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मंगलवार, 12 मई 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव, राष्ट्रीय,  
कलकल बहते निर्झर गाते 
पंछी कलरव गान सुनाते गान 
मेरा भारत अनुपम अतुलित 
लेने जन्म देवता आते 
ऊषा-सूरज भोर उगाते 
दिन सपने साकार कराते 
सतरंगी संध्या मन मोहे 
चंदा-तारे स्वप्न सजाते   
एक साथ मिल बढ़ते जाते 
गिरि-शिखरों पर चढ़ते जाते 
सागर की गहराई नापें 
आसमान पर उड़ मुस्काते 
द्वार-द्वार अल्पना सजाते 
 रांगोली के रंग मन भाते 
चौक पूरते करते पूजा 
हर को हर दिन भजन सुनाते 
शब्द-ब्रम्ह को शीश झुकाते 
राष्ट्रदेव पर बलि-बलि जाते 
धरती माँ की गोदी खेले 
रेवा माँ में डूब नहाते 
***

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी 
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोइ भी दुखी 
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें 
कुछ  काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें 
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो 
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो 
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों 
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा 
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा 
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें 
तव आरती माँ भारती! हम एक होक गा सकें  
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
*** 

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
यहाँ प्रयुक्त छंद को पहचानिए, उसके लक्षण बताइए और उस छंद में कुछ रचिए:
.
माता की जयजयकार करें, निज उर में मोद-उमंग भरें
आ जाए  काल तनिक न डरें, जन-जन का भय-संत्रास हरें
फागुन में भी मधुमास वरें, श्रम पूजें स्वेद बिंदु घहरें-
करतल पर ले निज शीश लड़ें, कब्रों में अरि-सर-मुंड भरें
.
आतंकवाद से टकरायें, दुश्मन न एक भी बच पायें
'बम-बम भोले' जयनाद सुनें, अरि-सैन्य दहलकर थर्रायें
जय काली! जय खप्परवाली!!, जय रुंड-मुंड मालावाली!
योगिनियों सहित आयें मैया!, अरि-रक्त-पान कर हर्षायें
.
नेता सत्ता का मोह तजें, जनसेवक बनकर तार-तरें
या घर जाकर प्रभु-नाम भजें, चर चुके बहुत मत देश चरें
जो कामचोर बिन मौत मरें, रिश्वत से जन हो दूर डरें
व्यवसायी-धनपति वृक्ष बनें, जा दीन-हीन के निकट झरें
.
***