कुल पेज दृश्य

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

samiksha 'गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण'

पुस्तक चर्चा-
'गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण' अपनी मिसाल आप 
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पुस्तक विवरण- गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल', विधा- छंद शास्त्र, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २२ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य १९५/-, निरुपमा प्रकाशन ५०६/१३ शास्त्री नगर, मेरठ, ०१२१ २७०९५११, ९८३७२९२१४८, रचनाकार संपर्क- डी ११५ सूर्या पैलेस, दिल्ली मार्ग, मेरठ, ९४१००९३९४३। 
*
हिंदी-उर्दू जगत के सुपरिचित हस्ताक्षर डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' हरदिल अज़ीज़ शायर हैं। वे उस्ताद शायर होने के साथ-साथ, अरूज़ के माहिर भी हैं। आज के वक्त में ज़िन्दगी जिस कशमकश में गुज़र रही है, वैसा पहले कभी नहीं था। कल से कल को जोड़े रखने कि जितनी जरूरत आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लार्ड मैकाले द्वारा थोपी गयी और अब तक ढोई जा रही शिक्षा प्रणाली कि बदौलत ऐसी नस्ल तैयार हो गयी है जिसे अपनी सभ्यता और संस्कृति पिछड़ापन तथा विदेशी विचारधारा प्रगतिशीलता प्रतीत होती है। इस परिदृश्य को बदलने और अपनी जड़ों के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करने में साहित्य की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। ऐसे रचनाकार जो सृजन को शौक नहीं धर्म मानकर सार्थक और स्वस्थ्य रचनाकर्म को पूजा की तरह निभाते हैं उनमें डॉ. बेदिल का भी शुमार है।

असरदार लेखन के लिए उत्तम विचारों के साथ-साथ कहने कि कला भी जरूरी है। साहित्य की विविध विधाओं के मानक नियमों की जानकारी हो तो तदनुसार कही गयी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। गजल काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय वि धाओं में से एक है। बेदिल जी, ने यह सर्वोपयोगी किताब बरसों के अनुभव और महारत हासिल करने के बाद लिखी है। यह एक शोधग्रंथ से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। शोधग्रंथ विषय के जानकारों के लिए होता है जबकि यह किताब ग़ज़ल को जाननेवालों और न जाननेवालों दोनों के लिए सामान रूप से उपयोगी है। उर्दू की काव्य विधाएँ, ग़ज़ल का सफर, रदीफ़-काफ़िया और शायरी के दोष, अरूज़(बहरें), बहरों की किस्में, मुफरद बहरें, मुरक़्क़ब बहरें तथा ग़ज़ल में मात्रा गिराने के नियम शीर्षक अष्टाध्यायी कृति नवोदित ग़ज़लकारों को कदम-दर-कदम आगे बढ़ने में सहायक है।
एक बात साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी और उर्दू हिंदुस्तानी जबान के दो रूप हैं जिनका व्याकरण और छंदशास्त्र कही-कही समान और कहीं-कहीं असमान है। कुछ काव्य विधाएँ दोनों भाषा रूपों में प्रचलित हैं जिनमें ग़ज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण है। उर्दू ग़ज़ल रुक्न और बहारों पर आधारित होती हैं जबकि हिंदी ग़ज़ल गणों के पदभार तथा वर्णों की संख्या पर। हिंदी के कुछ वर्ण उर्दू में नहीं हैं तो उर्दू के कुछ वर्ण हिंदी में नहीं है। हिंदी का 'ण' उर्दू में नहीं है तो उर्दू के 'हे' और 'हम्ज़ा' के स्थान पर हिंदी में केवल 'ह' है। इस कारण हिंदी में निर्दोष दिखने वाला तुकांत-पदांत उर्दूभाषी को गलत तथा उर्दू में मुकम्मल दिखनेवाला पदांत-तुकांत हिन्दीभाषी को दोषपूर्ण प्रतीत हो सकता है। यही स्थिति पदभार या वज़न के सिलसिले में भी हो सकती है। मेरा आशय यह नहीं है कि हमेशा ही ऐसा होता है किन्तु ऐसा हो सकता है इसलिए एक भाषारूप के नियमों का आधार लेकर अन्य भाषारूप में लिखी गयी रचना को खारिज करना ठीक नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि विधा के मूल नियमों की अनदेखी हो। यह कृति गज़ल के आधारभूत तत्वों की जानकारी देने के साथ-साथ बहरों कि किस्मों, उनके उदाहरणों और नामकरण के सम्बन्ध में सकल जानकारी देती है। हिंदी-उर्दू में मात्रा न गिराने और गिराने को लेकर भी भिन्न स्थिति है। इस किताब का वैशिष्ट्य मात्रा गिराने के नियमों की सटीक जानकारी देना है। हिंदी-उर्दू की साझा शब्दावली बहुत समृद्ध और संपन्न है।
उर्दू ग़ज़ल लिखनेवालों के लिए तो यह किताब जरूरी है ही, हिंदी ग़ज़ल के रचनाकारों को इसे अवश्य पढ़ना, समझना और बरतना चाहिए इससे वे ऐसी गज़लें लिख सकेंगे जो दोनों भाषाओँ के व्याकरण-पिंगाल की कसौटी पर खरी उतरें। लब्बोलुबाब यह कि बिदिक जी ने यह किताब पूरी फराखदिली से लिखी है जिसमें नौसिखियों के लिए ही नहीं उस्तादों के लिए भी बहुत कुछ है। इया किताब का अगला संस्करण अगर अंग्रेजी ग़ज़ल, बांला ग़ज़ल, जर्मन ग़ज़ल, जापानी ग़ज़ल आदि में अपने जाने वालों नियमों की भी जानकारी जोड़ ले तो इसकी उपादेयता और स्वीकृति तो बढ़ेगी ही, गजलकारों को उन भाषाओँ को सिखने और उनकी ग़ज़लों को समझने की प्रेरणा भी मिलेगी।
डॉ. बेदिल इस पाकीज़ा काम के लिए हिंदी-उर्दू प्रेमियों की ओर से बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं। गुज़ारिश यह कि रुबाई के २४ औज़ानों को लेकर एक और किताब देकर कठिन कही जानेवाली इस विधा को सरल रूप से समझाकर रुबाई-लेखन को प्रोत्साहित करेंगे। 
***
समीक्षक संपर्क- २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ 
*****

