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बुधवार, 22 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
बाँस हूँ मैं 
संजीव
.
बांस हूँ मैं
काट लो तुम 
जला दो तुम
पर न खुद होकर मरूंगा
बीज से हो अंकुरित मैं
पल्लवित हो फिर जियूँगा
बांस हूँ मैं
.
मैं न तुम सा आदमी हूँ
सियासत मुझको न आती
मात्र इतना जानता हूँ
ज्योति जो खुद को जलाती
वही पी पाती तिमिर है
उसी से दीपक अमर है.
सत्य मानो सुरासुर का
सदा ही होना समर है.
मैं रहा हूँ साथ उसके
जो हलाहल धार सकता.
जो न खुद मरता कभी भी
मौत को भी मार सकता.
साथ श्रृद्धा के रहे जो
अडिग हो विश्वास जिसका.
गैर जिसकों नहीं कोई
कोई अपना नहीं उसका.
सर्प से जो खेल लेता
दर्प को जो झेल लेता
शीश पर धर शशि-सलिल को
काम को जो ठेल देता.
जो न पिटता है प्रलय में
जो न मिटता है मलय से
हो लचीला जो खड़ा
भूकम्प में वह कांस हूँ मैं.
घांस हूँ मैं
जड़ जमाये
उखाड़ो तुम
लाख मुझको फिर उगूँगा
रोककर भू स्खलन को
हरा कर भू को हँसूंगा
बांस हूँ मैं
बांस हूँ मैं
काट लो तुम
जला दो तुम
पर न खुद होकर मरूंगा
बीज से हो अंकुरित मैं
पल्लवित हो फिर जियूँगा
बांस हूँ मैं
.
सफलता करती न गर्वित
विफलता करती न मर्दित
चुनौती से जूझ जाता
दे सहारा हुआ हर्षित
आपदा जब भी बुलाती
या निकट आ मुस्कुराती
सगा कह उसको मनाता
गले से अपने लगाता.
भूमिसुत हूँ सत्य मानो
मुझे अपना मीत जानो.
हाथ में लो उठा लाठी
या बना लो मुझे काठी.
बना चाली चढ़ो ऊपर
ज्यों बढ़ें संग वेदपाठी.
भाये ढाबा-चारपाई
टोकरी कमची बनाई.
बन गया थी तीर तब-तब
जब कमानी थी उठाई.
गगन छूता पतंग के संग
फाँस बन चुभ मैं करूँ तंग
मुझ बिना बंटी न ठठरी
कंध चढ़ लूँ टांग गठरी .
वंशलोचन हर निबलता
बाँटता सबको सबलता
मत कहो मैं फूल जाऊँ
क्यों कहीं दुर्भिक्ष्य लाऊँ.
सांस हूँ मैं
खूब खींचो
खूब छोडो
नहीं पल भर भी रुकूंगा
जन्म से लेकर मरण तक
बाँट आम्रित विष पिऊँगा
बांस हूँ मैं
बांस हूँ मैं
काट लो तुम
जला दो तुम
पर न खुद होकर मरूंगा
बीज से हो अंकुरित मैं
पल्लवित हो फिर जियूँगा
बांस हूँ मैं
***

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
भटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
***
२१.४.२०१५