच्चों को भीख मांगते हुए देखता हूं तो बहुत तकलीफ़ होती है। एक तरफ़ हमारा देश तरक्की कर रहा है और दूसरी तरफ़ गोदामों में पड़ा अन्न सड़ रहा है। उस अन्न को गरीबों में बराबर बांटा जाए तो भुखमरी की नौबत नहीं आएगी। कम-से-कम भोजन और पानी जैसी बुनियादी ज़रूरतों में भ्रष्टाचार न हो। लोगों को राशन कार्ड
आसानी से मिल जाएं... यही सपना है मेरा।

पर्यावरण के प्रति आप काफी संवेदनशील हैं, इसके बारे में कुछ बताएं।
 

मैं
ग्रीनपीस, बटरफ्लाइज़ और वीडियो वॉलन्टियर्स जैसी संस्थाओं से जुड़ा हुआ हूं। वीडियो वॉलन्टियर्स का काम करने का तरीका काफी अलग है। स्टालिन नाम के एक शख़्स हैं, जो भारतीय मूल के हैं। अमेरिकन पत्नी जेसिका के साथ मिलकर वे समाज के अलग-अलग तबके के लोगों को ख़ास तरह का प्रशिक्षण देते हैं। स्टालिन और उनकी टीम लोगों को तीन मिनट की शॉर्ट फ़िल्म बनाना सिखाती है। लोगों को कैमरा हैंडल करना और एडिटिंग सिखाई जाती है। लोग जब ये सब सीख जाते हैं तो उन्हें प्रोड्यूसर कहकर बुलाया जाता है। ये प्रोड्यूसर उन मुद्दों पर फ़िल्म बनाते हैं, जो उनके समाज को प्रभावित कर रहे होते हैं। फिर शूट की गई फ़िल्में स्थानीय प्रशासन को दिखाई जाती हैं। अच्छी बात यह है कि ज़्यादातर मामलों में कार्रवाई होती है। महाराष्ट्र, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में इसका असर दिख रहा है। वीडियो वॉलन्टियर्स निहत्थे लोगों को अपने हक़ के लिए लड़ने का हथियार देता है, कैमरे के रूप में। समाज में कुछ परिवर्तन होता है तो मुझे ख़ुशी मिलती है। बदलाव समाज में सकारात्मकता की भावना का विस्तार करता है। यही कारण है कि 'वीडियो वॉलन्टियर्स' जैसी कोशिशें मुझे प्रभावित करती हैं।

अपनी किस ख़ूबी से प्यार है
?

अपने व्यक्तित्व की किसी ख़ूबी से मुझे प्यार नहीं है। मुझमें ऐसा कुछ नहीं है, जो बहुत चमत्कृत या प्रभावित करने वाला हो। वैसे, ईमानदारी के साथ कहूं तो इस सवाल का जवाब दूसरे लोग बेहतर दे सकते हैं। हां, यब बात सच है कि मुझे संगीत का संग्रह करना बहुत पसंद है, जो मेरे व्यक्तित्व को थोड़ा विशिष्ट ज़रूर बनाना है। मुझे हर तरह का संगीत सुनना अच्छा लगता है, जैसे रॉक, जैज़ और अल्टरनेटिव। ज़्यादातर पाश्चात्य संगीत सुनना पसंद है। नए गाने भी अच्छे लगते हैं। हिन्दी फ़िल्मों में
रॉकस्टार के गाने बहुत पसंद आए। पाकिस्तानी संगीत बेमिसाल है। अपने देश में एक बात थोड़ी अखरती है कि यहां फ़िल्मों के अलावा संगीत का विस्तार बहुत कम है और एक आम भारतीय केवल फ़िल्मी संगीत को ही संगीत समझता है। ऐसा होना ठीक नहीं है। हमारे समाज में लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत समेत विभिन्न विधाओं के प्रति रुचि बढ़नी ही चाहिए और इस काम में हमें सहभागिता के लिए तैयार रहना चाहिए।
...और ख़ुद में क्या बदलाव लाना चाहते हैं?


मेरी प्रवृत्ति ऐसी है कि कभी मैं बहुत ख़ुश रहता हूं और कभी बहुत उदास। एक पल मैं गुस्से में होता हूं तो दूसरे ही पल शांत हो जाता हूं। अपने भावों को लेकर तटस्थ नहीं हूं मैं। हर मनोभाव में अति करता हूं।


भारत में कौन-सी जगह पसंद है
?

गोवा में घर बना रहा हूं। हिमाचल प्रदेश, ख़ासकर मनाली बहुत पसंद है। केरल भी पसंदीदा है।

...और विदेश में?


स्पेन और न्यूयॉर्क।


ख़ुशी की परिभाषा क्या है
?

संतुष्ट होना। संतुष्टि ही असली ख़ुशी है। 


मुंबई में प्रिय जगह?
 


मेरा घर।
 


प्रिय किताबें
?
यान मार्टल की लाइफ ऑफ पाई और चक पालाहनियक (Chuck Palahniuk) की चोक

प्रिय फिल्में
?

'डॉ. स्ट्रेंजलव'
, 'फुल मेटल जेकेट', 'चिल्ड्रन ऑफ हेवन', और 'टॉक टू हर'। हिन्दी फ़िल्मों में 'चुपके-चुपके', 'शोले', और घायल। 

आने वाली फ़िल्में? 

सिन्ग्युलेरिटी, चक्रव्यूह और रांझणा’।
 


आपका जीवन दर्शन क्या है
?

कोई एक नहीं, बहुत सारे दर्शन हैं। फिलहाल दिमाग में है कि जियो और जीने दो।

पाठकों के लिए कोई संदेश
?

ख़ुद के प्रति ईमानदार रहें। ज़िंदगी बहुत छोटी है, इसे हंसी-ख़ुशी और प्रेम-भाव से बिताएं। अपने लिए जिएं, लेकिन दूसरों के लिए भी जीना सीखें।
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शनिवार, 21 जनवरी 2012

साक्षात्कार ... माधवी शर्मा गुलेरी जी से ... --लावण्य शाह

साक्षात्कार  ...  
 माधवी शर्मा गुलेरी जी से ... 
लावण्य   शाह
 

  

'तेरी कुड़माई हो गई है ? हाँ, हो गई।.... देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।'' जेहन में ये पंक्तियाँ और पूरी कहानी आज भी है .चंद्रधर शर्मा गुलेरी ' जी की ' उसने कहा था ' प्रायः हर साहित्यिक प्रेमियों की पसंद में अमर है . अब आप सोच रहे होंगे किसी के ब्लॉग की चर्चा में यह प्रसंग क्यूँ , स्वाभाविक है सोचना और ज़रूरी है मेरा बताना . तो आज मैं जिस शक्स के ब्लॉग के साथ आई हूँ , उनके ब्लॉग का नाम ही आगे बढ़ते क़दमों को अपनी दहलीज़ पर रोकता है - " उसने कहा था " ब्लॉग के आगे मैं भी रुकी और नाम पढ़ा और मन ने फिर माना - गुम्बद बताता है कि नींव कितनी मजबूत है ! जी हाँ , 'उसने कहा था ' के कहानीकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की परपोती माधवी शर्मा गुलेरी का ब्लॉग है - 'उसने कहा था ' - http://guleri.blogspot.com/
माधवी ने २०१० के मई महीने से लिखना शुरू किया ... 'खबर' ब्लॉग की पहली रचना है , पर 'तुम्हारे पंख' में एक चिड़िया सी चाह और चंचलता है , जिसे जीने के लिए उसने कहा था की नायिका की तरह माधवी का मन एक डील करता है रेस्टलेस कबूतरों से -
"क्यों न तुम घोंसला बनाने को 
ले लो मेरे मकान का इक कोना
और बदले में दे दो
मुझे अपने पंख!" .... ज़िन्दगी की उड़ान जो भरनी है !
माधवी की मनमोहक मासूम सी मुस्कान में कहानियों वाला एक घर दिखता है ... जिस घर से उन्हें एक कलम मिली , मिले अनगिनत ख्याल ... हमें लगता है कविता जन्म ले रही है , पर नहीं कविता तो मुंदी पलकों में भी होती है , दाल की छौंक में भी होती है , होती है खामोशी में - ... कभी भी, कहीं भी , ............ बस वह आकार लेती है कुछ इस तरह -
"रोटी और कविता

