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बुधवार, 12 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा:

दंतक्षेत्र : गतागत को जोड़ती समकालिक कृति 

- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

[कृति विवरण- दंतक्षेत्र (दंतेवाड़ा: थोड़ा जाना-थोड़ा अनजाना), लेखक- राजीव रंजन प्रसाद, आई.एस.बी.एन ९७८-९३-८४६३३ -८३-७, आकार - डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ४५६, मूल्य ५००/- प्रकाशक - यश पब्लिशर्स, एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स १/१०७५३ सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली ११००३२]

विश्ववाणी हिंदी में प्रभूत लेखन होते हुई भी, समसामयिक परिदृश्य पर गतागत को ध्यान में रखते हुए सार्थक तथा दूरगामी सोच को आमंत्रित करता लेखन कम ही होता है। विवेच्य कृति दंतक्षेत्र (दंतेवाडा : थोड़ा जाना, थोड़ा अनजाना) एक ऐसी ही कृति है जिसे पढ़कर पाठक को गौरवमय विरासत, अतीत में हुई चूकों, वर्तमान में की जा रही गलतियों और भविष्य में उनसे होनेवाले दुष्प्रभावों का आकलन करने की प्रेरणा ही नहीं आधारभूत सामग्री भी प्राप्त होती है। विवेच्य पुस्तक वर्त्तमान में नक्सलवाद के नाम से संचालित दिशाहीन आन्दोलन से सर्वाधिक क्षत-विक्षत हुए बस्तर के दंतेवाड़ा क्षेत्र पर केन्द्रित है। भारतीय राजनीति में चिरकाल से उपेक्षित यह अंचल अब आतंक और दहशत का पर्याय बन गया है। विधि की विडम्बना यह कि देश के औद्योगिक और आर्थिक उन्नयन में सर्वाधिक अवदान देते रहने के बाद भी इस अन्चल को उसका प्रदेय कभी नहीं मिला। 'जबरा मारे रोन न दे' की लोकोक्ति का अनुसरण करते हुए केंद्र सरकारें, चाहे वे विदेशी रही हों या भारतीय, जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे इस क्षेत्र के प्रति सौतेली माँ की वक्र-दृष्टि रखती रही हैं। लेखन राजीव रंजन प्रसाद इसी माटी के बेटे हैं, इसलिए उन्हें यह विसंगति अंतर्मन में सालती रही है। प्रस्तुत किताब दीर्घकालिक मन-मंथन से नि:सृत नवनीत है।

विश्व की सर्वाधिक पुरानी गोंडवाना भूमि में प्राण संचार करते बस्तर के दण्डकारण्य क्षेत्र के ऐतिहासिक गौरव, प्राकृतिक वैभव, आर्थिक समृद्धि, मानवीय निश्छलता, राजनैतिक दुराग्रह्जनित दुश्चक्रों, आम जन की पीड़ा तथा रक्तरंजित सशस्त्र आन्दोलन की निष्पक्ष, पूर्वाग्रहरहित विवेचना करते राजीव रंजन ने अभिव्यक्ति की स्पष्टता, भाषा की सरलता तथा प्रस्तुति की सरसता का ध्यान रखा है। इस कारण यह कृति उपन्यास न होते हुए भी औपन्यासिक औत्सुक्य, कहानी न होने हुए भी कहानीवत कथानक, कविता न होते हुए भी काव्यवत रसात्मकता तथा निबंध न होते हुए भी नैबंधिक वैचारिकता से सम्पन्न है। इस कृति की अंतर्वस्तु विषय-बाहुल्य तथा विभाजनहीनता से कभी-कभी किसी वैचारिक उद्यान में टहलने जैसे प्रतीति कराती है। दंतेवाडा के नामकरण, भूगर्भीय संरचना, पुरातात्विक महत्त्व और अवहेलना, ऐतिहासिक संघर्ष, स्वाधीनता प्रयासों तथा स्वातंत्र्योत्तर राजनीति सब कुछ को समेटने का यह प्रयास पठनीय ही नहीं विचारणीय भी है। बस्तर की भूमि से लगाव और जुड़ाव ने लेखक को गहराए में जाने के स्थान पर विस्तार में जाने को प्रेरित किया है। इसका अन्य अकारण विवाद टालने की चाह भी हो सकती है। पर्यावरणीय वैशिष्ट्य, वानस्पतिक वर्गीकरण, जैव विविधता, अंधाधुंध खनिजीय दोहन, प्राकृतिक विनाश, आम जन की निरंतर होती उपेक्षा हर आयाम को छुआ है लेखक ने।

प्रकृति-पुत्र वनवासियों का तथाकथित सभ्यजनों द्वारा शोषण, मालिक मक्बूजा काण्ड के कारण अपनी जमीन और वन से वंचित होते वनवासी जन सामान्य की पीड़ा और उनसे की गयी ठगी को राजीव रंजन ने बखूबी उजागर किया है। राजतन्त्र, विदेशी शासन और लोकतंत्र तीनों कालों में प्रशासनिक अधिकारियों की अदूरदर्शिता और मनमानी ने जन सामान्य का जीना दूभर करने में कोई कसर नहीं छोडी। जनजातीय जीवन पद्धति और जीवन मूल्यों को समझे बिना खुद को श्रेष्ठ समझा कर लिए गए आपराधिक प्रशासनिक निर्णयों की परिणति महारानी प्रफुल्ल कुमारी की हत्या से लेकर महाराज प्रवीर चंद भंजदेव की हत्या तक अबाध चलती रही है। बस्तर और छतीसगढ़ से गत ६ दशकों के निरंतर जुड़ाव के कारन मैं व्यक्तिगत रूप से उन्हीं निष्कर्षों को पा सका हूँ जो राजीव जी ने व्यक्त किये हैं। राजेव जी गैर राजनैतिक हैं इसलिए उन पर कोई वैचारिक प्रतिबद्धताजनित दबाव नहीं है। उन्होंने मुक्त मन से पौराणिक गाथाओं का भी उल्लेख यथास्थान किया है और आदिवासीय जीवन शैली के सकारात्मक-नकारात्मक प्रभावों का भी उल्लेख किया है।

इस कृति में सभी आदिवासी विद्रोहों की संक्षिप्त पृष्ठभूमि, कारण, टकराव, संघर्ष, दमन और पश्चातवर्ती परिवर्तनों का संकेतन है। इस क्रम में वर्त्तमान नक्सलवादी आन्दोलन के मूल में व्याप्त राजनैतिक स्वार्थ, स्थानीय जन-हित की उपेक्षा, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, विनाश और अलगावजनित जन-असंतोष की अनदेखी को भली-भाँति देखा और दिखाया है लेखक ने। आदिवासियों को बर्बर, असभ्य, क्रूर और नासमझ मानकर उन पर तथाकथित जीवन शैली थोपना ही सकल विप्लवों का कारण रहा है। विडम्बना यह कि निरपराध और निर्दोष जन ही षड्यंत्रकारियों द्वारा मारे जाते रहे। वर्त्तमान शासन-प्रशासन भी पारंपरिक सोच से भिन्न नहीं है। सोच वही है, थोपने के तरीके बदल गए हैं। छतीसगढ़ बनने के पूर्व पीढ़ियों से वहाँ रहनेवाने लघु किसान और श्रमजीवी अब वहाँ नहीं हैं। उनकी छोटी-चोटी जमीनें शासन या व्यापारियों द्वारा येन-केन-प्रकारेण हडपी जा चुकी हैं। कुछ धन मिला भी तो टिका नहीं।

