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शनिवार, 24 नवंबर 2018

कुंडलिनी

नव प्रयोग
कुंडलिनी छंद
*
आँख आँख में डाल, चलो करें अब बात हम।
चुरा-झुकाकर आँख,  करें न निज विश्वास कम।।
करें न निज विश्वास कम, चलो निवारण हाथ।
काया-छाया की तरह,  हों उजास में साथ।।
अंधकार में एक हों, मिला चोंच अरि पाँख।
चलो करें अब बात हम, मिला आँख से आँख।।
***
संजीव,

२४-११-२०१८

कुंडलिनी छंद

नव प्रयोग
कुंडलिनी छंद
*
लूट रहा है बाग, माली कलियाँ  रौंदकर।
भाग रहे हैं सेठ, खुद ही डाका डालकर।।
खुद ही डाका डालकर, रपट सिखाते झूठ।
जंगल बेचे खा गए, शेष बचे हैं ठूँठ।।
कौए गर्दभ पुज रहे, कोयल होती हूट।
गौरैया को कर रहा,  बाज अहिंसक शूट।।
***
संजीव,
२३-११-२०१८

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

कुंडलिनी छंद

एक कुण्डलिनी 
*
बोल भारती आप,  भारत माँ को नमन कर।
मंजिल वरिए झूम, हरसंभव सब जतन कर।।
हर संभव सब जतन कर,  हरा हार को जीत।
हार पहनिए जीत का, लुटा मीत पर प्रीत।।
अपने दिल का द्वार तू, जहाँ-तहाँ मत खोल।
बात मधुर सौ बार कह, कड़वा सच मत बोल।।
***
संजीव, ७९९९५५९६१८

मुक्तक

मुक्तक
श्री वास्तव में मिले जब, हो मन में संतोष।
संस्कारधानी करे, सारस्वत जयघोष।।
बोल रही हैं हवा में, बंद मुट्ठियाँ सत्य-
अजर अमर अभिव्यक्ति का, रीते कभी न कोष।।
*
किरण-वरण स्वदेश कर, मिटे तभी तिमिर सघन। 
प्रीति-चाँदनी हँसे, सुर करें विनत भजन।।
अधर धरे सुहास हों, नयन सपन बिखेरते-
सलिल सदैव साथ हो, करे सतत सृजन यजन।।
*

कुंडलिनी छंद

हिंदी के नए छंद 
कुण्डलिनी छंद 
*
लक्षण: 
षट्पदिक्, द्वादश चरणीय, एक सौ चवालीस मात्रिक 
वैशिष्ट्य:
कुण्डलिया से साम्य-
१. दोनों ६ पदीय।  
२. दोनों में १२ चरण।  
३. दोनों में १४४ मात्राएँ।  
४. दोनों में आदि-अंत में समान शब्द या शब्द-युग्म।  
५. दोनों में चौथे चरण की पांचवे चरण के रूप में पुनरावृत्ति। 
६. दोनों में २ छंदों का प्रयोग। 
कुण्डलिया से अंतर 
१. कुण्डलिया का आरम्भ दोहा (१३-११) से, कुण्डलिनी का सोरठा (११-१३) से। 
२. कुण्डलिया में दूसरा छंद रोला (११-१३), कुण्डलिनी में दो दोहे (१३-११)
३. कुण्डलिया का अंत गुरु से हो सकता है, कुण्डलिनी का अंत लघु से ही होता है। 
४. कुण्डलिनी में अंत में गुरु-लघु अनिवार्य इसलिए कुण्डलिया में नहीं।  
५. कुण्डलिनी में आरंभ का पहला शब्द या शब्द समूह गुरु लघु होना अनिवार्य, कुण्डलिया में नहीं।  
६. कुण्डलिनी में सोरठा और दो दोहों का समायोजन, कुण्डलिया में दोहा और रोला का।   
लक्षण छंद 
आप सोरठा अग्र, दो दोहे पीछे रहें।
रच षट्पद अव्यग्र, बारह चरण ललित रचें।।
हों कुंडलिनी में सदा,  चौ-पच चरण समान।
आदि-अंत सादृश्य से, छंद बने रसवान।
गुरु-लघु से आरंभ कर, गुरु-लघु रखिए अंत।।
अनुशासन से कथ्य को, करें प्रभावी संत।।
२३-११-२०१८
उदाहरण-
सत्य बसे सौराष्ट्र, महाराष्ट्र भी राष्ट्र में।
भारत में ही तात, युद्ध महाभारत हुआ।।
युद्घ महाभारत हुआ, कृष्ण न पाए रोक।
रक्तपात संहार से, दस दिश फैला शोक।।
स्वार्थ-लोभ कारण बने, वाहक बना असत्य।
काम करें निष्काम हो, सीख मिली चिर सत्य।।

*
बोल भारती आप,  भारत माँ को नमन कर।
मंजिल वरिए झूम, हरसंभव सब जतन कर।।
हर संभव सब जतन कर,  हरा हार को जीत।
हार पहनिए जीत का, लुटा मीत पर प्रीत।।
अपने दिल का द्वार तू, जहाँ-तहाँ मत खोल।
बात मधुर सौ बार कह, कड़वा सच मत बोल।।
२२-११-२०१८

लूट रहा है बाग, माली कलियाँ  रौंदकर। 
भाग रहे हैं सेठ, खुद ही डाका डालकर।।
खुद ही डाका डालकर, रपट सिखाते झूठ। 
जंगल बेचे खा गए, शेष बचे हैं ठूँठ।।
कौए गर्दभ पुज रहे, कोयल होती हूट।
गौरैया को कर रहा,  बाज अहिंसक शूट।।

*
आँख आँख में डाल, चलो करें अब बात हम। 
चुरा-झुकाकर आँख,  करें न निज विश्वास कम।।
करें न निज विश्वास कम, चलो निवारण हाथ। 
काया-छाया की तरह,  हों उजास में साथ।।
अंधकार में एक हों, मिला चोंच अरि पाँख।
चलो करें अब बात हम, मिला आँख से आँख।।
***
संजीव, ७९९९५५९६१२ 