navgeet

एक रचना: 
*
तुमने बुलाया 
और 
हम चले आये रे!! 
*
लीक छोड़ तीनों चलें
शायर सिंह सपूत
लीक-लीक तीनों चलें
कायर कुटिल कपूत
बहुत लड़े, आओ! बने
आज शांति के दूत
दिल से लगाया
और
अंतर भुलाये रे
! 
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
!! 
*
राह दोस्ती की चलें
चलो शत्रुता भूल
हाथ मिलाएँ आज फिर
दें न भेद को तूल
मिल बिखराएँ फूल कुछ
दूर करें कुछ शूल
जग चकराया
और
हम मुस्काये रे
! 
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
!! 
*
जिन लोगों के वक्ष पर
सर्प रहे हैं लोट
उनकी नजरों में रही
सदा-सदा से खोट
अब मैं-तुम हम बन करें
आतंकों पर चोट
समय न बोले
मौके
हमने गँवाये रे!

तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
!! 
*

navgeet

जनगीत : 
हाँ बेटा 
संजीव 

चंबल में 
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा!
.

कुण्डलिया, त्रिपदी, मुक्तक, दोहे,

दो कवि एक कुंडली 
नर-नारी 
*
नारी-वसुधा का रहा, सदा एक व्यवहार 
ऊपर परतें बर्फ कि, भीतर हैं अंगार -संध्या सिंह 
भीतर हैं अंगार, सिंगार न केवल देखें
जीवन को उपहार, मूल्य समुचित अवलेखें
पूरक नर-नारी एक-दूजे के हों आभारी
नर सम, बेहतर नहीं, नहीं कमतर है नारी - संजीव
*
एक त्रिपदी
वायदे पर जो ऐतबार किया
कहा जुमला उन्होंने मुस्काकर
रह गए हैं ठगे से हम यारों
*
मुक्तक
आप अच्छी है तो कथा अच्छी
बात सच्ची है तो कथा सच्ची
कुछ तो बोलेगी दिल की बात कभी
कुछ न बोले तो है कथा बच्ची
*
खुश हुए वो, जहे-नसीब
चाँद को चाँदनी ने ज्यों घेरा
चाहकर भूल न पाए जिसको
हाय रे! आज उसने फिर टेरा
*
सदा कीचड़ में कमल खिलता है
नहीं कीचड़ में सन-फिसलता है
जिन्दगी कोठरी है काजल की
नहीं चेहरे पे कोई मलता है
***
छंद न रचता है मनुज, छंद उतरता आप
शब्द-ब्रम्ह खुद मनस में, पल में जाता व्याप
हो सचेत-संजीव मन, गह ले भाव तरंग
तत्क्षण वरना छंद भी नहीं छोड़ता छाप
*
दोहे
उसने कम्प्यूटर कहा, मुझे किया बेजान
यंत्र बताकर छीन ली मुझसे मेरी जान
*
गुमी चेतना, रह गया होकर तू निर्जीव
मिले प्रेरणा किस तरह?, अब तुझको संजीव?
***

navgeet

नवगीत: 
संजीव

सांस जब 
अविराम चलती जा रही हो 
तब कलम 
किस तरह 
चुप विश्राम कर ले?
.
शब्द-पायल की
सुनी झंकार जब-जब
अर्थ-धनु ने
की तभी टंकार तब-तब
मन गगन में 

विचारों का हंस कहिए
सो रहे किस तरह
सुबह-शाम कर ले?
.
घड़ी का क्या है
टँगी थिर, 

मगर चलती
नश्वरी दुनिया
सनातन लगे, छलती
तन सुमन में 

आत्मा की गंध कहिए
खो रहे किस तरह
नाम अनाम कर ले?
.

navgeet

नवगीत:
संजीव।

सांताक्लाज!
बड़े दिन का उपहार 
न छोटे दिलवालों को देना
.
गुल-काँटे दोनों उपवन में
मधुकर कलियाँ खोज
दिनभर चहके गुलशन में ज्यों
आयोजित वनभोज
सांताक्लाज!
कभी सुख का संसार
न खोटे मनवालों को देना
.
अपराधी संसद में बैठे
नेता बनकर आज
तोड़ रहे कानून बना खुद
आती तनिक न लाज
सांताक्लाज!
करो जान पर उपकार
न कुर्सी धनवालों को देना
.
पौंड रहे मानवता को जो
चला रहे हथियार
भू को नरक बनाने के जो
नरपशु जिम्मेदार
सांताक्लाज!
महाशक्ति का वार
व लानत गनवालों को देना
.

कवितायेँ स्व. आचार्य श्यामलाल उपाध्याय

कुछ कवितायेँ
स्व. आचार्य श्यामलाल उपाध्याय, कोलकाता
*
१. कवि-मनीषी  
साधना संकल्प करने को उजागर
औ' प्रसारण मनुजता के भाव
विश्व-कायाकल्प का बन सजग प्रहरी
हरण को शिव से इतर संताप
मैं कवि-मनीषी.

अहं ईर्ष्या जल्पना के तीक्ष्ण खर-शर-विद्ध
लोक के श्रृंगार से अति दूर
बुद्धि के व्यभिचार से ले दंभ भर उर
रह गया संकुचित करतल मध्य
मैं कवि-मनीषी. 
२.  पथ-प्रदर्शक                                                            
मूल्य के आख्यानकों को कंठगत कर
'तत्त्वमसि' के ऋचा-सूत्रों को पचाया 
शुभ्र भगवा श्वेत के परिधान में
पा गया पद श्री विभूषित आर्य का
मैं पथ-प्रदर्शक.

कर्म की निरपेक्षता के स्वांग भर
विश्व के उत्पात का मैं मूल वाहक
द्वेष-ईर्ष्या-कलह के विस्फोट से
बन गया हिरोशिमा यह विश्व
मैं पथ प्रदर्शक.