मुझे नहीं पता
क्या है आटे-दाल का भाव
इन दिनों 

नहीं जानती 
ख़त्म हो चुका है घर में 
नमक, मिर्च, तेल और
दूसरा ज़रूरी सामान 

रसोईघर में क़दम रख 
राशन नहीं
सोचती हूं सिर्फ़
कविता 

आटा गूंधते-गूंधते
गुंधने लगता है कुछ भीतर
गीला, सूखा, लसलसा-सा 

चूल्हे पर रखते ही तवा 
ऊष्मा से भर उठता है मस्तिष्क 

बेलती हूं रोटियां 
नाप-तोल, गोलाई के साथ
विचार भी लेने लगते हैं आकार 

होता है शुरू रोटियों के
सिकने का सिलसिला
शब्द भी सिकते हैं धीरे-धीरे 

देखती हूं यंत्रवत्
रोटियों की उलट-पलट
उनका उफान 

आख़िरी रोटी के फूलने तक
कविता भी हो जाती है
पककर तैयार।" ......... गर्म आँच पर तपता तवा और गोल गोल बेलती रोटियों के मध्य मन लिख रहा है अनकहा , कहाँ कोई जान पाता है . पर शब्दों के परथन लगते जाते हैं , टेढ़ी मेढ़ी होती रोटी गोल हो जाती है और चिमटे से छूकर पक जाती है - तभी तो कौर कौर शब्द गले से नीचे उतरते हैं - मानना पड़ता है - खाना एक पर स्वाद अलग अलग होता है - कोई कविता पढ़ लेता है , कोई पूरी कहानी जान लेता है , कोई बस पेट भरकर चल देता है .... 
यदि माधवी के ब्लॉग से मैं उनकी माँ कीर्ति निधि शर्मा गुलेरी जी के एहसास अपनी कलम में न लूँ तो कलम की गति कम हो जाएगी . 
http://guleri.blogspot.com/2011/09/blog-post_12.html इस रचना में पाठकों को एक और नया आयाम मिलेगा द्रौपदी को लेकर ! 
माधवी की कलम में गजब की ऊर्जा है .... समर्थ , सार्थक पड़ाव हैं इनकी लेखनी के . -

रविवार, 27 मार्च 2011

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथी 103 वर्षीय क्रांतिकारी मोहन लहरी से बातचीत - राजीव रंजन प्रसाद



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साहित्य शिल्पी पर आज क्रांतिकारी भगत सिंह के शहादत दिवस पर प्रस्तुत है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथी क्रांतिकारी मोहन लहरी से बातचीत। यह बातचीत क्रांति के गहरे मायनों को समझने में सहायक है। 
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“गहरे पानी उतरने पर मोती मिलता है” यह कहावत सत्य सिद्ध हुई। बस्तर के इतिहास और इसके वर्तमान परिस्थ्तियों पर आधारित एक उपन्यास लिख रहा हूँ, इसी संदर्भ में जानकारी जुटाने मैं कांकेर पहुँचा था। वहाँ पत्रकार मित्र कमल शुक्ला से मुलाकात हुई। बस्तर के बहुचर्चित मालिक मकबूजा कांड पर मुझे सामग्री चाहिये थी इसके अलावा मैं कांकेर के राजपरिवार से भी मिल कर प्राचीन कांकेर राज्य के अतीत को समझने की कोशिश करना चाहता था। कमल शुक्ला के साथ उनके कार्यालय में लगभग दो घंटे तक मेरे उपन्यास पर चर्चा हुई और यहीं उन्होंने मुझे मोहन लहरी जी के विषय में बताया। मुझे ज्ञात हुआ कि बस्तर राज्य के अंतिम शासक प्रवीर चंद्र भंजदेव के वे लगभग साढे छ: साल तक सलाहकार रहे हैं। पत्थरों और कागजों से इतर मुझे इतिहास का जीवित गवाह मिल गया था। मैं नहीं जानता था कि उनसे मिलना अविस्मरणीय होगा, जीवन की एक उपलब्धि हो जायेगा। कमल शुक्ला अपनी मोटरसाईकल में बैठा कर मुझे उस गेस्टहाउस तक ले आये जहाँ जिला प्रशासन की ओर से मोहन लहरी जी के रहने की व्यवस्था की गयी है। कमल नें रास्ते में मुझे बताया था कि मोहल लहरी क्रांतिकारी रहे हैं और आजादी की लडाई के लिये उन्होंने राजबिहारी बोस, बीडी सावरकर, एमएन राय और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया है।

गेस्ट हाउस से लगभग सौ मीटर पहले ही हमें उतरना पडा। “यही हैं मोहन लहरी” कमल शुक्ला नें मुझे बताया। वयो वृद्ध, झक्क सफेद दाढी, कमर झुक गयी है, हाँथ में एक सर्पाकार छडी, भूरे रंग का कुर्ता, मटमैला पायजामा, कंधे पर सफेद कपडा....वे आहिस्ता आहिस्ता चल रहे थे। मैंने उनके चरण छुवे। मैंने खादी का कुर्ता पहना हुआ था और इस बात नें उन्हें अनोखी खुशी दी थी। “आदमी कुर्ता पायजामा पहनते हैं तो कितने अच्छे लगते हैं..” वे इतने प्रसन्न और सहज हो गये कि उन्होंने अपना एक हाँथ मेरे कंधे पर डाला और दूसरे से हाँथ लाठी टेकते हमें लिये गेस्ट हाउस की ओर बढ चले। मैंने रास्ते में उन्हें अपने आने का प्रायोजन बताया।

गेस्ट हाउस में बाहर की ओर कुर्सियाँ लगी हुई हैं। हम बैठ गये। बातचीत आरंभ करने जैसी कोई औपचारिकता नहीं रह गयी थी। कोई प्रश्न नहीं और कोई परिचर्चा नहीं। उस बरगद के पेड नें जान लिया था कि मुझ परिन्दे की प्यास क्या है। उन्होंने बोलना आरंभ किया तो अगले लगभग एक घंटे वे अतीत के पृष्ठ दर पृष्ठ होलते गये। उनकी आवाज आज भी जोशीली है, कंपन रहित और बुलंद है। उनकी आँखों में सम्मोहन है और व्यक्तित्व में विशालता।

“मेरी उम्र अब एक सौ तीन साल की होने चली है भाई जी...मेरा जन्म 1908 में होशंगाबाद में हुआ था...तब सी. पी एण्ड बरार था उसके बाद में मध्यप्रदेश बना उसके बाद में छतीसगढ बना।” बोलते हुए एक हाँथ से उहोंने अष्टावक्र सदृश्य छडी पकडी हुई थी और दूसरे हाँथ को अपनी बातों की प्रभावी अभिव्यक्ति को दिशा देने के लिये इस्तेमाल कर रहे थे। इसी बीच कमल शुक्ला नें लहरी जी की कुछ तस्वीरें लीं। उनके धाराप्रवाह वक्तव्य में व्यवधान हुआ लेकिन जिन्दादिल लहरी जी को जैसे ही पता चला कि कमल पत्रकार हैं वो चुटकी लेने से बाज नहीं आये “आप लोग फोटो खीच के कहीं छाप देंगे, हम लोग फँस जायेंगे।“ अपनी इस बात पर वे स्वयं भी हँस पडे थे।

इस बीच गेस्ट हाउस से चाय भी आ गयी थी इस लिये मूल विषय से हट कर बाते होने लगी। छतीसगढ के साहित्यिक परिदृश्य पर एकाएक लहरी जी नें तल्ख टिप्पणी की “यहाँ साहित्य पढा किसने है? जो लिख रहे हैं उनकी भाषा और व्याकरण देखो...जबरदस्ती के जोड तोड वाले और बिना समझ वाले कवि और साहित्यकार हो गये हैं।....। बस्तर के राजा का सलाहकार रहा हूँ भाई जी पचास साल पहले। किसी गाँव में वो भेज देते थे कि पूजा है वहाँ सौ रुपये दे देना। मैं जाता था तो लोग खटिया बिछा देते थे और पौआ ला कर रख देते थे कि लो पीयो। इसमें भी साहित्य है भैय्या। पूरा जीवन देखा है मैने यहाँ बस्तर में, छतीसगढ में...लोग यहाँ भात पकाते थे, बच जाता था तो उसमें पानी डाल देते थे जिसको दूसरे दिन खाते थे, इसमें भी इतिहास है यहाँ का। आज आदमी पतलून पहने लगा है तो समझता है हम सभ्य हो गये? इसमें उसको अपना विकास नजर आता है। भाई जी विकास नहीं हो रहा है, विनाश हो रहा है। हमारी संस्कृति पर हमला हो रहा है। विदेशी लोग हमला कर रहे हैं और हमारी संस्कृति को मिटा रहे हैं।“ अंतिम वाक्य कहते हुए उनकी आँखें आग्नेय हो उठी थी। मोहन लहरी की बुलंद आवाज़ में कहे गये इन वक्तव्यों से न केवल सिहरन हुई बल्कि वह उच्च कोटि की सोच भी सामने आयी जिसे लिये आजादी के ये परवाने जान हथेली पर लिये अपना सब कुछ दाँव पर लगाये रहते थे।

