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सोमवार, 5 जून 2017

ankik upmaan

छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
संजीव
 *
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
 पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
 इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
 दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
 महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
 तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
 तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
 त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
 चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
 अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
 चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
 पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
 इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
 षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
 अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
 नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
 दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
 ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - कला: ।, श्रृंगार: ।, संस्कार: ।,
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।,
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
 सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
 अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।

सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

prateep alankar

अलंकार सलिला: २५ 
प्रतीप अलंकार
*













*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..

उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता हैजब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है

प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं

उदाहरण-

१. प्रथम प्रतीप:

जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर। 

उदाहरण-

१. यह मयंक तव मुख सम मोहन 

२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
    बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
    मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
    गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती

३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग 
    कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग? 

२. द्वितीय प्रतीप:

जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है

उदाहरण-

१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद 

२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
    चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि

३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य 
   बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य  

3. तृतीय प्रतीप:


जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है

उदाहरण-

१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक 

२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
    गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
    जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
    देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.

३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
    हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये  
   

४. चतुर्थ प्रतीप:

जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है

उदाहरण-

१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।

२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन 
    लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
    समता कर सकता है
    नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?

३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
    इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?

४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
    सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर   

५. पंचम प्रतीप:

जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है

उदाहरण-

१.  का सरवर तेहि देऊँ मयंकू 

२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
    राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..

३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भ हैं.
    पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
    भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
    पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.

४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध 
    पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध  
    

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utpreksha ke prakar

अलंकार सलिला: २४
उत्प्रेक्षा के प्रकार
*

*
उत्प्रेक्षा के ३ भेद (प्रकार) होते हैं- १. वस्तूत्प्रेक्षा, २. हेतूत्प्रेक्षा तथा ३. फलोत्प्रेक्षा।








१. वस्तूत्प्रेक्षा: जब एक वस्तु या व्यक्ति में दूसरी वस्तु की सम्भावना (उपस्थिति की अभिव्यक्ति) की जाती है तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उदाहरण:

१. हरखि ह्रदय दशरथ-पुर आई। जनु गृह-दशा दुःसह दुखदाई।।

यहाँ अयोध्या की दुस्सह गृह-दशा में सरस्वती की सम्भावना की गयी है।

२. लखन मंजु मुनिमंडली, मध्य सीय-रघुचंद।
ज्ञान-सभा जनु तनु धरे, भगति सच्चिदानंद।।

यहाँ मुनि-मंडली में ज्ञान सभा की, सीता में भक्ति की और राम में सच्चिदानंद की संभावना की गयी है।

३. प्रात-समय उठि सोवत हरि को, बदन उघार् यो नंद।
स्वच्छ सेज में ते मुख निकस्यो, गयो तिमिर मिटि मंद।।
मानो मथि पय सिंधु फेन फटि, दरिस दिखायो चंद।

यहाँ स्वच्छ शैया में क्षीर-सागर की,चद्दर में फेन की और कृष्ण-मुख में शांद्रमा की संभावना की गयी है। देवों द्वारा सागर-मंथन करने पर जैसे चन्द्रमा निकला वैसे ही नन्द द्वारा सफ़ेद चद्दर हटाने से श्री कृष्ण का मुख दिखाई दिया।

४. नारी में दुर्गा दिखी, किया तुरंत प्रणाम।
नाम रखो तुम कह रहीं, देखे 'सलिल' अनाम।।

५. केश-लट में
सरसराती हुई
नागिन दिखी।

२. हेतूत्प्रेक्षा: जब अहेतु में हेतु की सम्भावना की जाती है अर्थात जब उसे कारण मान लिया जाता है जो वस्तुत: कारण नहीं होता तब हेतूत्प्रेक्षा अलंकारहोता है।

उदाहरण:

१. अरुण भये कोमल चरण भुवि चलिबें ते मानु।

कोमल चरण मानो पृथ्वी पर चलने से लाल (सूरज की तरह) हो गए। चरण प्राकृतिक रूप से लाल होने पर भी धरती पर चलने से लाल होने कीकी संभावना की गयी है अर्थात जो कारण नहीं है उसे कारण कहा गया है।

२. मुख सम नहिं याते मनों चंदहि छाया छाय।

मानो चंद्रमा मुख के समान नहीं है, इसलिए उसे कालिमा छाये रहती है। चंद्रमा पर कालिमा छाये राख्ने का कारण उसका मुख-समान न होना नहीं है किन्तु कहा गया है।