पर न पाया जगत का वह सार
जिससे कर सकूँ अभिमान निज पर
लोक सम्मत संहिताओं से पराजित
पड़ा हूँ भू-व्योम मध्य त्रिशंकु सा
मैं पथ प्रदर्शक. 
***************
३.    उपेक्षा                                                                              
वसंत की तीव्र तरल
ऊर्जा के ताप से
शीत की बेड़ियों को तोड़कर
पल्लवित-पुष्पित हो रहे
अर्जुन-भीम ये पादप.

नई सृष्टि को उत्सुक,
अजस्र गरिमा को धारण किए
कर्ण औ' दधीचि बने
जोड़ते परंपरा को
सृष्टि के क्रम को
जिसकी उपेक्षा करता आ रहा
सदियों से आधुनिक मानव.
 ***************
४.        कुण्ठा
अस्पताल के पीछे                                                                    
दो दीवारों के बीच
पक्के धरातल पर
कूड़े के ढेर से झाँक रहे
कुछ हरी बोतल के टुकड़े
आधे युग की कमाई
जिस पर आम के अमोले,
बहाया और इमली
काट रहे जेल कि सजा
कुकुरमुत्तों के मध्य
यही जीवन-क्रंदन.
******************* 
५. शोध 
अनेक शोधों के अश्चत                                                                                    
शोध-मिश्रण निर्मित
मैं एक विटाप्लेक्स.
चाँदी के चमकते
चिप्पडों में बंद
केमिस्ट की शाला के
शेल्फ प् र्पदी
उत्सुक जानने को
अपनी एक्सपायरी डेट. 
***************

laghukatha

लघुकथा

एकलव्य

संजीव वर्मा 'सलिल'

*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'

- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'

- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'

-हाँ बेटा.'

- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****

रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप अनुविभागीय अधिकारी, मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के रूप में कार्यरत हैं।

***

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

समीक्षा- रामचंद्र प्रसाद कर्ण

कृति चर्चा:
शब्दांजलि : गीतिकाव्यमय भावांजलि 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: शब्दांजलि, काव्य संग्रह, रामचंद्र प्रसाद 'कर्ण', प्रथम संस्करण २०१७, आई एस बी एन ९७८९३८ ७१४९२०५, आकार २१ से. x  १३.५ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १०८, मूल्य १३०/-, लोकोदय प्रकाशन लखनऊ, कवि संपर्क शासकीय महाविद्यालय के पीछे, पाली परियोजना, डाकघर बिरसिंहपुर पाली, जिला उमरिया ४८४५५१]
*
"वाणी के सौंदर्य का, शब्द रूप है काव्य / मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।।" -पद्मभूषण पद्मश्री नीरज ने कवि होने को सौभाग्य कहा है। माँ वीणापाणी के चरणों में 'शब्दाँजलि' शीर्षक काव्यांजलि लेकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं श्री रामचंद्र प्रसाद कर्ण अपने पुरुषार्थ से भाग्य को सौभाग्य में बदलकर नर्मदांचल के कवि दरबार में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। रामचंद्र की पहचान संघर्षशीलता के साथ मर्यादा पालन के लिए है। पुण्य कर्मों का फल होता है। कर्ण अपने अचूक शरसंधान तथा दानशीलता के लिए कालजयी ख्याति प्राप्त है। शब्दांजलिकार के नाम में जिन तीन शब्दों का समावेश है, कृति में उनसे जुड़े तत्वों की छवि अन्तर्निहित है। अद्यावधि संघर्ष के पश्चात् आयु के ६७ वे वर्ष में प्रथम कृति का प्रकाशन कराना उनके पौरुष का प्रमाण है। कृति के आरम्भ में श्री गणेश, भवानी-शंकर, गुरु, सीता-राम, भारत माँ, तथा हिंदी का वंदन कर पारंपरिक मर्यादा का पालन कवि ने किया है। 

कविकुल गुरु गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस के श्लोकों से वंदनारंभ के साथ-साथ कवि तुलसी द्वारा जनकनंदिनी द्वारा जगजननी की वंदना "जय-जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद चकोरी" को  अंतर्मन में स्मरण कर अपने गृहस्थ जीवन में प्रसादवद प्राप्त जीवन संगिनी  शीला जी के शील को नमन करते हुए लिखता है- 'कमलवदन मुख चंद चकोरी / मृग नयनी शुभ-गात किशोरी।' कवि कर्ण प्रणय शर से बिद्ध हो प्रणय गीत, अभिसार, मेरा प्यार, तुम कितनी सुंदर लगती हो, चाँद और कमलिनी, नख-शिख, लट घुँघराली है, मुस्कुराती रही रात भर, मधुवन, मधुर मिलन आदि रचना-शरों से अचूक लक्ष्य वेध कर द्वैत से अद्वैत की राह पर पग धरते हैं। अपने नाम में प्रयुक्त तीनों शब्दों से न्याय करता कवि मिलन और विरह दोनों स्थितियों में रस-रास विहारी को स्मरण करना नहीं भूलता। 'वृंदावन की कुञ्ज गली अब / हरि बिन कछु न सोहात' लिखता महाकवि सूरदास और भ्रमर गीत से श्रोता-पाठक का तादात्म्य स्थापित कराता है। गगन के पार जाना चाहता हूँ, बसंत, मन-मयूरी तथा पनघट  में राधा-कृष्ण से तादात्म्य स्थापित करता कवि-लीलाविहारी नंदनंदन तथा लीलेश्वरी राधिका जी का सतत स्मरण करता है 'नंद के नंद पर सब बलिहारी / मति भयी 'कर्ण की भोरी / निरखत छवियाँ छवि मोहन की, संग वृषभान किशोरी'।  