आदिवासी जीवन शैली में अन्तर्निहित मानवीय मूल्य, ईमानदारी, निष्कपटता, निर्लोभता, नैतिकता आदि का ज़िक्र बार-बार हुआ है। नाग संस्कृति इन्हीं जीवन मूल्यों पर आधृत रही है। लिंगादेव औए आदिवासी वंश परंपरा का भी उल्लेख है। भगवान् राम का ननिहाल है यह क्षेत्र। राजीव ने इन सभी का संकेत तो किया है किंतु किसी पर व्यवस्थित-विस्तृत अध्ययन नहीं दिया। इस पुस्तक की सामग्री को छोटे-छोटे अध्यायों में विभक्त कर विषय वार दिया जाता तो कुछ पृष्ठ संख्या बढ़ती किंतु उपयोगिता अधिक हो जाती। मेरा सुझाव है कि आगामी संस्करण में विषयवार और घटनावार अध्याय, अंत में अकारादिक्रम में शब्दानुक्रमणिका तथा सन्दर्भ ग्रन्थ सूची जोड़ दी जाए ताकि इसकी उपादेयता शोध छात्रों के लिए और अधिक हो सके। पुस्तक की विषय-वस्तु अत्यधिक व्यापक है। सामग्री की व्यवस्था बैठक खाने की तरह न होकर भंडार गृह की तरह हो गयी है। इससे विश्वसनीयता में कमी भले ही न हो, उपादेयता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।

साहित्य की दृष्टि से इसे गद्य विधा में समाजशास्त्रीय विवेचनात्मक ग्रंथों में ही परिगणित किया जाएगा। लेखक ने पाठकीय दृष्टि से भाषा को सहज बोधगम्य, प्रसाद गुण संपन्न रखा है। यत्र-तत्र उद्धरण देकर अपनी बात की पुष्टि की है। मुद्रण की शीघ्रता में कुछ पाठ्य त्रुटियाँ छूट गयी हैं जो स्वादिष्ट खीर में कंकर की तरह हैं। राजीव जी ने पुरातत्वीय सन्दर्भों में लिखा है- 'कोई भी विद्वान् एक स्पष्ट दिशा नहीं देते... अपने -अपने मायने निकाल रहे हैं।' इस कृति में भी लेखक वर्तमान से जुड़े अपना स्पष्ट मत देने बचा है। इस नीति का सुपरिणाम ह है कि पाठक खुद अपना मत निर्धारण बिना अन्य से प्रभावित हुए कर सकता है। बहुचर्चित और विश्व पुस्तक मेले में लोकप्रिय रही यह कृति पाठकों को बस्तर, दंतेवाडा और छतीसगढ़ गतागत के सम्बन्ध में चिंतन करने को प्रेरित करने में समर्थ है। शोध छात्रों के साथ हे राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों को भी इसे पढ़कर यह समझना चाहिए कि स्थानीयता की उपेक्षा कर थोपी गयी जीवन पद्धति के परिणाम सकारात्मक नहीं होते। श्री ब्रम्हदेव शर्मा अथवा श्री नरोन्हा जैसे अधिकारसंपन्न अधिकारी जो एकतरफा निर्णय लेते हैं वे लोक जीवन और जीवन पद्धति को स्वीकार्य नहीं होते। 'लोकतत्र में तंत्र को लोक का सहायक होना चाहिए, स्वामी नहीं' राजीव रंजन इसे स्पष्ट शब्दों में न कहकर भी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में विवेचन करते हुए व्यक्त कर देते हैं। हमारी सरकारों को दलीय और व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर आम जन के हित में सोचना होगा तभी जन कल्याणकारी राज्य की उद्भावना साकार हो सकेगी।

सारत: 'दंतक्षेत्र' शीर्षक यह कृति एक क्षेत्र विशेष तक सीमित न रहकर, समूचे मानवैतिहास में व्याप्त प्रकृति-अनुकूल और प्रकृति-प्रतिकूल जीवन शैलियों के संघर्ष में अन्तर्निहित तत्वों की विवेचन व्यक्तियों और घटनाओं के माध्यम से करती है। लेखक इस महत प्रयास हेतु साधुवाद का पात्र है।
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रविवार, 26 मई 2013

varta: baster men naxalvaad - mahendra karma with rajiv ranjan prasad

नक्सलवाद गलत शासकीय नीतियों और प्रशासनिक भूलों का दुष्परिणाम :
राजीव रंजन प्रसाद

आदिवासी नेता महेन्द्र कर्मा की हत्या के विरोध में

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[प्रस्तुत तस्वीर तथा यह साक्षात्कार अक्टूबर-2012 का है]

