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सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

बुंदेली लघुकथा

उड़ा उड़ौवल 

- प्रभुदयाल श्रीवास्तव


बच्चों में बच्चा बनकें खेलबे में कित्तो आनंद जोतो उनईं खों पता होत जोन बच्चों के संगे खेलत हैं|हमाई रोज की आदत है के खाना खाओ औरबच्चा घेर लेत हैं"दादाजी आओ उड़ा उड़ौवल खेलें"बच्चों ने जैसै कई सो हम खेलबे बैठ गये|ई खेल में सबरे बच्चा पाल्थी मार कें बैठ जात हैं और हाथों के पंजा जमीन पर घर देत हैं| एक बच्चा पारी की शुरुवाद करत है और केत है "तोता उड़"और सबरे बच्चा अपनों एक हाथ ऊपर कर देत हैं|बच्चा फिर केत है कौआ उड़ और बच्चे फिर अपनों एक हाथ ऊपर खों तान देत हैं|बच्चा फिर कैत है के घोड़ा उड़,अब जोन के दिमाग के स्क्रू टाइट रेत हैं उनके हाथ ऊपर नईं उठत, कहूं घोड़ा सोई उड़त....|पे जोन अकल के दुश्मन रेत हैं उनके हाथ ऊपर उठ जात हैं| बच्चा चिल्लान लगत............ हो हो हार गये और हारबे वारे खों घूंसा खाने परत|घोड़ा उड़ है तो पेनाल्टी में घूंसा तो खानेई पर हे|

आज कौआ उड़ावे के बाद बच्चों ने कई गधा उड़, और गलती से हमाओ हाथ ऊपर उठ गओ| हम हार चुके ते|बच्चा चिल्लान लगे " दादाजी ने गधा उड़ा दओ दादाजी हार गये हॊ हो ही ही हू हू,"सब जोर सें हँस रये ते|छोटू जोन हमाये सामने बैठो तो हमें चिड़ा रओ तो"दादाजी गधा कैसें उड़ हे ऊके तो पंखई नईं होत|" और हम सोच रयेते के आजकाल गधई तो उड़ रये आसमान में|छुटपन में हमाये संगे जित्ते गधा पड़तते सबई तो उड़ रए आसमान में||कौनऊं भौत बड़ो अफसर बन गओ,कौनऊं विधायक बन गओ और कौनऊं तो मंत्री तक हैं|और इते जो हाल है के हम कौआ बनकें फुदक रये कबऊं ई मुडेर पे कबऊं ऊ मुडेर पे|
 
आभार: साहत्य शिल्पी
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