कवि कर्ण की रचनाओं का द्वितीय सर्ग सामाजिक-राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण है। राष्ट्र वंदना, उद्बोधन, भारत वर्णन, नमन देश के वीरों को, वंदे मातरम, शत-शत प्रणाम, आवाहन, कारगिल से भारतीय सैनिकों का उद्घोष, विभिन्नता में एकता, शांति सन्देश, नील गगन लहराए तिरंगा, सद्भावना के फूल, दीप ऐसा जलाएँ, अंतिम प्रणाम,  घर वापस आ जाओ तुम, सीमा के प्रहरी आदि रचनाओं में राष्ट्रीयता का ज्वार उमड़ रहा है। ींरचनाओं में वीर और करुण रास का उद्वेग है। 

जन-जन का सहयोग चाहिए, देश से भ्रष्टाचार मिटायें, श्रमिक, मानवता के दर्पण को देखो,  संकट में हर पल नारी है, देश बहकर बनेगा कौन, अम्बर में आग लगा दी है, काँप उठे हैं धरा गगन, आओ मिलकर दीप जलाएँ,  कोसी का कहर, बिहार में बाढ़ का तांडव,  वृक्ष का रुदन, किसानों की दुर्दशा, आतंकवाद का प्रवेश, कांधार विमान अपहरण काण्ड,  जनतंत्र की रानी दिल्ली, संसद संवाद, सामाजिक दुर्दशा, आज के नेता, जनता के रखवाले   जैसी कविताओं में राष्ट्र के सम्मुख खतरों से सचेत करते हुए कवि ने राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य में व्याप्त विसंगतियों से उत्पन्न हो रहे खतरों से सचेत करने के साथ जनगण को कर्तव्य बोध भी कराया है। 

नयी दिशा की ओर चलो, शौर्य गाथा, स्वच्छता अभियान, स्वच्छता का अश्वमेध साक्षी हैं की कवी चुनातियों और विसंगतियों से निराश नहीं है। वह यथार्थ की आँख में आँख डालकर देश के जनगण पर पूर्ण विश्वास रखकर राष्ट्रनिर्माण के प्रति सजग, सतर्क और सचेत है। कवि कर्ण अपने सारस्वत अनुष्ठान में कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं। वे भावनाओं के कवि हैं। उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द सम्पदा यथेष्ट है। वे प्रांजल हिंदी, दैनिक जीवन में प्रयुक्त हो रही भाषा तथा ग्राम्यांचलों में प्रयुक्त देशज भाषा तीनों का व्यवहार समान कुशलता के साथ कर पाते हैं। कहावतें जीवन का सत्य कहती हैं। 'घर की मुर्गी दाल बराबर', 'घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध' आदि का निहितार्थ यही है कि अत्यंत समीप की वस्तु की अपेक्षा दूर की वास्तु अधिक ध्यानाकर्षित करती है। कवि कर्ण कोयला खदान परियोजना में सेवा करते हुए जीवन गुजारा है।कोयला खदान परियोजनाएं अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं। वनों-पहाड़ों का क्षरण, अंधाधुंध खुदाई, श्रमिकों की सुरक्षा और आजीविका के संकट, पर्यावरण प्रदूषण, दुर्घटनाएँ आदि अनेक बार राष्ट्रीय चिंता का विषय बने हैं किंतु एक भी रचना में इन्हें स्थान नहीं मिला है। कवि की चिंता उन क्षेत्रों के प्रति अधिक है जहाँ वह कभी नहीं गया। 

कृति का आवरण आकर्षक है। अलंकारों, बिंबों, प्रतीकों और कहीं-कहीं मिथकों का प्रयोग पठनीयता में वृद्धि करता है। कुछ त्रुटियाँ खीर में कंकर की तरह हैं। 'गंधर्व' के स्थान पर 'गंर्धव', 'द्वंद' के स्थान पर 'दवंदव', खड़ी बोली की पंक्तियों में देशज क्रिया रूप, 'लघु सूर्य सा बिंदी सजाया' में लिंग दोष आदि से बचा जा सकता था। चन्द्रमा के दाग की तरह इन त्रुटियों की और ध्यान न दें तो कवि कर्ण की कविताएँ पठनीय, माननीय, विचारणीय और स्मरणीय भी हैं। इन रचनाओं से प्रेरित होकर किशोर और तरुण ही नहीं युवा और प्रौढ़ भी अपने कर्तव्य की अनुभूति कर, दायित्व निर्वहन के पथ पर पग बढ़ा सकते हैं। कवि और कविता युग साक्षी और युग निर्माता कहे गए हैं। शब्दांजलि की रचनाएँ इन दोनों भूमिकाओं में देखी जा सकती हैं। कवि की चेतना उनसे और अधिक परिपक्व कृतियों की प्राप्ति के प्रति आश्वस्ति भाव जगाती है। शब्दांजलि और शब्दांजलिकार कवि कर्ण की लोकप्रियता में अभिवृद्धि  हेतु मंगलकामनाएँ हैं।
=========   
संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
---------------
   

