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बुधवार, 28 दिसंबर 2016

samiksha

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पुस्तक चर्चा-
''राजस्थानी साहित्य में रामभक्ति-काव्य'' मननीय शोधकृति 
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[पुस्तक विवरण- 'राजस्थानी साहित्य में रामभक्ति-काव्य, शोध ग्रन्थ, डॉ. गुलाब कुँवर भंडारी, प्रथम संस्करण २०१०, आकार २२से.मी.x १४ से.मी., पृष्ठ ३८०, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, मूल्य ७५०/-, त्रिभुवन प्रकाशन, गुलाब वाटिका, पावटा बी मार्ग, जोधपुर।] 
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हिंदी साहित्य में भक्ति काल कभी न रुकनेवाली भाव धारा है। ब्रम्ह को निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में आराधा गया है। सगुण भक्ति में राम और कृष्ण दो रूपों को अपार लोकप्रियता मिली है। वीर भूमि राजस्थान में श्रीनाथद्वारा और मीरां बाई श्री कृष्ण भक्ति के केंद्र रहे हैं। रामावतार से सम्बंधित कोई स्थान या व्यक्ति राजस्थान में न होने के बाद भी विषम परिस्थितियों से जूझते हुए एक अल्प शिक्षित गृहणी द्वारा स्वयं को उच्च शिक्षित कर स्तरीय शोध कार्य करना असाधारण पौरुष है।  राम पर शोध करना हो तो उत्तर प्रदेश अथवा राम से सम्बंधित अन्य क्षेत्रों के राम साहित्य पर कार्य करना सुगम होता किन्तु राजस्थानी साहित्य में राम-भक्ति काव्य की खोज, अध्ययन और उसका मूल्यांकन करना वस्तुत: दुष्कर और श्रम साध्य कार्य है।  ग्रन्थ लेखिका श्रीमती गुलाब कुँवर भंडारी (१४.१०.१९३६-७.१९९१) ने पूर्ण समर्पण भाव से इस शोध ग्रंथ का लेखन किया है। 

राजस्थान जुझारू तेवरों के लिए प्रसिद्ध रहा है। जान हथेली पर लेकर रणभूमि में पराक्रम कथाएँ लिखने वाले वीरों के साथ जोश बढ़ानेवाले कवि भी होते थे जो कलम और तलवार समान दक्षता से चला पाते थे। भावावेग राजस्थानियों की रग-रग में समय होता है। भक्ति का प्रबल आवेग राजस्थान के जन-मन की विशेषता है। वीरता के साथ-साथ सौंदर्यप्रियता और समर्पण के साथ-साथ बलिदान को जीते राजस्थानी कवियों ने एक और शत्रुओं को ललकारा तो दूसरी ओर ईशाराधना भी प्राण-प्राण से की। 

शोधकर्त्री ने राजस्थानी साहित्य में राम-काव्य को अपभ्रंश-काल से खोजा और परखा है।  अहिंसा को सर्वाधिक महत्व देनेवाला जैन साहित्य भी सशस्त्र संघर्ष हेतु ख्यात राम-महिमा के गायन से दूर नहीं रह सका है। ग्रन्थ में  रामभक्ति का विकास और राजस्थान में प्रसार, सगुण राम-भक्ति संबन्धी प्रबन्ध काव्य, सगुण राम-भक्ति सम्बन्धी मुक्तक काव्य, निर्गुण राम-भक्ति संबंधी कविता तथा राजस्थानी राम-भक्त कवि एवं उनका काव्य शीर्षक पाँच अध्यायों में यथोचित विस्तार के साथ 'राम' शब्द की व्युत्पत्ति-अर्थ, राम के स्वरुप का विकास, रामभक्ति शाखा का विकास-प्रसार, सगुण राम संबन्धी प्रबन्ध व मुक्तक काव्यों का विवेचन, निर्गुण राम संबंधी काव्य ग्रंथों का अनुशीलन तथा राम-भक्त जैन कवियों के साहित्य का विश्लेषण किया गया है।  

