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शनिवार, 1 नवंबर 2014

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नवगीत: 

बुरे दिनों में 
थे समीप जो 
भले दिनों में दूर हुए 

सत्ता की आहट मिलते ही 
बदल गए पैमाने 
अपनों को नीचे दिखलाने 
क्यों तुम मन में ठाने? 
दिन बदलें फिर पड़े जरूरत 
तब क्या होगा सोचो?

आँखें रहते भी 
बोलो क्यों 
ठोकर खाकर सूर हुए?

बड़बोलापन आज तुम्हारा 
तुम पर ही है भारी 
हँसी उड़ रही है दुनिया में 
दिल पर चलती आरी 
आनेवाले दिन भारी हैं
लगता है जनगण को 

बढ़ते कर 
मँहगाई न घटती 
दिन अपने बेनूर हुए 

अच्छे दिन के सपने टूटे 
कथनी-करनी भिन्न 
तानाशाही की दस्तक सुन 
लोकतंत्र है खिन्न
याद करें संपूर्ण क्रांति को 
लाना है बदलाव 

सहिष्णुता है 
क्षत-विक्षत 
नेतागण क्रूर हुए 

***