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

विदग्ध

हँसी-खुशियों से सजी हुई जिन्दगानी चाहिये।
सबको जो अच्छी लगे ऐसी रवानी चाहिये।
समय के संग बदल जाता सभी कुछ संसार में।
जो न बदले याद को ऐसी निशानी चाहिये।
आत्मनिर्भर हो न जो, वह भी भला क्या जिन्दगी
न किसी का सहारा, न मेहरबानी चाहिये।
हो भले काँटों तथा उलझन भरी पगडंडियाँ
जो न रोके कहीं वे राहें सुहानी चाहियें।
नजरे हो आकाश पै पर पैर धरती पर रहे
हमेशा हर सोच में यह सावधानी चाहिये।
हर नये दिन नई प्रगति की मन करे नई कामना
निगाहों में किन्तु मर्यादा का पानी चाहिये।
मिल सके नई उड़ानों के जहाँ से सब रास्ते
सद्विचारों की सुखद वह राजधानी चाहिये।
बाँटती हो जहाँ सबको खुशबू अपने प्यार की
भावना को वह महेती रातरानी चाहिये।
हर अँधेरी समस्या का हल, सहज जो खोज ले
बुद्धि बिजली को चमक वह आसमानी चाहिये।
नित नये सितारों तक पहुँचना तो है भला
मन 'विदग्ध' निराश न हो, और हो समन्वित भावना
देश को जो नई दिशा दे वह जवानी चाहिये।।
*
निगाहों में जो करूणा की सुखद आभा तुम्हारी है
मधुरता ओर कोमलता लिये वह सबसे न्यारी है।।
मुझे दिन रात जीवन में कहीं कुछ भी नहीं भाता
तुम्हारी छवि को जबसे मेरे नयनों ने निहारी है।।
सलोना और मनभावन तुम्हारा रूप ऐसा है
सरोवर में मुदित अरविन्द-छवि पर भी जो भारी है।।
झलक पाने ललक मन की कभी भी कम नहीं होती
बतायें क्या कि उलझे मन को कितनी बेकरारी है।।
लगन औ' चाह दर्शन की निरंतर बढ़ती जाती है
विकलता की सघनता है, विवशता ये हमारी है।।
तुम्हारी कृपा की आशा औ' अभिलाषा लिये यह मन
रँगा है तुम्हारे रँग में, औ' आँखों में खुमारी है।।
सुहानी चाँदनी में जब महकती रात रानी है
गगन में औ' धरा मैं हर दिशा में खोज जारी है।।
उभरते 'चित्र' मन भाये मनोगत कल्पना में नित
अनेकों रूप रख आती तुम्हारी मूर्ति प्यारी है।।
*
प्यार-ममता की मधुर हर खुशी आज अतीत हो गई
नये जमाने की अचानक पुराने पै जीत हो गई
क्योंकि भटकी भावना सद्बुद्धि के विपरीत हो गई।
शांति-सुख लुट गये घरों के हर तरफ बेचैनियाँ है
नासमझदारी समय की शायद प्रचलित रीति हो गई।
स्वार्थ के संताप में तप झुलस गये रिश्ते पुराने
काम के संबंध पनपे, मन की पावन प्रीति खो गई।।
भाव-सोच-विचार बदले, सबों के आचार बदले
गहन चिंतन-मनन गये, उथले चलन से प्रीति हो गई।
सादगी सद्भावना शालीनता गुम से गये सब
मौजमस्ती, मनचलेपन, नग्नता की जीत हो गई।
पुरानी संस्कृति चली मिट, मान-मर्यादायें मर्दित
चुलबुलापन, चपलता, नई सभ्यता की रीति हो गई।।
साँस है साँसत में, अब हर दिन दुखी रातें अपावन
रो रहा हर बुढ़ापा जब से जवानी गीत हो गई।।
नई हवा जब से चली है, बढ़ रहे झोंके झकोरे
प्यार ममता की मधुर अभिव्यक्ति, आज अतीत हो गई।।
*
ईमानदारी औरों को सिखला रहे हैं लोग
पर जब जहाँ मौका मिला, खुद खा रहे हैं लोग।
छोटों की बात क्या करें, नेता जो बड़े हैं
बेखौफ करोड़ों उड़ाये जा रहे हैं लोग।
अब नीति-न्याय-धर्म की बातें फिजूल हैं
जो सामने, उसको भुनाये जा रहे है लोग।
ईमानदार लोगों पै बेईमान हँस रहे
निर्दोष भले व्यक्ति से, कतरा रहे है लोग।
दामन थे जिनके साफ वे अब लोग कहाँ है ?
रेवड़ियाँ बॅट रहीं, उठाये जा रहे हैं लोग।
गलियों में भी बाजार है, छलियों की है भरमार
डलियों में अब 'विदग्ध' ढोये जा रहे हैं लोग।
*
विसंगतियाँ 
हैं उपदेश कुछ किन्तु आचार कुछ है।
हैं आदर्श कुछ किन्तु व्यवहार कुछ है।
सड़क उखड़ी-उखड़ी है चलना कठिन है
जरूरत है कुछ किन्तु उपचार कुछ है।।
नये-नये महोत्सव लगे आज होने
बताने को कुछ पर सरोकार कुछ है।।
हरेक योजना की कहानी अजब है
कि नक्शें हैं कुछ किन्तु आकार कुछ है।।
समस्याओं के हल निकल कम ही पाते
हैं इच्छायें कुछ किन्तु आसार कुछ है।।
है घर एक ही, बॅट गये पर निवासी
जो आजाद कुछ है गिरफ्तार कुछ है।।
सदाचार, संस्कार, बीमार दिखते
है उद्देश्य कुछ जब कि आधार कुछ है।।
यहाँ आदमी द्वन्द में जी रहा है
हैं कर्तव्य कुछ किन्तु व्यापार कुछ है।।
जमाने को जाने कि क्या हो गया है
नियम-कायदे कुछ है, व्यवहार कुछ है।।
अब अखबार इस बात के साक्षी है
कि घटनायें कुछ हैं, समाचार कुछ है।।
*
समय
जग में सबको हँसाता है औ' रूलाता है समय।
सुख औ' दुख के चित्र रचता औ' मिटाता है समय।
है चितेरा समय ही संसार के श्रृंगार का
नई खबरों का सतत संवाददाता है समय।
बदलती रहती ये दुनिया समय के सहयोग से
आशा की पैगों पै सबको नित झुलाता है समय।
नियति को, श्रम को, प्रगति को है इसी का आसरा
तपस्वी को तपस्या का फल प्रदाता है समय।
भावना मय कामना को दिखाता है रास्ता
हर गुणी साधक को शुभ अवसर दिलाता है समय।
सखा है विश्वास का, व्यवसाय का, व्यापार का
व्यक्ति की पद-प्रतिष्ठा का अधिष्ठाता है समय।
नियंता है विश्व का, पालक प्रकृति परिवेश का
सखा है परमात्मा का, युग-विधाता है समय।
शक्तिशाली है, सदा रचता नया इतिहास है
किन्तु जाकर फिर कभी वापस न आता है समय।
सिखाता संसार को सब समय का आदर करें
सोने वालों को हमेशा छोड़ जाता है समय।
है अनादि अनंत फिर भी है बहुत सीमित सदा
जो समय को पूजते उनको बनाता है समय।
हर सजग श्रम करने वाले को है इसका वायदा
एक बार 'विदग्ध' उसको यश दिलाता है समय।
*
जीना है तो दुख-दर्द छुपाना ही पड़ेगा
मौसम के साथ निभाना-निभाना ही पड़ेगा।
देखा न रहम करती किसी पै कभी दुनिया
हर बोझ जिंदगी का उठाना ही पड़ेगा।
नये हादसों से रोज गुजरती है जिंदगी
संघर्ष का साहस तो जुटाना ही पड़ेगा।
खुद सॅभल उठ के राह पै रखते हुए कदम
दुनिया के साथ ताल मिलाना ही पड़ेगा।
हर राह में जीवन की, खड़ी है मुसीबतें
मिल उनसे, उनका नाज उठाना ही पड़ेगा।
दस्तूर हैं कई ऐसे जो दिखते है लाजिमी
हुई शाम तो फिर दीप जलाना ही पड़ेगा।
है कौन जिससे खेलती मजबूरियाँ नहीं ?
मन माने या न माने मनाना ही पड़ेगा।
पलकों में हों आँसू तो ओठों को दबाके
मुँह पै बनी मुस्कान तो लाना ही पड़ेगा।
खुद के लिये न सही, पै सबके लिये सही
जख्मों को अपने दिल के छुपाना ही पड़ेगा।
*
फल-फूल, पेड़-पौधे ये जो आज हरे है
आँधी में एक दिन सभी दिखते कि झरे है।
सुख तो सुगंध में सना झोंका है हवा का
दुख से दिशाओं के सभी भण्डार भरे है।
नभ में जो झिलमिलाते हैं, आशा के हैं तारे
संसार के आँसू से, पै सागर ये भरे है।
जंगल सभी जलते रहे गर्मी की तपन से
वर्षा का प्यार पाके ही हो पाते हरे है।
ऊषा की किरण ही उन्हें देती है सहारा
जो रात में गहराये अँधेरों से डरे है।
रँग-रूप का बदलाव तो दुनिया का चलन है
मन के रूझान की कभी कब होते खरे है ?
सब चेहरे चमक उठते है आशाओं के रॅग से
आशाओं के रॅग पर छुपे परदों में भरे है।
इतिहास ने दुनिया को दी सौगातें हजारों
पर जख्म भी कईयों को जो अब तक न भरे है।
यादों में सजाता है उन्हें बार-बार दिल
जो साथ थे कल आज पै आँखों से परे है।
*
'सच में सूरज की चमक भी अब तो फीकी हो चली'
हर जगह दुर्गुण-बुराईयाँ बढ़ीं संसार में
भरोसा होता नहीं झट अब किसी के प्यार में।।
मुँह पै मीठी बातें होती, पीठ पीछे पर दगा
दब गये सद्भावना, नय, नीति अत्याचार में।।
मैल मन का फैलता जाता धुँआ सा, घास सा
स्नेह की पगडंडियाँ सब खो गई विस्तार में।।
आपसी रिश्तों की दुनिया में अँधेरा छा रहा
नये तनाव-कसाव बढ़ते जा रहे व्यवहार में।।
अपहरण, चोरी, डकैती, लूट, धोखे का है युग
घुट रही ईमानदारी बढ़ते भ्रष्टाचार में।।
भावना कर्तव्य की औ' नीति की बीमार है
स्वार्थवश हर एक की रूचि अब हवस अधिकार में।।
धन की पूजा में हवन हो गये सभी गुण-धर्म-श्रम
रंग चटक लालच के दिखते हर एक कारोबार में।।
विषैली चीजों की सजती जा रही दुकानें नई
राजनीति अनीति के बल चाहती है कुर्सियाँ
कीमतें अपराधियों की है बढ़ी सरकार में।।
सारा जग आतंक के कब्जे में फँस बेहाल है
पूरी खबरें भी कहाँ छपती किसी अखबार में।।
जिंदगी साँसत में सबकी है, मगर मुँह बंद है
डर है, बेचैनी है भारी, हर तरफ अँधियार में।।
दुराचारों की अचानक बाढ़ सी है आ गई
जाने किसकी जान पै आ जाये किस व्यापार में।।
'फलक' सूरज की चमक तक अब तो फीकी हो चली
चाँद-तारों के तो मिट जाने के ही आसार है।।
*
अटपटी दुनिया
साथ रहते हुए भी घर एक ही परिवार में
भिन्नता दिखती बहुत है व्यक्ति के व्यवहार में।।
एक ही पौधे में पलते फूल-काँटे साथ-साथ
होता पर अन्तर बहुत आचार और विचार में।।
आदमी हो कोई सबके खून का रंग लाल है
भाव की पर भिन्नता दिखती बड़ी संसार में।।
हर जगह पर स्वार्थवश टकराव औ' बिखराव है
एकता की भावना पलती है केवल प्यार में।।
मेल की बातें तो कम, अधिकांश मन मे मैल है
भाईचारे का चलन है सिर्फ लोकाचार में।।
नाम के है नाते-रिश्ते, सच, किसी का कौन है ?
निभाई जाती है रस्में सभी बस उपचार में।।
भुला सुख-सुविधायें अपनी जो हमेशा साथ दे
राम-लक्ष्मण-भरत से भाई कहाँ संसार में।।
दुनिया की गति अटपटी है साफ दिखती हर तरफ
फर्क होता आदमी की बात औ' व्यवहार में।।
कभी भी घुल मिल किसी को अपना कहना व्यर्थ है
रंग बदल जाते है अपनों के भी तो अधिकार में।।
*
'पसीने से सिंचे बागों में ही नित फूल आते है'
 बिगड़ते है बहुत से काम सबके जल्दबाजी में
जो करते जल्दबाजी वे सदा जोखिम उठाते है।
हमेशा छल कपट से जिंदगी बरबाद होती है
जो होते मन के मैले, वे दुखी कल देखे जाते है।
बिना कठिनाइयों के जिंदगी नीरस मरूस्थल है
पसीनों से सिंचे बागों में ही नित फूल आते है।
किसी को कहाँ मालूम कि कल क्या होने वाला है
मगर क्या आज हो सकता समझ के सब बताते है।
जहाँ बीहड़ पहाड़ी, घाट, जंगल खत्म हो जाते
वहीं से सम सरल सड़कों के सुन्दर दृश्य आते है।
कभी भी वास्तविकतायें सुखद उतनी नहीं होती
कि जितने कल्पना में दृश्य लोगों को लुभाते हैं।
निकलना जूझ लहरों से कला है जिंदगी जीना
जिन्हें इतना नहीं आता उन्हीं को दुख सताते हैं।
वही रोते है रोना, भाग्य का अपने अनेकों से
परिस्थितियों को जो अनुकूल खुद न ढाल पाते है
*
मुखौटे
अब तो चेहरों को सजाने लग गये है मुखौटे
इसी से बहुतों को भाने लग गये हैं मुखौटे।
रूप की बदसूरती पूरी छुपा देते है ये
झूठ को सच्चा दिखाने लग गये है मुखौटे।
अनेकों तो देखकर असली समझते है इन्हें
सफाई ऐसी दिखाने लग गये है मुखौटे।
क्षेत्र हो शिक्षा का या हो धर्म या व्यवसाय का
हर जगह पर मोहिनी से छा गये है मुखौटे।
इन्हीं का गुणगान विज्ञापन भी सारे कर रहे
नये जमाने को सजाने छा गये हैं मुखौटे।
सचाई औ' सादगी लोगों को अब लगती बुरी
बहुतों को अपने में भरमाने लगे है मुखौटे।
समय के सँग लोगों की रूचियों में भी बदलाव है
खरे तो खरे हुए सब मधुर खोटे मुखौटे।
बनावट औ' दिखावट में उलझ गई है जिंदगी
हरेक को लगते रिझाने जगमगाते मुखौटे।
मुखौटों का चलन सबको ले कहाँ तक जायेगा
है 'विदग्ध' विचारना क्यों चल पड़े है मुखौटे।
*
नया युग है पुराने का हो गया अवसान है
मुखौटों का चलन है, हर साध्य अब आसान है।।
बात के पक्के औ' निज सिद्धान्त के सच्चे है कम
क्या पता क्यों आदमी ने खो दिया ईमान है।।
बदलता रहता मुखौटे कर्म, सुबह से शाम तक
जानकर भी यह कि वह दो दिनों का मेहमान है।।
वसन सम चेहरे औ' बातें भी बदल लेते हैं कई
समझते यह शायद इससे मिलता उनको मान है।।
आये दिन उदण्डता, अविवेक बढ़ते जा रहे
आदमी की सदगुणों से अब नहीं पहचान है।।
सजावट है, दिखावट है, मिलावट है हर जगह
शुद्ध, सात्विक कहीं भी मिलता न कोई सामान है।।
खरा सोना और सच्चे रत्न अब मिलते नहीं
असली से भी ज्यादा नकली माल का सम्मान है।।
ढ़ोग, आडम्बर, दिखावे नित पुरस्कृत हो रहे
तिरस्कृत, आहत, निरादृत अब गुणी इंसान है।।
योग्यता या सद्गुणों की परख अब होती कहाँ ?
मुखौटों से आदमी की हो रही पहचान है।।
जिसके है जितने मुखौटे वह है उतना ही बड़ा
मुखौटे जो बदलता रहता वही भगवान है।।
है 'विदग्ध' समय की खूबी, बुद्धि गई बीमार हो
पा रहे शैतान आदर, मुखौटों का मान है।।
*
माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है'