muktak

मुक्तक:
*
दे रहे सब कौन सुनता है सदा?
कौन किसका कहें होता है सदा?
लकीरों को पढ़ो या कोशिश करो-
वही होता जो है किस्मत में बदा।
*
ठोकर खाएँ लाख नहीं हम हार मानते।
कारण बिना न कभी किसी से रार ठानते।।
अपनी कुटिया का छप्पर भी प्यारा लगता-
संगमर्मरी ताजमहल को हम न जानते।।
*
तम तो पहले भी होता था, ​अब भी होता है।
यह मनु पहले भी रोता था, अब रोता है।।
पहले थे परिवार, मित्र, संबंधी उसके साथ-
आज न साया संग इसलिए धीरज खोता है।।
*
२२.१२.२०१८
============
एक रचना :
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो 
*
तुम ही नहीं सयाने जग में 
तुम से कई समय के मग में
धूल धूसरित पड़े हुए हैं
शमशानों में गड़े हुए हैं
अवसर पाया काम करो कुछ
मिलकर जग में नाम करो कुछ
रिश्वत-सुविधा-अहंकार ही
झिल रहे हो, झेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
दलबंदी का दलदल घटक
राजनीति है गर्हित पातक
अपना पानी खून बतायें
खून और का व्यर्थ बहायें
सच को झूठ, झूठ को सच कह
मैली चादर रखते हो तह
देशहितों की अनदेखी कर
अपनी नाक नकेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
२२.१२.२०१७ 
============
मुक्तक
*
जब बुढ़ापा हो जगाता रात भर
याद के मत साथ जोड़ो मन इसे.
प्रेरणा, जब थी जवानी ली नहीं-
मूढ़ मन भरमा रहा अब तू किसे?
*
२२.१२.२०१६ 
=================
मुक्तिका:
नए साल का अभिनन्दन
अर्पित है अक्षत-चन्दन
तम हरने दीपक जलता
कब कहता है लगी अगन
कोशिश हार न मानेगी
मरु को कर दे नंदन वन
लक्ष्य वही वर पाता है
जो प्रयास में रहे मगन
बाधाओं को विजय करे
दृढ़ हो जिसका अंतर्मन
गिर मत रुक, उठ आगे बढ़
मत चुकने दे 'सलिल' लगन
बंदूकों से 'सलिल' न डर
जीता भय पर सदा अमन
*
धूप -छाँव:
गुजरे वक़्त में कई वाकये मिलते हैं जब किसी साहित्यकार की रचना को दूसरे ने पूरा किया या एक की रचना पर दूसरे ने प्रति-रचना की. अब ऐसा काम नहीं दिखता। संयोगवश स्व. डी. पी. खरे द्वारा गीता के भावानुवाद को पूर्ण करने का दायित्व उनकी सुपुत्री श्रीमती आभा खरे द्वारा सौपा गया। किसी अन्य की भाव भूमि पर पहुँचकर उसी शैली और छंद में बात को आगे बढ़ाना बहुत कठिन मशक है।धूप-छाँव में हेमा अंजुली जी के कुछ पंक्तियों से जुड़कर कुछ कहने की कोशिश है। आगे अन्य कवियों से जुड़ने का प्रयास करूंगा ताकि सौंपे हुए कार्य के साथ न्याय करने की पात्रता पा सकूँ. पाठक गण निस्संकोच बताएँ कि पूर्व पंक्तियों और भाव की तारतम्यता बनी रह सकी है या नहीं? हेमा जी को उनकी पंक्तियों के लिये धन्यवाद।
हेमा अंजुली
इतनी शिद्दत से तो उसने नफ़रत भी नहीं की ....
जितनी शिद्दत से हमने मुहब्बत की थी.
.
सलिल:
अंजुली में न नफरत टिकी रह सकी
हेम पिघला फिसल बूँद पल में गयी
साथ साये सरीखी मोहब्बत रही-
सुख में संग, छोड़ दुख में 'सलिल' छल गयी
*
हेमा अंजुली
तुम्हारी वो एक टुकड़ा छाया मुझे अच्छी लगती है
जो जीवन की चिलचिलाती धूप में
सावन के बादल की तरह
मुझे अपनी छाँव में पनाह देती है
.
सलिल
और तुम्हारी याद
बरसात की बदरी की तरह
मुझे भिगाकर अपने आप में सिमटना
सम्हलना सिखा आगे बढ़ा देती है।
*
हेमा अंजुली
कभी घटाओं से बरसूँगी ,
कभी शहनाइयों में गाऊँगी।
तुम लाख भुलाने कि कोशिश कर लो,
मगर मैं फिर भी याद आऊँगी।।
.
सलिल
लाख बचाना चाहो
दामन न बचा पाओगे
राह पर जब भी गिरोगे
तुम्हें उठाऊँगी।।
*
हेमा अंजुली
छाने नही दूँगी मैं अँधेरों का वजूद।
अभी मेरे दिल के चिराग़ बाकी हैं.
सलिल
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे ।
रूह में झाँक के देखो कि आग बाकी है 
*
हेमा अंजुली
सूरत दिखाने के लिए तो
बहुत से आईने थे दुनिया में
काश कि कोई ऐसा आईना होता
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण
बस इसलिए ही आईना सूरत रहा है देख
*
मुक्तक:
मन-वीणा जब करे ओम झंकार
गीत हुलास कर खटकाते हैं द्वार
करे संगणक स्वागत टंकण यंत्र-
सरस्वती मैया की जय-जयकार
२२.१२.२०१४ 
===============

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

नवगीत

नवगीत:
कैसे पाएँ थाह?
*
ठाकुर हों या
ठकुराइन हम
दौंदापेली चाह।
बात नहीं सुनते औरों की
कैसे पाएँ थाह?
*
तीसमार खाँ मानें खुदको
दिखा और के दोष।
खुद में हैं दस गुना, न देखें
बने दोष का कोष।।
अपनी गलती छिपा अन्य की
खींच रहे हैं टाँग।
गर्दभ होकर, खाल ओढ़ ली
धरें शेर की स्वांग।।
चीपों-चीपों बोले ज्यों ही
मिली न कहीं पनाह।
*
कानी टेंट न देखे अपनी,
मठाधीश बन भौंके।
टाँग खींचती है जिस-तिस की
शारद-पिंगल चौंके।
गीत विसंगति के गाते हैं
विडंबना आराध्य।
टूट-फूट के नकली किस्से
दर्द हुआ क्यों साध्य?
ठूँस पेट भर,
गीत दर्द के
गाते पाले डाह।
*
नवगीतों में स्यापा ठूँसा,
व्यंग्य लेख रूदाली।
शोकांजलि लघुकथा बताते
विघटन खाम-खयाली।।
टूट रहे परिवार, न रिश्ते-
नातों की है खैर।
कदाचार कर पाल रहे हैं,
खुद से खुद ही बैर।।
आग लगा मानव-मूल्यों में
कहें मिटा दाह।
***
19.12.2018

दण्डक छंद सलिला 
जिस काव्य रचना की प्रत्येक पंक्ति में २६ से अधिक अर्थात २७ या अधिक वर्ण, सामान्य गणों के साथ हों उन्हें दण्डक छंद कहते हैं। दण्डक छंद की प्रत्येक पंक्ति सस्वर पढ़ते समय सांस भर जाती है। दंडक छंदों के २ प्रकार साधारण दण्डक (गणबद्ध) और मुक्तक दंडक (गण-बंधन मुक्त, लघु-गुरु विधान सहित) हैं।  

साधारण दण्डक के ८ पारंपरिक प्रकार चंडवृष्टिप्रपात (२ नगण + ७ रगण), मत्तमातंगलीलाकर (९ या अधिक रगण), कुसुमस्तावक (९ या अधिक सगण), सिंहविक्रीड़ (९ या अधिक यगण), शालू (तगण + ८ नगण + लघु-गुरु), त्रिभंगी ( ६ नगण + २ सगण + भगण + मगण + सगण + गुरु ),  अशोक पुष्प मंजरी (नीलचक्र ३०, सुधानिधि ३२ गुरु-लघु वर्ण), तथा अनंगशेखर (महीधर २८ लघु-गुरु वर्ण) हैं। 

मुक्तक दण्डक के ९ पारंपरिक प्रकार  (अ. ३१ वर्णीय) मनहरण, जनहरण, कलाधर (आ. ३२ वर्णीय) रूप घनाक्षरी, जलहरण, डमरू, कृपाण, विजया तथा (इ. ३३ वर्णीय) देव घनाक्षरी हैं। 
चंडवृष्टिप्रपात छंद 
जाति: २७ वर्णीय दण्डक जातीय।    
गण सूत्र: २ नगण + ७ रगण = ननसतर। 
आंकिक सूत्र: १११ १११ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ = २७ वर्ण। 
छंद लक्षण: प्रति पंक्ति २७ वर्ण, २ (१११) + ७ (२१२)। सामान्यत: ४ पंक्तियाँ, पदांत २-२ पंक्तियों में सम पदांत।
लक्षण छंद: 
नन सतर न भूलना रे!, बनें चण्ड वर्षा तभी, छंद गाओ सदा झूम के। 
कम न अधिक तौलना रे!, करें काम पूरा अभी, प्रीत पाओ प्रिया चूम के।।
धरणि-गगन हैं सँगाती, रहें साथ ही साथ वे, हेरते हैं सदा दूर से। 
धरम-करम है सहारा, करें काम हो नाम भी, जो न मानें जिएं सूर से।।    
उदाहरण: 
१. सरस सरल गीत गा रे!, सुनें लोग ताली बजा, गीत तेरा करें याद वे। 
    सहज सुखद बोल बोले, गुनें नित्य बातें सदा, भोर तेरी करें याद वे।। 
    अजर अमर कौन होता, सभी जन्म लें जो मरें, देवता भी धरा से गए।
    'सलिल' अमिय भूल जा रे!,गले धार ले जो मिले, जो मरे हैं वही तो जिए।।
=============
प्रचित छंद 
'ननसतर' वृत्त में एक या अधिक 'रगण' जोड़ने से अनेक छंद बनते हैं जिन्हें प्रचित छंद कहा जाता है। छंदप्रभाकरकार ने सात प्रचित छंद अर्ण (२ नगण + ८ रगण), अर्णव (२ नगण + ९ रगण), ब्याल (२ नगण + १० रगण), जीमूत (२ नगण + ११ रगण), लीलाकर (२ नगण + १२ रगण), उद्दाम (२ नगण + १३ रगण) तथा शंख (२ नगण + १४ रगण) का उल्लेख किया है। 
सिंहविक्रांत छंद 
२ नगण एवं  ७ या अधिक यगण के मेल से बने दण्डक छंदों को 'सिंहविक्रांत' छंद कहा गया है। 

   

यमकीय दोहे

यमकीय दोहे  : 
'माँग भरें' वर माँगकर, गौरी हुईं प्रसन्न 
वर बन बौरा माँग भर, हुए अधीन- न खिन्न 
*
तिल-तिल कर जलता रहा, तिल भर किया न त्याग 
तिल-घृत की चिंताग्नि की, सहे सुयोधन आग
*
चमक कैमरे ले रहे, जहाँ-तहाँ तस्वीर
दुर्घटना में कै मरे,जानो कर तदबीर
*
घट ना फूटे सम्हल जा, घट ना जाए मूल 
घटना यदि घट जाए तो, व्यर्थ नहीं दें तूल
*
बख्शी को बख्शी गयी, जैसे ही जागीर
थे फकीर कहला रहे, पुरखे रहे अमीर
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल 
न मन न तन हो समन्वित, तो चुभता है शूल
*
ठाकुर जी सिर झुकाकर, करते नम्र प्रणाम 
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
गए दवाखाना तभी, पाया यह संदेश 
भूल दवा खाना गए, खा लें था निर्देश
*
मन उन्मन मत हो पुलक, चल चिलमन के गाँव
चिलम न भर चिल रह 'सलिल', तभी मिले सुख-छाँव
*
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक पीछे भाग 
ना ज्यादा अनुराग रख, ना हो अधिक विराग
*

नवगीत

एक रचना 
भीड़ में
*
नाम के रिश्ते कई हैं
काम का कोई नहीं
भोर के चाहक अनेकों
शाम का कोई नहीं
पुरातन है
हर नवेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
गलत को कहते सही
पर सही है कोई नहीं
कौन सी है आँख जो
मिल-बिछुड़कर कोई नहीं
पालता फिर भी
झमेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
जागती है आँख जो
केवल वही सोई नहीं
उगाती फसलें सपन की
जो कभी बोईं नहीं
कौन सा संकट
न झेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

व्यंग्य विधा

लेख: 
विधा में व्यंग्य या व्यंग में विधा 
संजीव 
व्यंग्य का जन्म समकालिक विद्रूपताओं से जन्मे असंतोष से होता है। व्यंग्य एक अलग विधा है या वह किसी भी विधा के भीतर सार या प्रवृत्ति (स्पिरिट) के रूप में उपस्थित रहता है, या विमर्श का विषय है। व्यंग्य के माध्यम से व्यंग्यकार जीवन की विसंगतियों, खोखलेपन और पाखंड को उद्घाटित कर उन पर प्रहार करता है। जान सामान्य उन विसंगतियों से परिचित होते हुए भी उन्हें मिटाने की कोशिश न कर, विद्रूपताओं-विसंगतियों से समझौता कर जीते जाते हैं। व्यंग्य रचनाओं के पात्र और स्थितियाँ इन अवांछित स्थितियों के प्रति पाठकों को सचेत करती हैं। ‘व्यंग्य’ में सामाजिक विसंगतियों का चित्रण सीधे-सीधे (अभिधा में) न होकर परोक्ष रूप से (व्यंजना या कटूक्ति) से होता है। इसीलिए व्यंग्य में मारक क्षमता अधिक होती है। 

व्यंग्य का हास्य से क्या संबंध है? वह एक स्वतंत्र विधा है या सकल विधाओं में व्याप्त रहने वाली भावना या रस? वह मूलतः गद्यात्मक है या पद्यात्मक? वह समय बिताऊ लेखन है या गंभीर वैचारिक कर्म? क्या व्यंग्यकार के लिए प्रतिबद्धता अनिवार्य है? प्रतिबद्धता क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर पाठकों और समीक्षकों को ही नहीं, व्यंग्यकारों को भी स्पष्ट नहीं हैं।  हरिशंकर परसाई व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। रवींद्रनाथ त्यागी पहले व्यंग्य को विधा मानते थे, बाद में मुकर गए। शरद जोशी व्यंग्य को विधा मानते हुए भी कहने में हिचकते थे। नरेंद्र कोहली व्यंग्य को विधा मानते हैं और कहते भी हैं। कुछ व्यंग्यकार हास्य को व्यंग्य के लिए आवश्यक नहीं मानते, कुछ हास्य के बिना व्यंग्य का अस्तित्व नहीं मानते। 

हिंदी में कबीर व्यंग्य के आदि प्रणेता मान्य हैं। उन्होंने मध्यकाल की सामाजिक विसंगतियों (जाति-भेद, धर्माडंबर, गरीबी-अमीरी, रूढ़िवादिता आदि) पर व्यंग्यपूर्ण शैली में मारक प्रहार किए। 'मूँद मुड़ाए हरी मिले, सब कोउ ले मुड़ाय / बार-बार के मूड़ते, भेद न बैकुंठ जाय, कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई चुनाय / ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय, पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूज पहार / ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार'आदि अनेक उद्धरण कबीर की बेधक व्यंग्य-क्षमता के प्रमाण हैं। उत्तर-मध्यकालीन सामंती समाज ने निहित स्वार्थों के कारण कबीर जैसे संतों के समाज-बोध को नकार दिया। फलत:, रीतिकाल में व्यंग्य रचनाओं की उपस्थिति नगण्य रही। 