“मेरी पत्नी फिलिपिन की रहने वाली थी भाई जी फ्लोरा फ्रांसिस नाम था। सिंगापुर के रेडियो स्टेशन में वो काम करती थीं, अंग्रेजी की एनाउंसर थी। उसके पिताजी मनीला में वायलिन वादक थे। बैंकाक में हमने शादी की थी। उसनें मेरा भाषण सुना तो मुझसे शादी नहीं होने पर जिन्दगी भर कुँवारी रहने की बात अपने परिवार से कह दी। माँ बाप तैयार हो गये। तेरह चौदह साल हमारा साथ रहा। मैं गया था बैंकाक...राजनीतिक काम से घूमता था। रास बिहारी बोस के साथ काम करता था भाई जी। तब मैं जापानी बडी अच्छी बोलता था, मुझे फ्रेंच और जर्मन भाषा भी आती है। अब तो सब भूल गया हूँ, कोई बोलता नहीं है साथ में। वहीं एक पहाडी पर रहता था...आठ टन बारूद का बम गिरा हमारे बंगले पर। मेरी पत्नी और मेरी लडकी के साथ ही मेरा सब कुछ जल गया। लौट के आया, यह सब देखा तो मैं पागल हो गया। कुछ दिनों वही अस्पताल में रहा।...। वहाँ की जो मैट्रोन थी मुझसे पूछती थी अकेले में क्या देखते रहते हो? मैं कहता था बम देखता हूँ और देखता हूँ कि सब कुछ जल गया है, धुँआ उड रहा है।....।"

"मैं जब ठीक हुआ तो नेता जी...सुभाष बाबू नें मुझसे पूछा कि आगे कैसे काम करना चाहते हो। मैंने कहा नेताजी काम तो आपके साथ ही करेंगे और जहाँ रहेंगे वहाँ से आपके लिये ही काम करेंगे। मैं रंगून आ गया। जनरल ऑगसांन के साथ रहा हूँ मैं। वहाँ से मैं ‘वॉयस ऑफ बर्मा’ नाम का पेपर निकालता था।...। पहले मैनें जापान के अखबार नीशि-नीशि के लिए भी पत्रकारिता की है।"

"भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी मैं फोर्टीसेवन में नहीं आ सका, मैं भारत में फोर्टीनाईन में आया था। सेकेंड वर्ल्ड वार के टाईम में जो सडक बनी थी इंडिया, बर्मा और चाईना को जोडती थी। उस से हो कर मैं आया तो हिलगेट जहाँ से बर्मा छूट जाता है और इंडिया शुरु हो जाता है वहाँ पर मुझे पकडने के लिये अठारह-बीस सिपाही आ गये, बन्दूख वाले। तब जवाहर लाल नेहरू का जमाना था। उसके बाद हमको ला कर एक बंग्ले में ठहराया गया। कमरे के बाहर बंदूख ले कर सिपाही खडे हो गये तब मुझे लग गया कि मुझे गिरफ्तार कर लिया गया है। उस एरिया का पोलिटिकल ऑफिसर था सुरेश चन्द्र बरगोहाईं, सबके नाम मुझे याद हैं। तो पॉलिटिकल ऑफिसर बरगोहाईं नें दिल्ली फोन कर दिया कि सुभाष चंद्र बोस के एक साथी आये हैं। हम तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सरकार के मिनिस्ट्री आफ प्रेस पब्लिसिटी एंड प्रोपागेंडा के प्रोग्रामिंग आफिसर थे भाई जी। तो हमे जाने दिया लेकिन सी.आई.डी पीछे लग गयी। मैं जहाँ जाता वहाँ मेरी बात नोट करते। उस समय देवकांत बरुआ नाम के एक एडवोकेट थे और असाम में सेक्रेटरी थे। उनने फिर मदद की। मेरे पास जो विदेशी मुद्रा थी उसको बदलवा कर पाँच हजार रुपये दिये। इस तरह से मैं भारत में आया, फिर कलकता चला गया। वहाँ भी सी.आई.डी से परेशान हो के मैने सीधे नेहरू जी को चिट्ठी लिखी, तब मुझे मुक्ति मिली। इसके बाद नेहरू जी से दार्जलिंग में मेरी मुलाकात हुई। उन्होंने फिर हमको चाईल्ड वेल्फेयर काउंसिल, मध्यप्रदेश का अध्यक्ष बना दिया। मैं खुद घूम घूम कर आँगनबाडियाँ खोली हैं...सिवनी, छिन्दवाडा सब जगह।....।"

"बहुत काम किया है भईया जी। धर्मयुग और बांबे क्रानिकल जैसे अखबार में भी मैने काम किया है। सईय्यद अब्दुल्ला बरेलवी के साथ मैं बॉम्बे क्रॉनिकल में सहायक सम्पादक था।....। बडा अच्छा समय था भाई जी। राजेन्द्र प्रसाद जी को मैने कई बार अपनी कविता सुनाई थी। इतने इमानदार आदमी थे कि सरकारी खाना नहीं खाते थे। घर में उनकी पत्नी खिचडी पकाती थी और वही वो खाते थे। हमनें भी उनके साथ खिचडी खाई है।"

"लेजिस्लेटिव एसेम्बली में उन दिनों पुरुषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष होते थे। उस जमाने में इलेक्टेड, सलेक्टेड और नॉमीनेटेड तीन तरह के सदस्य होते थे लेजिस्लेटिव असेम्बली में। एक बार कलकता में टंडन जी का अभिनंदन किया गया था किसी होटल में। बहुत बडा और मंहगा होटल था। टंडन जी नें होटल की चाय भी नहीं पी और खाना भी बाहर से आया, वो बडे सिद्धांतवादी थे भाई जी। एक बार उनका लडका किसी पोस्ट के लिये इंटरव्यू देने गया था। लडका वहाँ से आया तो उसने टंडन जी के पाँव छुवे और बोला बाबूजी मेरा अपॉईंटमेंट हो गया है। टंडन जी नें पूछा कि इंटरव्यू में क्या पूछा गया था। लडके ने बताया कि पहले मेरा नाम पूछा फिर पिताजी का नाम पूछा, फिर मुझे चुन लिया गया। टंडन जी नें लडके की नौकरी छुडवा दी बोले भ्रष्टाचार हुआ है। एसे ही किसी कारण से टंडन जी नें एसेम्बली भी छोड दी थी। एसे थे उस जमाने के नेता। हमने उनको एक बार वंदेमातरम गा कर सुनाया था तो टंडन जी बडे भावुक हो गये थे। बोले एसा वंदेमातरम गान हो मैंने पहले कभी सुना नहीं है।"

"मैंने एक किताब लिखी थी – ‘नेताजी स्पीक्स’ जिसका ट्रांस्लेशन हुआ है बांगला में ‘आमी सुभाष बोलछी’ और हिन्दी में भी किसी जमाने में ये किताब आई थी। एक और किताब ‘टोकियो टू इम्फाल’ मैंने बर्मा में लिखी थी जो रंगून में छपी थी, बर्मा पब्लिशर्स नें छापी थी।....। यह मेरा इतिहास है भैय्या जी, अब अकेला हूँ और सरकार के भरोसे हूँ। कुछ पुराने किस्सों के साथ जी रहा हूँ भाई जी, जिन्हें कोई जानता नहीं है।" 

लहरी जी अपने बारे में बात करते हुए भावुक हो गये थे। उन्होंने हाँथ के इशारे से हमें पीछे आने के लिये कहा और स्वयं गेस्ट्हाउस में अपने कमरे की ओर बढ गये। साधारण कमरा था जिसमें एक पलंग बिछा हुआ था। कमरे के एक ओर दो कुर्सियाँ भी रखी हुई थी।...।

“यहीं रहता हूँ भाई जी दो ढाई महीने से।” लहरी जी नें हमें कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया।