खबरें सुनाती हर दिन आँसू भरी कथायें
दुख-दर्द भरी दुनिया, जायें तो कहाँ जायें ?
बढ़ती ही जा रही है संसार में बुराई
चल रही तेज आँधी हम सिर कहाँ छुपायें ?
उफना रही है बेढब बेइमानियों की नदियाँ
ईमानदारी डूबी, कैसे उसे बचायें ?
सद्भाव, प्रेम, ममता दिखती नहीं कहीं भी
है तेज आज जग में विद्वेष की हवायें।
है जो जहाँ भी, अपनी ढपली बजा रहा है
लगी आग है भयानक, जल रहीं सब दिशायें।
दिखता न कहीं कोई सच्चाई का सहारा
अब सोचना जरूरी कैसे हो कम व्यथायें।
सब धर्म कहते आये है, प्रेम में भलाई
पर लोगों ने किया जो किसकों व्यथा सुनायें ?
बीता समय कभी भी वापस नहीं है आता
सीखा न पर किसी ने कि समय न गँवायें।
माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है
कैसे 'विदग्ध' ऐसे में, चैन कहाँ पायें ?
*
तुम्हारे सँग बिताया जब जमाना याद आता है
तो आँसू भरी आँखों में विकल मन डूब जाता है।
बड़ी मुश्किल से नये-नये सोच औ' चिन्ता की उलझन से
अनेकों वेदनाओं की चुभन से उबर पाता है।
न जाने कौन सी गल्ती हुई कि छोड़ गई हमको
इसी संवाद में रत मन को दुख तब काटे खाता है।
अचानक तुम्हारी तैयारी जो यात्रा के लिये हो गई
इसी की जब भी आती याद, मन आँसू बहाता है।
अकेले अब तुम्हारे बिन मेरा मन भड़ भड़ाता है।
अँधेरी रातों में जब भी तुम्हें सपनों में पाता हूँ
तो मन यह मौन रो लेता या कुछ-कुछ बड़बड़ाता है।
कभी कुछ सोचें करने और होने लगता है कुछ और
तुम्हारे बिन, अकेले तो न कुछ भी अब सुहाता है।
अचानक तेवहारों में तुम्हारी याद आती है
उमड़ती भावनाओं में न बोला कुछ भी जाता है।
बड़ी मुश्किल से आये थे वे दिन खुश साथ रहने के
तो था कब पता यह भाग्य कब किसको रूलाता है।
है अब तो शेष, आँसू, यादें औ' दिन काटना आगे
अँदेशा कल का रह-रह आ मुझे अक्सर सताता है।
*
अमर विश्वास के बल पर 
सुनहरी जिन्दगी के स्वप्न देखे सबने जीवन भर
सुहानी भोर की पर रश्मियाँ कम तक पहुँच पाई।।
रहीं सजती सॅवरती बस्तियाँ हर रात सपनों में
और दिल के द्वार पै बजती रही हर रोज शहनाई।।
भरी पैंगें सदा इच्छाओं ने साँसों के झूलों पर
नजर भी दूर तक दौड़ी सितारों से भी टकराई।।
मगर उठ-गिर के सागर की लहर सी तट से टकराके
हमेशा चोट खा के अनमनी सी लौट फिर आई।।
मगर ऐसे में भी हिम्मत बिना हारे जो जीते हैं
भरोसे की कली मन की कभी जिनकी न मुरझाई।।
कभी तकदीर से अपनी शिकायत जो नहीं करते
स्वतः हट जाती उनकी राह से हर एक कठिनाई।।
समय लेता परीक्षा पर किया करता प्रशंसा भी
विवश हो हार उससे जीत भी आती है शरमाई।।
अमर अपने सुदृढ़ संकल्प औ' विश्वास के बल पर
सभी ने अपनी मनचाही ही सुखद मंजिल सदा पाई।।
*
आने वाले कल से हर एक आदमी अनजान है
किया जा सकता है केवल काल्पनिक अनुमान है।
सोचकर भी बहुत कुछ, कर पाता कोई कुछ भी नहीं
सफलता की राह पै' अक्सर खड़ा व्यवधान है।
करती नई आशायें नित खुशियों की मोहक सर्जना
जोड़ते जिनके लिये सब सैकड़ों सामान हैं।
कठिन श्रम की साधना ही दिलाती है सफलता
परिश्रम भावी सफलता की सही पहचान है।
राह चलते जो अकेले भी कभी थकते नहीं
वहीं कह सकते है कि यह जिन्दगी आसान है।
हर दिशा में क्षितिज के भी पार हैं कई बस्तियाँ
किया जा सकता पहुँच ही कोई नव अनुसंधान है।
प्रेरणा उत्साह जिज्ञासा का हो यदि साथ तो
परिश्रम देता सदा मनवांछित वरदान है।
कठिन श्रम की साधना की कला जिसको सिद्ध है
वही हर अभियान में पाता विजय औ' मान है।
*
ये जीवन है आसान नहीं जीने को झगड़ना पड़ता है
चलने की गलीचों पै पहले तलवों को रगड़ना पड़ता है।
मन के भावों औ' चाहो को दुनिया ने किसी के कब समझा
कुछ खोकर भी पाने को कुछ, दर-दर पै भटकना पड़ता है।
सर्दी की चुभन, गर्मी की जलन, बरसात का गहरा गीलापन
आघात यहाँ हर मौसम का हर एक को सहना पड़ता है।
सपनों में सजायी गई दुनिया, इस दुनिया में मिलती है कहाँ ?
अरमान लिये बोझिल मन से संसार में चलना पड़ता है।
देखा है बहारों में भी यहाँ कई फूल-कली मुरझा जाते
जीने के लिये औरों से तो क्या ? खुद से भी झगड़ना पड़ता है।
तर होके पसीने से बेहद, अवसर को पकड़ पाने के लिये
छूकर के भी न पाने की कसक से कई को तड़पना पड़ता है।
अनुभव जीवन के मौन मिले लेकिन सबको समझाते हैं
नये रूप में सजने को फिर से, सड़कों को उखड़ना पड़ता है।
वे हैं 'विदग्ध' किस्मत वाले जो मनचाहा पा जाते है
वरना ऐसे भी कम हैं नहीं जिन्हें बनके बिगड़ना पड़ता है।
*
जे देखा औ' समझा, सुना और जाना
किसे कहें अपना औ' किसको बेगाना।
यहाँ कोई दिखता नहीं है किसी का
अधिकतर है धन का ही साथी जमाना।
कला और गुण की बहुत कम है कीमत
जगत ने है धन को ही भगवान माना।
धनी में ही दिखते है गुण योग्यतायें
सहज है उन्हें सब जगह मान पाना।
गरीबों की दुनिया में हैं विवशतायें
अलग उनके जीवन का हैं ताना-बाना।
उन्हें जरूरत तक को पैसे नहीं हैं
धनी खेाजते खर्च का कोई बहाना।
है जनतंत्र में कुछ नये मूल्य विकसे
बड़ा वह जिसे आता बातें बनाना।
सदाचार दुबका है चेहरा छुपायें
दुराचार ने सीखा फोटो छपाना।
विजय काँटों को हर जगह मिल रही है
सही न्याय युग गया हो अब पुराना।
सही क्या, गलत क्या ये कहना कठिन है
न जाने कहाँ जा रहा है जमाना।
*
होता है असर, लोगों पै सदा, नये युग के सोच-विचारों का।
जब भी लेता कोई युग करवट-परिवेशें में व्यवहारों का।।
पर जिसको अपने बल का औ' निश्चय का होता है आदर
दिखता है उसके चेहरे पर आलोक खुले संस्कारों का।।
खिलने वाला हर फूल हुआ करता विकसित धीरे-धीरे
पाता रंग रूप सुगंध सभी वह अपने ही परिवारों का।।
जो निश्चय व्रत वाले होते पक्के अपने संकल्पों के
उन पर न असर होता जग के इनकारों का इकरारों का।।
अन्तर्मन के विश्वासों पर निर्भर होते परिणाम सभी
परवाह नहीं करती दृढ़ता तूफानों के आकारों का।।
उलझन में उलझ जाने वालों के डग रूक जाते राहों में
वे ही पाते मंजिल अपनी जिन्हें डर न कभी अंगारों का।।
आदत से जो अपनी होते है ढुलमुल-ढुलमुल ढीले-ढाले
उनको रह पाती याद कहाँ। औरों के किये उपकारों का।।
शायद ही मिले कोई  ऐसा जिस पर न असर हो मौसम का
भारत में सुहाने सावन के खुशियों से भरे तेवहारों का।।
होते है अडिग निर्णय जिनके, कुछ भी न असंभवन जीवन में
हर व्यक्ति 'विदग्ध' है अधिकारी अपने कल के अधिकारों का।।
*
लोकतंत्र का बना जब से देश में मन्दिर निराला
बड़े श्रद्धा भाव से क्रमशः उसे हमने सम्हाला।
किन्तु अपने ढंग से मन्दिर में घुस पाये जो जब भी
बेझिझक करते रहे वे कई तरह गड़बड़ घोटाला।
जनता करती रही पूजा और आशा शुभ घड़ी की
राजनेताओं को पहनाती रही नित फूल माला।
पर सभी पंडे-पुजारी मिलके मनमानी मचाये
