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मंगलवार, 28 जून 2011

नवगीत: समय-समय का फेर है... -- संजीव 'सलिल'

नवगीत:  
समय-समय का फेर है...
संजीव 'सलिल'
*
समय-समय का फेर है,समय-समय की बात.
जो है लल्ला आज वह- कल हो जाता तात.....
*
जमुना जल कलकल बहा, रची किनारे रास.
कुसुम कदम्बी कहाँ हैं? पूछे ब्रज पा त्रास..
रूप अरूप कुरूप क्यों? कूड़ा करकट घास.                                                          
पानी-पानी हो गयी प्रकृति मौन उदास..                                                           
पानी बचा न आँख में- दुर्मन मानव गात.
समय-समय का फेर है, समय-समय की बात.....
*
जो था तेजो महालय, शिव मंदिर विख्यात.
सत्ता के षड्यंत्र में-बना कब्र कुख्यात ..
पाषाणों में पड़ गए,थे तब जैसे प्राण.
मंदिर से मकबरा बन अब रोते निष्प्राण..
सत-शिव-सुंदर तज 'सलिल'-पूनम 'मावस रात.
समय-समय का फेर है,समय-समय की बात.....
*
घटा जरूरत करो, कुछ कचरे का उपयोग.
वर्ना लीलेगा तुम्हें बनकर घातक रोग..
सलिला को गहरा करो, 'सलिल' बहे निर्बाध.                                              
कब्र पुन:मंदिर बने, श्रृद्धा रहे अगाध.
नहीं झूठ के हाथ हो, कभी सत्य की मात.
समय-समय का फेर है, समय-समय की बात.....
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शनिवार, 23 जनवरी 2010

नवगीत: चले श्वास-चौसर पर --संजीव 'सलिल'

नवगीत

संजीव 'सलिल'

चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलाम.
बाद को अच्छा माने दुनिया,
कहे बुरा बदनाम.

ठंडक देती धूप,
ताप रही बाहर बेहद छाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सद्भावों की सती तजी,
वर राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य,
चुन लिया असत मिथ्या..
सत्ता-शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें- विधाता वाम..

मोह शहर का किया
उजड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
'सलिल' समय पर न्याय न होता,
करे देर अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर..
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी,
बिना मोल बेदाम.
और कह रहे बेहयाई से
'भला करेंगे राम'.

अपने हाथों तोड़ खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम