दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
बुधवार, 26 दिसंबर 2018
samiksha 'गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण'
navgeet
*
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे!!
*
लीक छोड़ तीनों चलें
शायर सिंह सपूत
लीक-लीक तीनों चलें
कायर कुटिल कपूत
बहुत लड़े, आओ! बने
आज शांति के दूत
दिल से लगाया
और
अंतर भुलाये रे!
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे!!
*
राह दोस्ती की चलें
चलो शत्रुता भूल
हाथ मिलाएँ आज फिर
दें न भेद को तूल
मिल बिखराएँ फूल कुछ
दूर करें कुछ शूल
जग चकराया
और
हम मुस्काये रे!
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे!!
*
जिन लोगों के वक्ष पर
सर्प रहे हैं लोट
उनकी नजरों में रही
सदा-सदा से खोट
अब मैं-तुम हम बन करें
आतंकों पर चोट
समय न बोले
मौके
हमने गँवाये रे!
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे!!
*
navgeet
हाँ बेटा
संजीव
.
चंबल में
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा!
.
कुण्डलिया, त्रिपदी, मुक्तक, दोहे,
नर-नारी
*
नारी-वसुधा का रहा, सदा एक व्यवहार
ऊपर परतें बर्फ कि, भीतर हैं अंगार -संध्या सिंह
भीतर हैं अंगार, सिंगार न केवल देखें
जीवन को उपहार, मूल्य समुचित अवलेखें
पूरक नर-नारी एक-दूजे के हों आभारी
नर सम, बेहतर नहीं, नहीं कमतर है नारी - संजीव
*
एक त्रिपदी
वायदे पर जो ऐतबार किया
कहा जुमला उन्होंने मुस्काकर
रह गए हैं ठगे से हम यारों
*
मुक्तक
आप अच्छी है तो कथा अच्छी
बात सच्ची है तो कथा सच्ची
कुछ तो बोलेगी दिल की बात कभी
कुछ न बोले तो है कथा बच्ची
*
खुश हुए वो, जहे-नसीब
चाँद को चाँदनी ने ज्यों घेरा
चाहकर भूल न पाए जिसको
हाय रे! आज उसने फिर टेरा
*
सदा कीचड़ में कमल खिलता है
नहीं कीचड़ में सन-फिसलता है
जिन्दगी कोठरी है काजल की
नहीं चेहरे पे कोई मलता है
***
छंद न रचता है मनुज, छंद उतरता आप
शब्द-ब्रम्ह खुद मनस में, पल में जाता व्याप
हो सचेत-संजीव मन, गह ले भाव तरंग
तत्क्षण वरना छंद भी नहीं छोड़ता छाप
*
दोहे
उसने कम्प्यूटर कहा, मुझे किया बेजान
यंत्र बताकर छीन ली मुझसे मेरी जान
*
गुमी चेतना, रह गया होकर तू निर्जीव
मिले प्रेरणा किस तरह?, अब तुझको संजीव?
***
navgeet
संजीव
.
सांस जब
अविराम चलती जा रही हो
तब कलम
किस तरह
चुप विश्राम कर ले?
.
शब्द-पायल की
सुनी झंकार जब-जब
अर्थ-धनु ने
की तभी टंकार तब-तब
मन गगन में
विचारों का हंस कहिए
सो रहे किस तरह
सुबह-शाम कर ले?
.
घड़ी का क्या है
टँगी थिर,
मगर चलती
नश्वरी दुनिया
सनातन लगे, छलती
तन सुमन में
आत्मा की गंध कहिए
खो रहे किस तरह
नाम अनाम कर ले?
.
navgeet
संजीव।
.
सांताक्लाज!
बड़े दिन का उपहार
न छोटे दिलवालों को देना
.
गुल-काँटे दोनों उपवन में
मधुकर कलियाँ खोज
दिनभर चहके गुलशन में ज्यों
आयोजित वनभोज
सांताक्लाज!
कभी सुख का संसार
न खोटे मनवालों को देना
.
अपराधी संसद में बैठे
नेता बनकर आज
तोड़ रहे कानून बना खुद
आती तनिक न लाज
सांताक्लाज!