३. मुख सम नहिं यातें कमल मनु जल रह्यो छिपाइ।

जल में कमल के छिपने का कारण उसका मुख के समान न होना नहीं होने पर भी मान लिया गया है। इसलिए हेतूत्प्रेक्षा है।

४. सोवत सीतानाथ के, भृगु मुनि दीनी लात।
भृगुकुल-पति की गति हरी, मनो सुमिरि वह बात।।

५. अकस्मात् साहित्य के, लौटाते ईनाम।
सामाजिक टकराव का, कहते हैं परिणाम।।

३. फलोत्प्रेक्षा: जो उद्देश्य परिणाम या फल न हो किन्तु मान लिया किन्तु मान लिया जाए तो फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अफल में फल की सम्भावना फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।

१. तव पद समता को कमल, जल-सेवत एक पाँव
तुम्हारे चरणों की समता पाने के लिए कमल एक पैर (कमल नाल) पर खड़ा होकर जल की सेवा कर रहा है।कमल नाल पर खिले कमल का उद्देश्य तप कर चरणों की समानता पाना न होने पर भी मान लिया गया है, इसलिए फलोत्प्रेक्षा है।

२. रोज अन्हात है छीरधि में ससि, तव मुख की समता लहिवे को।

३. शिव से समता के लिये, दुर्गा रखे त्रिनेत्र ।

४. लड़ें चुनाव
जनसेवा के हेतु
नेता औ' दल।

५. नक्सलवाद
गरीब जनता का
रण निनाद
शासन के विरुद्ध,
विषमता मिटाने।
*
फलोत्प्रेक्षा और हेतूत्प्रेक्षा में अंतर:

काव्य में वर्णित कार्य या क्रिया किस उद्देश्य से करी जा रही है? इस प्रश्न का उत्तर मिले तो फलोत्प्रेक्षा अलंकार होगा अन्यथा हेतूत्प्रेक्षा।

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बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

smaran alankar

अलंकार सलिला

: २१ : स्मरण अलंकार








एक वस्तु को देख जब दूजी आये याद
अलंकार 'स्मरण' दे, इसमें उसका स्वाद

करें किसी की याद जब, देख किसी को आप.
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप..
*
कवि को किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति याद आये तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है.

जब पहले देखे-सुने किसी व्यक्ति या वस्तु के समान किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को देखने पर उसकी याद हो आये तो स्मरण अलंकार होता है.

स्मरण अलंकार समानता या सादृश्य से उत्पन्न स्मृति या याद होने पर ही होता है. किसी से संबंधित अन्य व्यक्ति या वस्तु की याद आना स्मरण अलंकार नहीं है.

'स्मृति' नाम का एक संचारी भाव भी होता है. वह सादृश्य-जनित स्मृति (समानता से उत्पन्न याद) होने पर भी होता है और और सम्बद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी. स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों एक साथ हो भी सकते हैं और नहीं भी.

स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है.

उदाहरण:

१. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा
    सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा
   
   यहाँ पश्चिम दिशा में उदित हो रहे सुहावने चंद्र को सीता के सुहावने मुख के समान देखकर राम को सीता याद आ रही है. अत:, स्मरण अलंकार है.

२. बीच बास कर जमुनहि आये
    निरखि नीर लोचन जल छाये

     यहाँ राम के समान श्याम वर्ण युक्त यमुना के जल को देखकर भरत को राम की याद आ रही है. यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

३. सघन कुञ्ज छाया सुखद, शीतल मंद समीर
    मन व्है जात वहै वा जमुना के तीर

कवि को घनी लताओं, सुख देने वाली छाँव तथा धीमी बाह रही ठंडी हवा से यमुना के तट की याद आ रही है. अत; यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

४. देखता हूँ 
    जब पतला इंद्रधनुषी हलका
    रेशमी घूँघट बादल का 
    खोलती है कुमुद कला
    तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान 
     तब करता अंतर्ध्यान।

    यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

५. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरुख विमुख लोग
                     त्यौं-त्यौं ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है 
    सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि 
                     कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है 
    जैसी अब बीतत सो कहतै ना बने बैन 
                     नागर ना चैन परै प्रान अकुलावै है 
    थूहर पलास देखि देखि के बबूर बुरे 
                     हाथ हरे हरे तमाल सुधि आवै है 

६. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
    याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी.
    पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
    दिव्य छटा अनुपम छवि बाँकी प्यारी-प्यारी.

७ . जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके
    प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता

८. छू देता है मृदु पवन जो, पास आ गात मेरा
     तो हो आती परम सुधि है, श्याम-प्यारे-करों की

९. सजी सबकी कलाई
   पर मेरा ही हाथ सूना है.
   बहिन तू दूर है मुझसे
   हुआ यह दर्द दूना है.

१०. धेनु वत्स को जब दुलारती
    माँ! मम आँख तरल हो जाती.
    जब-जब ठोकर लगती मग पर
    तब-तब याद पिता की आती.

११. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराये 
    मुझे तुम याद आये.

स्मरण अलंकार का एक रूप ऐसा मिलता है जिसमें उपमेय के सदृश्य उपमान को देखकर उपमेय का प्रत्यक्ष दर्शन करने की लालसा तृप्त हो जाती है. 

१२. नैन अनुहारि नील नीरज निहारै बैठे बैन अनुहारि बानी बीन की सुन्यौ करैं 
     चरण करण रदच्छन की लाली देखि ताके देखिवे का फॉल जपा के लुन्यौं करैं  
     रघुनाथ चाल हेत गेह बीच पालि राखे सुथरे मराल आगे मुकता चुन्यो करैं 
     बाल तेरे गात की गाराई सौरि ऐसी हाल प्यारे नंदलाल माल चंपै की बुन्या करैं 

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गुरुवार, 14 नवंबर 2013

chhand salila: achal chhand -sanjiv


छंद सलिला:                                                                                             अचल छंद                                                                                                  संजीव
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अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है. इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है. हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है. मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया होगा। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है. 
तदनुसार

सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ.

कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ..

कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ.

करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ..

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वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.

मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य.

तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य..

चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-

इसीलिये तारक भी नभ में, करें न उसका मान..

इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं.

शुक्रवार, 24 जून 2011

काव्य का रचना शास्त्र : १ ध्वनि कविता की जान है... - आचार्य संजीव 'सलिल'

काव्य का रचना शास्त्र : १

ध्वनि कविता की जान है...

- आचार्य संजीव 'सलिल'



ध्वनि कविता की जान है, भाव श्वास-प्रश्वास.
अक्षर तन, अभिव्यक्ति मन, छंद वेश-विन्यास..

                 अपने उद्भव के साथ ही मनुष्य को प्रकृति और पशुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ा. सुन्दर, मोहक, रमणीय प्राकृतिक दृश्य उसे रोमांचित, मुग्ध और उल्लसित करते थे. प्रकृति की रहस्यमय-भयानक घटनाएँ उसे डराती थीं. बलवान हिंस्र पशुओं से भयभीत होकर वह व्याकुल हो उठता था. विडम्बना यह कि उसका शारीरिक बल और शक्तियाँ बहुत कम थीं. अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उसके पास देखे-सुने को समझने और समझाने की बेहतर बुद्धि थी. बाह्य तथा आतंरिक संघर्षों में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने और अन्यों की अभिव्यक्ति को ग्रहण करने की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास कर मनुष्य सर्वजयी बन सका. 

साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं।
                अनुभूतियों को अभिव्यक्त और संप्रेषित करने के लिए मनुष्य ने सहारा लिया ध्वनि का. वह आँधियों, तूफानों, मूसलाधार बरसात, भूकंप, समुद्र की लहरों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ आदि से सहमकर छिपता फिरता. प्रकृति का रौद्र रूप उसे डराता. मंद समीरण, शीतल फुहार, कोयल की कूक, गगन और सागर का विस्तार उसमें दिगंत तक जाने की अभिलाषा पैदा करते. उल्लसित-उत्साहित मनुष्य कलकल निनाद की तरह किलकते हुए अन्य मनुष्यों को उत्साहित करता. अनुभूति को अभिव्यक्त कर अपने मन के भावों को विचार का रूप देने में ध्वनि की तीक्ष्णता, मधुरता, लय, गति की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति, लालित्य-रुक्षता आदि उसकी सहायक हुईं. अपनी अभिव्यक्ति को शुद्ध, समर्थ तथा सबको समझ आने योग्य बनाना उसकी प्राथमिक आवश्यकता थी.

          सकल सृष्टि का हित करे, कालजयी आदित्य.
            जो सबके हित हेतु हो, अमर वही साहित्य.

               भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्त करने का यह प्रयास ही कला के रूप में विकसित होता हुआ 'साहित्य' के रूप में प्रस्फुटित हुआ. सबके हित की यह मूल भावना 'हितेन सहितं' ही साहित्य और असाहित्य के बीच की सीमा रेखा है जिसके निकष पर किसी रचना को परखा जाना चाहिए. सनातन भारतीय चिंतन में 'सत्य-शिव-सुन्दर' की कसौटी पर खरी कला को ही मान्यता देने के पीछे भी यही भावना है. 'शिव' अर्थात 'सर्व कल्याणकारी, 'कला कला के लिए' का पाश्चात्य सिद्धांत पूर्व को स्वीकार नहीं हुआ. साहित्य नर्मदा का कालजयी प्रवाह 'नर्मं ददाति इति नर्मदा' अर्थात 'जो सबको आनंद दे, वही नर्मदा' को ही आदर्श मानकर सतत सृजन पथ पर बढ़ता रहा.

                 मानवीय अभिव्यक्ति के शास्त्र 'साहित्य' को पश्चिम में 'पुस्तकों का समुच्चय', 'संचित ज्ञान का भंडार', 'जीवन की व्याख्या', आदि कहा गया है. भारत में स्थूल इन्द्रियजन्य अनुभव के स्थान पर अन्तरंग आत्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को अधिक महत्व दिया गया. यह अंतर साहित्य को मस्तिष्क और ह्रदय से उद्भूत मानने का है. आप स्वयं भी अनुभव करेंगे के बौद्धिक-तार्किक कथ्य की तुलना में सरस-मर्मस्पर्शी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है. विशेषकर काव्य (गीति या पद्य) में तो भावनाओं का ही साम्राज्य होता है. 

होता नहीं दिमाग से, जो संचालित मीत. 

दिल की सुन दिल से जुड़े, पा दिलवर की प्रीत..


साध्य आत्म-आनंद है :

                   काव्य का उद्देश्य सर्व कल्याण के साथ ही निजानंद भी मान्य है. भावानुभूति या रसानुभूति काव्य की आत्मा है किन्तु मनोरंजन मात्र ही साहित्य या काव्य का लक्ष्य या ध्येय नहीं है. आजकल दूरदर्शन पर आ रहे कार्यक्रम सिर्फ मनोरंजन पर केन्द्रित होने के कारण समाज को कुछ दे नहीं पा रहे जबकि साहित्य का सृजन ही समाज को कुछ देने के लिये किया जाता है. 

जन-जन का आनंद जब, बने आत्म-आनंद.

कल-कल सलिल-निनाद सम, तभी गूँजते छंद..

काव्य के तत्व :

बुद्धि भाव कल्पना कला, शब्द काव्य के तत्व.

तत्व न हों तो काव्य का, खो जाता है स्वत्व..

                   बुद्धि या ज्ञान तत्व काव्य को ग्रहणीय बनाता है. सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य, शिव-अशिव, सुन्दर-असुंदर, उपयोगी-अनुपयोगी में भेद तथा उपयुक्त का चयन बुद्धि तत्व के बिना संभव नहीं. कृति को विकृति न होने देकर सुकृति बनाने में यही तत्व प्रभावी होता है. 

                भाव तत्व को राग तत्व या रस तत्व भी कहा जाता है. भाव की तीव्रता ही काव्य को हृद्स्पर्शी बनाती है. संवेदनशीलता तथा सहृदयता ही रचनाकार के ह्रदय से पाठक तक रस-गंगा बहाती है. 

                    कल्पना लौकिक को अलौकिक और अलौकिक को लौकिक बनाती है. रचनाकार के ह्रदय-पटल पर बाह्य जगत तथा अंतर्जगत में हुए अनुभव अपनी छाप छोड़ते हैं. साहित्य सृजन के समय अवचेतन में संग्रहित पूर्वानुभूत संस्कारों का चित्रण कल्पना शक्ति से ही संभव होता है. रचनाकार अपने अनुभूत तथ्य को यथावत कथ्य नहीं बनता. वह जाने-अनजाने सच=झूट का ऐसा मिश्रण करता है जो सत्यता का आभास कराता है. 

