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मंगलवार, 25 नवंबर 2025

नवंबर २५, प्रेमा छंद, बुंदेली, सरस्वती, सड़गोड़ासनी, छंद, नवगीत, समीक्षा

सलिल सृजन नवंबर २५ 
बुंदेली
सरस्वती वंदना
*
छंद - सड़गोड़ासनी।
पद - ३, मात्राएँ - १५-१२-१५।
पहली पंक्ति - ४ मात्राओं के बाद गुरु-लघु अनिवार्य।
गायन - दादरा ताल ६ मात्रा।
*
मैया शारदे! पत रखियो
मोखों सद्बुधि दइयो
मैया शारदे! पत रखियो
जा मन मंदिर मैहरवारी
तुरतइ आन बिरजियो
मैया शारदे! पत रखियो
माया-मोह राच्छस घेरे
झट सें मार भगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
अनहद नाद सुनइयो माता!
लागी नींद जगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
भासा-आखर-कवित मोय दो
लय-रस-भाव लुटइयो
मैया शारदे! पत रखियो
मात्रा-वर्ण; प्रतीक बिम्ब नव
अलंकार झलकइयो
मैया शारदे! पत रखियो
२५-११-२०१९
०००
पुरोवाक
''कागज़ के अरमान'' - जमीन पर पैर जमकर आसमान में उड़ान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मानव सभ्यता और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। चेतना के विकास के साथ मनुष्य ने अन्य जीवों की तुलना में प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण-पर्यवेक्षण कर, देखे हुए को स्मृति में संचित कर, एक-दूसरे को अवगत कराने और समान परिस्थितियों में उपयुक्त कदम उठाने में सजगता, तत्परता और एकजुटता का बेहतर प्रदर्शन किया। फलत:, उसका न केवल अनुभव संचित ज्ञान भंडार बढ़ता गया, वह परिस्थितियों से तालमेल बैठने, उन्हें जीतने और अपने से अधिक शक्तिशाली पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं पर भी विजय पाने और अपने लिए आवश्यक संसाधन जुटाने में सफल हो सका। उसने प्रकृति की शक्तियों को उपास्य देव मानकर उनकी कृपा से प्रकृति के उपादानों का प्रयोग किया। प्रकृति में व्याप्त विविध ध्वनियों से उसने परिस्थितियों का अनुमान करना सीखा। वायु प्रवाह की सनसन, जल प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघों का गर्जन, विद्युतपात की तड़ितध्वनि आदि से उसे सिहरन, आनंद, प्रसन्नता, आशंका, भय आदि की प्रतीति हुई। इसी तरन सिंह-गर्जन सुनकर पेड़ पर चढ़ना, सर्प की फुंफकार सुनकर दूर भागना, खाद्य योग्य पशुओं को पकड़ना-मारना आदि क्रियाएँ करते हुए उसे अन्य मानव समूहों के अवगत करने के लिए इन ध्वनियों को उच्चरित करने, अंकित करने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस तरह भाषा और लिपि का जन्म हुआ।
कोयल की कूक और कौए की काँव-काँव का अंतर समझकर मनुष्य ने ध्वनि के आरोह-अवरोह, ध्वनि खण्डों के दुहराव और मिश्रण से नयी ध्वनियाँ बनाकर-लिखकर वर्णमाला का विकास किया, कागज़, स्याही और कलम का प्रयोगकर लिखना आरंभ किया। इनमें से हर चरण के विकास में सदियाँ लगीं। भाषा और लिपि के विकास में नारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। प्रकृति प्रदत्त प्रजनन शक्ति और संतान को जन्मते ही शांत करने के लिए नारी ने गुनगुनाना आरम्भ कर प्रणयनुभूतियों और लाड़ की अभिव्यक्ति के लिए रूप में प्रथम कविता को जन्म दिया। आदि मानव ने ध्वनि का मूल नारी को मानकर नाद, संगीत, कला और शिल्प की अधिष्ठात्री आदि शक्ति पुरुष नहीं नारी को मान जिसे कालान्तर में 'सरस्वती (थाइलैण्ड में सुरसवदी बर्मा में सूरस्सती, थुरथदी व तिपिटक मेदा, जापान में बेंज़ाइतेन, चीन में बियानचाइत्यान, ग्रीक सभ्यता में मिनर्वा, रोमन सभ्यता में एथेना) कहा गया। बोलने, लिखने, पढ़ने और समझने ने मनुष्य को सृष्टि का स्वामी बन दिया। अनुभव करना और अभिव्यक्त करना इन दो क्रियाओं में निपुणता ने मनुष्य को अद्वितीय बना दिया।
भाषा मनुष्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साथ मनन, चिंतन और अभिकल्पन का माध्यम भी बनी। गद्य चिंतन और तर्क तथा पद्य मनन और भावना के सहारे उन्नत हुए। हर देश, काल, परिस्थिति में कविता मानव-मन की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम रही। इस पृष्ठभूमि में डॉ. अग्निभ मुखर्जी 'नीरव' की कविताओं को पढ़ना एक आनंददायी अनुभव है। सनातन सामाजिक मूल्यों को जीवनाधार मानते हुए सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के मध्यम श्रेणी के संस्कारधानी विशेषण से अलंकृत शहर जबलपुर में संस्कारशील बंगाली परिवार में जन्म व शालेय शिक्षाके पश्चात साम्यवाद के ग्रह, विश्व की महाशक्ति रूस में उच्च अध्ययन और अब जर्मनी में प्रवास ने अग्निभ को विविध मानव सभ्यताओं, जीवन शैलियों और अनुभवों की वह पूंजी दी, जो सामान्य रचनाकर्मी को नहीं मिलती है। इन अनुभवों ने नीरव को समय से पूर्व परिपक्व बनाकर कविताओं में विचार तत्व को प्रमुखता दी है तो दूसरी और शिल्प और संवेदना के निकष पर सामान्य से हटकर अपनी राह आप बनाने की चुनौती भी प्रस्तुत की है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि अग्निभ की सृजन क्षमता न तो कुंठित हुई, न नियंत्रणहीन अपितु वह अपने मूल से सतत जुड़ी रहकर नूतन आयामों में विकसित हुई है।
अग्निभ के प्रथम काव्य संग्रह 'नीरव का संगीत' की रचनाओं को संपादित-प्रकाशित करने और पुरोवाक लिखने का अवसर मुझे वर्ष २००८ में प्राप्त हुआ। ग्यारह वर्षों के अंतराल के पश्चात् यह दूसरा संग्रह 'कागज़ के अरमान' पढ़ते हुए इस युवा प्रतिभा के विकास की प्रतीति हुई है। गुरुवर श्री मुकुल शर्मा जी को समर्पण से इंगित होता है की अग्निभ गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश से उच्चतर परब्रह्म मानने की वैदिक, 'बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय' की कबीरी और 'बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ?' की समकालिक विरासत भूले नहीं हैं। संकलन का पहला गीत ही उनके कवि के पुष्ट होने की पुष्टि करता है। 'सीना' के दो अर्थों सिलना तथा छाती में यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग कर अग्निभ की सामर्थ्य का संकेत करता है।
जिस दिन मैंने उजड़े उपवन में
अमृत रस पीना चाहा,
उस दिन मैंने जीना चाहा!