महेन्द्र कर्मा नहीं रहे। लाल आतंकवाद ने जिस तरह से बस्तर को खोखला किया है वह उनकी हत्या की भयावह विभीषिका के तौर पर सामने आ गया है। बस्तर की राजनीति में महेन्द्र कर्मा एक जाना-पहचाना नाम थे तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने के बाद इन दिनो वे कांग्रेस के बड़े आदिवासी नेताओं में गिने जाने लगे थे। उनका एक परिचय यह भी है कि सलवाजुडुम अभियान का उन्होंने अग्रिम पंक्ति में खड़े हो कर नेतृत्व किया था। महेन्द्र कर्मा प्रखर वक्ता भी थे तथा बस्तर पर अपने विचार वे दृढता और आत्मविश्वास के साथ रखते थे। बस्तर पर किये जा रहे अपने अध्ययन के दौरान महेन्द्र कर्मा से मेरी मुलाकात दंतेवाड़ा में हुई थी। मैने उनका साक्षात्कार रिकॉर्ड किया था जिसमें बिना अपना मत-मंतव्य जोडे शब्दश: प्रस्तुत कर रहा हूँ -
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राजीव रंजन: कर्मा जी, महाराजा प्रवीर का समय और आज का बस्तर; दोनों समयों मे आप कैसा परिवर्तन महसूस करते है?
महेन्द्र कर्मा: देखिए प्रवीर का पूरा समय राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच फँसा हुआ समय था। प्रवीर राजतंत्र की अन्तिम कड़ी होने के साथ-साथ बहुत अच्छे विधायक थे। उन्होंन राजतंत्र के मानकों को उभारा जिसके परिणाम में 1966 का गोलीकाण्ड हुआ। प्रवीर बस्तरवासियों के बीच में बहुत ही लोकप्रिय थे तथा अपने समय के डेमोक्रेटिक सेटअप में एक अच्छे लीडर हो सकते थे। उन्होंने लीडर बनने की बजाय एक राजा होने की भूमिका ज्यादा निभाई।.....मैं समझता हूँ कि बस्तर ही नहीं पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर, परिवर्तन और विकास की आहट बहुत कम सुनाई दी है। जो भी डेवलेप्टमेन्ट; जो भी चेंजेज़ आए हैं वे बहुत ही स्लो हैं, धीमी प्रोसेज में आये हैं। बस्तर की जहाँ तक बात है, अचानक 1967 - 68 के उपरान्त जैसे ही यहाँ बैलाडिला प्रोजेक्ट आया तो वह यहाँ के शान्त माहौल में हलचल की तरह आया या कहिये एक शान्त झील में कोई बड़ा सा पत्थर फेंकने के बाद उठी लहरों का अहसास यहां के लोगों ने किया है। बैलाडिला के लिए भी यहाँ के लोग तैयार नहीं थें। अगर सरकार थोड़ा भी यहाँ के लोगों को इस बड़े और प्रभावित करने वाले अध्याय से जोड़ती, यहाँ के लोगों को इससे सीधे जोड पाती, यहाँ के शिक्षित लोगों के लिये यह एक अवसर की तरह आता तो मैं समझता हूँ कि इसका स्वागत भी होता और इसके दूरगामी परिणाम कुछ और बेहतर हो सकते थे, जो नही हुआ।
राजीव रंजन: बैलाडिला तो आ गया लेकिन उस बीच में बस्तर में बोधघाट परियोजना बन्द हो गई या नगरनार प्रोजेक्ट बन्द हो गया। जिन्हें हम विकास परियोजनाएं कहते हैं वे बस्तर अंचल से एक-एक करके खत्म होती चली गई....?
महेन्द्र कर्मा: बस्तर में इस सम्बन्ध में दो प्रकार की विचारधारा हैं। एक विचारधारा वो, जो ऑर्थोडॉक्स है; वो लोग यहां के समाज, संस्कृति, धर्म जैसे बातों का भय दिखा कर बस्तर के विकास को रोक रहे हैं। दूसरी विचारधारा है जो यहाँ के संसाधनों पर आधारित हैं, यहाँ के लोगों के लिये विकास की पहल कर रही हैं। इसमें हम लोग भी हैं।....बस्तर में काम पैदा होना चाहिये, जितना सही तरह से संभव हो उद्योग धंधे भी लगने चाहिए, इस बात के हम लोग शुरू से सर्मथक रहे हैं। हमारा कहना है कि यहाँ के संसाधन सिर्फ ग्लोबल नहीं होने चाहिए, उन पर कहीं न कहीं इस जमीन का पहले हक है पर वेल्यूऐटेड डेवलपमेंट होना चाहिए। वेल्युएडिशन की स्थिति में यहा एम्प्लॉयमेंट बढ जायेगा। आज जो बस्तर का आदमी है वह भी बदल गया है। उसके लिये अब बिलकुल एक नया युग हैं। उसकी सोच ही अलग हैं। वह बदलती दुनिया के साथ अपने आप को एडजेस्ट करना चाहता हैं। अभी इस तरह की तमाम चीजों पर बाते एक ब्लास्टिंग मोड में हैं....नए अवसर खुल सकते हैं। हम जो उनको नही दे पा रहे, इसका कोई तुक नहीं है। मेरा मानना है कि डिसाईजिव स्थिति में रहने के बाद भी, साधन सम्पन्नता के बाद भी हम यहाँ के लोगों के लिये विकास से सही अवसर खोल पाने में अब तक असफल ही रहे हैं।
राजीव रंजन: कर्मा जी, अपने बहुत खुलकर एक बात की है। इसी से जुड़ा हुआ एक प्रश्न करना चाहता हूँ कि जिन दिनों ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर में रहें, दो महत्वपूर्ण काम हुए। पहला तो प्रशासक के तौर पर उनके प्रयासों द्वारा अबूझमाड़ क्षेत्र को आम दुनिया से काट दिया गया और उसे एक आईसोलेटेड क्षेत्र बना दिया गया। दूसरा एक एक्टिविस्ट के तौर पर उन्होंने मावलीभाटा के पास बनने वाले स्टील प्लांट का विरोध किया; हालाकि बाद में उसका विरोध भी ब्रम्हदेव शर्मा को झेलना पड़ा था, दूसरे तरीके से। इन उदाहरणों से जुडा मेरा प्रश्न है कि क्या आप भी आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया को सही मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: दुनिया में जो भी विकास हुआ हैं, कुछ एक उदाहरणों को छोड दें तो आजादी के पहले से अब तक का जो पूरा हिन्दुस्तानी इतिहास हैं, वो सब संपर्कों पर आधारित इतिहास रहा हैं।...कितने सारे आक्रमणों का दौर आया, मुगलों का युग आया और फिर अंग्रेज....अंग्रेज हमें कोई एज्युकेट करने नहीं आए थे। वो लोग तो भारत में अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए आये थे। वह तो जो भी लोग उनके सम्पर्को में आये, उन लोगों ने संपर्कों का फायदा उठाया। संपर्क तो एक कैरियर है, एक वाहक है। दूसरी बात जिसका उदाहरण आपने स्वयं दिया- ब्रम्हदेव शर्मा; जो कि एक ऑर्थोडॉक्स आईडियोलॉजी का प्रतीक है। ये तमाम बस्तर की परियोजनाओं के विरोध करने वाले लोग कहीं न कही इसी आईडियोलॉजी के फॉलोअर लोग हैं। आदिवासी आईसोलेशन सही नहीं है।
राजीव रंजन: कर्मा जी, क्या आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया भी बस्तर में नक्सलिज्म का एक कारण हो सकता है?
महेन्द्र कर्मा: जी हाँ बिलकुल। आजादी के बाद, जैसे मैंने कहा कि यहाँ संपर्कों का अभाव बना दिया गया जिससे इस आदिवासी क्षेत्र में समस्यायें पैदा हुई। हमारा डेवलपमेंट कॉंसेप्ट बहुत ज्यादा त्रुटिपूर्ण है। हम शहरों से गाँवों की ओर धीरे-धीरे चले; हमको गाँवों से शहरों की और चलना चाहिए। यह जो नक्सलवाद जिसे आप कह रहे हैं इसी का खामियाजा है। नक्सलवादियों नें भी तो उन्हीं क्षेत्रों को को आईसोलेटेड थे, जहाँ प्रशासन की पहुँच नहीं थी, जहाँ विकास की रोशनी नहीं पहुँचाई गयी; उसी क्षेत्र को अपना आधार इलाका बनाया है। और अब ये सभी क्षेत्र और अधिक आईसोलेट और विचलित हो गये हैं। आईसोलेशन तो सीधे-सीधे कूपमण्डूकता हैं, समझ गए आइसोलेशन मतलब?.....अगर आज के दौर में हम किसी भी समाज को या एक समूह विशेष को पृथक रखने का, या आईसोलेट करने का कोई भी काम करते हैं तो हम एक बार फिर उन्हें अभिशप्त जिन्दगी जीने को प्रेरित और बाध्य दोनो ही कर रहे हैं।
राजीव रंजन: कर्मा जी इतिहास पलट कर देखा जाये तो हम पाते हैं कि बस्तर के आदिवासी हमेशा से जुझारू रहे है तथा अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम रहे हैं। क्या कारण रहा कि उनकी लड़ाई लड़ने के लिए बाहर से लोगों को आना पड़ा जिनका दावा हैं कि वे बस्तर के आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं; मेरा इशारा नक्सलियों की तरफ हैं?
महेन्द्र कर्मा: असल में तो नक्सली अपनी आईडियोलॉजी यहाँ के लोगों पर थोप रहे हैं इसके बाद भी वे यही सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये मूवमेंट उनका नहीं, आदिवासियों का हैं। जबकि नक्सलवाद से आदिवासियों का कोई सम्बन्ध नहीं है, वो इसीलिए नही भी नहीं हैं, क्योंकि आदिवासियों नें आज तक अपनी समस्याओं का निदान संविधान के दायरे से बाहर जा कर नहीं खोजा। वो संविधान के दायरे मे ही रहकर लोकतांत्रिक तरीके से, शांतिपूर्ण तरीके से, अपनी बात कहता रहा है। इसके साथ ही यह भी कहना चाहिये कि वो गूंगा भी नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति के तथा अपनी बात को कहने के तरीके अलग हैं;  इस तरह की हिंसा का उसका चहरा या तरीका नहीं है।
