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बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

doha muktika

दोहा मुक्तिका  
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भू की दुर्गति देखकर, भुवन भास्कर क्रुद्ध। 
रक्त नेत्र कर छेड़ते, सघन तिमिर से युद्ध।।
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दिनकर दे चेतावनी, सुधरो या हो नष्ट। 
कष्ट न दो अब प्रकृति को, बनो मनुज अब बुद्ध।।
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चित्र गुप्त हर कर्म का, फल मिलना प्रारब्ध। 
सुधर प्रदूषण दूर कर, करो कर्म-चित शुद्ध।।
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ठूँठ हुए सब वृक्ष क्यों, गईं नदी क्यों सूख?
हरा-भरा फिर कर मनुज, मत हो प्रकृति विरुद्ध।।
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कीचड़-दलदल में खिले, कमल किस तरह बोल?
कलकल-कलरव हो तभी, जब हो स्वार्थ निरुद्ध।। 
१६.१०.२०१८,
संजीव ७९९९५५९६१८