इस उम्र में भी मोहन लहरी जी की याददाश्त कमाल की है। बातचीत के आरंभ में ही मैंने उन्हें बताया था कि बस्तर के अतीत पर शोध के लिये निकला हूँ अत: यहाँ के अंतिम शासक महाराजा प्रबीर चंद्र भंजदेव के विषय में भी जानना चाहता हूँ। बिना इस सम्बंध में मेरे प्रश्न की प्रतीक्षा किये ही उन्होंने बोलना आरंभ किया – “ प्रवीण चंद्र भंजदेव अपने साथ भोपाल से ले आये थे मुझको। उस जमाने में वो एम एल ए थे। राजे-रजवाडे तो खतम हो गये थे लेकिन प्रवीर चंद्र बस्तर का राजा और गुलाब सिंह, रीवा का राजा दोनों अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। राजा लोहे की खदान को ले कर सरकार से लड रहा था। बस्तर के पास कांकेर का रजवाडा था जिसमें राजा होते थे नरहर देव। उनको कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने भानुप्रतपदेव को गोद ले कर राजा बनाया था। उनका भाई था कुमार त्रिभुवन देव...बहुत अच्छे स्वभाव का था। मैंने इनके साथ भी अच्छा समय व्यतीत किया है । जब सारे रजवाडे खतम हो गये तब भी बस्तर के राजा को एक दिन फिर से राजा बन जाने के उम्मीद थी। लन्दन में रहने की वजह से महाराजा प्रबीरचन्द की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। मैं एक पेपर निकालता था भोपाल से..उस पेपर को राजा नें कहीं से पढा। मेरी भाषा से प्रभावित हो के उसके खोज कर के मुझको बुलवाया। मुझे भी बडा अलग काम लगा और मैं राजा का प्रस्ताव मान कर उनका सलाहकार बन कर बस्तर चला आया। साढे छ: साल मैं उनका सलाहकार रहा भाई जी। बडे जिद्दी थे प्रबीर और मनमौजी। उस जमाने के गृहमंत्री को भी वो कुछ नहीं समझते थे। यह सब उनके सोच की गलती थी। एक लुंगी पहनते थे सिल्क की और सिल्क का ही कुर्ता। दाढी बढी हुई। हम रात रात भर बात करते थे कितनी बार सुबह हो गयी।..।"
[चित्र में राजीव रंजन प्रसाद जगदलपुर राज महल परिसर में जिसकी पृष्ठ भूमि में महाराजा प्रबीर चंद्र भंजदेव की तस्वीर लगी हुई है।]

"प्रवीर चंद्र को मैने उनकी एक सनक के कारण छोड दिया था। वो लन्दन से एक अलशेशियन कुत्ता ले कर आये थे। किसी कारण से कुत्ता मर गया। राजा का प्यारा कुत्ता मरा तो उसने खूब बाजे गाजे के साथ जगदलपुर में घुमा कर शवयात्रा निकलवाई। खाना मैं राजा के साथ ही खाता था। प्रबीर चन्द्र नें मुझसे कहा कि आपने ध्यान नही दिया। अगर समय पर किसी डाक्टर को दिखवा दिया होता तो मेरा प्यारा कुत्ता मरा नहीं होता। मैं भी उखड गया भाई जी। मैंने कहा कि राजा साहब मैं आपका सलाहकार हूँ लेकिन किसी कुत्ते की हिफाजत के लिये आपके साथ नहीं आया हूँ। राजा नाराज हो गया और खाना छोड के चला गया। मैं भी उठ कर आ गया। मेरी सेवा में राजा की लगाई हुई एक कार थी। मैंने ड्राईवर से कहा कि बस स्टैंड ले चलो। फिर मैं कांकेर आ गया। यहाँ रजवाडे में भानुप्रतापदेव नें मेरा स्वागत किया और मुझे यहीं रुक जाने के लिये कहा।"

"प्रबीर चन्द्र को गोली मार दी गयी थी भाई जी। मेरे वहाँ से आने के बाद बस्तर का गोलीकांड हुआ था। राजा और कलेक्टर नरोन्हा में बहुत तनातनी चल रही थी। तब से अब तक भाई जी समय भी बदल गया है। तब जगदलपुर भी बहुत पिछडा हुआ था। दुकाने भी बहुत कम थी एक दो जगह ही बाजार लगता था। महल के पास ही एक अंडे वाला दो तीन पकौडे वाले बैठते थे। उस जमाने के एक कवि हैं लाला जगदलपुरी। आज भी बस्तर में उनका बहुत नाम है भाई जी। उनसे मेरा परिचय है। हाल में जगदलपुर गया था। वहाँ के नेता हैं न बलीराम कश्यप उनहोने बुलवाया था। आज कल वहाँ नक्सलवादी हो गये हैं तो सबके साथ मेरी भी वहाँ के आरक्षक लोग तलाशी करने लगे। मैंने अपनी लाठी से उनको धकेल कर डांट दिया। मैं नेता जी के साथ काम कर चुका हूँ और तुम मेरी तलाशी लेते हो?" 
[चित्र में क्रांतिकारी मोहन लहरी जी के साथ राजीव रंजन प्रसाद तथा कमल शुक्ला] 

“नक्सलवादी वहाँ क्रांति कर रहे हैं?” बहुत धीरे से मैंने लहरी जी से सम्मुख कहा था। मेरे इस वाक्यांश में छिपा प्रश्न संभवत: वे समझ गये और एकदम से लहरी जी का सुर बदल गया। “इसे क्रांति नहीं कहते हैं भाई जी, ये क्रांति नहीं है। क्रांति का मतलब अलग होता है। हमने नेता जी के साथ रह कर क्रांति को जिया है और देखा है।.....। आज मेरे पास बढी हुई उम्र के अलावा कुछ नहीं है। जो कुछ भी मेरे पास था चोरी चला गया। बहुत सारी तस्वीरे थीं। नेताजी के साथ की तस्वीरें। पट्टाभिसीता रमैय्या के लिखे बहुत सारे पत्र जो रायपुर में किसी नें चुरा लिये। यही सब सम्पत्ति थी अब खाली हाँथ हूँ। बस बोलना जानता हूँ भाई जी और इसी से जो चाहो आपको दे सकता हूँ। पुरानी बाते याद हैं बस। लेकिन इतना समय हो गया कि अपनी बिटिया का चेहरा भी भूल गया हूँ जो जापान में बमबारी में मारी गयी थी।“ यही हमारी बातचीत में उनका आखिरी वाक्य था, फिर लहरी जी के स्वर में भावुकता घर कर गयी थी।

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

साक्षात्कार : कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा

साक्षात्कार                                                                      
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 ईशादि     नौ    उपनिषद्
                 
               उपनिषदों में ही उस आत्म तत्व का चिंतन हुआ है जो इस   सृष्टि का मूल कारण है  भूमा की ध्रुवीय सत्ता का एक अटल लक्ष्य  जो मानव का गंतव्य स्थल है  वहाँ उपनिषद् हमें ज्ञान व कर्म् मार्ग से ले जाते हैं  आध्यात्मिक चिंता शाश्वत चिंता है , समकालीन व सामयिक नहीं वरन सामायिक समाधान  उपनिषदों का कथ्य विषय है .  अतः ये केवल काव्य , भाव ,उपदेश या सिद्धांत न होकर  जीवन की सूक्तियाँ बन गई हैं जो उपनिषदों  की महिमा , महत्ता , पवित्रता तथा आर्षता  को ध्वनित करती हैं .
  उपनिषदों का काव्यात्मक और गेय स्वरूप अनंता का कृपा साध्य प्रसाद हैं और प्रसाद अणु या कण भर भी धन्य हैं  मेरी धन्यता का पार नहीं जो अंजुरी भर कृपा प्रसाद पाया ..

कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी: 
                                             डॉ.मृदुल कीर्ति                         

प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी

डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है.  उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज  भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई  बातचीत के चुनिन्दा अंश:

प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?

उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों  तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति  वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'

यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी  जीवात्मा भी जिस शरीर  का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है.  इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ  सामयिक लग रही हैं.

यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..

कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार,  कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.

नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव,  जायेंगे चाहे जी से..

अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.

मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५  संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ. 
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..

मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.

शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.

प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?

उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था'  इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की  मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र  शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन  द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया.  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक,  मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.

तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.

प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.  

उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा  हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.

प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?

उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ.  मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.

परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.  
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत,  सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..