राजीव रंजन: इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं आपसे सलवा जुडुम की भी बात करना चाहूँगा। कर्मा जी मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि सलवा जुडुम का इतिहास क्या है तथा इसके आरंभ होने की क्या परिस्थिति थी?
महेन्द्र कर्मा: आपको याद होगा कि सलवा जुडुम से पहले एक जन जागरण अभियान भी चला था 89 से 91 लगभग दो सालों तक; बिल्कुल वैसे ही, ये भी चला था। घटना यह हुई कि एक गाँव में...गाँव का नाम नहीं ले रहा हूँ नहीं तो उस गाँव के लोगों को नक्सली मार देंगे। तो एक गाँव में नक्सलियों की बैठक चल रही थी; बिल्कुल रोड़ किनारे यह सब चल रहा था। फोर्स का राशन जा रहा था, ड्राइवर नक्सलियों से मिला हुआ था; अचानक वो रोड छोड़कर गाँव की ओर मुड़ गया। बिल्कुल बगल मे ही नक्सली लोग मीटिंग कर रहे थे तो फोर्स वाले जो दो जो ऊपर बैठे थे वो भाग के आ गए और राशन को उनके हैण्डओवर कर दिया। नक्सली वो राशन को लूट-लाट कर ले गए। दूसरे दिन फोर्स जाकर गाँव के कुछ लोगों को उठाकर थाना ले आई। थाने में बैठे लोगों नें विचार किया कि एक गलत आदमी की वजह से गाँव के सियाने लोगों को पुलिस क्यों बिठाएगी? तो उन लोगों नें पुलिस से कहा कि एक आदमी की वजह से गाँव के सभी बड़े सयाने क्यों परेशान हों? वो लोग गाँव गये और दोषी को पकडकर ले आये और पुलिस के हवाले कर दिया। पकड़ के तो ले आये लेकिन फिर गाँव वालों में डर भी जगा कि अब अगर हमने लोगों को हमारे साथ नही जोड़ा तो नक्सली आकर हमारे गाँव को तो भून देंगे। इस प्रकार से वहाँ के नक्सलियों के खिलाफ डर से शुरु होकर सलवाजुडुम एक प्रतिष्ठा की लड़ाई, स्वाभिमान की लड़ाई, आन-बान की लड़ाई बनता गया। यह घटना तो बस शुरूआत थी। वहाँ के लोगों ने तब दस गाँव के लोंगों कों बुलाया। कहते है, बड़े आन्दोलन की शुरूआत या एक बड़े विद्रोह की शुरूआत छोटे कारणों से होती रही हैं। इतिहास इस बात का गवाह है।....अपने समय के समकालीन लोग किसी ईवेंट को कैसे देखते हैं; किसी घटना को किस तरह लेते हैं; हम लोगों नें इसे वैसे ही देखा हैं। ये मई की घटना थी, 18-19 जून को मैं दिल्ली में था। वहाँ मैं पेपर पढ़कर इस घटना को देख-समझ रहा था, फिर मुझे लगा, वहाँ तुरंत जाना चाहिए, ऐसी जगह पर जहाँ लोग तो अपने आप आन्दोलन करने के लिये इकट्ठा हो रहे हैं लेकिन उनके लिये लीडरशीप का पता नहीं हैं। मेरे वहाँ पहुँचते-पहुँचते 26 तारीख लग गई। वहाँ पहुँचने के बाद मैने इसे सिस्टमेटिक ढंग से चलाने की कोशिश की है। सलवाजुडुम के उपर जो हत्या-बलात्कार के आरोप लगाये गये हैं वो दुष्प्रचार है; जो भी नक्सलियों के खिलाफ कोई आन्दोलन खड़ा करने की कोशिश करेगा उसको इसी प्रकार से दबाने का षडयंत्र किया जाता है। सच यह है कि हम लोग न तो अपने ही लोगों को मार सकते हैं न उनका बलात्कार कर सकते हैं।
राजीव रंजन: सलवा जुडुम को क्या आप एक सशस्त्र आंदोलन के खिलाफ एक दूसरा सशस्त्र आंदोलन मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: बिल्कुल नहीं, बिल्कुल नहीं। ऐसा था ही नहीं। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी समस्या का समाधान मास-मूमेंट होता है और यह हमारा मास-मूमेंट था। वह सशस्त्र था ही नहीं। हम हजारों लोग जब विलेज टू विलेज मूव कर रहे तो हमारी सुरक्षा में एक फोर्स था। फोर्स को अपनी भूमिका निभानी होती है; आज कोई भी जंगल जाएगा कोई जाँच कमेटी भी जाएगी तो उसके लिए भी फोर्स लगायी जायेगी; हम तो फिर भी नक्सलियों के खिलाफ में लड़ रहे थे। यह बिल्कुल सशस्त्र मूवमेन्ट नहीं था....बहुत ज्यादा हुआ तो हमने अपने परम्परागत हथियार को जिनमे टंगिया, कुल्हाडी, तीर-धनुष को अपने साथ रखा। सभी जानते हैं कि यह हमारे परम्परागत हथियार हैं; कुछ लोंगों ने इसे ही फोर्स अटैक बताया; जैसे हम सशस्त्र लड़ाई लड़ रहे हैं।
राजीव रंजन: सलवाजुडुम के समाप्त होने में आप किसकी भूमिका मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: नक्सलियों के खिलाफ जब भी कोई बात या मूमेंट या बहस फ्लोर पर होती है तो उसे बहुत योजनाबद्ध तरीके से डिफ्यूज किया जाता है; और ऐसा करनेवाले बहुत अच्छी तरह इसे करने में अब तक सफल रहे है... समझ गए। इन दिनों एक रूझान सा देखने को मिल रहा हैं...एंटी सिस्टम बातें करना आम हो गया हैं। मुझे लगता है इस मामले को हम लोग सही तरह से उठा नहीं पाये; हम अपना सही प्रेजेंटेशन नहीं दे पाये; सही पूछिये तो हमने उसकी जरूरत भी नहीं समझी। जमीन पर तो हम अपना पक्ष रोज रख रहे थे, लेकिन दिल्ली, भोपाल तक हम लोग अपना प्रेजेन्टेशन नहीं दे पाये...... हम इस बात की जरूरत नहीं समझ रहे थे। जब हम जंगल में जमीनी लड़ाई लड़ रहे हैं तो हमें क्या जरूरत है कि दिल्ली और भोपाल में जाकर अपना पक्ष रखें जो हमारी खिलाफत करने वाले लोग है वो प्रेजेंटेशन दिल्ली भोपाल में लगातार देते रहे।....इसी से हम हार गये। बहुत जबरदस्त धक्का लगा हमारे मूमेंट को। इतने बडे पब्लिक मूमेंट में ठहराव आ गया है, आन्दोलन खत्म हो गया है....यही चाह रहे थे नक्सली और वे सफल रहे; हम लोग हार गए।
राजीव रंजन: तो आपको अफसोस है?
महेन्द्र कर्मा: बहुत ज्यादा, और वो अफसोस तब तक रहेगा जब तक नक्सलवादी रहेगें। ये अफसोस बना रहेगा जब तक हमें फिर नई शुरूआत कोई नयी लड़ाई नहीं मिल जाती।
राजीव रंजन: कर्मा जी तो अब प्रश्न उठता है कि इस समस्या से कैसे निपटा जा सकता है?
महेन्द्र कर्मा: अब तो ऐसा है कि यह बात सिर्फ बस्तर की ही नहीं रह गयी है; अब तो यह पूरे देश की बात है। इसका समाधान पब्लिक के पास हैं; सरकार के पास है; फोर्सेज के पास है और कहीं न कहीं इन सभी को कलेक्टिवली सामने आना ही पडे़गा। एक बड़े सपोर्ट के साथ में; एक बड़े वॉल्यूम के साथ में। आज हम लोग कहां हैं?...और वो लोग कितना जबरदस्त दबाव बनाते हैं, गाँव के मुखिया से ले कर, एक सरपंच से लेकर परम्परिक जो हमारे रूरल ट्रैडिशनल सिस्टम हैं इन सभी को क्रश कर के रख दिया है। न गायता हैं, न पुजारी, न कोतवाल है, न पटेल है, न सरपंच है। गाँव में अब कोई भी नहीं है। जो भी है वो उनका आदमी है; वो हमारे ट्रेडिशन सेटअप को रिलीजियस सिस्टम को टारगेट करता हैं....देखिये कि जो ट्राइबल है वह नेचर के साथ रहने वाला आदमी है; प्रकृति का एक अभिन्न हिस्सा है और उसका अपना एक डेली रूटीन भी है। वो अपने कस्टम-सिस्टम के साथ जीनेवाला आदमी हैं। लेकिन नक्सलवादी ये चाहता है कि ट्राइबल उसका अपना जो कुछ है उसको छोड दे; अपने जीने का तरीका बदल दे; कस्टम-सिस्टम छोड़ दे। उसी बात को वह अब कहीं बोल नहीं सकता, कहीं सही तरह से अभिव्यक्त नही कर पाता। इसीलिये उसके अन्दर एक गुस्सा है; इसी बात से वह लड़नें के लिए लालायित है; यही एक फैक्टर है जो उसको टैम्पर कर रहा हैं.......... वो अपनी बेसिक पहचान खो रहा हैं। समाधान इसलिये नहीं हो रहा है कि बडी पॉलिटिकल विल चाहिये। जब तक किसी सरकार में कुर्बानी देने के माद्दा नहीं आयेगा तब तक....। हमने पंजाब में देखा है, हमने नार्थ-ईस्ट में देखा है कि सरकारों को आतंकवाद नें निगला है। अगर ऐसा ही रहा तो मुझे लगता है बहुत जल्दी इस देश में  भी नेपाल की स्थिति बन सकती हैं क्योंकि इस आतंकवाद को कोई रोक ही नहीं रहा हैं।
राजीव रंजन: आदिवासी नेता छत्तीसगढ़ की राजनीति में कहाँ है?
महेन्द्र कर्मा: अब करवट ले रहा हैं। आदिवासी नेतृत्व आगे आ रहा है। उसे अब आप रोक भी नहीं सकते। इतने बर्निंग प्वाईंट पर आदमी यहाँ पर स्ट्रगल कर रहा है, ऐसे आदमी की आवाज को ज्यादा रोका नहीं जा सकता है।
राजीव रंजन: आपसे बहुत सी बातें हुईं; बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
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गुरुवार, 9 मई 2013