भक्तों की श्रद्धा को आदर दे कभी मन से न पाला।
हो निराश-हताश भी सहती रही जनता दुखों को
पर किसी ने कभी मुँह से नहीं 'उफ' तक भी निकाला
देखकर दुख-दर्द, सहसा, दुर्दशा कठिनाइयों को
आये 'अन्ना' लिये दृढ़ता दिखाने पावन उजाला।
राज मंदिर से कि जिससे मिले शुद्ध प्रसाद सबको
कोई मंदिर में न जाये, जिस किसी का मन हो काला।
फिर वह मंदिर जिसका रंग मौसम ने कर डाला है धूमिल
नये रंग से नयी सजधज से पुनः जाये सॅम्हाला।।
दिखती है जन जागरण की आ गई है मधुर वेला
बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला।।
*
ये जिंदगी एक सफर है ऐसा सभी को चलना यहाँ जो आये
हर एक का पर अलग है रास्ता, चुने वही वह उसे जो भाये
हैं फूल-काँटे हरेक डगर पै, खुधी औ' गम के कई ठिकाने
नसीब में किसके पर है क्या यह तो, उसकी की करनी उसे बताये।
सुबह जो निकला खुशी से हंसकर, कहीं न थक जाये दो पहर तक
ये भी अँदेशा है कि भटककर किसी जगह कोई अटक न जायें।
कभी है गर्मी, कभी है सर्दी, कभी बरसती अँधेरी रातें
कड़कती बिजली, घुमड़ते बादल, डराते तूफाँ कहीं न आये।
कहीं हैं ऊंचे पहाड़, दर्रे, उमड़ती नदियाँ, डराते जंगल
कहीं मरूस्थल विशाल ऐसे, जिन्हें कभी कोई न लांघ पाये।
मगर हैं सदियों से ये सभी यों, बनी औ' बिगड़ी नवीन राहें।
नये मुसाफिर भी चलते आये, बढ़े कई तो बिना बतायें।
अजब ये दुनिया तो है वही पर हरेक की हैं अलग निगाहें
कई को सागर सुहाने दिखते कई को हर दम डराते आये।
लगा लगन कर इरादे पक्के जिन्होंने आगे कदम बढ़ाये
'विदग्ध' सब अड़चनें हटाके वे नभ से तारे भी तोड़ लाये।
*
दिन से भी कहीं ज्यादा रातें हमें प्यारी हैं
क्योंकि ये सदा लातीं प्रिय याद तुम्हारी हैं।
मशगूल बहुत दिन हैं, मजबूर बहुत दिन है
रातों ने ही तो दिल की दुनिया ये सँवारी हैं।
सूरज के उजाले में परदा किया यादों ने
दिन तो रहे दुनिया के, रातें पै हमारी है।
कुछ याद रहे दिन वे भड़भड़ में गुजारे जो
है याद मगर रातें तनहां जो गुजारी हैं।
कोई 'विदग्ध' बोले, दिन में कहाँ मिलती है ?
रातों के अँधेरों में जो मीठी खुमारी है।
*
दर्द को दिल में अपने छुपायें आज महफिल में आये हुए हैं।
क्या बतायें कि अपनों के गम से किस तरह हम सताये हुये हैं।
अपनों को खुशियाँ देने को हमने जिंदगी भर लड़ीं है लड़ाई
पर बतायें क्या हम दूसरों को, अपनों से भी भुलायें हुये हैं।
जिस तरफ भी नजरें घुमाई, कहीं भी कोई मिला न सहारा
राह चलता रहा आँख खोले, फिर की कई चोट खाये हुए हैं।
गर्दिशों में भी लब पै तबसुम्म लिये हम आगे बढ़ते रहे हैं
अन कहें सैंकड़ों दर्द लेकिन अपने दिल में छुपाये हुए हैं।
काट दी उम्र सब झंझटों में, पर कभी उफ न मुंह से निकाली
अपनी दम पै तूफानों से लड़के इस किनारे पै आये हुए हैं।
शायद दुनिया का ये ही चलन है कोई शिकवा गिला क्या किसी से
हमको लगता है हम शायद अपने दर्द के ही बनाये हुए है।
जो गुजारी न उसका गिला है, खुश हैं उससे ही जो कुछ मिला है
बन सका जितना सबको किया है, चोट पर सबसे खाये हुए हैं।
है भरोसा 'विदग्ध' हमें अपनी टॉगों पर जिनसे चलते रहे हैं
आगे भी राह चल लेंगे पूरी, इन्हीं से चलते आये हुए हैं।
*
है हवा कुछ जमाने की ऐसी, लोग मन की छुपाने लगे हैं।
दिल में तो बात कुछ और ही है, लब पै कुछ और बताने लगे हैं।
ये जमाने की खूबी नहीं तो और कोई बतायें कि क्या है ?
जिसको छूना भी था पहले मुश्किल, लोग उसमें नहाने लगे हैं।
कौन अपना है या है पराया, दुनिया को ये बताना है मुश्किल
जिनको पहले न देखा, न जाना, अब वो अपने कहाने लगे हैं।
जब से उनको है बागों में देखा, फूल सा मकहते मुस्कुराते
रातरानी की खुशबू से मन के दरीचे महमहाने लगे हैं।
बालों की घनघटा को हटा के चाँद ने झुक के मुझको निहारा
डर से शायद नजर लग न जाये, वे भी नजरें चुराने लगे हैं।
रंग बदलती 'विदग्ध' ऐसा दुनिया कुछ भी कहना समझना है मुश्किल
जिनको हमने था चलना सिखाया, अब से हमको चलाने लगे हैं।
*
जग की राम कहानी 
हर चीज पुरानी होती है, अपनी सुन्दरता खोती है।
रहता हैं एक सा रूप नहीं, छाया में छुपती धूप कहीं।
कुछ यों ही तो इस देह का है, मन के बढ़ते हर स्नेह का है।
पत्थर जैसे घिस जाते हैं, पर्वत तक तो पिस जाते हैं।।
राहें चल-चल मिट जाती हैं, कलियाँ खिल के पिट जाती हैं।
कल जो था वह है आज नहीं, जो आज है कल होगा न कहीं।
दिन नये परिवर्तन लाते हैं, आकार बदलते जाते हैं।
युग नये जग का निर्माता है, जो गया कहाँ फिर आता है ?
दुख-सुख फिर-फिर से आते जिनको कोई जीत नहीं पाते।
मन माने चाहे न माने, सब घटता रहता अनजाने।
चुपचाप सभी सहना पड़ता, आकस्मिक जो काँटा गड़ता।
सूरज प्रातः आभा फैला, संध्या तक हो जाता मैला।।
मानव माया में भरमाया, सच्चाई को न समझ पाया।
मुस्कान भले होठों पै बसी पर दुनिया है कांटों में फँसी।
पर जिसको जब अधिकार मिले, उसके वैभव के कमल खिले।
कल की पर किसने जानी है, अभिमान, मोह नादानी है।।
सब धर्म यही समझाते है, पर लोग समझ कम पाते हैं।
खुशियों की क्षणिक होती बातें, फिर घिर आती काली रातें।
उड़ जाती पंछी की पॉतें बस रह जाती उनकी यादें।
सबकी आँखों में पानी है, यह जग की राम कहानी है।।
*
विश्व का परिदृश्य तेजी से बदलता जा रहा है
समझ पाना कठिन है कि क्या जमाना आ रहा है।
दुनिया के हर देश में है  त्रस्त जन, शासक निरंकुश
बढ़ रहे संघर्ष दुःखों का अँधेरा छा रहा है।
प्रेम औ' सद्भाव की दिखती नहीं छाया कहीं भी
तपन के नये तेज से हर एक पथिक घबरा रहा है।
झुलसती सी जा रही है शांति-सुख की कामनायें
बढ़ रहे आतंक का खतरा, सत्त मंडरा रहा है।
भूख प्यास की मार से घुट सा रहा है दम सबों का
लगता है नई आपदाओं का बवण्डर आ रहा है।
तरसते है नयन लखने हरित् सरिता के किनारे
दृश्य पर मरूभूमि का ही देखने में आ रहा है।
बढ़ रहीं है आदमी में राक्षसी नई वृत्तियाँ नित
अपने आप विनाश का सामान मनुज जुटा रहा है।
सूखती दिखती निरन्तर प्रेम की पावन मधुरता
नित 'विदग्ध' नया प्रबल संदेह बढ़ता जा रहा हैं।
*
नये युग की धमक है अब धुँधलके से उजाले तक
नया सा दिखता है अब सब बाजारों से शिवाले तक।
पुराने घर, पुराने सब लोग, उनकी पुरानी बातें
बदल गई सारी दुनिया ज्यों सुराही से प्याले तक।
जमाने की हवा से अब अछूता कुछ नहीं दिखता
झलक दिखती नये रिश्तों की पति-पत्नी से साले तक।
चली हैं जो नयी फैशन दिखावों औ' मुखौटों की,
लगे दिखने हैं अब चेहरे तो गोरे रॅग से काले तक।
ली व्यवहारों ने जो करवट बाजारू सारी दुनिया में
किसी को डर नहीं लगता कहीं करते घोटाले तक।
निडर हो स्वार्थ अपने साधना, अब आम प्रचलन है
दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक।