करो जान पर उपकार
न कुर्सी धनवालों को देना
.
पौंड रहे मानवता को जो
चला रहे हथियार
भू को नरक बनाने के जो
नरपशु जिम्मेदार
सांताक्लाज!
महाशक्ति का वार
व लानत गनवालों को देना
.
कवितायेँ स्व. आचार्य श्यामलाल उपाध्याय
laghukatha
शनिवार, 22 दिसंबर 2018
समीक्षा- रामचंद्र प्रसाद कर्ण
muktak
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
तुम ही नहीं सयाने जग में
तुम से कई समय के मग में
धूल धूसरित पड़े हुए हैं
शमशानों में गड़े हुए हैं
अवसर पाया काम करो कुछ
मिलकर जग में नाम करो कुछ
रिश्वत-सुविधा-अहंकार ही
झिल रहे हो, झेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
दलबंदी का दलदल घटक
राजनीति है गर्हित पातक
अपना पानी खून बतायें
खून और का व्यर्थ बहायें
सच को झूठ, झूठ को सच कह
मैली चादर रखते हो तह
देशहितों की अनदेखी कर
अपनी नाक नकेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
*
जब बुढ़ापा हो जगाता रात भर
याद के मत साथ जोड़ो मन इसे.
प्रेरणा, जब थी जवानी ली नहीं-
मूढ़ मन भरमा रहा अब तू किसे?
*
अर्पित है अक्षत-चन्दन
कब कहता है लगी अगन
मरु को कर दे नंदन वन
जो प्रयास में रहे मगन
दृढ़ हो जिसका अंतर्मन
मत चुकने दे 'सलिल' लगन
जीता भय पर सदा अमन
जितनी शिद्दत से हमने मुहब्बत की थी.
.
सलिल:
अंजुली में न नफरत टिकी रह सकी
हेम पिघला फिसल बूँद पल में गयी
साथ साये सरीखी मोहब्बत रही-
सुख में संग, छोड़ दुख में 'सलिल' छल गयी
*
हेमा अंजुली
तुम्हारी वो एक टुकड़ा छाया मुझे अच्छी लगती है
जो जीवन की चिलचिलाती धूप में
सावन के बादल की तरह
मुझे अपनी छाँव में पनाह देती है
.
सलिल
और तुम्हारी याद
बरसात की बदरी की तरह
मुझे भिगाकर अपने आप में सिमटना
सम्हलना सिखा आगे बढ़ा देती है।
*
हेमा अंजुली
कभी घटाओं से बरसूँगी ,
कभी शहनाइयों में गाऊँगी।
तुम लाख भुलाने कि कोशिश कर लो,
मगर मैं फिर भी याद आऊँगी।।
.
सलिल
लाख बचाना चाहो
दामन न बचा पाओगे
राह पर जब भी गिरोगे
तुम्हें उठाऊँगी।।
*
हेमा अंजुली
छाने नही दूँगी मैं अँधेरों का वजूद।
अभी मेरे दिल के चिराग़ बाकी हैं।।.
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे ।
रूह में झाँक के देखो कि आग बाकी है।।
सूरत दिखाने के लिए तो
बहुत से आईने थे दुनिया में
काश कि कोई ऐसा आईना होता
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण
बस इसलिए ही आईना सूरत रहा है देख
*
गीत हुलास कर खटकाते हैं द्वार
करे संगणक स्वागत टंकण यंत्र-
सरस्वती मैया की जय-जयकार
शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018
नवगीत
नवगीत:
कैसे पाएँ थाह?
*
ठाकुर हों या
ठकुराइन हम
दौंदापेली चाह।
बात नहीं सुनते औरों की
कैसे पाएँ थाह?
*
तीसमार खाँ मानें खुदको
दिखा और के दोष।
खुद में हैं दस गुना, न देखें
बने दोष का कोष।।
अपनी गलती छिपा अन्य की
खींच रहे हैं टाँग।
गर्दभ होकर, खाल ओढ़ ली
धरें शेर की स्वांग।।
चीपों-चीपों बोले ज्यों ही
मिली न कहीं पनाह।
*
कानी टेंट न देखे अपनी,
मठाधीश बन भौंके।
टाँग खींचती है जिस-तिस की
शारद-पिंगल चौंके।
गीत विसंगति के गाते हैं
विडंबना आराध्य।
टूट-फूट के नकली किस्से
दर्द हुआ क्यों साध्य?