bastar men adivasi vidroh 1876 aur jhada siraha -rajiv ranjan prasad




शोध:


बस्तर में 1876 का आदिवासी विद्रोह और झाड़ा सिरहा


बस्तर में हुए जन-आन्दोलनों के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1876 में झाडा सिरहा के नेतृत्व में हुए भूमकाल अथवा विद्रोह की महत्वपूर्ण जगह है। इस आन्दोलन को बारीकी से देखने पर यह ज्ञात होता है कि आदिवासी न केवल संघर्षशील कौम हैं, अपितु उनकी सिद्धांतवादिता का भी कोई सानी नहीं। 1876 के विद्रोह का दमन केवल इसीलिये हो सका था चूंकि आदिवासियों नें संयम और आदर्शवारिता की स्वयंस्थापित लकीर को पार नहीं किया था। आईये जानते हैं इस संघर्ष को विस्तार से:
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किसी भी क्रांति का सूत्रपात करने तथा उसे सुचारू रूप से संचालित करने का श्रेय उसके नायक को जाता है। बस्तर अंचल में दो बेहद शक्तिशाली जन-आन्दोलन हुए हैं वर्ष 1876 में तथा वर्ष 1910 में; जो लगभग व्यवस्था परिवर्तन की कगार तक पहुँचे किंतु फिर छल-बल से उनका दमन कर दिया गया। ये दोनो ही आन्दोलन क्रांति की मूल परिभाषा के अंतर्गत आते हैं जहाँ जनता अपनी इच्छा की व्यवस्था के लिये स्वयं संगठित हुई। मेरी धारणा है कि क्रांति का कोई ककहरा नहीं होता, क्रांति करने वालों को किसी रटे-रटाये वाक्यों या कि नारों और झंडों की आवश्यकता नहीं होती। मार्क्स-लेनिन-माओ को पढ़े बिना भी बदलाव आते रहे हैं और आयेंगे यह बात बस्तर के स्वत: स्फूर्त आन्दोलनों से बेहतर और कहीं सिद्ध नहीं होता। निश्चित ही मैं यही कहना चाह रहा हूँ कि आधे बस्तर को लील चुका माओवाद न तो बस्तर का अपना आन्दोलन है न ही क्रांति से इसका कोई लेना देना है। आन्दोलन तो झाड़ा सिरहा ने किया था; आईये जानते हैं उसकी कहानी।

वर्ष 1876 तक अंग्रेजों की पकड़ बस्तर में पूरी तरह मजबूत हो चुकी थी। वर्ष 1862’ में चर्चित दीवान दलगंजन सिंह की मौत के बाद मोतीसिंह बस्तर राज्य के दीवान बनाये गये। दलगंजन सिंह जब तक राज की बागडोर संभाले हुए थे अंग्रेजों को बहुत हद तक मनमानी करने की स्वतंत्रता नहीं मिल रही थी। यही कारण है कि लाल दलगंजनसिंह के बाद राज्य के जो भी दीवान बनाये गये वे अंग्रेजों की पसंद और सलाह से नियुक्त व्यक्ति थे। यह स्वाभाविक था कि यहाँ के आदिवासियों के लिये सारा जंगल उनका है, सारी जमीन उनकी है, सारा पानी उनका है और इसलिये कोई जमीन से जुड़ी सरकानी नीति नहीं थी। दलगंजनसिंह ने अपने समय तक पटेली बन्दोबस्त को इस तरह लागू रखा कि उसमें फसल उगाने वाले और राजा के बीच कोई बिचौलिया नहीं था। सीधे फसल उगाने वाले से ही टैक्स वसूला जाता था। इसके लिये गाँव से ही किसी आदिवासी को पटेल नियुक्त कर दिया जाता जो वसूली करके टैक्स राजकोष में जमा करा देता। पटेलों से “हैसियत साल” नाम से सम्पत्ति कर वसूला जाता था। यहाँ फ्लक्सिबिलिटी थी कि फसल अच्छी है तो लगान की दर अलग और खराब हुई तो अलग। अगले दीवान मोतीसिंह ने टैक्स पेमेंट के ब्रिटिश पैटर्न को अपना लिया। इसका उद्देश्य था ज्यादा लगान वसूलना। अब फसल उगाने वाले और राजा के बीच में पूरी ब्यूरोक्रेसी काम करने लगी। फसल कैसी भी हो टैक्स फिक्ड है। दीवान मोतीसिंह ने बंजारों पर भी आयात शुल्क और चरवाहा कर लगा दिया था। इससे बंजारों की आमद कम होने लगी तथा राज्य का व्यापार प्रभावित होने लगा। यह कदम एक तरह से कालाबाजारी को प्रोत्साहन भी था।

गोपीनाथ राउत कपड़दार ‘वर्ष-1867’ मे ब्रिटिश आदेश पर दीवान नियुक्त किये गये। एक ‘राउत’ को दीवान आसानी से स्वीकार नहीं किया गया। कपड़दार ने पूर्व दीवान मोती सिंह से एक कदम आगे निकलते हुए ठेकेदारी प्रथा को राज्य में लागू किया। उसने कर वसूलने का काम ठेके पर ग्रामप्रमुखों को दे दिया और इसी से वो ठेकेदार भी कहलाने लगे। यह एक छद्म सुधार था। नाप-जोख के अनुसार टैक्स तय कर दिया गया। जमीन की नाप का गणित तो किसी आदिवासी को समझ आता नहीं था। किसने कितनी जमीन जोती और कितनी आमदनी हुई सारा गुणा-भाग हवा में होने लगा। बढ़ा चढ़ा कर लगान वसूली करने का एक सिलसिला आरंभ हो गया। दीवान कपड़दार ने प्रति जोत भूमि का मूल्यांकन एक रुपये से चार रुपये कर दिया। इमारती लकड़ी पर अलग कर लगाया गया। शराब-लांदा-सलफी जो कि आदिवासियों की जिन्दगी थी उस पर भी उत्पाद शुल्क लिया जाने लगा।

केवल दीवान ही नहीं अंग्रेज भी अब नीतियों में सीधे हस्तक्षेप करने लगे थे। पैदावार बढ़ाने के लिये परम्परागत कृषि के तरीकों को बदलने पर जोर दिया जाने लगा। फसल वह ली जाने लगी जो अंग्रेजों को उपयोगी लगती थी। माँग ब्रिटेन में होती थी और कच्चामाल आदिवासी तैयार करते थे। इसी बीच “वन सुरक्षा अधिनीयम’ को लागू किया गया। यह बात समझी जानी चाहिये कि वनों को आदिवासियों से कभी खतरा नहीं था तो फिर उन पर वन सुरक्षा अधिनियम के क्या मायने हो सकते थे? जितने जंगल अंग्रेजों के आने के बाद कटे हैं उतना आदिवासियों की कई पीढ़ी मिल कर भी नहीं काट सकती थी? यह सही है कि जूम कल्टिवेशन के लिये जंगल के हिस्से साफ किये जाते हैं। आदिवासी इसके लिये ज्यादातर श्रब्स या झाडियों वाली जगहें चुनते हैं। पच्चीस पचास पेड़ किसी गाँव ने जूम खेती के नाम पर काट भी दिये तो वह इतना नुकसान हर्गिज नहीं था जो खुद अंग्रेज कर रहे थे। उनकी आरा मशीने जंगलों को मैदान बनाती जा रही थीं।