मिलावट हो रही हर माल में भारी धड़ाके से
बाजारों में नहीं मिलते कहीं असली मसाले तक।
फरक आया है ऐसा सबकी तासीरों में बढ़चढ़कर
नहीं देते है गरमाहट कि अब ऊनी दुशाले तक।
बताने, बोलते, रहने, पहिनने के सलीकों में
नयापन है बहुत खानों में, स्वदों में निवाले तक।
खनक पैसों की इतनी बढ़ गई अब बिक रहा पानी
नहीं तरजीह देते फर्ज को कोई कामवाले तक।
गिरावट आचरण की, हुई तरक्की हुई दिखावट की
'विदग्ध' मुश्किल से मिलते है, कोई सिद्धान्त वाले अब।
*
हैरान हो रहे हैं सब देखने वाले हैं'
सच आज की दुनिया के अन्दाज निराले हैं
हैरान हो रहे है सब देखने वाले हैं।
धोखा, दगा, रिश्वत का यों बढ़ गया चलन है
देखो जहाँ भी दिखते बस घपले-घोटाले हैं।
पद ज्ञान प्रतिष्ठा ने तज दी सभी मर्यादा
धन कमाने के सबने नये ढंग निकाले हैं।
शोहरत औ' दिखावों की यों होड़ लग गई है
नजरों में सबकी, होटल, पब, सुरा के प्याले हैं।
महिलायें तंग ओछे कपड़े पहिन के खुश है
आँखें झुका लेते वे जो देखने वाले हैं।
शालीनता सदा से श्रृंगार थी नारी की
उसके नयी फैशन ने दीवाले निकाले हैं।
व्यवहार में बेइमानी का रंग चढ़ा ऐसा
रहे मन के साफ थोड़े, मन के अधिक काले हैं।
अच्छे-भलों का सहसा चलना बड़ा मुश्किल है
हर राह भीड़ बेढ़ब, बढ़े पाँव में छाले हैं।
जो हो रहा उससे तो न जाने क्या हो जाता
पर पुण्य पुराने हैं, जो सबको सम्हाले हैं।
आतंकवाद नाहक जग को सता रहा है
कहीं आग की लपटें, कहीं खून के नाले है।
हर दिन ये सारी दुनिया हिचकोले खा रही है
पर सब 'विदग्ध' डरकर ईश्वर के हवाले हैं।
*
जो भी मिली सफलता मेहनत से मैंने पायी
दिन रात खुद से जूझा किस्मत से की लड़ाई
जीवन की राह चलते ऐसे भी मोड़ आये
जहाँ एक तरफ कुआँ था औ' उस तरफ थी खाई।
कांटों भरी सड़क थी, सब ओर था अँधेरा
नजरों में सिर्फ दिखता सुनसान औ' तनहाई।
सब सहते, बढ़ते जाना आदत सी हो गई अब
किसी से न कोई शिकायत, खुद की न कोई बड़ाई।
लड़ते मुसीबतों से बढ़ना ही जिन्दगी है
चाहे पहाड़ टूटे, चाहे हो बाढ़ आई।
आँसू कभी न टपके, न ही ढोल गये बजाये
फिर भी सफर है लम्बा, मंजिल अभी न आयी।
दुनिया की देख चालें, मुझको अजब सा लगता
बेबात की बातों में दी जाती जब बधाई।
सुख में 'विदग्ध' मिलते सौ साथ चलने वाले
मुश्किल दिनों में लेकिन, कब कौन किसका भाई ?
*
पुस्तकें 
युग के संचित ज्ञान का भंडार है ये पुस्तकें
सोच और विचार का संसार है ये पुस्तकें
देखने और समझने को खोलती नई खिड़कियां
ज्ञानियों से जोड़ने को तार हैं ये पुस्तकें
इनमें रक्षित धर्म, संस्कृति, आध्यात्मिक मूल्य हैं
जग में अब तक प्रगति का आधार है ये पुस्तकें
घर में बैठे व्यक्ति को ये जोड़ती है विश्व से
दिखाने नित नई राह, तैयार हैं ये पुस्तकें
देती हैं हल संकटों में, और हर मन को खुशी
संकलित सुभनों का सुरक्षित, हार हैं ये पुस्तकें
कलेवर में अपने ये, हैं समेटे इतिहास सब
आने वाले कल को एक उपहार हैं ये पुस्तकें
हर किसी की पथ प्रदर्शक और सच्ची, मित्र हैं
मनोरंजन, सीख, सुख आगार है ये पुस्तकें
किसी से लेती न कुछ भी सिर्फ देती हैं स्वयं
सिखातीं जीना औ' शुभ संस्कार हैं ये पुस्तकें
पुस्तकों बिना पल न सकता कहीं सभ्य समाज कोई
सतत अमर प्रकाश देती सार हैं ये पुस्तकें।
*
'सद्भाव औ' सहयोग में ही है सदा सब सुख बसा'
हो रहा उपयोग उल्टा अधिकतर अधिकार का
शांति-सुख का रास्ता जबकि है पावन प्यार का।
जो जुटाते जिंदगी भर छोड़ सब जाते यहीं
यत्न पर करते दिखे सब कोष के विस्तार का।
सताती तृष्णा सदा मन को यहाँ हर व्यक्ति के
पर न करता खोज कोई भी सही उपचार का।
लोभ, लालच, कामनायें सजा नित चेहरे नये
लुभाये रहते सभी को सुख दिखा संसार का।
वसन्ती मौसम की होती आयु केवल चार दिन
मनुज पर फँस भूल जाता लाभ शुभ व्यवहार का।
ऊपरी खुशियाँ किसी की भी बड़ी होतीं नहीं
फूल झर जाते हैं खिलकर है चलन संसार का।
इसलिये चल साथ सबके प्यार का व्यवहार कर
सिर्फ पछतावा ही मिलता अन्त अत्याचार का।
सहयोग औ' सद्भावना में ही सदा सब सुख बसा
नहीं कोई इससे बड़ा व्यवहार है उपहार का।  
*
हमें दर्द दे वो जीते, हम प्यार करके हारे,
जिन्हें हमने अपना माना, वे न हो सके हमारे।
ये भी खूब जिन्दगी का कैसा अजब सफर है,
खतरों भरी है सड़कें, कांटों भरे किनारे।।
है राह एक सबकी मंजिल अलग-अलग है,
इससे भी हर नजर में हैं जुदा-जुदा नजारे।
बातें बहुत होती हैं, सफरों में सहारों की
चलता है पर सड़क में हर एक बेसहारे।
कोई किसी का सच्चा साथी यहाँ कहाँ है ?
हर एक जी रहा है इस जग में मन को मारे।
चंदा का रूप सबको अक्सर बहुत लुभाता,
पर कोई कुछ न पाता दिखते जहाँ सितारे।
देखा नहीं किसी ने सूरज सदा चमकते
हर दिन के आगे पीछे हैं साँझ औ' सकारे।
सुनते हैं प्यार की भी देते हैं कई दुहाई।
थोड़े हैं किंतु ऐसे होते जो सबके प्यारे।
*
मेरे साथ तुम जो होते, न मैं बेकरार होता,
खुद से भी शायद ज्यादा, मुझे तुमसे प्यार होता।
तुम बिन उदास मेरी मायूस जिन्दगी है,
होते जो पास तुम तो क्यों इन्तजार होता ?
मजबूरियाँ तुम्हारी तुम्हें दूर ले गईं हैं,
वरना खुशी का हर दिन एक तैवहार होता।
मुंह मॉगी चाह सबको मिलती कहाँ यहाँ है ?
मिलती जो, कोई सपना क्यों तार-तार होता ?
हंसने के वास्ते कुछ रोना है लाजिमी सा,
होता न चलन ये तो दिल पै न भार होता।
मुझको जो मिले होते मुस्कान लिये तुम तो,
इस जिन्दगी में जाने कितना खुमार होता।
आ जाते जिन्दगी में मेरे राजदार बन जो,
सपनों की झॉकियों का बढ़िया सिंगार होता।
हर रात रातरानी खुशबू बिखेर जाती,
हर दिन आलाप भरता सरगम-सितार होता।
तकदीर है कि 'यादों' में आते तो तुम चुप हो,
पर काश कि किस्मत में कोई सुधार होता।।
*
सुख दुखों की एक आकस्मिक रवानी जिंदगी
हार-जीतों की की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी
व्यक्ति श्रम और समय को सचमुच समझता बहुत कम
इसी से संसार में धूमिल कई की जिंदगी ।।1।।
कहीं कीचड़ में फँसी सी फूल सी खिलती कहीं
कहीं उलझी उलझन में, दिखती कई की।
पर निराशा के तमस में भी है आशा की किरण
है इसीसे तो है सुहानी दुखभरी भी जिंदगी ।।2।।
कहीं तो बरसात दिखती कहीं जगमग चाँदनी
कहीं हंसती खिल-खिलाती कहीं अनमन जिंदगी।
भाव कई अनुभूतियाँ कई, सोच कई, व्यवहार कई
पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी ।।3।।
सह सके उन्होंने ही सजाई है कई की जिंदगी
कठिनाई से जो उनने नित रचा इतिहास
सुलभ या दुख की महत्ता कम, महत्ता है कर्म की
कर्म से ही सजी सॅवरी हुई सबकी जिंदगी ।।4।।
*
मोहब्बत से नफरत की जब मात होगी,
तो दुनिया में सचमुच बड़ी बात होगी।