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शनिवार, 25 सितंबर 2010

बातचीत: डॉ. शहरयार ---- डॉ. प्रेमकुमार

यह दौर बड़ी शायरी का दौर नहीं है [डॉ. शहरयार से बातचीत] [डॉ. शहरयार को ज्ञानपीठ प्राप्त होने की बधाई स्वरूप विशेष प्रस्तुति] - डॉ. प्रेमकुमार




भारतीय ज्ञानपीठ ने शुक्रवार को 43वें और 44वें ज्ञानपीठ पुरस्कारों की एक साथ घोषणा की। ये पुरस्कार उर्दू के जाने-माने साहित्यकार शहरयार और मलयालम कवि नीलकानंदन वेलु कुरुप को दिए जाएंगे। ज्ञानपीठ की ओर से जारी विज्ञप्ति के अनुसार ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में चयन समिति की बैठक में यह निर्णय लिया गया। चयन समिति के अन्य सदस्य प्रो. मैनेजर पाण्डेय, डा. के.सच्चिदानंदन, प्रो. गोपीचंद नारंग, गुरदयाल सिंह, केशुभाई देसाई, दिनेश मिश्रा और रवींद्र कालिया बैठक में मौजूद थे।
साहित्य शिल्पी पर डॉ. शहरयार का यह साक्षात्कार हमने लगभग डेढ वर्ष पूर्व प्रस्तुत किया था। आज उनकी इस महति उपलब्धि के अवसर पर हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं।

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कमलेश्वर शहरयार को एक खामोश शायर मानते थे। एक ऐसा खामोश शायर जब इस कठिन दौर व खामोशी से जुड़्ता है, तो एक समवेत चीखती आवाज मे बदल जाता है। बडे अनकहे तरीके से अपनी खामोशी भरी शाइस्ता आवाज को रचनात्मक चीख में बदल देने का यह फन शहरयार की महत्वपूर्ण कलात्मक उपलब्धि है। वे मानते है कि शहरयार की शायरी चौकाने वाली आतिशबाजी और शिकायती तेवर से अलग बड़ी गहरी सांस्कृतिक सोच की शायरी है और वह दिलो दिमाग को बंजर बना दी गयी जमीन को सीचती है।

अकादमी पुरस्कार के अतिरिक्त विभिन्न स्तरों पर देश विदेश में सम्मान और ख्याती प्राप्त शहरयार के उर्दू में ‘इस्में आज़्म’, ‘सातवाँ दर’, ‘हिज्र की जमीन’ शीर्षकों से आए काव्य संग्रह काफी चर्चित और प्रशंशित हुए हैं। ‘ख्वाब का दर बंद है’ हिन्दी और अंग्रेजी मे भी प्रकाशित हो चुका है तथा ‘काफिले यादों के’, ‘धूप की दीवारे’, ‘मेरे हिस्से की ज़मीन’ और ‘कही कुछ कम है’ शीर्षकों से उनके काव्य संग्रह हिन्दी मे प्रकाशित हो चुके है। ‘सैरे जहाँ’ हिन्दी मे शीघ्र प्रकाश्य है।

‘उमराव जान’ की गजलों से शहरयार को जो ख्याति, जो सम्मान मिला उसे वे अपनी उपलब्धि और खुशकिस्मती मानते हैं। फिल्म को आज के संदर्भ में वे काफी ‘इफेक्टिव मीडिया’ मानते हैं। वे कहते है कि उन्होने अपनी आइडियोलाजी के लिये इस मीडिया का बेहतर इस्तेमाल किया। एक श्रेष्ठ और समर्पित कवि के अतिरिक्त वे एक संवेदनशील, विनम्र, आत्मीय और दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने वाले व्यक्ति हैं। प्रस्तुत है डॉ. प्रेम कुमार से उनकी बातचीत

[ नोट - डॉ. प्रेम कुमार ने बेहद विस्तार से शहरयार को जानने व इस मंच पर प्रस्तुत करने का उल्लेखनीय कार्य किया है इसके लिये साहित्य शिल्पी समूह उनका आभार व्यक्त करता है। अंतरजाल की सीमाओं के मद्देनजर दो खंडो और चालीस पृष्ठों में प्रेषित इस साक्षात्कार के महत्वपूर्ण अंश मुख्य पृष्ठ पर प्रस्तुत किये जा रहे हैं। शेष बातचीत पढने के लिये प्रस्तुत साक्षात्कार के नीचे दिये गये लिंक पर चटखा लगायें]

लेखन के शुरुआती दौर के विषय में कुछ बतायें

ये मुझे याद नहीं आता. बार-बार सोचा है - कोई ऐसा सिरा नहीं मिला कि पकड़ कर कह सकूँ कि मैं शायरी की तरफ जाने वाला था। बेसिकली यह याद आता है कि खलीलुर्रहमान साहब, जो बड़े कवि और आलोचक थे, ए.एम.यू. में रीडर थे; से मिलना-जुलना होता था। जब मैंने तय किया कि मुझे थानेदार नहीं बनना है तो घर से अलग होना पड़ा। तब मैं खलीलुर्रहमान के साथ रहने लगा।...। तो शुरू में मेरी जो चीजें छपीं, ऐक्चुअली वो मेरी नहीं हैं। बाद में अचानक कोई मेरी ज़िंदगी में आया.... नहीं, यह कांफीडेंशियल है... मैं कितना ही रुसवा हो जाऊँ इस उम्र में, किसी और को रुसवा क्यों करूँ?.... तब दुनिया मुझे अज़ीब लगने लगी और फिर मैं शायरी करने लगा। बी.ए. की आखिरी साल में शेर लिखने की रफ़्तार तेज हो गई। एम.ए. में साइकोलोजी में दाखिला लिया और जल्दी ही अहसास हुआ कि फैसला गलत लिया है। दिसम्बर में नाम कटा लिया। फिर चार छ: महीने केवल शायरी की - खूब छपवाई। ऊपर वाले की मुझ पर.... हाँ, यूँ मैं मार्क्सिस्ट हूँ फिर भी मानता हूँ कि कोई शक्ति है; कोई बड़ी ताक़त है जो मेरी चीजों को तय करती रही है। उर्दू की बहुत अच्छी मैगजींस में मेरी चीजें छपने लगीं। तेज़ रफ़्तारी से सामने आया। फिर एम.ए. उर्दू में ज्वाइन किया। उस दौर में मेरा और मासूम रज़ा राही का कम्पिटीशन चलता था। जी, हमने बी.ए. साथ-साथ किया, फिर मैं एक साल पीछे हो गया।

इस पर खुश नहीं होना चाहिये कि यह फिक्शन का दौर है। इस पर अफसोस होना चाहिये है, यह अदब का दौर नहीं है। महसूस करने को आला जुबान है- हर शख्स की मादरी जुबान और उसकी सबसे अच्छी चाहते है, तो महसूस करने का यह माद्दा खत्म नहीं होना चाहिए। जो शख्स महसूस नहीं कर सकता, वह खासा खतरनाक होता है। वह न तो अच्छा शायर हो सकता है, न अच्छा बाप, न शौहर, न पड़ोसी। इसलिये वे आर्गनाइज्ड लोग, जो समाज मे उथल-पुथल करना चाहते हैं, वे इंसानो से उनके महसूस करने का हक छीन लेना चाहते हैं। शायरी, पेंटिग, म्यूजिक सब इमेजिनेशन की पैदावार है। सोसायटी में इनका न होना खतरनाक है। वैल्यूज को जितनी फोर्सफुली और पर्फेक्टली पोयट्री रेप्रेजेंट कर सकती है, उतना और कोई फैकल्टी आँफ आर्ट नहीं कर सकती।

पिछले दिनों हिन्दी में “ कविता की मौत “ और गद्य के भविष्य पर काफी कुछ कहा गया है। पिछले दिनों काजी अब्दुल सत्तार ने पोयट्री पर कई कोणों से प्रहार करते हुए इक्कीसवीं सदी को फिक्शन की सदी कहा है। एक शायर होने के नाते आप इन बिन्दुओं पर किस प्रकार सोचते है?