                कला तत्त्व को शैली भी कह सकते हैं. किसी एक अनुभव को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते हैं. हर रचनाकार का किसी बात को कहने का खास तरीके को उसकी शैली कहा जाता है. कला तत्व ही 'शिवता' का वाहक होता है. कला असुंदर को भी सुन्दर बना देती है.

                 शब्द को कला तत्व में समाविष्ट किया जा सकता है किन्तु यह अपने आपमें एक अलग तत्व है. भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द ही होता है. रचनाकार समुचित शब्द का चयन कर पाठक को कथ्य से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है.

साहित्य के रूप :

दिल-दिमाग की कशमकश, भावों का व्यापार.

बनता है साहित्य की, रचना का आधार.. 

                  बुद्धि तत्त्व की प्रधानतावाला बोधात्मक साहित्य ज्ञान-वृद्धि में सहायक होता है. हृदय तत्त्व को प्रमुखता देनेवाला रागात्मक साहित्य पशुत्व से देवत्व की ओर जाना की प्रेरणा देता है. अमर साहित्यकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे साहित्य को 'रचनात्मक साहित्य' कहा है. 

साहित्य शिल्पीसादर समर्पित

            यह लेख श्रंखला मुझमें भाषा और साहित्य की रूचि जगानेवाली पूजनीय माता जी व प्रख्यात- आशु कवयित्री स्व. श्रीमति शांति देवी वर्मा की पुण्य-स्मृति को समर्पित  है। 
                                                -संजीव 

 लक्ष्य और लक्षण ग्रन्थ 

                    रचनात्मक या रागात्मक साहित्य के दो भेद लक्ष्य ग्रन्थ और लक्षण ग्रन्थ हैं साहित्यकार का उद्देश्य अलौकिक आनंद की सृष्टि करना होता है जिसमें रसमग्न होकर पाठक रचना के कथ्य, घटनाक्रम, पात्रों और सन्देश के साथ अभिन्न हो सके. 

             लक्ष्य ग्रन्थ में रचनाकार नूतन भावः लोक की सृष्टि करता है जिसके गुण-दोष विवेचन के लिये व्यापक अध्ययन-मनन पश्चात् कुछ लक्षण और नियम निर्धारित किये गये हैं लक्ष्य ग्रंथों के आकलन अथवा मूल्यांकन (गुण-दोष विवेचन) संबन्धी साहित्य लक्षण ग्रन्थ होंगे. लक्ष्य ग्रन्थ साहित्य का भावः पक्ष हैं तो लक्षण ग्रन्थ विचार पक्ष. काव्य के लक्षणों, नियमों, रस, भाव, अलंकार, गुण-दोष आदि का विवेचन 'साहित्य शास्त्र' के अंतर्गत आता है 'काव्य का रचना शास्त्र' विषय भी 'साहित्य शास्त्र' का अंग है. 

साहित्य के रूप -- 
१. लक्ष्य ग्रन्थ : (क) दृश्य काव्य, (ख) श्रव्य काव्य. 
२. लक्षण ग्रन्थ : (क) समीक्षा, (ख) साहित्य शास्त्र.
                                                                                                                                                    क्रमश: .....
                                                                                                                                       (आभार : साहित्य शिल्पी, मंगलवार, १० मार्च २००९) 

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गुरुवार, 23 जून 2011

विशेष लेख: चित्रपटीय गीतों में अनुप्रास अलंकार की छटा: -- नवीन चतुर्वेदी

विशेष लेख:
चित्रपटीय गीतों में अनुप्रास अलंकार की छटा:
 
नवीन चतुर्वेदी 
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'अनु' तथा 'प्रास' इन दो शब्दों के मेल से बनाता है शब्द अनुप्रास | 'अनु' का अर्थ है बार-बार और 'प्रास' का अर्थ है वर्ण / अक्षर | इस प्रकार अनुप्रास का शाब्दिक अर्थ हुआ कि जब एक अक्षर बार बार आए तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है | बहुचर्चित पंक्ति ही काफी है अनुप्रास अलंकार को समझने के लिए:-

चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चाँदनी चौक में चाँदी की चम्मच से चाँदनी रात में चटनी चटाई 

इस पंक्ति में 'च' अक्षर के बार बार आने से यहाँ अनुप्रास अलंकार हुआ |

अनुप्रास अलंकार के भी कई भेद हैं, यथा:-

[१] छेकानुप्रास 
[२] वृत्यानुप्रास
[३] लाटानुप्रास
[४] अंत्यानुप्रास 
[५] श्रुत्यानुप्रास 