यहाँ आदमी-आदमी जब बनेगा,
तभी दिल से दिल की सही बात होगी।

हरेक घर में खुशियों की होंगी बहारें,
कहीं भी न आँसू की बरसात होगी।

चमक होगी आँखों में, मुस्कान मुंह पै,
सजी मन में सपनों की बारात होगी।

सुस्वागत हो सबके सजे होंगे आँगन,
सुनहरी सुबह, रूपहली रात होगी।

न होगा कोई मैल मन में किसी के,
जहाँ पे ये अनमोल सौगात होगी।

सभी मजहब आपस में मिल के रहेंगे,
नई जिंदगी की शुरूआत होगी। 
*
बहुत कमजोर है मन 
बहुत कमजोर है ये मन जहाँ जाता फिसल जाता
समझने को बहुत है, पर बहुत कम ये समझ पाता।।
धरा पर हर कदम हर क्षण अनेकों दिखते आकर्षण
जहाँ भी ये चला जाता, बचा खुद को नहीं पाता।।
अचानक ही लुभा लेती दमकती रूपसी माया
सदा अनजान सा नादान ये लालच में फँस जाता।।
जहाँ मिलती कड़कती धूप में इसको घनी छाया
वहीं पर बैठ कुछ पल काटने को ये ललच जाता।।
तरसता है उसे पाने, जहाँ दिखती सरसता है
जिन्हें अपना समझता है नहीं उनसे कोई नाता।।
नदी से तेज बहती धार है दुनिया में जीवन की
कहीं भी अपनी इच्छा से नहीं कोई ठहर पाता।।
सयाने सब बताते है, ये दुनिया एक सपना है
जो भी मिलता है सपने में नहीं कोई काम है आता।।
सिमटते जब सुहाने दिन धुंधली शाम जाती है
समय जबलपुर बीत जाता है दुखी मन बैठ पछताता।।
भले वे हैं जो आने वाले कल का ध्यान रखते हैं
उन्हीं के साथ औरों का भी जीवन तक सॅवर जाता।।
*
परेशानी हुआ करती हैं दिल को इन्तजारों में
खुशी मिलती भला किसको कभी झूठे सहारों में।
किसी के आसरे का सच में कोई भी भरोसा क्या ?
मिलीं नाकामियाँ उनसे भी थे जो हम गंवारों में।
जहाँ जो आज है शायद न कल वैसा वहाँ होगा
बदलती रहती है दुनिया, नये दिन नये नजारों में।
कहाँ पर्वत ढहेंगे कल, कहाँ भूचाल आयेंगे
नजूमी भी बता सकते नहीं पढ़के सितारों में।
किसी के कल के बारे में कहा कुछ भी न जा सकता
हुआ करते फरक कईयों के कामों औ' विचारों में।
कभी जिन्ना अलमबरदार थे हिन्दू मुसलमॉ के
औ' जाते-जाते थे हिन्दोस्तॉ के जॉ निसारों में।
बना गये मगर पाकिस्तॉ, मिटा दस लाख लोगों को
जो सदियों से बसे थे अपने घर औ' कारबारों में।
हुई बरबादियाँ जैसी कभी भूली न जायेंगी
बराबर याद की जायेंगी नये इतिहासकारों में।
चमक तो ऊपरी दिखती सभी आँखें को आकर्षक
मगर दिल की चमक होती किसी इक की हजारों में।
किसी के दिल को कोई पर भला कब जान पाया है ?
दमकते हीरों से ज्यादा है ककड़ आबशारों में।
वहीं 'इकबाल' जिनने लिख्खा था 'हिन्दोस्तॉ प्यारा'
चले गये छोड़ हिन्दोस्तॉ, बॅटा इसको दो धारों में।
मन में और कुछ होता है, मुँह कुछ और कहता है
कभी दिखती नहीं बिजली जो दौड़ा करती तारों में।
बहुत मुश्किल है कुछ भी भॉप पाना कल कि क्या होगा।
हुआ करतीं बहुत सी बातें जब केवल इशारों में।
हजारों बार धोखे उनसे भी मिलते जो अपने हैं
सचाई को छुपाये रखते हैं, मन के विचारों में।
भला इससे सही है अपने पैरों पै खड़े होना
नहीं अच्छा समय खोना निरर्थक इन्तजारों में।
*
बीत गये जो दिन उन्हें वापस कोई पाता नहीं
पर पुरानी यादों को दिल से भुला पाता नहीं।
बहती जाती है समय के साथ बेबस जिंदगी
समय की भॅवरों से बचकर कोई निकल पाता नहीं।
तरंगें दिखती हैं मन की उलझनें दिखती नहीं
तट तो दिखते हैं नदी के तल नजर आता नहीं।
आती रहती हैं हमेशा मौसमी तब्दीलियाँ
पर सहज मन की व्यथा का रंग बदल पाता नहीं।
छुपा लेती वेदना को अधर की मुस्कान हर
दर्द लेकिन मन का गहरा कोई समझ पाता नहीं।
उतर आती यादें चुप जब देख के तन्हाइयाँ
वेदना की भावना से कोई बच पाता नहीं।
जगा जाती आके यादें सोई हुई बेचैनियाँ
किसी की मजबूरियों को कोई समझ पाता नहीं।
जुड़ गया है आँसुओं का यादों से रिश्ता सघन
चाह के भी जिसको कोई अब बदल पाता नहीं।
*
आदमी से बड़ा दुश्मन आदमी का कौन है ?
गम बढ़ा सकता जो लेकिन गम घटा सकता नहीं।।
हड़प सकता हक जो औरों का भी अपने वास्ते
काट सकता सर कई, पर खुद कटा सकता नहीं।।
बे वजह, बिन बात समझे, बिना जाने वास्ता
जान ले सकता किसी की, जान दे सकता नहीं।।
कर जो सकता वारदातें, हर जगह, हर किस्म की
पर किसी को, मॉगने पर प्यार दे सकता नहीं।।
चाह कर भी मन के जिसकी थाह पाना है कठिन
हँस तो सकता है, मगर खुल कर हँसा सकता नहीं।।
रहके भी बस्ती में अपना घर बनाता है अलग
साथ रहता सबके फिर भी साथ पा सकता नहीं।।
नियत गंदी, नजर पैनी, चलन में जिसके दगा
बातें ऐसी घाव जिनका सहज जा सकता नहीं।।
सारी दुनिया में यही तो कबड्डी का खेल है
पसर जो पाया जहाँ पर, फिर सिमट सकता नहीं।।
कैसे हो विश्वास ऐसे नासमझ इन्सान पर
जो पटाने में है सबको खुद पै पट सकता नहीं।।
*
नहीं लगता 
लगाना चाहता हूँ पर कहीं भी मन नहीं लगता
जगाना चाहता उत्साह पर मन में नहीं जगता।।
न जाने क्या हुआ है छोड़ जब से तुम गई हमको
उदासी का कुहासा है सघन, मन से नहीं हटता
वही घर है, वही परिवार, दुनिया भी वही जो थी
मगर मन चाहने पर भी किसी रस में नहीं पगता।।
तुम्हें खोकर के सब सुख चैन घर के उठ गये सबके
घुली है मन में पीड़ा किसी का भी मन नहीं लगता।।
तुम्हारे साथ सुख-संतोष-सबल जो मिले सबको
उन्हीं की याद में उलझा किसी का मन नहीं लगता।।
अजब सी खीझ होती है मुझे तो जगमगाहट से
अचानक आई आहट का वनज अच्छा नहीं लगता।।
हमेशा भीड़-भड़भड़ से अकेलापन सुहाता है
तुम्हारी याद में चिंतन-मनन में मन नहीं लगता।।
सदा बेटा-बहू का प्यार-आदर मिल रहा फिर भी
तुम्हारी कमी का अहसास हरदम, हरजगह खलता।।
न जाने जिंदगी के आगे के दिन किस तरह के हों
नया दिन अच्छा हो फिर भी गये दिन सा नहीं लगता।।
*
आदमीयत से बड़ा जग में नहीं कोई धरम