देखिये इस पर खुश नहीं होना चाहिये कि यह फिक्शन का दौर है। इस पर अफसोस होना चाहिये है, यह अदब का दौर नहीं है। महसूस करने को आला जुबान है- हर शख्स की मादरी जुबान और उसकी सबसे अच्छी चाहते है, तो महसूस करने का यह माद्दा खत्म नहीं होना चाहिए। जो शख्स महसूस नहीं कर सकता, वह खासा खतरनाक होता है। वह न तो अच्छा शायर हो सकता है, न अच्छा बाप, न शौहर, न पड़ोसी। इसलिये वे आर्गनाइज्ड लोग, जो समाज मे उथल-पुथल करना चाहते हैं, वे इंसानो से उनके महसूस करने का हक छीन लेना चाहते हैं। शायरी, पेंटिग, म्यूजिक सब इमेजिनेशन की पैदावार है। सोसायटी में इनका न होना खतरनाक है। वैल्यूज को जितनी फोर्सफुली और पर्फेक्टली पोयट्री रेप्रेजेंट कर सकती है, उतना और कोई फैकल्टी आँफ आर्ट नहीं कर सकती। पोयट्री से लुत्फ उठाने के लिये, उसे एप्रीशिएट करने के लिए कई चीज जरूरी हैं-म्यूजिक, पेंटिग, फिलासफी, मीटर्स बगैरह। उन्हें जानना जरूरी है। यदि आपको आईरकी सोसायटी चाहिये और उसमें वैल्यूज की बुनियाद चाहिये, तो पोयट्री जरूरी है। सारी दुनिया की जुबानों में पहले पोयट्री पैदा हुई फिर फिक्शन। फिक्शन को लोमैन भी पढ़ सकता है, पर पोयट्री का लुत्फ बहुत कुछ जानने पर ही लिया जा सकता है। बड़ा फिक्शन भी पोयट्री के बिना नहीं लिखा जा सकता।

हिंदी में तो मंच के स्तर के गिरते जाने की........?

वो तो उर्दू में भी है। अच्छे बुरे हर तरह के लोग जाते भी हैं। नहीं किसी के साथ पढने-न-पढ़ने की शर्त नहीं रखी। यह सही है कि खाली लिटरेरी हैसियत के प्रोग्राम अच्छे लगते हैं यह दुनिया कुछ खास लोगों के लिए नहीं बनी है, हर तरह के लोग उस में मौज़ूद हैं। और उन्हें मौजूद और जिंदा रहने का हक है। खुद हम जिन लोगों को कंटेम्प्ट के साथ देखते हैं, उनका एक रोल है वो जिस सतह पर लोगों को एंटरटेन करते हैं, उसकी भी एक जरुरत है। हम-आप भी अगर अपने आपको अपने बनाए हुए जाल से थोडा सा निकाल सकें तो हमको भी वो चीजें अच्छी लगती हैं।

मंच में और सीरियस लिटरेचर में जो फ़ासला पैदा हो गया है, उसकी थोडी बहुत जिम्मेदारी सीरियस राइटर्स पर भी है। वो उस इडियस में बात करने लगे है कि जो बहुत खास लोगों के लिए रह गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें अपने से नीचे उतरना चाहिए, पर अर्थ यह है कि हमें अपनी गंभीर बात को सहज अंदाज में कहने का आर्ट हासिल करना चाहिए।

मंच में और सीरियस लिटरेचर में जो फ़ासला पैदा हो गया है, उसकी थोडी बहुत जिम्मेदारी सीरियस राइटर्स पर भी है। वो उस इडियस में बात करने लगे है कि जो बहुत खास लोगों के लिए रह गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें अपने से नीचे उतरना चाहिए, पर अर्थ यह है कि हमें अपनी गंभीर बात को सहज अंदाज में कहने का आर्ट हासिल करना चाहिए।

अदब में फ़ार्म और कटेंट की बहस में हमेशा उलझावा रहा है, इसीलिये कि अदब में इन दोनो को अलग-अलग देखना नामुमकिन है। ये तो हम उसका असेस्मेंट करने में, उसको एप्रीशिएट करने में अपनी सहूलियत के लिये अलग-अलग कर के देखते हैं और कभी एक चीज पर और कभी दूसरी चीज पर ज्यादा एम्फ़ैसिस देने लगते हैं। मैं उन लोगों में हुँ जिनका ख्याल है कि अगर कोई मजबूरी आन पड़े और हमें फ़ार्म और कटेंट में से किसी एक को तस्लीम करना पडे तो मैं कंटेट को अहमियत दूंगा

उर्दू में शायरी की ताकत के नाम पर प्राय: गज़ल का जिक्र किया जाने लगता है। आप भी पहले नज़्म की तुलना मे गज़ल के रूप को बेहतर मानते रहे हैं। गज़ल और नज़्म के स्तर पर आज आप शायरी या शायर को किस तरह अलग अथवा बेहतर-कमतर मानते हैं।

गज़ल मे जो भी ट्रुथ होता है वह जनरल बन जाता है। उसकी डिटेल्स मौजूद नहीं होती इसलिये शेर कई जगह कई बातों को निकालते हुए आता है। यह उसकी ताकत भी है कमजोरी भी। आप चाहते है कि किसी पर्टिकुलर चीज पर निगाह डालें लोग, पर जनरल होने की वजह से सुनने-पढ़्ने वाला अपनी तरह से अर्थ ले लेता है। नज़्म में जिस तरह आप अपनी बात कहते है, उसमे पढने-सुनने वाला पूरी तरह नहीं तो काफी बड़ी हद तक आपकी सोच के आस-पास रहता है। गज़ल कहते समय उस फार्म की कुछ बंदिशे है, जिनकी वजह से कभी-कभी कुछ ज्यादा कह जाते हैं या कुछ कम रह जाता है। जरूरी नहीं कि हर नज़्म मे सौ फीसदी कामयाब हों, लेकिन गज़ल के मुकाबले मे लिखने वाले को यह अहसास होता है कि वह अपनी बात दूसरों तक पहुँचा सका है।

पहले मेरा इस पर रूख दूसरा था। अब चेंज किया है, मैने अपनी राय को। अब दोनों में ही में सभी तरह की प्राब्लम्स फेस करता हूँ। गज़ल मे जो भी ट्रुथ होता है वह जनरल बन जाता है। उसकी डिटेल्स मौजूद नहीं होती इसलिये शेर कई जगह कई बातों को निकालते हुए आता है। यह उसकी ताकत भी है कमजोरी भी। आप चाहते है कि किसी पर्टिकुलर चीज पर निगाह डालें लोग, पर जनरल होने की वजह से सुनने-पढ़्ने वाला अपनी तरह से अर्थ ले लेता है। नज़्म में जिस तरह आप अपनी बात कहते है, उसमे पढने-सुनने वाला पूरी तरह नहीं तो काफी बड़ी हद तक आपकी सोच के आस-पास रहता है। गज़ल कहते समय उस फार्म की कुछ बंदिशे है, जिनकी वजह से कभी-कभी कुछ ज्यादा कह जाते हैं या कुछ कम रह जाता है। जरूरी नहीं कि हर नज़्म मे सौ फीसदी कामयाब हों, लेकिन गज़ल के मुकाबले मे लिखने वाले को यह अहसास होता है कि वह अपनी बात दूसरों तक पहुँचा सका है।

गज़ल की ताकत या कमजोरी की बात नहीं है। उसके फार्म ने न खुशी है, न खामी है। इस्तेमाल करने वाले पर है। हमारे यहाँ इसका बहुत चलन रहा है। उसके जरिये जो भी कहा जाता है वो बहुत ही जल्द और बहुत से लोगों तक पहुचता है। ग़ज़ल के बारे मे हर बार कहा गया है कि अपने जमाने का साथ नहीं दे सकरी पर इकबाल, फैज सबने साबित किया कि दे सकती है। मुशायरे की शायरी से हिन्दी या उर्दू मे अंदाज नहीं लगाना चाहिए।

हमारे यहाँ बहुत से शायर है-अच्छे शायर, जिन्होने गजल बिल्कुल नहीं लिखी पर उनकी शायरी कुछ खास लोगों की शायरी है। शायरी मे शायर की अपनी सोच होनी चाहिए, पहचान होनी चाहिए। कुछ खास बातें उसकी होनी चाहिए, लेकिन उसकी पहुँच खास के साथ आम लोगों तक भी हो। तब वह एक सच्ची और अच्छी शायरी होती है। उर्दू मे इसकी सब से बड़ी मिसाल गालिब है, बहुत गहरी, बहुत फिलासफी कल बातें करते है और जिन्दगी की ऐसी सच्चाइयाँ सामने लाते है, जो हमें हैरान कर देती हैं। उनकी जुबान भी , ईडियम कहिए, वो आसान नहीं है, लेकिन इसके बावजूद एक सतह पर आम आदमी भी उससे लुत्फंगूज होता है, मजा लेता है।

गज़ल और नज़्म की जहाँ तक बार है, हम उर्दू वालों का मिजाज गज़ल मे इतना रच-बस गया है कि वो नज़्म को उतना पसंद नही करता। यही वजह है कि उर्दू में वो शायर नुक्सान में रहे, जिन्होने सिर्फ नज़्में लिखी। आम मकबूलियत में अनकी गजलों का बड़ा हाथ है। अगरचे अदब को सतह पर देखा जाए तो उनका असली कंट्रीब्यूशन उनकी नज़्मो मे है।

आपने गजल की जिस खूबी-खामी और उर्दू शायरों की पसंद व मिजाज की बात की है वह तो अपनी जगह है पर आपको भी ऐसा लगता है कि गजलों में अपने पूर्वर्तियो की छाया अथवा नकल या दोहराव अधिक बहुत अधिक दिखाई देता है। मौलिकता के संदर्भ में आप उर्दू गजल को कहा देखते है?