अब इन को समझते हैं एक एक कर |

छेकानुप्रास

किसी पंक्ति में एक से अधिक अक्षरों का बार बार आना 

उदाहरण :-
नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए
बाकी जो बचा वो काले चोर ले गए 

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'न' - 'र' - 'म' तथा 'क' अक्षरों की बारंबारता के लिए छेकानुप्रास अलंकार का आभास होता है|


वृत्यानुप्रास

किसी पंक्ति में एक अक्षर का बार बार आना 

उदाहरण :-
चन्दन सा बदन, चंचल चितवन 

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'च' अक्षर  की बारंबारता के लिए वृत्यानुप्रास अलंकार का आभास होता है|

लाटानुप्रास

किसी पंक्ति में एक शब्द का बार बार आना 

उदाहरण :-

आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ 

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'आदमी' शब्द की बारंबारता के लिए लाटानुप्रास अलंकार का आभास होता है|


अंत्यानुप्रास

सीधे सादे शब्दों में कहा जाये तो पंक्ति के अंत में अक्षर / अक्षरों की समानता को अंत्यानुप्रास कहते हैं| दूसरे शब्दों में कहें तो छन्द बद्ध सभी कविताओं में तुक / काफिये के साथ अंत्यानुप्रास पाया जाता है| इस का महत्व संस्कृत के छंदों में अधिक प्रासंगिक है| यथा :-

श्रीमदभवतगीता का सब से पहला श्लोक 

धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:|
मामका: पाण्डवाश्चैव, किमकुर्वत संजय||

आप देखें छन्द बद्ध होने के बावजूद इस में अंत में तुक / काफिया नहीं है| अब संस्कृत के एक और श्लोक को देखते हैं:

नमामि शमीशान निर्वाण रूपं 
विभुं व्यापकं ब्रम्ह्वेद स्वरूपं 
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं 
चिदाकाश माकाश वासं भजेहं 

तो अब आप को स्पष्ट हो गया होगा कि अंत्यानुप्रास का महत्व कब और क्यों प्रासंगिक है| आज कल तो छन्द बद्ध रचनाएँ तुकांत होने के कारण अंत्यानुप्रास युक्त होती ही हैं| गज़लें तो सारी की सारी अंत्यानुप्रास के साथ ही हुईं [गैर मुरद्दफ वाली गज़लें छोड़ कर]| 

कबीरा खड़ा बजार में मांगे सबकी खैर|
ना काहू से दोसती, ना काहू से बैर||
ऊपर के दोहे की दोनों पंक्तियों के अंत में 'र' अक्षर आने के कारण अंत्यानुप्रास अलंकार हुआ| अंत्यानुप्रास के कुछ और उदाहरण :- 

आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के|
मेरे दिल में यूं ही रहना, तुम प्यार प्यार बन के||

चौदहवीं का चाँद हो या आफ़ताब हो|
जो भी हो तुम ख़ुदा की क़सम लाज़वाब हो|

संस्कृत श्लोकों के अलावा आधुनिक कविता में अंत्यानुप्रास की प्रासंगिकता उल्लेखनीय हो जाती है, यथा :-

ऑस की बूंदें
हासिल हैं सभी को 
बिना किसी भेद भाव के 
बराबर 
निरंतर 
यहाँ पर 
वहाँ पर 

श्रुत्यानुप्रास

इसे समझने से पहले समझते हैं कि एक वर्ग के अक्षर कौन से होते हैं| जैसे क-ख-ग-ग एक वर्ग के अक्षर हुए| च-छ-ज-झ एक वर्ग के अक्षर हुए| ट-ठ-ड-ढ एक वर्ग के अक्षर हुए| 

जब किसी एक वर्ग के अक्षर बार बार आयें तो वहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है|

उदाहरण :-
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, जैसे
खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख़्वाब 
हिन्दी फिल्म के इस गीत में एक ही वर्ग के कई अक्षर जैसे कि 'क' 'ख' 'ग' अक्षरों के आने से श्रुत्यानुप्रास अलंकार का आभास होता है| एक और उदाहरण:-

दीदी तेरा देवर दीवाना - 'द' - 'त' व 'न' एक ही वर्ग से हैं इसीलिए यहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार हुआ|


आशा करते हैं कि हिन्दी फिल्मों के गानों के माध्यम से अनुप्रास अलंकार के विभिन्न रूपों की ये व्याख्या आप को पसंद