काँटों से ही उन घावों को
जिस दिन मैंने सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
जिस दिन मैंने उत्तोलित सागर
सम करना सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
पुनरावृत्ति अलंकार का इतना सटीक प्रयोग काम ही देखने मिलता है -
एक न हो हालात सभी के
एक हौसला पाया है,
एक एक कर एक गँवाता,
एक ने उसे बढ़ाया है।
कहा जाता है कि एक बार चली गोली दुबारा नहीं चलती पर अग्निभ इस प्रयोग को चाहते और दुहराते हैं बोतल में -
महफ़िल में बोतलों की
बोतल से बोतलों ने
बोतल में बंद कितने
बोतल के राज़ खोले।
पर सभी बोतलों का
सच एक सा ही पाया-
शीशे से तन ढका है,
अंदर है रूह जलती,
सबकी अलग महक हो
पर एक सा नशा है।
बोतल से बोतलें भी
टूटी कहीं है कितनी।
बोतल से चूर बोतल
पर क्या कभी जुड़ी है?
दिलदार खुद को कहती
गुज़री कई यहाँ से,
बोतल से टूटने को
आज़ाद थी जो बोतल।
हर बार टूटने पर
एक हँसी भी थी टूटी।
किसके नसीब पर थी
अब समझ आ रहा है।
बोतल में बोतलों की
तकदीर लिख गयी है।
बोतल का दर्द पी लो,
चाहे उसे सम्हालो।
पर और अब न यूँ तुम
भर ज़हर ही सकोगे।
हद से गुज़र गए तो
जितना भी और डालो
वो छलक ही उठेगा,
रोको, मगर बहेगा।
उस दिन जो बोतलों से
कुछ अश्क भी थे छलके
वे अश्क क्यों थे छलके
अब समझ आ रहा है।
नर्मदा को 'सौंदर्य की नदी' कहा जाता है। उसके नाम ('नर्मदा' का अर्थ 'नर्मंम ददाति इति नर्मदा' अर्थात जो आनंद दे वह नर्मदा है), से ही आनंदानुभूति होती है। गंगा-स्नान से मिलनेवाला पुण्य नर्मदा के
दर्शन मात्र से मिल जाता है। अग्निभ सात समुन्दर पार भी नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य को विस्मृत न कर सके, यह स्वाभाविक है -
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत।
महाघोष सुनाती बह चलती
नर्मदा तीर पर आज मिला,
चिर तर्ष, हर्ष ले नाच रही
जो पाषाणों में प्राण खिला ।
पाषाण ये मुखरित लगते हैं,
सोये हों फिर भी जगते हैं,
सरिता अधरों में भरती उनके आज नवल यह गीत ।
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।
अग्निभ के काव्य संसार में गीत और कविता अनुभूति की कोख से जन्मे सहोदर हैं।वे गीत, नवगीत और कविता सम्मिश्रण हैं। अग्निभ की गीति रचनाओं में छान्दसिकता है किन्तु छंद-विधान का कठोरता से पालन नहीं है। वे अपनी शैली और शिल्प को शब्दित लिए यथावश्यक छूट लेते हुए स्वाभाविकता को छन्दानुशासन पर वरीयता देते है। अन्त्यानुप्रास उन्हें सहज साध्य है।
लंबे विदेश प्रवास के बाद भी भाषिक लालित्य और चारुत्व अग्निभ की रचनाओं में भरपूर है। हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, रूसी और जर्मनी जानने के बाद भी शाब्दिक अपमिश्रण से बचे रहना और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर व्याकरणिक अनाचार न करने की प्रवृत्ति ने इन रचनाओं को पठनीय बनाया है। भारत में हिंगलिश बोलकर खुद को प्रगत समझनेवाले दिशाहीन रचनाकारों को अभिनव से निज भाषा पर गर्व करना सीखना चाहिए।
अग्निभ ने अपने प्रिय कवि रवींद्र नाथ ठाकुर की कविताओं का अनुवाद भी किया है। संकलन में गुरुदेव रचित विश्व विख्यात प्रार्थना अग्निभ कृत देखिये-
निर्भय मन जहाँ, जहाँ रहे उच्च भाल,
ज्ञान जहाँ मुक्त रहे, न ही विशाल
वसुधा के आँगन का टुकड़ों में खण्डन
हो आपस के अन्तर, भेदों से अगणन ।
जहाँ वाक्य हृदय के गर्भ से उच्चल
उठते, जहाँ बहे सरिता सम कल कल
देशों में, दिशाओं में पुण्य कर्मधार
करता संतुष्ट उन्हें सैकड़ों प्रकार।
कुरीति, आडम्बरों के मरू का वह पाश
जहाँ विचारों का न कर सका विनाश-
या हुआ पुरुषार्थ ही खण्डों में विभाजित,
जहाँ तुम आनंद, कर्म, चिंता में नित,
हे प्रभु! करो स्वयं निर्दय आघात,
भारत जग उठे, देखे स्वर्गिक वह प्रात ।
''कागज़ के अरमान'' की कविताएँ अग्निभ के युवा मन में उठती-मचलती भावनाओं का सागर हैं जिनमें तट को चूमती साथ लहरों के साथ क्रोध से सर पटकती अगाध जल राशि भी है, इनमें सुन्दर सीपिकाएँ, जयघोष करने में सक्षम शङख, छोटी-छोटी मछलियाँ और दानवाकार व्हेल भी हैं। वैषयिक और शैल्पिक विविधता इन सहज ग्राह्य कविताओं को पठनीय बनाती है। अग्निभ के संकलन से आगामी संकलनों की उत्तमता के प्रति आशान्वित हुआ जा सकता है।