ऐसा नही है। ये दौर बड़ी शायरी का दौर नहीं है। दूसरे दर्जे के शायर है और वे सब मिलकर बड़ी शायरी बनते है। फैज, मकदूम, मज़ाज़, जज़्बी, सरदार बगैरह मिलकर एक शक्ल बनाते है। अच्छे शायर है ये सब और अच्छी बात यह है अलग-अलग अच्छे शायर होना। हर शायर का जहाँ प्वांइट आफ व्यू होगा वह उससे देखेगा चीजों को। सिलेक्ट करने न करने का आला प्वाइंट आफ व्यू है। ऐसा मालूम होता है कि कुछ सिमलीज व मेहाफर्स बार बार आ रहे है। उससे लगता है कि रिपिट कर रहा है शायर अपने को। अच्छा सच्चा शायर कोशिश करता है कि अपने को रिपीट न करे। अब जैसे रात आया या सहर आया कहीं। पालिटिकल सोशियो प्राबलम्स है, अपनी बात है, कहने मे कुछ सिम्बल हैल्प करते है। इसलिये रात और दिन सिम्बल बन गए। सिचुएशन की मुख्तलिफी से फैज की, मेरी, पाकिस्तान का रात या दिन अलग होंगे। बहुत से दौर अदब मे ऐसे आते है और आए है जहाँ शायरो की बात ओवर लैप करती है। वह पूरे दौर की बात बन जाती है। एक्सटर्नल फोर्सेज, बहुत से लोगों को एक तरह से सोचने को मजबूर कर देती है। जब सब लोग एक तरह से सोचने को मजबूर हो जाए तो जाहिर है कि उनकी जुबान मे भी समानताएँ नजर आती है। पर ये उपरी समानताएँ होती है। सरसरी नजर से, कैजुअली जो पढ़्ता है, उसे यह धोखा है कि सब एक तरह की बातें कर रहे हैं। शायरी मे हर शायर की इडिवीजुअलिटी जरूर मौजूद रहती है। इसलिए क्रिएट करने वाले की अपनी जो आइडैंटिटी है, वह गुम नही होती। शायरी या कोई भी सीरियस आर्ट-फार्म पढ़्ने सुनने देखने वाले से थोडी सावधानी और थोडा वक्त मांगता है। जाकिर साहब का यह कथन कि “अगर कोई काम इस काबिल है कि किया जाए तो फिर उसे दिल लगाकर किया जाए अदब पर भी पूरी तरह लागू होता है।

आपको मुशायरो मे भी बुलाया जाता रहा है। आप शिरकत भी करते रहे है। ऐसा क्यों है कि आपकी मुशायरो के बारे मे अच्छी राय नही है? अपनी कुछ खामियो के बावजूद मुशायरो या कवि सम्मेलन अपनी अपनी भाषाओं को लोकप्रिय तो बना ही रहे है?

इंडिया मे मुशायरों और कवि सम्मेलनों मे सिर्फ चार बाते देखी जाती है- पहली, मुशायरा कंडक्ट कौन करेगा? दूसरी- उसमे गाकर पढ़्ने वाले कितने लोग होगे? तीसरी- हंसाने वाले शायर कितने होंगे और चौथी यह कि औरतें कितनी होगीं? मुशायरा आर्गेनाइज –पेट्रोनाइज करने वाले इन्ही चीजों को देखते है। इसमे शायरी का कोई जिक्र नहीं। हर जगह वे ही आजमाई हुई चीजें सुनाते है। भूले बिसरे कोई सीरियस शायर फँस जाता है, तो सब मिलकर उसे डाउन करने की कोशीश करते है। इसे आप पॉपुलर करना कह लीजिए। फिल्म ग़ज़ल भी बहुत पॉपुलर कर रहे है। पर बहुत पापुलर करना वल्गराइज करना भी हो जाता है बहुत बार। इंस्टीट्यूशन मे खराबी नहीं, पर जो पैसा देते है, वे अपनी पसंद से शायर बुलाते है। उनके बीच मे सीरियस शायर होगे तो मुशकिल से तीन चार और उन्हे भी लगेगा जैसे वे उन सबके बीच आ फँसे है। जिस तरह की फिलिंग मुशायरो के शायर पेश करते है, गुमराह करने वाली, तास्तुन, कमजरी वाली चीजें वे देते है, सीरियस शायर उस हालात मे अपने को मुश्किल मे पाता है।

आप हिन्दी के साहित्य और साहित्यकारों से भी आत्मीय व करीबी स्तर पर जुडे रहे है। हिन्दी –उर्दू साहित्य को अगर आज तुलनात्मक दृष्टि से हम देखना चाहें, तो क्या मुख्य समानताए या असमानताए उनके बीच दिखती है? हिन्दी गजल के बारे मे विशेष रूप से अपनी राय जाहिर करते हुए आप अन्य विधाओ मे लिखे गए साहित्य की वर्तमान स्थिति के बारे मे अपने अनुभव, अपने विचार प्रकट करना अवश्य चाहेगे?

हिन्दुस्तानी वाला इलाका बैक्क बर्ड है। यहाँ अदब के बूते जिन्दा नहीं रहा जा सकता। रीजनल जुबानों में रिकॉगनीशन मिलने पर जिन्दगी गुजारी जा सकती है। मराठी, उडिया, बंगाली, तमिल वगैरह मे पढ़ा-लिखा कोई आदमी ऐसा नहीं होगा जो अपनी भाषा के लेखको को न जानता होगा। हिन्दी-उर्दू वाले आसानी से नये लोगों को रिकगनाइज नहीं करते। हम ही रहें नये न आए। एस्टेबलिशमेंट बन गया है। एकेडमिक इंस्टीयूशंन और हिन्दी-उर्दू डिपार्ट्मेंट्स की स्थिति यह है कि वहा लिटरेचर से लेना देना नहीं। साहित्य पढ़ाने मे लगे है, किंतु एकेडिमिक काम के अलावा दुनिया भर के काम उन्हे है। प्रोग्रेसिव आइडियाज से हिन्दी उर्दू दोनो मे लोग बिदकते है।

मैने हिन्दी साहित्य को हिस्टोरिक प्रोस्पेक्टिव मे सिस्टेमेटिक और आर्गेनाइज्ड ढंग से नही पढ़ा। पर हाँ जिन लोगो से सम्बन्ध रहे है उन्हे पढा है। भले ही सिस्टेमेटिक ढंग से नहीं पर मैने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, गिरिधर राठी, अशोक वाजपेयी, भारती, शमशेर, दुष्यंत, केदारनाथ, त्रिलोचन, नागार्जुन, श्रीकांत वर्मा वगैरह को पढ़ा है। वह अलग शायरी है। इसमे कम्पेयर नहीं। हिन्दी मे लोग गजल लिखते है, यह अच्छी बात है। पर दुष्य़ंत ने जो छाप लगा दी, वह बिलकुल अलग है। किसी भी तरह देखे वह गजल है। हम जिस तरह के मीटर के आदी है, हिन्दी शायरी हमें थोडी प्रोजेक लगती है। हम जिस तरह के मीटर और रिदम के कायल है, उसकी वजह से यह अहसास होता है कि जैसे वह प्रोज के करीब है। महादेवी, निराला मे ऐसी बात नहीं। पर जहा तक थाट-कंटेट को बात है, बहुत सीरियस शायरी है। वहाँ क्रिटीहिज्म मैने सुनी ज्यादा है, पढ़ी कम है। अपनी तकरीर मे नामवर सिंह बहुत इम्प्रेस करते है। उनका रिकार्ड काफी दिनों से एक जगह ठहरा हुआ है। मुझे कमलेश्वर और नामवर की तकरीर में अंतर नहीं लगता। दोनो इम्प्रेस करते है और दोनो के कुछ पहलू ऐसे है तो ज्यादा देर मुतस्सिर करते है। हिन्दी मे फिक्शन अच्छा है। कमलेश्वर, मोहन राकेश यादव, मुन्नू, शानी, श्रीलाल शुक्ल को पढ़ा है। एक खास पीरियड में राकेश , कमलेश्वर, यादव, शानी ने अच्छा लिखा है।