राजा को पूरी तरह अब नाम बना दिया गया था। हालाकि उसे सन-1865 से फ्यूडेटरी चीफ का स्टेटस दिया गया था किंतु उसकी हैसियत एक ‘सेशन-जज’ जितनी ही थी। उसे किसी भी बड़ी सजा या मृत्युदंड़ देने से पहले चीफ कमिश्नर से ऑर्डर लेने होते थे। इससे राज्य के अधिकारी मनमानी पर उतर आये थे। घोड़ा और कोड़ा शान का प्रतीक बन गया और रियाया की पीठ उनके अधिकारों की प्रदर्शनस्थली। काम जो भी हो उसके लिये ‘बेगार’ लिया जाता। दाम माँगे जाने की सूरत में पीठ पर कोड़े के निशान जख्म छोड़ दिया करते थे। राजा के लिये स्वेच्छा से बेगार करने वाले आदिम भी थे। राजा उनका ‘देव’ जो था; लेकिन उसके माहतहत? लगान के बोझ के बाद भी उन्हें नोचा जाता। किसी मुंशी की बीवी का जी मचलाये तो शाम को बोरा भर इमली उसकी देहरी पर होती थी, वह भी बिना दाम चुकाये। कुछ आदिवासी तो संपन्न लोगों के खरीदे हुए दास थे। इधर अंग्रेज भी बस्तर के राजा और निकटवर्ती रियासतों को छोटी छोटी बातों के लिये उलझाये रखते थे तथा अपने मनमाने फैसलों से किसी को अपमानित तो किसी के अहं को तुष्ट करते रहते थे। उदाहरण के लिये जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाँथी। जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाँथी पकड़वाये। इसके लिये वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। उनकी इसी काम के लिये भेजी गयी कोई हथिनी बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। यह बड़ा डिस्प्यूट हो गया। अंग्रेजों ने इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव किया। हथिनी को पहले सिरोंचा यह कह कर मंगवा लिया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा। बाद में उसे जैपोर स्टेट को वापस सौंप दिया गया। वस्तुत: यह बस्तर के राजा को नीचा दिखाने की एक हरकत ही थी।

इन्हीं परिस्थितियों के बीच एक दिन राजा ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के स्वागत के लिये दिल्ली रवाना हो रहे थे। काफिले में सबसे पीछे कई आदिवासी “बेगारी” थे, जो बोझ ढ़ोए चल रहे थे। काफिला जहाँ-जहाँ से गुजरता गाँव का गाँव राजा को देखने उमड़ आता। बच्चों के लिये यह जुलूस एक कौतूहल था तो युवाओं के लिये जिज्ञासा। जबकि कई बूढ़े-आदिम राजा के आगे दण्ड़वत हो रहे थे। सब कुछ सामान्य लग रहा था। काफिला बड़े-मारेंगा पहुँचा। तभी जुलूस ठहर गया। अभी जगदलपुर से महज चौदह किलोमीटर का सफर तय हुआ था। ‘आगरवारा परगना’ का माँझी और उसके साथ लगभग पाँच सौ मुरिया आदिवासियों ने राजा के काफिले को घेर लिया था। आदिवासियों राजा को दिल्ली न जाने का अनुरोध कर रहे थे। उनके अनुसार यदि राजा ही रियासत के बाहर चले गये तो संभव है अंग्रेज उन्हे दुबारा यहाँ आने नहीं देंगे। उनकी अनुपस्थिति में राज्य के सरकारी कर्मचारियों की मनमानी बढ़ जायेगी। आदिवासियों को मुख्य नाराजगी दीवान गोपीनाथ कपड़दार तथा दण्ड न्यायालय के प्रमुख अदितप्रसाद से थी। आदिवासियों द्वारा भैरमदेव को इस तरह रोकना उनके प्रति सम्मान दिखाना था। वह व्यवस्था, जिसके आधीन हुई नृशंसताओं की दास्तान सुनायी और दिखायी गयी, उसका दायित्व स्वयं राजा का ही था।

दीवान ने राजा के आगे की यात्रा का मार्ग तैयार कर दिया। सशस्त्र सिपाहियों के हथियार कंधे से उतर कर हाँथों में आ गये। अंगरक्षक सिपाहियों के हवा में लहराते कोड़ों की सांय सांय भीड़ को धमकाने के लिये थी। लेकिन अपेक्षा के विपरीत आदिवासी अड़ गये। “मैं राजा का सामान आगे नहीं ले जाउंगा” एक मुरिया बेगारी सम्मुख आ गया। उसकी आखों में बात नहीं मानने की शर्मिन्दगी के साथ साथ, बात नहीं मानूंगा की जिद थी। जैसे ही उसकी अवज्ञा का प्रत्युत्तर कोडे से दिया गया बात पूरी तरह बिगड़ गयी। सभी आदिवासियों ने राजा का सामान नीचे रख दिया। स्वाभाविक विरोध का उत्तर दमन नहीं होता है। बात बिगड़ गयी। मुरिया, राजा को आगे नहीं जाने देने पर तुल गये। बात दीवान की प्रतिष्ठा पर आ गयी थी। ‘बेगारी’ सामान ढ़ोने को तैयार नहीं और ग्रामीण काफिले को आगे बढ़ने देने के लिये सहमत नहीं हो रहे थे। राजा हाँथी पर बैठ गये लेकिन एक कदम आगे बढ़ना संभव नहीं था। दीवान की भाषा कड़वी और धमकी भरी थी जिससे मुरिया शांत होने की जगह और गुस्से से भर गये। बात आर या पार पर आ गयी। आखिरकार दीवान की आज्ञा से भीड़ पर गोली चलायी जाने लगी। कुछ ही देर में हाय तौबा और चीख पुकार के बाद चुप्पी हो गयी। तीन लाशों और अठारह गिरफ्तारियों के बाद हुई इस शांति में तूफान के आने की सुनिश्चितता अंतर्निहित थी। भैरमदेव ने स्थिति को समझा और अपनी दिल्ली यात्रा स्थगित कर दी।

राजा का काफिला जगदलपुर लौट आया। गिरफ्तार मुरिया कुरंगपाल जेल भेज दिये गये। गोपीनाथ कपड़दार के लिये तो राजा का वापस लौटना उसकी प्रशासनिक क्षमता की पराजय थी। उसकी क्या इज्जत रह गयी? आदिवासियों पर ही हुकूमत नहीं चला सका, तो किस काम का दीवान? वह एक पल भी जगदलपुर में नहीं रुका। घुड़सवार सैनिक टुकड़ी ले कर सीधे कुरंगपाल आ पहुँचा। दीवान से इस मूल्यांकन में चूक हो गयी कि विद्रोही हो जाने के बाद परिणाम कौन सोचता है? पतंगे जान कर और होश-हवास में ही शमां पर मर मिटते हैं। वह गिरफ्तार कैदियों पर ज्यादती कर अपनी हताशा का प्रतिशोध लेना चाहता था। आततायी हमेशा जोश में होते हैं किंतु वे आम जन के होश का सही मूल्यांकन कभी नहीं कर पाते। दीवान का कुरंगपाल आना कोई तय योजना नहीं, गुस्से में उठाया गया कदम था। कुरंगपाल आते हुए सैनिकों ने भी आतंक फैलाने का ही काम किया। किसी का घर उजाड़ दिया तो किसी के जानवर खोल दिये या किसी की पीठ कोड़े की मार से उधेड़ दी। अफरा-तफरी फैला दी गयी थी, बदला लिया जा रहा था।