२५.११.२०१९
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, भारत
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
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दोहा मुक्तिका
*
स्नेह भारती से करें, भारत माँ से प्यार।
छंद-छंद को साधिये, शब्द-ब्रम्ह मनुहार।।
*
कर सारस्वत साधना, तनहा रहें न यार।
जीव अगर संजीव हों, होगा तब उद्धार।।
*
मंदिर-मस्जिद बन गए, सत्ता हित हथियार।।
मन बैठे श्री राम जी, कर दर्शन सौ बार।।
*
हर नेता-दल चाहता, उसकी हो सरकार।।
नित मनमानी कर सके, औरों को दुत्कार।।
*
सलिला दोहा मुक्तिका, नेह-नर्मदा धार।
जो अवगाहे हो सके, भव-सागर से पार।।
२५.११.२०१८
०००
द्विपदी
यायावर मन दर-दर भटके,
पर माया मृग हाथ न आए,
नर नारायण तन नारद को,
कर वानर शापित हो जाए.
*
क्षणिका
गीत क्या?,
नवगीत क्या?
बोलें, निर्मल बोलें
बात मन की करें
दिल के द्वार खोलें.
*
एक दोहा निर्मल है नवगीत का, त्रिलोचनी संसार.
निहित कल्पना मनोरम, ज्यों संध्या आगार.
२५.११.२०१७
***
नवगीत महोत्सव लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आये हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाये हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोयें-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसायें
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पायें
मतभेदों को विहँस पचायें
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
२५.११.२०१५
***
नवगीत:
*
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
हम-तुम
देख रहे खिड़की के
बजते पल्ले
मगर चुप्प हैं.
दरवाज़ों के बाहर
जाते डरते
छाये तिमिर घुप्प हैं.
अन्तर्जाली
सेंध लग गयी
शयनकक्ष
शिशुगृह में आया.
जसुदा-लोरी
रुचे न किंचित
पूजागृह में
पैग बनाया.
इसे रोज
उसको दे टॉफी
कर प्रपोज़ नित
किसी और को,
संबंधों के
अनुबंधों को
भुला रही सीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
पशुपति व्यथित
देख पशुओं से
व्यवहारों की
जय-जय होती.
जन-आस्था
जन-प्रतिनिधियों को
भटका देख
सिया सी रोती.
मन 'मॉनीटर'
पर तन 'माउस'
जाने क्या-क्या
दिखा रहा है?
हर 'सीपीयू'
है आयातित
गत को गर्हित
बता रहा है.
कर उपयोग
फेंक दो तत्क्षण
कहे पूर्व से
पश्चिम वर तम
भटकावों को
अटकावों को
भुना रही चीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
२५.११.२०१५
०००
कृति चर्चा-
जीवन मनोविज्ञान : एक वरदान
[कृति विवरण: जीवन मनोविज्ञान, डॉ. कृष्ण दत्त, आकार क्राउन, पृष्ठ ७४,आवरण दुरंगा, पेपरबैक, त्र्यंबक प्रकाशन नेहरू नगर, कानपूर]
वर्तमान मानव जीवन जटिलताओं, महत्वाकांक्षाओं और समयाभाव के चक्रव्यूह में दम तोड़ते आनंद की त्रासदी न बन जाए इस हेतु चिंतित डॉ. कृष्ण दत्त ने इस लोकोपयीगी कृति का सृजन - प्रकाशन किया है. लेखन सेवानिवृत्त चिकित्सा मनोवैज्ञानिक हैं.
असामान्यता क्या है?, मानव मन का वैज्ञानिक विश्लेषण, अहम सुरक्षा तकनीक, हम स्वप्न क्यों देखते हैं?, मन एक विवेचन एवं आत्म सुझाव, मां पेशीय तनावमुक्तता एवं मन: शांति, जीवन में तनाव- कारण एवं निवारण,समय प्रबंधन, समस्या समाधान, मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता के शीलगुण, बुद्धि ही नहीं भावना भी महत्वपूर्ण, संवाद कौशल, संवादहीनता: एक समस्या, वाणी: एक अमोघ अस्त्र, बच्चे आपकी जागीर नहीं हैं, मांसक स्वास्थ्य के ३ प्रमुख अंग, मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ, संसार में समायोजन का मनोविज्ञान,जीवन में त्याग नहीं विवेकपूर्ण चयन जरूरी, चेतना का विस्तार ही जीवन, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, क्रोध क्यों होता है?, ईर्ष्या कहाँ से उपजती है?, संबंधों का मनोविज्ञान, संबंधों को कैसे संवारें?, सुखी दांपत्य जीवन का राज, अवांछित संस्कारों से कैसे उबरें?, अच्छे नागरिक कैसे बनें? तथा प्रेम: जीवन ऊर्जा का प्राण तत्व २९ अध्यायों में जीवनोपयोगी सूत्र लेखन ने पिरोये हैं.