आदमी को फूलों की खुशबू लुटानी चाहिये।
दोपहर में भी न मुरझा मुस्कराना चाहिये।।
बदलता रहता है मौसम, हर जगह पर आये दिन
बेवफा मौसम को भी अपना बनाना चाहिये।
मान अपनी हार अँधियारों से डरना है बुरा
मिटाने को अँधेरे दीपक जलाना चाहिये।
मुश्किलें आती हैं अक्सर हर जगह हर राह में
आदमी को फर्ज पर अपना निभाना चाहिये
क्या सही है, क्या गलत है, क्या है करना लाजिमी
उतर के गहराई में, खुद मन बनाना चाहिये।
जिन्दगी के दिन हमेशा एक से रहते नहीं
अपने खुद पर रख भरोसा बढ़ते जाना चाहिये।
जो भी जिसका काम हो, हो जिन्दगी में जो जहाँ
नेक नियति से उसे करके दिखाना चाहिये।
आदमीयत से बड़ा जग में है नहीं कोई धरम
बच्चों को सद्भाव की घुट्टी पिलाना चाहिये।
चार दिन की जिंदगी में बाँटिये सबको खुशी
खुदगरज होके न औरों को सताना चाहिये।
किसी का भी दिल दुखे न हो सदा ऐसा जतन
भलाई कर दूसरों की, भूल जाना चाहिये।
*
हिलमिल रहो दो दिन को सभी आये हुए है 
परचम लिये मजहब का जो गरमाये हुए हैं
आवाज लगा लड़ने को जो आये हुए हैं।
उनको समझ नहीं है कि मजहब है किस लिये
कम अक्ल हैं बेवजह तमतमाये हुए हैं।
नफरत से सुलझती नहीं पेचीदगी कोई
यों किसलिये लड़ने को सर उठाये हुए हैं।
मजहब तो हर इन्सान की खुशियों के लिये हैं
ना समझी में अपनों को क्यों भटकाये हुए हैं।
औरों की भी अपनी नजर अपने खयाल हैं
क्यों तंगदिल ओछी नजर अपनाये हुए हैं।
दुनिया बहुत बड़ी है औ' ऊंचा है आसमान
नजरें जमीन पै ही क्यों गड़ाये हुए है।
फूलों के रंग रूप औ' खुशबू अलग है पर
हर बाग की रौनक पै सब भरमाये हुए हैं।
मजहब सभी सिखाते है बस एक ही रास्ता
हिल-मिल रहो, दो दिनों को सभी आये हुए हैं।
कुदरत भी यही कहती है-दुख को सुनो-समझो
जीने का हक खुदा से सभी पाये हुए हैं।
इन्सान वो इन्सान का जो तरफदार हो
इन्सानियत पै जुल्म यों क्यों ढाये हुए हैं।
*
चोटों पै चोट दिल पै कई खाये हुए है।
दुख-दर्दों को मुस्कानों में बहलाये हुए हैं।।
जब से है होश सबके लिये खपता रहा मैं
पर जिनको किया सब, वही बल खाये हुए हैं।।
करता रहा हर हाल मुश्किलों का सामना
पर जाने कि क्यों लोग मुँह फुलाये हुए हैं।।
गम खाके अपनी चोट किसी से न कह सका
हम मन को कल के मोह में भरमाये हुए हैं।।
लगता है अकेले कहीं पै बैठ के रोयें
किससे कहें कि कितने गम उठाये हुए हैं।।
औरों से शिकायत नहीं अपनों से गिला है
जो मन पै परत मैल की चिपकाये हुए हैं।।
दिल पूछता है मुझसे कि कोई गल्ती कहाँ है ?
धीरज धरे पर उसको हम समझाये हुए हैं।।
देखा है इस दुनिया में कई करके भी भलाई
अनजानों से बदनामी ही तो पाये हुए हैं।।
करके भी सही औरों को हम खुश न कर सके
पीड़ा का भारी बोझ ये उठाये हुए हैं।।
*
सुना है, लोग कहते है, ये दुनिया एक सपना है
अगर ये सच है तो फिर सच में कहो क्या है जिंदगी अपनी।।
जमाने में तो बिखरे हैं कहीं आँसू कहीं खुशियाँ
इन्हीं संग बितानी पड़ती है सबको जिन्दगी अपनी।।
है छोटी जिंदगी कीमत बड़ी पर श्रम समय की है
सजाते है इसी पूंजी से हम सब जिंदगी अपनी।।
समझते नासमझ कम है यहाँ पर मोल माटी का
सजानी पड़ती माटी से ही सबको जिंदगी अपनी।।
है जीवन तीर्थ सुख-दुख वाली गंगा जमुना का संगम
तपस्या में खपानी पड़ती सबको जिंदगी अपनी।।
कहानी है अजब इस जिंदगी की, कहना मुश्किल है
कहें क्या कोई किसी से कैसी है ये जिंदगी अपनी ?
कोई तो है जो इस दुनिया को चुप ढंग से चलाता है
निभानी पड़ती है मजबूरियों में जिंदगी अपनी।।
यहाँ सब जो कमाते हैं सभी सब छोड़ जाते हैं
नहीं ये दुनिया अपनी है, न ही ये जिंदगी अपनी।।
हरेक की दृष्टि अपनी है, हरेक का सोच अपना है
अगर कुछ है नहीं अपना तो क्या यह जिंदगी अपनी ?
*
एक तो जागृत प्रकृति है, दूसरा इन्सान है
बुद्धि और विवेक का जिसको मिला वरदान है।
निरन्तर चिन्तन मनन से कर्म से विज्ञान से
नव सृजन के प्रति सजग नित मनुज ही गतिवान है।
भूमि-जल-आकाश में जो भी जहाँ कुछ दिख रहा
वह सभी या तो प्रकृति या मनुज का निर्माण है।
प्रकृति पर भी पा विजय इन्सान आगे बढ़ गया
और आगे कर रहा नित नये अनुसंधान है।
चल रहा उसकी प्रगति का बिन रूकावट सिलसिला
अपरिमित ब्रम्हाण्ड में उड़ रहा उसका यान है।
खोज जारी है रहस्यों की तथा भगवान की
अमित भौतिक आध्यात्मिक विजय का अभियान है।
आदमी से बड़ा कोई नहीं दिखता विश्व में
वास्तव में आदमी ही इस जगत का प्राण है।
प्रकृति औ' परमात्मा ही हैं नियंता विश्व के
साथ ही पर मुझे लगता तीसरा इन्सान है।
चेतना परिव्याप्र है जो मानवी मस्तिष्क में
शायद यह ही चेतना इस विश्व में भगवान है।
*
दम भरते है दुनिया में सब अपनी शराफत का
विश्वास नहीं होता पर उनकी वफाओं में।।
थोड़े है लोग ऐसे मालिक जो अपने मन के
ज्यादा तो दबे दिखते औरों के प्रभावों में।।
सब सुख सुलभ हैं जिनको वे लोग तो थोड़े हैं
एक भीड़ जी रही हैं दुनिया में अभावों में।
कितने हैं जिनकी खबरें अखबारों में छपती हैं।
बहुतों की तो उड़ जाती हर रोज हवाओं में।।
सोने की खदानें तो दुनिया में गिनी सी हैं
है कोयले की खानें ही थोक के भावों में।।
कितनों की सिसकियों की आवाज नहीं होती
एक दर्द लिये बैठे है वर्षों से घावों में।।
रोये भला क्या रोना सरकार से कोई दुख का
जब असर नहीं कुछ भी है उनकी दवाओं में।।
*
मुस्कानों में दुख-दर्द को बहलाये हुए हैं
चोटों पै चोट दिल पै कई खाये हुए हैं।
है याद मैं जब से चला खपता ही रहा हूँ
पर फर्ज को कर याद बढ़े आये हुए हैं।
करता रहा आये दिनों मुश्किल का सामना
किससे कहें कि किस तरह सताये हुए हैं।
जिसने जो कहा सुन लिया पर जो सही किया
इससे ही उलझनों से निकल आये हुए हैं।
हित करके सबके साथ ही कुछ भी न पा सका
चुप सारा बोझ अपना खुद उठाये हुए हैं।
औरों से तो कम अपनों से ही ज्यादा मिला है
जो बेवजह ही अपना मुंह फुलाये हुए है।
मन पूछता है बार-बार गल्ती कहा है ?
चुप रहने की पर हम तो कसम खाये हुए हैं।
लगता है अकेले में कही बैठ के रोयें
पर तमगा समझदारी का लटकाये हुए हैं।
दुनिया ने किसी को कभी पूछा ही कहाँ है ?
संसार में सब स्वार्थ में भरमाये हुए हैं।
लगता है मुझे यहाँ पै कुछ हर एक दुखी हैं
यह सोच अपने मन को हम समझाये हुए हैं।
अवसाद के काँटों से दुखी मन को बचाने
आशा के मकड़जालों में उलझाये हुए हैं।
पर जिसका हर कदम पै सहारा रहा सदा
खो उसको नैन आज फिर भर आये हुए हैं।।
*
 है 
अकेला भी आदमी जीता तेा है संसार में
जिंदगी पर काटनी पड़ती सदा दो चार में।
कटके दुनिया से कहीं कटती नहीं है जिन्दगी
सुख कहीं मिलता तो मिलता है वो सबके प्यार में।
लोभ में औ' स्वार्थ में खुद को समेटे आदमी
ऐंठ करके समझता है सुख है बस अधिकार में।
पर वहाँ तो खोखलापन और बस अलगाव है
सुख तो बसता प्रेम के रिश्तों भरे परिवार में।
भुलाने की लाख कोई कोशिश करे पर आप ही
याद आते अपने हर एक पर्व औ' त्यौहार में।
जहाँ होते चार बर्तन, खनकते भी हैं कभी
सबकी रूचियाँ-सोच होते हैं अलग घर-बार में।
मन में जो भी पाल लेते मैल, वे घुटते हैं पर
क्योंकि कोई भाव कब स्थिर रहे बाजार में।
जो जहाँ हो खुश रहें सब, हरे हों, फूले फले
समय पर मिलते रहें क्या रखा है तकरार में।
कमाई कोई किसी की छीन तो लेता नहीं
खुशियाँ फलती फूलती हैं प्रेम के व्यवहार में।
चर दिन की जिंदगी है कुछ समय का साथ है
एक दिन खो जाना सबको एक घने अंधियार में।
है समझदारी यही सबको निभा, सबसे निभें
जग तो मेला है जो उठ जाता घड़ी दो-चार में।
*
मनुज मन को हमेशा कल्पना से प्यार होता है
बसा उसके नयन में एक सरस संसार होता है।
जिसे वह खुद बनाता है, जिसे वह खुद सजाता है
कि जिसका वास्तविकता से अलग आकार होता है।
जहाँ हरयालियाँ होती, जहाँ फुलवारियाँ होती
जहाँ रंगीनियों से नित नया अभिसार होता है।
जहाँ कलियाँ उमंगती है जहाँ पर फूल खिलते हैं
बहारों से जहाँ मौसम सदा गुलजार होता है।
जहाँ पर पालतू बिल्ली सी खुशियाँ लोटती पग पै
जहाँ पर रेशमी किरणों का वन्दनवार होता है।
अनोखी होती है दुनिया सभी की कल्पनाओं की
जहाँ संसार पै मन का मधुर अधिकार होता है।