ठूँस पेट भर,
गीत दर्द के
गाते पाले डाह।
*
नवगीतों में स्यापा ठूँसा,
व्यंग्य लेख रूदाली।
शोकांजलि लघुकथा बताते
विघटन खाम-खयाली।।
टूट रहे परिवार, न रिश्ते-
नातों की है खैर।
कदाचार कर पाल रहे हैं,
खुद से खुद ही बैर।।
आग लगा मानव-मूल्यों में
कहें मिटा दाह।
***
19.12.2018
जाति: २७ वर्णीय दण्डक जातीय।
गण सूत्र: २ नगण + ७ रगण = ननसतर।
आंकिक सूत्र: १११ १११ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ = २७ वर्ण।
छंद लक्षण: प्रति पंक्ति २७ वर्ण, २ (१११) + ७ (२१२)। सामान्यत: ४ पंक्तियाँ, पदांत २-२ पंक्तियों में सम पदांत।
लक्षण छंद:
नन सतर न भूलना रे!, बनें चण्ड वर्षा तभी, छंद गाओ सदा झूम के।
कम न अधिक तौलना रे!, करें काम पूरा अभी, प्रीत पाओ प्रिया चूम के।।
धरणि-गगन हैं सँगाती, रहें साथ ही साथ वे, हेरते हैं सदा दूर से।
धरम-करम है सहारा, करें काम हो नाम भी, जो न मानें जिएं सूर से।।
उदाहरण:
१. सरस सरल गीत गा रे!, सुनें लोग ताली बजा, गीत तेरा करें याद वे।
सहज सुखद बोल बोले, गुनें नित्य बातें सदा, भोर तेरी करें याद वे।।
अजर अमर कौन होता, सभी जन्म लें जो मरें, देवता भी धरा से गए।
'सलिल' अमिय भूल जा रे!,गले धार ले जो मिले, जो मरे हैं वही तो जिए।।
=============
प्रचित छंद
'ननसतर' वृत्त में एक या अधिक 'रगण' जोड़ने से अनेक छंद बनते हैं जिन्हें प्रचित छंद कहा जाता है। छंदप्रभाकरकार ने सात प्रचित छंद अर्ण (२ नगण + ८ रगण), अर्णव (२ नगण + ९ रगण), ब्याल (२ नगण + १० रगण), जीमूत (२ नगण + ११ रगण), लीलाकर (२ नगण + १२ रगण), उद्दाम (२ नगण + १३ रगण) तथा शंख (२ नगण + १४ रगण) का उल्लेख किया है।
सिंहविक्रांत छंद
२ नगण एवं ७ या अधिक यगण के मेल से बने दण्डक छंदों को 'सिंहविक्रांत' छंद कहा गया है।
यमकीय दोहे
'माँग भरें' वर माँगकर, गौरी हुईं प्रसन्न
वर बन बौरा माँग भर, हुए अधीन- न खिन्न
*
तिल-तिल कर जलता रहा, तिल भर किया न त्याग
तिल-घृत की चिंताग्नि की, सहे सुयोधन आग
*
चमक कैमरे ले रहे, जहाँ-तहाँ तस्वीर
दुर्घटना में कै मरे,जानो कर तदबीर
*
घट ना फूटे सम्हल जा, घट ना जाए मूल
घटना यदि घट जाए तो, व्यर्थ नहीं दें तूल
*
बख्शी को बख्शी गयी, जैसे ही जागीर
थे फकीर कहला रहे, पुरखे रहे अमीर
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल
न मन न तन हो समन्वित, तो चुभता है शूल
*
ठाकुर जी सिर झुकाकर, करते नम्र प्रणाम
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
गए दवाखाना तभी, पाया यह संदेश
भूल दवा खाना गए, खा लें था निर्देश
*
मन उन्मन मत हो पुलक, चल चिलमन के गाँव
चिलम न भर चिल रह 'सलिल', तभी मिले सुख-छाँव
*
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक पीछे भाग
ना ज्यादा अनुराग रख, ना हो अधिक विराग
*
नवगीत
*
नाम के रिश्ते कई हैं
काम का कोई नहीं
भोर के चाहक अनेकों
शाम का कोई नहीं
पुरातन है
हर नवेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
गलत को कहते सही
पर सही है कोई नहीं
कौन सी है आँख जो