निस्संदेह गागर में सागर की तरह महत्वपूर्ण यह कृति न केवल पाठकों के समय का सदुपयोग करती है अपितु आजीवन साथ देनेवाले ऐसे सूत्र थमती है जिनसे पाठक, उसके परिवार और साथियों का जीवन दिशा प्राप्त कर सकता है.
स्वायत्तशासी परोपकारी संगठन 'अस्मिता' मंदगति प्रशिक्षण एवं मानसिक स्वास्थ्य केंद्र, इंदिरानगर,लखनऊ १९९५ से मंदमति बच्चों को समाज की मुख्यधारा में संयोजित करने हेतु मानसोपचार (साइकोथोरैपी) शिविरों का आयोजन करती है. यह कृति इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे दूरस्थ जान भी लाभ ले सकते हैं. इस मानवोपयोगी कृति के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं.
२५.११.२०१४
***
छंद सलिला
प्रेमा छंद
*
यह दो पदों, चार चरणों, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं का छंद है. इसका पहला, दूसरा और चौथा चरण उपेन्द्रवज्रा तथा दूसरा चरण इंद्रवज्रा छंद होता है.
१. मिले-जुले तो हमको तुम्हारे हसीं वादे कसमें लुभायें
देखो नज़ारे चुप हो सितारों हमें बहारें नगमे सुनाये
*
२. कहो कहानी कविता रुबाई लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें सदा वही जो खुद भी सहा हो
*
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें बना न बातें भरमा रे!
२५.११.२०१३
***
मुक्तिका:
सबब क्या ?
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..

न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..

हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..

न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?

न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..

खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को भी 'सलिल' ठेंगा दिखाओ..
२५.११.२०१० 
***

रविवार, 29 जून 2025

जून २९, उष्ण कटिबन्ध, बुंदेली, सड़गोड़ासनी, चौपाई, दोहा, मुक्तिका, सरस्वती, तुलसी

सलिल सृजन जून २९
अंतर्राष्ट्रीय उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिक्स) दिवस
*
२०१६ में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा घोषित अंतर्राष्ट्रीय उष्णकटिबंधीय दिवस हर साल २९ जून को मनाया जाता है। यह दिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की अनूठी विशेषताओं और उनके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण भूमिका, सामने आने वाली चुनौतियों जैसे जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान के बारे में जागरूकता बढ़ाने का भी एक अवसर है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र पृथ्वी पर भूमध्य रेखा के आसपास का क्षेत्र है, जो कर्क रेखा (२३.४°N) और मकर रेखा (२३.४°S) के बीच स्थित है। इस क्षेत्र में पूरे वर्ष गर्म तापमान और उच्च आर्द्रता होती है, और इसमें दो मुख्य मौसम होते हैं: गीला और शुष्क। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र पृथ्वी की लगभग ३६% भूमि को कवर करते हैं और दुनिया की आधी से अधिक जैव विविधता का घर है।
***
तुलसी
तुलसी में गजब की रोगनाशक शक्ति है। विशेषकर सर्दी, खांसी व बुखार में यह अचूक दवा का काम करती है। इसीलिए भारतीय आयुर्वेद के सबसे प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता में कहा गया है।
- तुलसी हिचकी, खांसी,जहर का प्रभाव व पसली का दर्द मिटाने वाली है। इससे पित्त की वृद्धि और दूषित वायु खत्म होती है। यह दूर्गंध भी दूर करती है।
- तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली दिल के लिए लाभकारी, त्वचा रोगों में फायदेमंद, पाचन शक्ति बढ़ाने वाली और मूत्र से संबंधित बीमारियों को मिटाने वाली है। यह कफ और वात से संबंधित बीमारियों को भी ठीक करती है।
- तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली कफ, खांसी, हिचकी, उल्टी, कृमि, दुर्गंध, हर तरह के दर्द, कोढ़ और आंखों की बीमारी में लाभकारी है। तुलसी को भगवान के प्रसाद में रखकर ग्रहण करने की भी परंपरा है, ताकि यह अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही शरीर के अंदर पहुंचे और शरीर में किसी तरह की आंतरिक समस्या पैदा हो रही हो तो उसे खत्म कर दे। शरीर में किसी भी तरह के दूषित तत्व के एकत्र हो जाने पर तुलसी सबसे बेहतरीन दवा के रूप में काम करती है। सबसे बड़ा फायदा ये कि इसे खाने से कोई रिएक्शन नहीं होता है।
तुलसी की मुख्य जातियां- तुलसी की मुख्यत: दो प्रजातियां अधिकांश घरों में लगाई जाती हैं। इन्हें रामा और श्यामा कहा जाता है।
- रामा के पत्तों का रंग हल्का होता है। इसलिए इसे गौरी कहा जाता है।
- श्यामा तुलसी के पत्तों का रंग काला होता है। इसमें कफनाशक गुण होते हैं। यही कारण है कि इसे दवा के रूप में अधिक उपयोग में लाया जाता है।