कबीर के बाद भारतेंदु ने सामाजिक विषमताओं के संकेतन हेतु व्यंग्य को हथियार बनाया। 'हाय! मनुष्य क्यों भये, हम गुलाम वे भूप।' में औपनिवेशिक भारत की मूल समस्या गुलामी पर प्रहार है। ‘अंधेर नगरी’ और ‘मुकरियों’ में गुलाम भारत की विडंबनापूर्ण परिस्थितियों, अंग्रेजी साम्राज्यवादजनित शोषण के प्रति आक्रोश केंद्र में है। भारतेंदु के समकालिक व्यंग्यकार प्रेमघन की कृति ‘हास्यबिंदु’ और प्रतापनारायण मिश्र के निबंधों में व्यंग्य सहायक प्रवृत्ति के रूप में है। व्यंग्य का पूर्ण उन्मेष पश्चातवर्ती व्यंग्य रचनाकार बालमुकुंद गुप्त की रचनाओं 'शिवशंभू का चिट्ठा' आदि में है। राजनीति और तत्कालीन शासन-व्यवस्था से टकराव इन व्यंग्य रचनाओं के मूल में हैं। यूरोप में दांते की लैटिन में लिखी किताब डिवाइन कॉमेडी मध्यकालीन व्यंग्य का उदाहरण है, जिसमें तत्कालीन व्यवस्था का मज़ाक उड़ाया गया था। व्यंग को मुहावरे मे व्यंग्यबाण कहा गया है।
आज व्यंग्य-लेखन आवश्यक माध्यम के रूप में उभरा है, रचनात्मक-संवेदनात्मक स्तर पर व्यंग्य की लोकप्रियता और माँग चरम पर है, किंतु अधिक मात्रा और अल्पसूचना (शॉर्ट नोटिस) पर लिखे जाने के कारण उसकी गुणवत्ता प्रभावित होने का भारी खतरा है। व्यंग्य का विवेकसंगत प्रयोग आवश्यक है। हर जगह इसका उपयोग नहीं किया जा सकता। व्यंग्य किसी के पक्ष में होता है तो किसी के विरुद्ध। व्यंग्य विचार से पैदा होता है और विचार को पैदा भी करता है। इस वैचारिकता से दिशा ग्रहणकर मानवता के हित में व्यंग्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष सुनिश्चित करना आज व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कर्तव्य और उसके समक्ष उपस्थित गंभीर चुनौती भी है। युगीन समस्याओं पर व्यंग्य करने की प्रवृत्ति प्रेमचंद की कहानियों व उपन्यासों में आम आदमी और कृषक वर्ग की दैनंदिन कठिनाइयों पर करारे व्यंग्य के रूप में है। निराला की ‘कुकुरमुत्ता’ आदि रचनाओं में व्यंग्य की अभिव्यक्ति विद्रूपता फैलानेवाले समाज के खिलाफ चुनौती के रूप में है। स्वतंत्रता-पूर्व के रचनाकारों में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और रांगेय राघव के व्यंग्य में धार नहीं है। 
स्वतंत्र होकर सामान्य जन खुशहाली के सपने देखने लगा किंतु विपरीत परिस्थितियों और राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण भारत में समाज, राजनीति, धर्म, शिक्षा, आदि सभी क्षेत्रों में असंगतियाँ बढ़ी हैं। सामाजिक-नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है। आम आदमी के लिए शांतिपूर्वक जीवन जीने के अवसर कम हुए हैं। सत्य, सदाचरण, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा आदि शाश्वत मूल्य समाप्त प्राय हैं। आजादी पूर्व के स्वप्न बीसवीं शताब्दी के छठे दशक तक खण्डित हो गए। शोषण व अत्याचार आजादी के बाद घटने के बजाय बढ़ गया। वैयक्तिक और सामाजिक अंतर्विरोध बढ़े, व्यक्ति निजी स्वार्थ तक सीमित रह गया। ये विसंगतियाँ और जटिलताएँ व्यंग्य की आधार-भूमि बनीं, करुणापूर्ण व्यंग्य लेखन की परंपरा बनीं। इस परंपरा के प्रतिनिधि रचनाकार हरिशंकर परसाई की स्वतंत्र भारत में पनपी विसंगतियों के प्रामाणिक शब्द-चित्र हैं। इनका आकलन समकालिक भारत की यथार्थ स्थितियों के संदर्भ में ही संभव है। परसाई ने सामाजिक स्थितियों को  वैचारिक चिंतन से पुष्ट कर प्रस्तुत किया। स्वतंत्र भारत के सकारात्मक-नकारात्मक सभी पहलुओं की बखूबी पड़ताल करती परसाई की रचनाओं में शोषकों के तिलिस्म में कैद-पीड़ित भारत की छटपटाहट अनुभव की जा सकती है। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सतर्क वैज्ञानिक दृष्टि के कारण परसाई छद्म के उन रूपों को आसानी से पहचानते हैं जिन तक सामान्यतः रूढ़िवादी दृष्टि नहीं पहुँच पाती। निजी अनुभूतियों की निर्वैयक्तिक अभिव्यक्ति उनके व्यंग्य लेखन की विशेषता है। वे निम्नवर्गीय सामान्य आदमी से बहुराष्ट्रीय समस्याओं तक को अपने भीतर समेटकर व्यंग्य के माध्यम से सृजन व संहार एक साथ करते हैं। परसाई का व्यंग्य जब शोषक वर्ग के प्रति घृणा और आक्रोश तथा व्यंग्य अभावग्रस्त व्यक्ति के प्रति करुणा पैदा करता है। परसाई के व्यंग्य की भाषा सप्रयास नहीं है। उनके अनुसार समाज में रहने के कारण वह हमें अनुभव देता है और विषयानुरूप नई भाषा सिखाता है। परसाई की भाषा उनके कथ्य का अनुसरण करती हैं।
शरद जोशी एक अलग भाषाई तेवर के साथ, शिल्प के प्रति सजग रहकर, भाषिक-वक्रता व शब्दों-विशेषणों के विशिष्ट संयोजन से समृद्ध व्यंग्य लिखते हैं। श्रीलाल शुक्ल के व्यंग उपन्यास ‘रागदरबारी’ में मोहभंग की स्थितियोन का सच सजीव हुआ है। रवींद्रनाथ त्यागी का हास्य-व्यंग्य मिश्रित आत्मपरक लेखनन सिर्फ पाठक को प्रफुल्लित करता है बल्कि उसे सोचने के लिए बाध्य भी करता है लतीफ घोंघी के व्यंग्य में राजनीतिक व सामाजिक यथार्थ, उर्दू मिश्रित भाषा, कथ्य की व्यापकता  व मारकता की कमी है। वे नारी-शोषण, कालाबाज़ारी, भुखमरी, शैक्षिक-साहित्यिक गड़बड़ियों तथा आमजन की दैनिक परेशानियों पर लिखते हैं।  
सामाजिक मूल्यों के विघटन को केंद्र में रखकर समकालीन साहित्यिक परिदृष्य में व्यंग्य का लगातार सृजन हो रहा है। भाषा के विकास के साथ ही व्यंग्य का जन्म हुआ। रोजमर्रा के जीवन में बात करते समय व्यंग्य ‘किया’ जाता है, ‘कसा’ जाता है, ‘मारा’ जाता है, व्यंग्य-बाण चलाया’जाता है। व्यंग्य बोलचाल की भाषा में होते हुए भी साहित्य से बहुत बाद में जुड़ा। सबका हित समाहित करते साहित्य और विरोधाभासों का उपहास कर, पाखण्ड पर चोट करते व्यंग्य की प्रवृत्तियाँ परस्पर विरोधी हैं। साहित्यकार समाज में व्याप्त विसंगतियों, विद्रूपों, पाखंड का सामाजिक दवाबों या राजनैतिक कारणों से विरोध न कर सके तो उन्हें व्यंग्य के माध्यम से साहित्य में व्यक्त करता है। व्यंग्य में व्यंजना आवश्यक है। व्यंग्य कहकर भी नहीं कहता तथा बिना कहे ही कह देता है। व्यंग्य की इसी शक्ति का फ़ायदा उठाकर श्रीलाल शुक्ल, सरकारी सेवा में रहते हुए भी “राग-दरबारी” लिख सके। व्यंग्य वैचारिक स्वतंत्रता का पर्याय है। वैचारिक स्वतंत्रता न हो तो साहित्यिकता की रक्षा करते हुए साहित्यकार व्यंग्य परोसता है किंतु वैचारिक स्वतंत्रता सुलभ होने पर साहित्यकार सेअच्छन्द हो, व्यंग्य का दुरुपयोग कर गाली-गलौज पर उतर आता है। वह भूल जाता है कि समाज के विद्रूप की आलोचना के लिए व्यंग किया जाता है, न कि प्रश्रय देने के लिए। व्यंग्य के साथ 'हास्य' और 'विनोद' मिलकर 'व्यंग्य-विनोद' और 'हास्य-व्यंग्य' के रूप में  कटुता को दूर भी करता है। 
***

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

chutaki geet, doha geet

चुटकी गीत
*
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
बरस इस बरस मेघ आ!
नमन करे संसार।
न मन अगर तो नम न हो,
तज मिथ्या आचार।।
एक राह पर चलाचल
कदम न होना भ्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
कह - मत कह आ रात तू ,
खुद आ जाती रात।
बिना निकाले निकलती
सपनों की बारात।।
क्रांति-क्रांति चिल्ला रहे,
खुद भय से आक्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
छंद: दोहा
****
१९-१२-२०१८