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गुरुवार, 11 जुलाई 2013

doha salila : pratinidhi dohe 7 -saaz jabalpuri

pratinidhi doha kosh 7 - 

साज जबलपुरी , जबलपुर 


प्रतिनिधि दोहा कोष ७ : 

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती,  डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', अर्चना मलैया तथा सोहन परोहा 'सलिल'के दोहे। आज अवगाहन कीजिए स्व. साज़ जबलपुरी रचित दोहा सलिला में :

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संकलन - संजीव
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मूल नाम:  चोखेलाल चराडिया
जन्म: १-४-१९४५, जबलपुर। निधन: १८-५-२०१३, जबलपुर।
आत्मज: स्व. मन्ना देवी-स्व. गणेश प्रसाद।
शिक्षा: स्नातक।
कृतियाँ: मिजराब (गज़ल संग्रह), शर्म इनको मगर नहीं आती (व्यंग्य लेख संग्रह)
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०१. अक्षर की महिमा समझ, अक्षर को पहचान
      अक्षर ही गुरु मन्त्र है, अक्षर ही भगवान
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०२ . अपनी-अपनी भूमिका, औ' अपने संवाद

      जग में आ भूले सभी, रहा नहीं कुछ याद
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०३. लिखा-पढ़ी को मानिए, इस जीवन का सार
      अक्षर बिन होता नहीं जीवन का उद्धार
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०४. उजियारों की चाह में, अँधियारों का खेल
      संसद है दीपक बनी, वोट हो रहे तेल
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०५. इस सारे ब्रम्हांड के, कण-कण मेंहैं श्याम
      बस राधा के  भाग में,नहीं रहे घनश्याम
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०६. चंदा-सूरज यार की, आभा पर कुर्बान     
      उद्गम है वो नूर का, वही नूर की खान  
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०७. अपना सब कुछ कर दिया, अर्पण तेरे नाम
      मैं तेरी मीरा भई, तू मेरा घनश्याम
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०८. जब मेरे अन्दर बसा, फिर कैसा इंकार
      रुख से अब पर्दा उठा, दे दे तू दीदार
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०९. ऊधो अपना ज्ञान धन, रख लो अपने पास
      हम नेर्धन अब जी रहीं, लोए प्रेम की आस
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१०. तेरे हाथों बिक गए, बिना बाँट बिन तौल
      'साज़' तभी से हो गए, हम जग में अनमोल
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११. सूरज से मिल जाए जब, दीपक का उजियार
      तब तुम होगे साज़ जी, भवसागर से पार
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१२. जीवन की इस नाव में, संशय की पतवार
      तुम्हीं बताओ राम जी, कैसे हों हम पार
*
१३. जीवन के इस  छोर से,जीवन के उस छोर
      जोगी तेरे इश्क की, कितनी छोटी डोर
*
१४. यादें तेरी आ रहीं, बदल बदल कर वेश
      कभी गात सी प्रात है, कभी श्यान घन केश 
*
१५. दर्पण पूछे बिम्ब से, कैसी तेरी पीर
      व्याकुल है रांझा इधर उधर रो रही हीर
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१६. वीरबहूटी की तरह, बिंदिया माथे बीच
      मेरे आवारा नयन, बरबस लेती खींच
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१७. घूँघट में भी हो रहा, झिलमल गोरा रंग
       दर्पण पर लगता नहीं, लोहेवाला जंग
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१८. केश घनेरे घन घने, छोटी मस्त भुजंग
      परिसीमित परिवेश में, विवश अंग-प्रत्यंग
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१९. झिलमिल झिलमिल कर रहा, यूं घूंघट से रूप
      बादल से हो झाँकती, ज्यों सावन की धूप
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२०. सबकी बातें सुन रहे, दीवारों के कान
       लेकिन इन दीवार की, होती नहीं जुबान
*
२१. पर्दा टांगा टाट का, जुम्मन जी ने द्वार
      जो कुछ भी उस पार है, दीखता है इस पार
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२२. नातिन सँग नानी करे, जब पैदा औलाद
      कौन बचाए कौम को, होने से बर्बाद
*
२३. नाली बदबू गंदगी, ये कूड़े का ढेर
      इसी जगह पर रह रहा, पढ़ा लिखा शमशेर
*
२४. सब कहिं नैनन नैन हैं, मैं कहुँ नैनन बान
      उन नैनन को का कहूं, जिननें ले लै प्रान
*
२५. यारों मेरे कत्ल को, मत देना अब तूल
      मैं खुद ही कातिल मिरा, मैं खुद ही मक़तूल
       *
२६. इक दिल इक इंसान है, उस पर फिक्र हज़ार
      चार दिनों की जिंदगी, फिर जीना दुश्वार
       *
२७. धरती को है बाँटती, यही खेत की मेड़ 
      देखो आये लालची, ये बबूल के पेड़
      *
२८. मेरी अब हर इक दुआ, है इनसे मनसूब
      पहले रब्बुल आलमीं, फिर उसका महबूब
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२९. रब से जाकर बोलना, ऐ माहे रमजान
      मुश्किल सारे जन्म की, कर देना आसान
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३०. पत्थर पत्थर पर बना, काम काव्य का पन्थ 
      अंग अंग यूं लग रहा चार्वाक का ग्रन्थ       
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Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in