- तुलसी की एक जाति वन तुलसी भी होती है। इसमें जबरदस्त जहरनाशक प्रभाव पाया जाता है, लेकिन इसे घरों में बहुत कम लगाया जाता है। आंखों के रोग, कोढ़ और प्रसव में परेशानी जैसी समस्याओं में यह रामबाण दवा है।
- एक अन्य जाति मरूवक है, जो कम ही पाई जाती है। राजमार्तण्ड ग्रंथ के अनुसार किसी भी तरह का घाव हो जाने पर इसका रस बेहतरीन दवा की तरह काम करता है।
मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी - मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी, जैसे मलेरिया में तुलसी एक कारगर औषधि है। तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा बनाकर पीने से मलेरिया जल्दी ठीक हो जाता है। जुकाम के कारण आने वाले बुखार में भी तुलसी के पत्तों के रस का सेवन करना चाहिए। इससे बुखार में आराम मिलता है। शरीर टूट रहा हो या जब लग रहा हो कि बुखार आने वाला है तो पुदीने का रस और तुलसी का रस बराबर मात्रा में मिलाकर थोड़ा गुड़ डालकर सेवन करें, आराम मिलेगा।
- साधारण खांसी में तुलसी के पत्तों और अडूसा के पत्तों को बराबर मात्रा में मिलाकर सेवन करने से बहुत जल्दी लाभ होता है।
- तुलसी व अदरक का रस बराबर मात्रा में मिलाकर लेने से खांसी में बहुत जल्दी आराम मिलता है।
- तुलसी के रस में मुलहटी व थोड़ा-सा शहद मिलाकर लेने से खांसी की परेशानी दूर हो जाती है।
- चार-पांच लौंग भूनकर तुलसी के पत्तों के रस में मिलाकर लेने से खांसी में तुरंत लाभ होता है।
- शिवलिंगी के बीजों को तुलसी और गुड़ के साथ पीसकर नि:संतान महिला को खिलाया जाए तो जल्द ही संतान सुख की प्राप्ति होती है।
- किडनी की पथरी में तुलसी की पत्तियों को उबालकर बनाया गया काढ़ा शहद के साथ नियमित 6 माह सेवन करने से पथरी मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाती है।
- फ्लू रोग में तुलसी के पत्तों का काढ़ा, सेंधा नमक मिलाकर पीने से लाभ होता है।
- तुलसी थकान मिटाने वाली एक औषधि है। बहुत थकान होने पर तुलसी की पत्तियों और मंजरी के सेवन से थकान दूर हो जाती है।
- प्रतिदिन 4- 5 बार तुलसी की 6-8 पत्तियों को चबाने से कुछ ही दिनों में माइग्रेन की समस्या में आराम मिलने लगता है।
- तुलसी के रस में थाइमोल तत्व पाया जाता है। इससे त्वचा के रोगों में लाभ होता है।
- तुलसी के पत्तों को त्वचा पर रगड़ दिया जाए तो त्वचा पर किसी भी तरह के संक्रमण में आराम मिलता है।
- तुलसी के पत्तों को तांबे के पानी से भरे बर्तन में डालें। कम से कम एक-सवा घंटे पत्तों को पानी में रखा रहने दें। यह पानी पीने से कई बीमारियां पास नहीं आतीं।
- दिल की बीमारी में यह अमृत है। यह खून में कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करती है। दिल की बीमारी से ग्रस्त लोगों को तुलसी के रस का सेवन नियमित रूप से करना चाहिए।
२९-.६.२०२५
***
जन-मन को भाई चौपाई/चौपायी :
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो। रामचरित मानस की रचना चौपाई छंद में ही हुई है।
चौपाई छंद पर चर्चा करने के पूर्व मात्राओं की जानकारी होना अनिवार्य है
मात्राएँ दो हैं १. लघु या छोटी (पदभार एक) तथा दीर्घ या बड़ी (पदभार २)।
स्वरों-व्यंजनों में हृस्व, लघु या छोटे स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा सभी मात्राहीन व्यंजनों की मात्रा लघु या छोटी (१) तथा दीर्घ, गुरु या बड़े स्वरों (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) तथा इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: मात्रा युक्त व्यंजनों की मात्रा दीर्घ या बड़ी (२) गिनी जाती हैं.
चौपाई छंद : रचना विधान-
चारपाई से हम सब परिचित हैं। चौपाई के चार चरण होने के कारण इसे चौपाई नाम मिला है। यह एक मात्रिक सम छंद है चूँकि इसकी चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान रहती है। चौपाई द्विपदिक छंद है जिसमें दो पद या पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु लघु या दोनों में गुरु) होती हैं। चौपायी के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पद में ३२ मात्राएँ होती हैं। चारों चरण मिलाकर चौपाई ६४ मात्राओं का छंद है। चौपाई के चारों चरणों के समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। चौपाई के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर चरण अपने में स्वतंत्र होता है। चौपाई के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं। अत: किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए। चौपाई के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं।
उदाहरण:
१. शिव चालीसा की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें.