खराबियाँ-अच्छाइयाँ दोनो मे कॉमन है। हिन्दुस्तानी वाला इलाका बैक्क बर्ड है। यहाँ अदब के बूते जिन्दा नहीं रहा जा सकता। रीजनल जुबानों में रिकॉगनीशन मिलने पर जिन्दगी गुजारी जा सकती है। मराठी, उडिया, बंगाली, तमिल वगैरह मे पढ़ा-लिखा कोई आदमी ऐसा नहीं होगा जो अपनी भाषा के लेखको को न जानता होगा। हिन्दी-उर्दू वाले आसानी से नये लोगों को रिकगनाइज नहीं करते। हम ही रहें नये न आए। एस्टेबलिशमेंट बन गया है। एकेडमिक इंस्टीयूशंन और हिन्दी-उर्दू डिपार्ट्मेंट्स की स्थिति यह है कि वहा लिटरेचर से लेना देना नहीं। साहित्य पढ़ाने मे लगे है, किंतु एकेडिमिक काम के अलावा दुनिया भर के काम उन्हे है। प्रोग्रेसिव आइडियाज से हिन्दी उर्दू दोनो मे लोग बिदकते है।

आपके बारे में कहा जाता है कि आपने अपने लेखन से हिन्दी उर्दू के बीच एक पुल बनाया है। आप हिन्दी में भी काफी लोकप्रिय हैं। आपकी लोकप्रियता में फिल्म के गीतों की क्या भूमिका है? आप अपनी उपलब्धियों और देश की वर्तमान हालत पर क्या कुछ कहना चाहते हैं?

मैं हिन्दी या उर्दू को नहीं लिख रहा, बल्कि उन लोगों के लिये लिख रहा हूँ जो खास तौर पर उर्दू भाषा भाषी हैं पर स्क्रिप्ट नहीं जानते, उन लोगों के लिये इनकी मातृभाषा उर्दू नहीं है पर मेरी शायरी पसंद करते हैं। मेरे शेर सुन कर, मुझसे मिल कर खुश होते हैं, मुझे प्यार देते हैं। हिन्दी में ज्यादा पॉपुलर होने की वजह यह है कि वे छापते हैं, पैसे देते हैं, इज्जत देते हैं, मानते हैं। उर्दू में खुद छपवानी पडती हैं किताबें।

मेरी ज़िन्दगी में फिल्म के मेरे गीतों नें बहुत अहं रोल अदा किया है। मैं अपनी लिटररी अहमियत की वजह से फिल्म में गया फिर आम स्तर पर फिल्म की वजह से लिटरेचर में मेरी अहमियत बढी। मोहब्बत, शौहरत, दौलत, इज्जत, बच्चे...आदमी जो ख्वाहिश कर सकता है मुझे खूब मिला। वैसे आप जानते हैं पूरी तरह कोई मुतमइन नहीं होता। शायद आदमी के ज़िन्दा रहने को जरूरी है कि वह किसी चीज की ख्वाहिश करता रहे।किसी चीज की कमी महसूस करता रहे।

जहाँ तक देश के सूरत-ए-हाल का सवाल है, तो जैसे मुल्क का फ्यूचर तय हो रहा है, रिफॉर्म्स के नाम पर जैसे जो हो रहा है और आम आदमी को कुछ नहीं मिल रहा है, हम खुली आँखों से देख रहे हैं और अपने को बेबस महसूस करते हैं। ईस्ट ईंडिया कम्पनी दूसरी तरह से आ रही है। आम आदमी को सच्चाईयों से दिन प्रतिदिन दूर किया जा रहा है। लेकिन हिन्दुस्तान के बारे में मेरा जो अनुभव है वह यह कि वह पाखंड को बहुत समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकता। यहाँ लोग शोर नहीं मचाते लेकिन जब फैसले का वक्त आता है तो सच्चे और अच्छे फैसले करते हैं। मेरा यह ईमान मुझे फ्यूचर से मायूस नहीं होने देता। मुझे यकीन है कि आने वाली जनरेशन को वह सब कुछ नहीं देखना पडेगा जो हम देख सह रहे हैं।

न जिसकी शक्ल है कोई, न जिसका नाम है
कोई इक एसी शै का क्युँ हमेँ अज़ल से इंतज़ार है

जहाँ तक देश के सूरत-ए-हाल का सवाल है, तो जैसे मुल्क का फ्यूचर तय हो रहा है, रिफॉर्म्स के नाम पर जैसे जो हो रहा है और आम आदमी को कुछ नहीं मिल रहा है, हम खुली आँखों से देख रहे हैं और अपने को बेबस महसूस करते हैं। ईस्ट ईंडिया कम्पनी दूसरी तरह से आ रही है। आम आदमी को सच्चाईयों से दिन प्रतिदिन दूर किया जा रहा है। लेकिन हिन्दुस्तान के बारे में मेरा जो अनुभव है वह यह कि वह पाखंड को बहुत समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकता। यहाँ लोग शोर नहीं मचाते लेकिन जब फैसले का वक्त आता है तो सच्चे और अच्छे फैसले करते हैं। मेरा यह ईमान मुझे फ्यूचर से मायूस नहीं होने देता। मुझे यकीन है कि आने वाली जनरेशन को वह सब कुछ नहीं देखना पडेगा जो हम देख सह रहे हैं:-

आज का दिन बहुत अच्छा नहीं तस्लीम है
आने वाला दिन बहुत बहतर है, मेरी राय है।

आपको उमरावजान के गीतों के कारण बेहद ख्याति मिली। फिल्म जगत के आपके अनुभव कैसे रहे हैं? फिल्मों के लिये गीत लिखते हुए स्वयं को कितना समर्थ और अनुकूल मानते हैं?

मुझे ज़िन्दगी में बहुत सी चीजें फिल्म के गानों की मकबूलियत से मिलीं। दूर दराज मुल्कों में जो मुशायरों में बुलाया जाता है तो उसमें यही इंट्रोडेक्शन काफी होता है कि ये उमरावजान के गीतों के लेखक हैं। मेरे बच्चों से अक्सर यह सवाल किया जाता है कि आप उन्ही शहरयार के बच्चे हैं, जिन्होने उमरावजान के गाने लिखे हैं? मैं आवाम की पसंद की अहमियत का हमेशा कायल रहा हूँ। अगर कोई किसी को पसंद करता है तो उसमें कुछ न कुछ अच्छा जरूर है। नासिर काज़मी का एक मिसरा है – “कुछ होता है जब पलके खुदा कुछ कहती है” मकबूलियत की अपनी जगह है।

वहाँ निन्यानबे प्रतिशत गाने धुनों पर लिखे जाते हैं, फौरन वहीं पर। हम नहीं लिख सकते। बहुत दिनों से यह काम हो रहा है। साहिर वगैरह बहुत लोगों नें लिखे। लगता है जैसे कफन तैयार है अब मुर्दा तैयार कीजिये। जब तक हम कहानी कैरेक्टर का हिस्सा न बना लें गीत को कैसे लिखें? क्रियेटिव प्रोसेस इंटरकोर्स से मिलता जुलता है। उसको प्राईवेसी जरूरी है। हम दनादन धुन पर तुरंत नहीं लिख सकते।

पिक्चर को मन इस लिये होता है कि उस मीडियम का इफैक्ट है। हमारी बहुत सी बातें जो वैसे नहीं पहुँच रहीं वहाँ से पहुँचें। हमने उस मीडिया को अपनी आईडियोलॉजी के लिये इस्तेमाल किया है। हमें खडे होने के लिये सही जगह मिलनी चाहिये, हम उसके सारे रिग्वायरमेंट पूरे कर सकते हैं। मेरे अनुभव बहुत अच्छे रहे हैं वहाँ के। हमें हमेशा यह अहसास रहा कि हम युनिवर्सिटी के नौकर हैं। हमने मुशायरों फिल्मों के लिये छुट्टियाँ जाया करना ज़रूरी नहीं समझा। बाहर के ऑफर्स उन दिनो एवायड करते रहे। अब रिटायरमेंट के बाद हम वक्त देना अफोर्ड कर सकते हैं।
                                                                                                                                 ( आभार : साहित्य शिल्पी)
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