कैदियों को जबरन जगदलपुर ले जाने के लिये निकाला गया। सैनिकों और कैदियों में जोर आजमाईश हो ही रही थी कि चार-पाँच सौ मुरिया ग्रामीण अचानक सैनिकों पर झपट पड़े। दीवान को अपने लिये खतरे का जैसे ही आभास हुआ उसने एक पल भी नहीं गँवाया और अपना घोड़ा राजधानी की ओर भगा लिया। भीड़ ने सभी कैदी छुड़ा लिये थे। दीवान के कुछ सिपाही तो भाग निकले लेकिन जो भी मुरियाओं के हत्थे चढ़े उन्हें अधमरा कर दिया गया। अब विद्रोह स्वरूप लेने लगा। मुरियाओं के सामने माँगे साफ हो गयी थीं। दीवान गोपीनाथ कपड़दार, दण्ड न्यायालय का प्रमुख अदित प्रसाद और राजा के तमाम वो मुंशी जिन्हे दीवान ने नियुक्त किया था, विद्रोहियों के निशाने पर थे। इस बीच विद्रोही मुरिया आरापुर गाँव में एकत्रित हुए और सबने मिल कर ‘झाड़ा-सिरहा’ को नेता चुन लिया गया था। चमत्कारी था झाड़ा सिरहा। जादू टोना जानता था। सब मानते थे कि उसने बहुत से पिरेत बस में किये हैं जिनसे वह अपनी बात मनवा लेता है। वस्तुत: किसी भी व्यक्ति की नायक के रूप में स्वीकार्यता उसमे अंतर्निहित विशिष्ठताओं के कारण ही होती है। नेतृत्व के गुण झाड़ा सिरहा में कूट कूट कर भरे थे। उसके दिशा निर्देश पर विद्रोह की स्वीकार्यता को प्रसारित करने का निर्णय लिया गया तथा भागीदारी में सहमति के लिये प्रतीक स्वरूप तीर को गाँव गाँव भेजा गया। जगदलपुर और उससे लगे सभी गाँव-परगने विद्रोह के लिये तत्पर थे। तीर स्वीकार कर लेने का अर्थ ही विद्रोह को गाँव का समर्थन प्राप्त होना था। प्रतीक के रूप में गाँवों के खलिहान में आम की डाल रोंप दी गयी। अपेक्षित परिणाम भी सामने था। राजा की ओर से भी विद्रोह को टालने और सुलह करने की कोशिशे तेज हो गयीं। अपने सभासदों - ‘कुँअर दुर्जनसिंह’ और ‘दुबेदानी’ को राजा भैरमदेव ने विद्रोह का आंकलन करने और सुलह की जमीन तलाशने के लिये भेजा। झाड़ा सिरहा से बातचीत के बाद इस बात पर स्वीकार्यता बनी कि राजा स्वयं विद्रोहियों से बात करने आयेंगे। 
 
राजा के सुलह के लिये आने की खबर ने विद्रोहियों के उत्साह को दुगुना कर दिया। वे यही तो चाहते थे। झाड़ा सिरहा ने एहतियात बरतते हुए अलग अलग स्थानों पर ढ़ेर बना कर पत्थर और हड्डियाँ जमा करवा दीं। उसने विद्रोहियों को उनके शस्त्रों के हिसाब से विभाजित कर दिया था। कोई भी हमला होने की स्थिति में उसका उत्तर दिया जा सकता था। दोपहर ढ़लने लगी थी। राजा की पालकी आरापुर पहुँची। राजा आपनी सैनिक तैयारियों और सिपहसालारों के साथ पहुँचा था। एक सफेद घोड़े में वहाँ राजा का चचेरा भाई लाल कालिन्द्र सिंह भी उपस्थित था जिनके पिता रियासत के दिवंगत बहुचर्चित दीवान दलगंजन सिंह थे। विद्रोहियों और राजा में बात सौहार्द पूर्ण वातावरण में आरंभ हुई। बहुत संभव था कि राजा और विद्रोही किसी मान्य समझौते पर पहुँच भी जाते कि तभी एक दम से अराजकता फैल गयी थी। अचानक दीवान का घोड़ा आरापुर में आते देख कर विद्रोहियों के सब्र ने जवाब दे दिया। दीवान के खिलाफ पनप चुका आक्रोश इतना अधिक था कि उसे देखते ही जनसमूह के समक्ष राजा की उपस्थिति भी गौँण हो गयी। दीवान और राजा, दोनों ने ही इस बात की कल्पना नहीं की थी। अब तक तो यही होता आया था कि राजा का वाक्य अंतिम था।
 
मुरिया अपना आपा खो बैठे और सब कुछ अनियंत्रित हो गया। दीवान को निशाना बना कर पत्थर और हड्डियाँ फेंकी जाने लगी। कपड़दार बचाव के लिये राजा की पालकी की आड़ लेने लगा। विद्रोह के कारणों के केन्द्र में तो वही था और तनाव के माहौल में उसके घोड़े पर बैठ कर आने ने बुझाई जा रही चिंगारी को सुलगा कर दावानल बना दिया। अब बात राजा के हाँथ के बाहर थी। सुरक्षा सैनिकों ने राजा और दीवान को घेरे में ले लिया। विकल्पहीन राजा ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। एक ओर से गोली चलाई जाने लगी और दूसरी ओर से भीड़ पर हाँथी सवार सैनिक छोड़ दिये गये। छह मुरिया आदिवासी मारे गये। दीवान सहित कई सैनिक भी घायल हुए। राजा और दीवान लगभग बच कर वापस लौट आये थे। विद्रोही तितर बितर अवश्य हुए लेकिन अब उनके द्वारा पुन: संगठित हो कर अधिक आक्रामक जवाबी कार्यवायी किये जाने का अंदेशा था। जल्दबाजी में महल के भीतर अनाज का भंडारण किया गया। महल के सभी द्वार बंद कर दिये गये। ज्वालामुखी फट पड़ने से पहले सदियों घुटन सहता है, फिर कठोर चट्टानों को पिघला कर लावा अपना मार्ग बनाता हुआ भयंकर विस्फोट के साथ बाहर निकल आता है। इसके बाद एक नयी भू-आकृति होती है, नयी शिलायें जन्म लेती हैं नया वातावरण बनता है। झाड़ा सिरहा और उसके साथियों के लिये यह परीक्षा की घडी थी। रात होने से पहले ही हजारो विद्रोही मुरिया जगदलपुर पहुँच गये। अचरजपूर्ण रूप से बढ़ते बढ़ते यह संख्या बीस हजार से अधिक हो गयी। झाड़ा सिरहा की सोच और उसका रण कौशल देखते ही बनता था। घेराबन्दी इस तरह की गयी कि महल के भीतर न तो अनाज भेजा जा सकता था न ही पानी। महल से बाहर किसी तरह भी कोई संदेश नहीं ले जाया जा सकता था। इसी तरह दिन और महीने बीतते जा रहे थे।

राजमुरिया आदिवासियों ने राजधानी को चार महीनों से घेरा हुआ था। बीस हजार से अधिक नरमुंड़ अपना काम-काज, खेती-शिकार, परब-तिहार सब कुछ छोड़ कर एकत्रित थे। इन राजमुरियाओं में से हर एक सशस्त्र था। गंडासा, फरसा, टंगिया, भाला, तलवारें और धनुष-बाण से सुसज्जित यह भीड़ जिस क्षण चाहती राजधानी उनकी होती। आन्दोलन व्यवस्था को उलट देने के लिये ही नहीं होते। आन्दोलन इस लिये भी होते है कि व्यवस्था को जन-सामान्य के अनुरूप ढ़लने के लिये बाध्य किया जा सके। अन्यथा दुविधा क्यों थी? अंग्रेजी सत्ता ने राजा को बिना दाँत का कर ही दिया था। उसे सीमित संख्या में सैनिक रखने की अनुमति थी। महल में इतने सैनिक नहीं थे कि सामने एकत्रित राजमुरियाओं के संगठित हमले का जवाब दे सकें। आदिवासी अगर ठान लेते तो भैरमदेव काकतीय वंश के आखिरी राजा होते। ताकत ही सर्वोपरि नहीं होती। झाड़ा-सिरहा का अनुमान था कि महल मे अन्न के भंडार और जल संसाधन सीमित हैं। विद्रोहियों ने सरकारी खजाने को हथिया लिया था। जानकार मुरियाओं से खजाने की गिनती करवायी गयी। आठ से दस मुरिया कोष की निगरानी में तैनात किये गये। जिस गर्व से वह व्यवस्था को चुनौती दे रहा था यह देखते ही बनता था। यह लड़ाई भैरमदेव की जगह झाड़ा-सिरहा की सत्ता निरुपित करने के लिये नहीं थी। यह लड़ाई किसी धारा-विचारधारा या वाद की परिणति भी नहीं थी।