जय गिरिजापति दीनदयाला । -प्रथम चरण
१ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
सदा करत संतत प्रतिपाला ।। -द्वितीय चरण
१ २ १ १ १ २ १ १ १ १ २ २ = १६१६ मात्राएँ
भाल चंद्रमा सोहत नीके। - तृतीय चरण
२ १ २ १ २ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
कानन कुंडल नाक फनीके।।
-चतुर्थ चरण
२ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
रामचरित मानस के अतिरिक्त शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्रयुक्त भाषा उस समय की बोलियों (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) है।
निम्न उदाहरण वर्त्तमान काल में प्रचलित खड़ी हिंदी के तथा समकालिक कवियों द्वारा रचे गये हैं।
२. श्री रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
सुबह-सुबह जब जगते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
३. श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
हर युग के इतिहास ने कहा।
भारत का ध्वज उच्च ही रहा।।
सोने की चिड़िया कहलाया।
सदा लुटेरों के मन भाया।।
४. शेखर चतुर्वेदी
मुझको जग में लानेवाले।
दुनिया अजब दिखनेवाले।।
उँगली थाम चलानेवाले।
अच्छा बुरा बतानेवाले।।
५. श्री मृत्युंजय
श्याम वर्ण, माथे पर टोपी।
नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी।।
हरित वस्त्र आभूषण पूरा।
ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा।।
६. श्री मयंक अवस्थी
निर्निमेष तुमको निहारती।
विरह –निशा तुमको पुकारती।।
मेरी प्रणय –कथा है कोरी।
तुम चन्दा, मैं एक चकोरी।।
७.श्री रविकांत पाण्डे
मौसम के हाथों दुत्कारे।
पतझड़ के कष्टों के मारे।।
सुमन हृदय के जब मुरझाये।
तुम वसंत बनकर प्रिय आये।।
८. श्री राणा प्रताप सिंह
जितना मुझको तरसाओगे।
उतना निकट मुझे पाओगे।।
तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो।
मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो।।
९. श्री शेषधर तिवारी
एक दिवस आँगन में मेरे।
उतरे दो कलहंस सबेरे।।
कितने सुन्दर कितने भोले।
सारे आँगन में वो डोले।।
१०. श्री धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
नन्हें मुन्हें हाथों से जब।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
११. श्री संजीव 'सलिल'
कितने अच्छे लगते हो तुम ।
बिना जगाये जगते हो तुम ।।
नहीं किसी को ठगते हो तुम।
सदा प्रेम में पगते हो तुम ।।
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम।
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम।।
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम।
बिल्ली से डर बचते हो तुम।।
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम।
चूजे भाई! रुचते हो तुम।।
अंतिम उदाहरण में चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) लिखी गयी है। यह एक अभिनव साहित्यिक प्रयोग है।
***
एक पत्र
"आदरणीया मंजूषा मन,
आप आचार्य संजीव 'सलिल' से चार वर्ष पूर्व मिलीं और इतना कुछ लिख डाला, हम दादा को विगत २५ वर्षों से
जानते हैं।
'लोकतंत्र का मकबरा' काव्य-संग्रह का लोकार्पण उन्होंने कृपाकर हमारे लखनऊ आवास पर आकर श्री गिरीश नारायण पाण्डेय, वरि०साहि० एवं तत्कालीन आयकर आयुक्त के कर-कमलों द्वारा लखनऊ नगर के साहित्य -कारों के बीच इं०अमरनाथ और इं० गोविन्दप्रसाद तथा इं०संतोष प्रकाश माथुर ,संयुक्त प्र०नि०सेतु निगम एवं अध्यक्ष 'अभियान' की उपस्थिति में कराया था।
बाद में वे इन्स्टीट्यूटशन्स आफ़ इन्जीनियर्स आफ़ इण्डिया आदि की पत्रिका से सम्बद्ध होकर हिन्दी की सेवा में अभूतपूर्व कार्य करते रहे।
नर्मदा विषयक उनके कार्य का सानी नहीं तो महादेवी वर्मा से प्राप्त आशीष जगत् विख्यात है।
हमने आचार्य संजीव 'सलिल' को सदैव की भाँति सरल, गम्भीर, स्मित हास्य-युक्त उनका व्यक्तित्व मोहित करता है।
आपने उनके विषय में जो भी कहा अक्षरश: सत्य है।"
-देवकी नन्दन'शान्त',साहित्यभूषण, 'शान्तम्',१०/३०/२,इन्दिरानगर, लखनऊ-२२६०१६(उ०प्र०), मो० 9935217841;8840549296
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के साथ मेरा संबंध वर्षों पुराना है। उनके साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 2003 में कर्णाटक के बेलगाम में हुई थी। सलिल जी द्वारा संपादित पत्रिका नर्मदा के तत्वावधान में आयोजित दिव्य अलंकरण समारोह में मुझे हिंदी भूषण पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस सम्मान समारोह में उन्होंने मुझे कुछ किताबें उपहार के रूप में दी थीं, जिनमें एक किताब मध्य प्रदेश के दमोह के अंग्रेजी प्रोफसर अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल संकलन Off and On भी थी। उस पुस्तक में संकलित अंग्रेजी ग़ज़लों से हम इतने प्रभावित हुए कि हमने उन ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। सलिल जी के प्रयास से हमें इसके लिए प्रोफसर अनिल जैन की अनुमति मिली और Off and On का हिंदी अनुवाद यदा-कदा शीर्षक पर जबलपुर से प्रकाशित भी हुआ। सलिल जी हमेशा उत्तर भारत के हिंदी प्रांत को हिंदीतर भाषी क्षेत्रों से जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। उनके इस श्रम के कारण BSF के DIG मनोहर बाथम की हिंदी कविताओं का संकलन सरहद से हमारे हाथ में आ गया। हिंदी साहित्य में फौजी संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति के कारण इस संकलन की कविताएं बेजोड़ हैं। हमने इस काव्य संग्रह का मलयालम में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक है 'अतिर्ति'। इस पुस्तक के लिए बढ़िया भूमिका लिखकर सलिल जी ने हमारा उत्साह बढ़ाया। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय बात है कि सलिल जी के कारण हिंदी के अनेक विद्वान, कवि,लेखक आदि हमारे मित्र बन गए हैं। हिंदी साहित्य में कवि, आलोचक एवं संपादक के रूप में विख्यात सलिल जी की बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी भाषा का गौरव बढ़ा है। उन्होंने हिंदी को बहुत कुछ दिया है। इस लिए हिंदी साहित्य में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। हमने सलिल जी को बहुत दूर से देखा है, मगर वे हमारे बहुत करीब हैं। हमने उन्हें किताबें और तस्वीरों में देखा है, मगर वे हमें अपने मन की दूरबीन से देखते हैं। उनकी लेखनी के अद्भुत चमत्कार से हमारे दिल का अंधकार दूर हो गया है। सलिल जी को केरल से ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
डॉ. बाबू जोसफ, वडक्कन हाऊस, कुरविलंगाडु पोस्ट, कोट्टायम जिला, केरल-686633, मोबाइल.09447868474
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मुक्तिका
*
सरला तरला विमला मति दे, शारद मैया तर जाऊँ
वीणा के तारों जैसे पल पल तेरा ही गुण गाऊँ
वाक् शब्द सरगम निनाद तू, तू ही कलकल कलरव है
कल भूला, कल पर न टाल, इस पल ही भज, कल मैं पाऊँ
हारा, कौन सहारा तुम बिन, तारो तारो माँ तारो
कुमति नहीं, शुचि सुमति मिले माँ, कर सत्कर्म तुझे भाऊँ
डगमग पग धर पगडंडी पर, गिर थक डर झुक रुकूँ नहीं
फल की फिक्र न कर, सूरज सम दे प्रकाश जग पर छाऊँ
पग प्रक्षालन करे सलिल, हो मुक्त आचमन कर सब जग
आकुल व्याकुल चित्त शांत हों, सबको तुझ तक ला पाऊँ
२९-६-२०२१
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धर्म सत्र
दोहा सलिला
*
मर्म धर्म का कर्म है, मत अकर्म लें मान।
काम करें निष्काम मन, तन प्रभु-अर्पित जान।।
*
माया ममता मोह को, कहें नहीं निस्सार।
संयम सहित विचारिए, कब कितना है सार।।
*
अन्य करें या ना करें, क्या यह सोचें आप।
वही आप अपनाए, जीवन हो निष्पाप।।
*
सत्य न जड़ होता कभी, चेतन बदले नित्य।
है असत्य में भी निहित, होता नित्यानित्य।।
*
जो केवल पद चाहते, करें नहीं कर्तव्य।
सच मानें होता नहीं, उनका कोई भविष्य।।
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२९-६-२०२०
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शारद वंदन
*
आरती करो, अनहद की करो, सरगम की, मातु शारद की,
आरती करो शारद की...