मिल-बिछुड़कर कोई नहीं
पालता फिर भी
झमेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
जागती है आँख जो
केवल वही सोई नहीं
उगाती फसलें सपन की
जो कभी बोईं नहीं
कौन सा संकट
न झेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
गुरुवार, 20 दिसंबर 2018
व्यंग्य विधा
व्यंग्य का हास्य से क्या संबंध है? वह एक स्वतंत्र विधा है या सकल विधाओं में व्याप्त रहने वाली भावना या रस? वह मूलतः गद्यात्मक है या पद्यात्मक? वह समय बिताऊ लेखन है या गंभीर वैचारिक कर्म? क्या व्यंग्यकार के लिए प्रतिबद्धता अनिवार्य है? प्रतिबद्धता क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर पाठकों और समीक्षकों को ही नहीं, व्यंग्यकारों को भी स्पष्ट नहीं हैं। हरिशंकर परसाई व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। रवींद्रनाथ त्यागी पहले व्यंग्य को विधा मानते थे, बाद में मुकर गए। शरद जोशी व्यंग्य को विधा मानते हुए भी कहने में हिचकते थे। नरेंद्र कोहली व्यंग्य को विधा मानते हैं और कहते भी हैं। कुछ व्यंग्यकार हास्य को व्यंग्य के लिए आवश्यक नहीं मानते, कुछ हास्य के बिना व्यंग्य का अस्तित्व नहीं मानते।
हिंदी में कबीर व्यंग्य के आदि प्रणेता मान्य हैं। उन्होंने मध्यकाल की सामाजिक विसंगतियों (जाति-भेद, धर्माडंबर, गरीबी-अमीरी, रूढ़िवादिता आदि) पर व्यंग्यपूर्ण शैली में मारक प्रहार किए। 'मूँद मुड़ाए हरी मिले, सब कोउ ले मुड़ाय / बार-बार के मूड़ते, भेद न बैकुंठ जाय, कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई चुनाय / ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय, पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूज पहार / ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार'आदि अनेक उद्धरण कबीर की बेधक व्यंग्य-क्षमता के प्रमाण हैं। उत्तर-मध्यकालीन सामंती समाज ने निहित स्वार्थों के कारण कबीर जैसे संतों के समाज-बोध को नकार दिया। फलत:, रीतिकाल में व्यंग्य रचनाओं की उपस्थिति नगण्य रही।
कबीर के बाद भारतेंदु ने सामाजिक विषमताओं के संकेतन हेतु व्यंग्य को हथियार बनाया। 'हाय! मनुष्य क्यों भये, हम गुलाम वे भूप।' में औपनिवेशिक भारत की मूल समस्या गुलामी पर प्रहार है। ‘अंधेर नगरी’ और ‘मुकरियों’ में गुलाम भारत की विडंबनापूर्ण परिस्थितियों, अंग्रेजी साम्राज्यवादजनित शोषण के प्रति आक्रोश केंद्र में है। भारतेंदु के समकालिक व्यंग्यकार प्रेमघन की कृति ‘हास्यबिंदु’ और प्रतापनारायण मिश्र के निबंधों में व्यंग्य सहायक प्रवृत्ति के रूप में है। व्यंग्य का पूर्ण उन्मेष पश्चातवर्ती व्यंग्य रचनाकार बालमुकुंद गुप्त की रचनाओं 'शिवशंभू का चिट्ठा' आदि में है। राजनीति और तत्कालीन शासन-व्यवस्था से टकराव इन व्यंग्य रचनाओं के मूल में हैं। यूरोप में दांते की लैटिन में लिखी किताब डिवाइन कॉमेडी मध्यकालीन व्यंग्य का उदाहरण है, जिसमें तत्कालीन व्यवस्था का मज़ाक उड़ाया गया था। व्यंग को मुहावरे मे व्यंग्यबाण कहा गया है।