राजमहल के भीतर भी इन परिस्थितियों से बाहर निकलने के लिये निरंतर मंथन चल रहा था। पहले राजगुरु लोकनाथ को समझौते के लिये झाड़ा सिरहा के पास भेजा गया किंतु विफलता ही हाथ लगी। अब एक नाटकीयता पूर्ण साजिश रची गयी। अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से एक पत्र लिखा गया। अब समस्या किसी भी तरह इस पत्र को जयपोर पहुँचाने की थी। चिठ्ठी को एक मिट्टी की हाँडी की तली में रख कर मोम से भर दिया गया। हाँडी में उपर तक पेज भरा गया। मोम और पेज का रंग एक ही होता है अत: यदि विद्रोही जांच भी करते तो चिट्ठी के पकडे जाने की संभावना न्यूनतम थी। हाँडी बाहर ले कर जाने के लिये जिस महिला का चयन किया गया था वह ‘माहरा जाति’ की थी। योजनाकार जानते थे कि महारा जाति के आदिमों की सामाजिक स्थिति हीन मानी जाती है। आम तौर पर माहरा जाति के लोग गाँव में कपड़े बुनने का कार्य करते हैं। वे किसी भी मुरिया ग्राम के आवश्यक निवासी होते हैं। इन कारणों को देखते हुए माहरा महिला की तलाशी होने की संभावना नहीं थी। एक अन्य कारण था कि माहरा ही विद्रोही और राजा के लोगों के बीच सूचना का आदानप्रदान भी कर रहे थे अत: महिला का महल से पेज भरी हांडी ले कर निकलना साधारण बात ही मानी जाती।

यह साजिश पूरी तरह से कामयाब हुई। राजगुरु विद्रोहियों से समझौता करा पाने में मिली विफलता को राजा की नाराजगी बता कर महल से बाहर चले आये। माहरा महिला जैसे ही चिट्ठी को विद्रोहियों से बचा कर निकाल लाने मे सफल हुई, राजगुरु लोकनाथ ने हांडी फोड कर उसे बाहर निकाल लिया। यह चिट्ठी कोरापुट में जा कर पोस्ट कर दी गयी। अंग्रेजों के लिये तो अंधा क्या चाहे दो आँखें वाली बात थी। विद्रोह को दबाने के बहाने राज्य की गर्दन अधिक बेहतर तरीके से दबाई जा सकती थी। तुरंत ही सिरोंचा से थलसेना की तीन रेजिमेंट जगदलपुर के लिये रवाना हुई। पड़ोसी राज्यों की पुलिस को भी अभियान का हिस्सा बनाया गया। अंग्रेज कमाण्डर मैक्जॉर्ज ने इस सेना का नेतृत्व किया। इधर महीनों की घेराबंदी ने झाड़ा सिरहा को निश्चिंत बना दिया था। विद्रोही ‘राज-मुरिया’ अपनी जीत सुनिश्चित मान कर चल रहे थे। उनका अनुमान था कि पानी और रसद की महल में कमी हो गयी है। किसी भी समय उनकी जीत हो सकती है। लम्बे अंतराल के कारण घेराबंदी की सुदृढ़ता में भी कमी आ गयी थी। एक समय में महल के गिर्द दस हजार से अधिक मुरिया एकत्रित रहा करते थे, घटते घटते यह संख्या, अब चार-पाँच हजार रह गयी थी। अचानक हमला हो गया। कुछ मुरिया उस समय खाना खा रहे थे तो कुछ सुस्ता रहे थे। गोलियाँ चलने की आवाजों के साथ ही सबको पैरों के नीचे से जमीन जाती दिखाई पड़ी। प्रतिरोध अव्यवस्थित हो गया। नगाड़े जोर जोर से पीटे जाने लगे जिससे विद्रोही खतरे के प्रति सजग हो जायें और आक्रमण के लिये तैयार हो सकें। नगाड़े की आवाज उन मुरियाओं के लिये भी संदेश था जो निकट के गाँवों में हों और अपने साथियों को सहयोग करने के लिये आ सकें। बहुत देर हो चुकी थी और चिडिया ने खेत चुग लिया। विद्रोही जी-जान से लड़े। कोई तय योजना नहीं रह गयी। कोई पेड़ पर चढ़ कर तीर चला रहा था तो कोई बंदूख से फरसे-भाले लिये भिड़ गया। झाड़ा सिरहा ने भगदड़ रोकने की भरसक कोशिश की। अंतिम परिणाम उसकी समझ में आ गया। अग्रेजों ने झाड़ा सिरहा को पकड़ कर न केवल मार ही डाला अपितु उसके पार्थिव शरीर को इन्द्रावती नदी में बहा दिया गया। एक वीर आदिवासी योद्धा की कहानी का यह दु:खद अंत था।

झाड़ा सिरहा का दुख़द अंत इस लिये कहना होगा चूंकि स्वयं मैकजॉर्ज मानते थे कि मुरिया वस्तुत: अपनी जीती हुई लड़ाई केवल नैतिकता के कारण हार गये थे। मैक्जॉर्ज ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि “विद्रोहियों की संख्या इतनी थी कि वे किसी भी समय आक्रमण कर के महल पर कब्जा कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। यहाँ तक कि जब हमने पीछे से इनपर आक्रमण किया तब भी यदि ये चाहते तो महल पर हमला कर अधिकारियों की हत्या कर सकते थे, उन्होंने वह भी नहीं किया। सबसे आश्चर्यजनक था कि विद्रोहियों ने राजा का लूटा हुआ खजाना उसे सही सलामत लौटा दिया था।“ इसी रिपोर्ट में मैक्जॉर्ज ने आगे जानकारी दी है कि “जब मुरियाओं ने घेराव कर रखा था तब राजपरिसर में ही उनकी पहुँच में राजकीय जेल भी था। जेल की सुरक्षा में राजा के कुल बीस सिपाही से अधिक तैनात नहीं थे। जेल भी कोई बहुत मजबूत नहीं था, इसकी दीवारे मिट्टी की और छप्पर घास-फूस की थीं। मुरिया विद्रोही जब चाहते जेल की दीवारे तोड़ कर कैदियों को मुक्त करा सकते थे। इनमे कई कैदी तो विद्रोहियों के साथी भी थे। लेकिन ऐसा संयम रखा गया जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती।“
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ऐसा नहीं था कि यह विद्रोह केवल पराजय की दास्तान भर था। आदिवासियों की सभी व्यवहारिक माँगे मान ली गयीं। यद्यपि कुछ विद्रोही भी गिरफ्तार किये गये थी साथ ही साथ गोपीनाथ कपड़दार, अदितप्रसाद और लोकनाथ ठाकुर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उन सभी मुंशियों को जिन्हें दीवान के आदेश से काम पर रखा गया था, उन्हें टर्मिनेट कर दिया और रियासत से बाहर जाने के ऑर्डर दे दिये गये। इसके बाद अपनी फितरत के अनुसार मैक्जॉर्ज ने ‘आदिवासी वर्सेज नॉन आदिवासी’ का कार्ड खेला तो इस लड़ाई का विलेन चेहरा दीवान और उसके लोग ही रह गये। इसके साथ ही 8 मार्च 1876 को पहली बार मुरिया दरबार बुलाया गया। दरबार में मैक्जॉर्ज ने राजा और विद्रोही मुरिया नेताओं से आमने-सामने बात की। चाल यह थी कि विद्रोही अगर राजा के प्रति जरा भी असंतोष दिखाते तो भैरमदेव को भी गिरफ्तार किया जा सकता था किंतु योजना से ठीक उलट, न चाह कर भी ‘मुरिया दरबार’ में अंग्रेजों को ‘राजा और प्रजा’ के बीच सुलह कराने में अपनी उर्जा खर्च करनी पडी।” मुरिया दरबार इसके पश्चात प्रतिवर्ष की अनिवार्य परम्परा बन गयी तथा आज भी दशहरे के पश्चात सिरासार में इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। निष्कर्षत: झाड़ा सिरहा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया था तथा 1876 का आन्दोलन मुरिया आदिवासियों की सफलता का इतिहास है।