*
वसन सफेद पहननेवाली, हंस-मोर पर उड़नेवाली।
कला-ग्यान-विग्यान प्रदात्री, विपद हरो निज जन की।।
आरती करो शारद की...
*
महामयी जय-जय वीणाधर, जयगायनधर, जय नर्तनधर।
हो चित्रण की मूल मिटाओ, दुविधा नव सर्जन की।।
आरती करो शारद की...
*
भाव-कला-रस-ग्यान वाहिनी, सुर-नर-किन्नर-असुर भावनी।
दस दिश हर अग्यान, ग्यान दो,
मूल ब्रह्म-हरि-हर की।
आरती करो शारद की...
***
२९-६-२०२०
सड़गोड़ासनी:
बुंदेली छंद, विधान: मुखड़ा १५-१६, ४ मात्रा पश्चात् गुरु लघु अनिवार्य,
अंतरा १६-१२, मुखड़ा-अन्तरा सम तुकांत .
*
जन्म हुआ किस पल? यह सोच
मरण हुआ कब जानो?
*
जब-जब सत्य प्रतीति हुई तब
कह-कह नित्य बखानो.
*
जब-जब सच ओझल हो प्यारे!
निज करनी अनुमानो.
*
चलो सत्य की डगर पकड़ तो
मीत न अरि कुछ मानो.
*
देख तिमिर मत मूँदो नयना
अंतर-दीप जलानो.
*
तन-मन-देश न मलिन रहे मिल
स्वच्छ करेंगे ठानो.
*
ज्यों की त्यों चादर तब जब
जग सपना विहँस भुलानो.
२९.६.२०१८
***
समस्यापूर्ति
प्रदत्त पंक्ति- मैं जग को दिल के दाग दिखा दूँ कैसे - बलबीर सिंह।
*
मुक्तिका:
(२२ मात्रिक महारौद्र जातीय राधिका छंद)
मैं जग को दिल के दाग, दिखा दूँ कैसे?
अपने ही घर में आग, लगा दूँ कैसे?
*
औरों को हँसकर सजा सुना सकता हूँ
अपनों को खुद दे सजा, सजा दूँ कैसे?
*
सेना को गाली बकूँ, सियासत कहकर
निज सुत सेना में कहो, भिजा दूँ कैसे?
*
तेरी खिड़की में ताक-झाँक कर खुश हूँ
अपनी खिड़की मैं तुझे दिखा दूँ कैसे?
*
'लाइक' कर दूँ सब लिखा, जहाँ जो जिसने
क्या-कैसे लिखना, कहाँ सिखा दूँ कैसे?
२९-६-२०१७
* **
नीति का दोहा
व्याघ्रानां महत् निद्रा, सर्पानां च महद् भयम् ।
ब्राह्मणानाम् अनेकत्वं, तस्मात् जीवन्ति जन्तवः ।।
.
शेरों को नींद बहुत आती है, सांपों को डर बहुत लगता है, और ब्राह्मणों में एकता नही है, इसीलिए सभी जीव जी रहे है ।
.