उल्लेख्य है कि मूल्यांकित अनेक कृतियाँ हस्तलिखित हैं जिनकी खोज करना, उन्हें पाना और पढ़ना असाधारण श्रम और लगन की माँग करता है। गुलाब कुँवर जी ने नव मान्यताएँ भी सफलतापूर्वक स्थापित की हैं। राम-भक्ति प्रधान प्रबंध काव्यों में कुशललाभ, हरराज, माधोदास दधवाड़िया, रुपनाथ मोहता, मंछाराम की कृतियों का विवेचन किया गया है। राम-भक्ति मुक्तक काव्य के अध्ययन में ४९ कवि सम्मिलित हैं। सर्वज्ञात है कि मीरांबाई समर्पित कृष्णभक्त थीं किंतु लखिमा ने मीरां-साहित्य से राम-भक्ति विषयक अंश उद्धृत कर उन्हें सफलतापूर्वक राम-भक्त सिद्ध किया है।  स्थापित मान्यता के विरुद्ध किसी शोध की स्थापना कर पाना सहज नहीं होता। यह अलग बात है कि राम और कृष्ण दोनों विष्णु के अवतार होने के कारण अभिन्न और एक हैं। 

निर्गुण राम-भक्ति काव्य के अन्तर्गत दादू सम्प्रदाय के १२, निरंजनी संप्रदाय के १४, चरणदासी संप्रदाय की ३, रामस्नेही संप्रदाय १९, अन्य ८ तथा १२ जैन कवियों कवियों के साहित्य का गवेषणा पूर्ण विश्लेषण इस शोधग्रंथ को पाठ ही नहीं मननीय और संग्रहणीय भी बनाता है। ग्रंथांत में ४ परिशिष्टों में हस्तलिखित ग्रंथ-विवरण, रामभक्ति लोकगीत, रामभक्त कवियों का संक्षिप्त विवरण तथा सहायक साहित्य का उल्लेख इस शोध ग्रन्थ को सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में भी उपयोगी बनाता है।  
श्रीमती गुलाब कुँवरि जी की भाषा शुद्ध, सरस तथा सहज ग्राह्य है। उनका शब्द-भंडार समृद्ध है। वे न तो अनावश्यक शब्दों का प्रयोग करती हैं, न सम्यक शब्द-प्रयोग करने से चूकती हैं। कवियों तथा कृतियों का विश्लेषण करते समय वे पूरी तरह तटस्थ और निरपेक्ष रह सकी हैं। राजस्थान और राम भक्ति विषयक रूचि रखनेवाले पाठकों और विद्वानों के लिए यह कृति अत्यंत महत्वपूर्ण है। ग्रन्थ का मुद्रण शुद्ध, सुरुचिपूर्ण तथा आवरण आकर्षक है। इस सर्वोपयोगी कृति का प्रकाशन करने हेतु लेखिका के पुत्र श्री त्रिभुवन राज भंडारी तथा पुत्रवधु श्रीमती सरिता भंडारी साधुवाद के पात्र हैं। 

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गुरुवार, 21 जून 2012

इतिहास के झरोखे से : रानी पद्मिनी --सौजन्य गोयल

इतिहास के झरोखे से :
रानी पद्मिनी
सौजन्य गोयल
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रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा | रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी | उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी | उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी | उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया | 
 

तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि "हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे | सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि " मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है | " रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी | सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है |
 
अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया |

चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिती की तरह किया | रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया | आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया | सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया |

रत्नसिंह को कैद करने के बाद अल्लाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा | रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -" मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे | रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया |

उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया |इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे | अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे | सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया | 
 

इस हार से अल्लाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने के लिए ठान ली | आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया | जौहर के लिए गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया | रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया | थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया | जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया | महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -

बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ |
सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ||

इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद 18 अप्रेल 1303 को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके | उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे |
रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी |
चितौड़ यात्रा के दौरान पद्मिनी के महल को देखकर स्व.तनसिंह जी ने अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त किया -

यह रानी पद्मिनी के महल है | अतिथि-सत्कार की परम्परा को निभाने की साकार कीमतें ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदि काल से सरस होता रहा है,जिसके सोंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी;जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्ता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ? सब राख़ का ढेर हो गई केवल खुशबु भटक रही है-पारखियों की टोह में | क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो | भोग और विलास जब सोंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था | अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सोंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे | एक और उनकी दर्दभरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियाँ जल रही थी |

कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख़ का ढेर हो रही थी |
 
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