नाहर को निंदिया बहुत, नागराज भयभीत।
फूट विप्र में हुई तो, गई जिंदगी जीत।। -सलिल
***
एक दस मात्रिक रचना
दशावातार छंद
*
चाँदनी में नहा
चाँदनी महमहा
रात-रानी हुई
कुछ दिवानी हुई
*
रातरानी खिली
मोगरे से मिली
हरसिंगारी ग़ज़ल
सुन गया मन मचल
देख टेसू दहा
चाँदनी में नहा
*
रंग पलाशी चढ़ा
कुछ नशा सा बढ़ा
बालमा चंपई
तक जुही मत मुई
छिप फ़साना कहा
चाँदनी में नहा
*
रचना-प्रतिरचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
अभय दान जो मांगा करते उन हाथों में शक्ति नहीं है
पाना है अधिकार अगर तो कमर बांध कर लड़ना होगा
कौन व्यवस्था का अनुयायी? केवल हम हैं या फिर तुम हो
अपना हर संकल्प हमीं को अपने आप बदलना होगा
मूक समर्थन कृत्य हुआ है केवल चारण का भाटों का
विद्रोहों के ज्वालमुखी को फिर से हमें जगाना होगा
रहे लुटाते सिद्धांतों पर और मानयताओं पर् अपना
सहज समर्पण कर दे ऐसा पास हमारे ह्रदय नहीं है
अपराधी है कौन दशा का ? जितने वे हैं उतने हम है
हमने ही तो दुत्कारा है मधुमासों को कहकर नीरस
यदि लौट रही स्वर की लहरें कंगूरों से टकरा टकरा
हम क्यों हो मौन ताकते हैं उनको फिर खाली हाथ विवश
अपनी सीमितता नजरों की अटकी है चौथ चन्द्रमा में
रह गयी प्रतीक्षा करती ही द्वारे पर खड़ी हुई चौदस
दुर्गमता से पथ की डरकर जो ्रहे नीड़ में छुपा हुआ
र्ग गंध चूमें आ उसको, ऐसी कोई वज़ह नहीं है
द्रोण अगर ठुकरा भी दे तो एकलव्य तुम खुद बन जाओ
तरकस भरा हुआ है मत का, चलो तीर अपने संधानो
बिना तुम्हारी स्वीकृति के अस्तित्व नहीं सुर का असुरों का
रही कसौटी पास तुम्हारे , अन्तर तुम खुद ही पहचानो
पर्वत, नदिया, वन उपवन सब गति के सन्मुख झुक जाते हैं
कोई बाधा नहीं अगर तुम निश्चय अपने मन में ठानो
सत्ताधारी हों निशुम्भ से या कि शुम्भ से या रावण से
बतलाता इतिहास राज कोई भी रहता अजय नहीं है.
***
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
बिना विचारे कदम उठाना, क्या खुद लाना प्रलय नहीं है?
*
सुर-असुरों ने एक साथ मिल, नर-वानर को तंग किया है
इनकी ही खातिर मर-मिटकर नर ने जब-तब जंग किया है
महादेव सुर और असुर पर हुए सदय, नर रहा उपेक्षित
अमिय मिला नर को भूले सब, सुर-असुरों ने द्वन्द किया है
मतभेदों को मनभेदों में बदल, रहा कमजोर सदा नर
चंचल वृत्ति, न सदा टिक सका एक जगह पर किंचित वानर
ऋक्ष-उलूक-नाग भी हारे, येन-केन छल कर हरि जीते
नारी का सतीत्व हरने से कब चूके, पर बने पूज्यवर
महाकाल या काल सत्य पर रहा अधिकतर सदय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
अपराधी ही न्याय करे तो निरपराध को मरना होगा
ताकतवर के अपराधों का दण्ड निबल को भरना होगा
पूँजीपतियों के इंगित पर सत्ता नाच नाचती युग से
निरपराध सीता को वन जा वनजा बनकर छिपना होगा
घंटों खलनायक की जय-जय, युद्ध अंत में नायक जीते
लव-कुश कीर्ति राम की गायें, हाथ सिया के हरदम रीते
नर नरेंद्र हो तो भी माया-ममता बैरन हो जाती हैं
आप शाप बन अनुभव पाता-देता पल-पल कड़वे-तीते
बहा पसीना फसल उगाए जो वह भूखा ही जाता है मर
लोभतंत्र से लोकतंत्र की मृत्यु यही क्या प्रलय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
कितना भी विपरीत समय हो, जिजीविषा की ही होगी जय
जो बाकी रह जायें वे मिल, काम करें निष्काम बिना भय
भीष्म कर्ण कृप द्रोण शकुनि के दिन बीते अलविदा उन्हें कह
धृतराष्ट्री हर परंपरा को नष्ट करे नव दृष्टि-धनञ्जय
मंज़िल जय करना है यदि तो कदम-कदम मिल बढ़ना होगा
मतभेदों को दबा नींव में, महल ऐक्य का गढ़ना होगा
दल का दलदल रोक रहां पथ राष्ट्रीय सरकार बनाकर
विश्व शक्तियों के गढ़ पर भी वक़्त पड़े तो चढ़ना होगा
दल-सीमा से मुक्त प्रमुख हो, सकल देश-जनगण का वक्ता
प्रत्यारोपों-आरोपों के समाचार क्या अनय नहीं है?
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
२९-६-२०१६
***
दोहे
वीणा की झंकार में, शब्दब्रम्ह है व्याप्त
कलकल ध्वनि है 'सलिल' की, वही सनातन आप्त
*
गौरैया चहचह करे, कूके कोयल मोर
सनसन चलती पवन में, छान्दसता है घोर
*
नाद ताल में, थाप में, छिपे हुए हैं छंद
आँख मूँद सुनिए जरा, पाएंगे आनंद
*
सुन मेघों की गर्जना, कजरी आल्हा झूम
कितनों का दिल लुट गया, तुझको क्या मालूम
*
मेंढक की टर-टर सुनो, झींगुर की झंकार
गति-यति उसमें भी बसी, कौन करे इंकार
*
सरगम सुना रही बरखा, हवा सुनाती छंद
दसों दिशाओं में छाया है, पल-पल नव आनंद
*
सूरज साथ खेलता रहता, धरती गाती गीत
नेह-प्रेम से गुंथी हुई है, आस-श्वास की रीत
२९-६-२०१५
***
दो कवि एक कुण्डलिया
नवीन चतुर्वेदी
दो मनुष्य रस-सिन्धु का, कर न सकें रस-पान
एक जिसे अनुभव नहीं, दूजा अति-विद्वान
संजीव
दूजा अति विद्वान नहीं किस्मत में हो यश
खिला करेला नीम चढ़ा दो खा जाए गश
तबियत होगी झक्क भांग भी घोल पिला दो
'सलिल' नवीन प्रयोग करो जड़-मूल हिला दो
२९-६-२०१५
***
बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
२९-६-२०१४
***
पद
छंद: दोहा.
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
२९.६.२०१२
***
गीत
कहे कहानी, आँख का पानी.
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
*
बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
*
पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
*
अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..
२९-६-२०१०
***