जहाँ सब होते भी सच में कहीं कुछ भी नहीं होता
मगर सपनों में बस सुख का सुखद संचार होता है।
*
कोसिये मत भाग्य को, निज भाग्य को पहचानिये
भाग्य अपने हाथ में है, कुछ तो, इतना जानिये।
ज्ञान औ' विज्ञान हैं आँखें दो, इनसे देखिये
भाग्य अपना, अपने हाथों, आप स्वयं सजाइये।
बीत गये वे दिन कि जब सब आदमी मजबूर थे
अब तो है विज्ञान का युग, हर खुशी घर लाइये
एक मुँह तो हाथ दो-दो, दिये हैं भगवान ने
बात कम, श्रम अधिक करने को तो आगे आइये।
अब न दुनिया सिर्फ, अब तो चाँद-तारे साथ हैं
क्या, कहाँ, कब, कैसे, क्यों प्रश्नों को भी सुलझाइये।
जरूरी है पुस्तकों से मित्रता पहले करें
हम समस्या का सही हल उनको पढ़कर पाइये।
पढ़ना-लिखना है जरूरी जिससे बनता भाग्य है
जिंदगी को नये साँचे में समझ के सजाइये।
बदलती जाती है दुनिया अब बड़ी रफ्तार से
आप पीछे रह न जायें तेज कदम बढ़ाइये
जो बढ़े, बन गये बड़े, हर जगह उनका मान है
आप भी पढ़ लिख के खुद सबको यही समझाइये।
सोच श्रम औ' योजनायें बदलती परिवेश को
खुद समझ सब, अपने हाथों अपना भाग्य बनाइये।
*
समय हर पल बदलता है, जमाने का भरोसा क्या ?
अभी जो है, क्या होगा कल। जमाने का भरोसा क्या ?
दिया करता समय सबको अचानक ही बिना मॉगे
कभी वन या कि सिंहासन, जमाने का भरोसा क्या ?
था बनना राम को राजा, मगर जाना पड़ा वन को
किसी को था कहाँ मालूम, जमाने का भरोसा क्या ?
अचानक होते, परिवर्तन यहाँ पर तो सभी के संग
कहाँ बिछुडे, मिले कोई, जमाने का भरोसा क्या ?
कभी तूफान आ जाते कभी तारे चमक उठते
हो बरसातें या शुभ रातें जमाने का भरोसा क्या ?
बहुत अनजान है इन्सान, है लाचार भी उतना
मिले अपयश या यश किसको, जमाने का भरोसा क्या ?
सुबह आ बाँट जाते दिन उदासी याकि नई खुशियाँ
यादें जायें समस्या कोई जमाने का भरोसा क्या ?
कभी बनती परिस्थितियाँ जो बढ़ा जाती हैं बेचैनी
कभी नये फूल खिल जाते जमाने का भरोसा क्या ?
बनी है जिंदगी शायद सभी स्वीकार करने को
मिलें कब आहें या चाहे, जमाने का भरोसा क्या ?
*
औरों के हर किये की खिल्ली उड़ाने वालों
अपनी तरफ भी देखो, खुद को जरा संभालो।
बस सोच और बातें देती नहीं सफलता
खुद को बड़ा न समझो, अभिमान को निकालो।
हासिल नहीं होता कुछ भी, डींगें हाँकने से
कथनी के साथ अपनी करनी पै नजर डालो।
सुन-सुन के झूठे वादे पक गये हैं कान सबके
जो कर न सकते उसके सपने न व्यर्थ पालो।
सब कर न पाता पूरा कोई भी कभी अकेला
मिलकर के साथ चलने का रास्ता निकालो।
आशा लगाये कब से पथरा गई हैं आँखें
चाही बहार लाने के दिन न और टालो।
जो बीतती है मन पै किससे कहो बतायें
बदरंग हुए घर को नये रंग से सजालो।
कोई 'विदग्ध' अड़चन में काम नहीं आते
कल का तो ध्यान रख खुद बिगड़ी तो बना लो।
*
सदियों से नित रहा है आदर्श ये हमारा
धरती हमारी माँ है, ईश्वर पिता हमारा।
जो भी जहाँ है, सब हैं भगवान के बनाये
भारत हमारा घर है, परिवार विश्व सारा।
रॅग, धर्म, देश, भाषा के भेद ऊपरी हैं
होता है सबसे प्यारा, आपस का भाईचारा।
कठिनाई की घड़ी में सबके जगाये ममता
कोई न हो अकेला थक, जिन्दगी से हारा।
ओछे विचार कोई भी सोच में न आयें।
प्रतिपल रहे प्रवृत्ति गंगा सी स्नेह धारा।
सादा सरल हो जीवन, पावन हों भावनायें
निश्छल हों कर्म जैसे पंकज प्रफुल्ल प्यारा।
हो विश्व को सजाने में योगदान सबका
जैसे सजाता नभ को जगमग हरेक तारा।
*
रहते भी इसी दुनिया में कभी दुनिया न सकी जा पहचानी
जाने कब ये घात करे, जाने कब कोई मेहरबानी।
जिनको कहते अपना उनसे भी दुख न मिले, ऐसा न हुआ
इन आँखों ने देखा है उन्हें भी करते अपनी मनमानी।
मन के पक्के विश्वासों के भी उठ जाते विश्वास सभी
जब दुख में साथ निभा पाने को करते वे आनाकानी।
मन आशाओं के झूलों पर झूला करता दिनरात यहाँ
पर कुछ न पाता कल पायेगा मुस्कान या आँखों में पानी।
दुनिया दिखती जितनी सुन्दर सच में न कहीं वैसी है कभी
परवाह किसी की इसको नहीं, हर चाल है इसकी मस्मानी।
दिन आये नये पंछी से यहाँ, गये छोड़ सदा अपनी यादें
जो आ अक्सर मेहमानों सी कर जाया करती मेहमानी।
गर्मी, सर्दी, बरसात सदा होती है समय की मर्जी पर
सहनी पड़ती सबको है यहाँ मौसम की हमेशा मनमानी।
आसान हुई विज्ञान से कई जीवन की पुरानी कठिनाई
पर दुनिया की चालों में उलझ, मुश्किल में गई फँस आसानी
सदियों के पुराने ढर्रों पर चलते जाते हैं लोग यहाँ
रस्मों से बॅधी दुनिया है मगर हर रस्म यहाँ की बेमानी।
*
जग में सबको हँसाता है औ' रूलाता है समय
सुख औ' दुख को बताता है औ' मिटाता है समय।
चितेरा एक है यही संसार के श्रृंगार का
नई खबरों का सतत संवाददाता है समय।
बदलती रहती है दुनिया समय के संयोग से
आशा की पैंगों पै सबको नित झुलाता है समय।
भावनामय कामना को दिखाता नव रास्ता
साध्य से हर एक साधक को मिलाता है समय।
शक्ति शाली है बड़ा रचता नया इतिहास नित
किन्तु जाकर फिर कभी वापस न आता है समय।
सिखाता संसार को सब समय का आदर करें
सोने वालों को हमेशा छोड़ जाता है समय।
है अनादि अनन्त फिर भी है बहुत सीमित सदा
जो इसे है पूजते उनको बनाता है समय।
हर जगह श्रम करने वालों को है इसका वायदा
एक बार 'विदग्ध' उसको यश दिलाता है समय।
*
बहुतों को जमाने में अपनी किस्मत से शिकायत होती है
क्योंकि उनका उल्टा-सीधी करने की जो आदत होती है।।
जलने वाले दीपों की व्यथा लोगों की समझ कम आती है
सबको अपनी औ' अपनों की ही ज्यादा हिफाजत होती है।।
नापाक इरादों को अपने सब लोग छुपाये रखते हैं
औरों की सुहानी दुनिया को ढाने की जहालत होती है।।
अनजान के छोटे कामों की तक खुल के बड़ाई की जाती
पर अपने रिश्तेदारों से अनबन व अदावत होती है।।
कई बार किये उपकारों तक का कोई सम्मान नहीं होता
पर खुद के किये गुनाहों तक की बढ़चढ़ के वकालत होती है
अपनी न बता औरों की सदा ताका-झॉकी करते रहना
बातों को बताना बढ़चढ़ के बहुतों की ये आदत होती है।।
केवल बातों ही बातों से बनती है कोई बात नहीं
बनती है समय जब आता औ' ईश्वर की इनायत होती है।।
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों में जाने से मिला भगवान कहाँ ?
मिलते हैं अकेले में मन से जब उनकी इबादत होती है।।
जो लूटते औरों को अक्सर एक दिन खुद ही लुट जाते हैं
दौलत तो 'विदग्ध वहाँ बसती जिस घर में किफायत होती है।।
*
दूर अपनों से ही अपने हो गये अब इस कदर
सुख-दुखों की उनकी खबरों तक का होता कम असर।
दुनिया तो छोटी हुई पर बटीं दिल की दूरियाँ
रिश्तेदारों को बताने के लिये है नाम भर।
नहीं रह गई रिश्तेदारों की कोई परवाह अब
अकेले ही चल रहा है हरेक जीवन का सफर।
खून के रिश्तों में भी अब खून की गर्मी नहीं
फोन पर भी बात करने की न कोई करता फिकर
दरारें दिखती हैं हर परिवार की दीवार में
दूर जाकर बस गये हैं लोग इससे छोड़ घर।
अपनी-अपनी राह सब चलने लगे नई उम्र के
बड़े बूढ़ों का न ही आदर रहा न कोई डर।
हर एक का आहत है मन सम्बन्धियों की चाल से
सह रहे चुपचाप पर मन मारके करके सबर
समय संग है फर्क आया सभी के व्यवहार में
हर जगह चाहे हो कस्बा, गांव या कोई शहर।
जमाने की हवा नें बदला है सबको बेतरह
होके नाखुश भी किसी से कोई नहीं सकता बिफर
मानता मन जब नहीं उठती है ममता की लहर
पूछ लेते दूसरों से अपनों की अच्छी खबर।
*
मुझे जो चाहते हो तुम, तुम्हारी ये मेहरबानी
मगर कोई बात मेरी तुमने अब तक तो नहीं मानी।
परेशॉ देखके तुमको मुझे अच्छा नहीं लगता
जो करते प्यार तो दे दो मुझे अपनी परेशानी।
तुम्हें संजीदा औ' चुप देख मन मेरा तड़पता है
कहीं कोई कर न बैठे वक्त हम पर कोई नादानी।
मुझे लगता समझते तुम मुझे कमजोर हिम्मत का
तुम्हारी इस समझदारी में दिखती मुझको नादानी।
हमेशा अपनी कह लेने से मन का बोझ बंटता है
मगर मुझको बताने में तुम्हें है शायद हैरानी।
मुसीबत का वजन कोई सहारा पा ही घटता है
तुम्हारी बात सुनने से मुझे भी होगी आसानी।
जो हम तुम दो नहीं है, एक हैं, तो फिर है क्या मुश्किल ?
नहीं होती कभी अच्छी किसी की कोई मनमानी।
नहीं कोई, जमाने में मोहब्बत से बड़ा रिश्ता
तुम्हारी चुप्पियाँ तो हैं मोहब्बत की नाफरमानी।
परेशॉ हूँ तुम्हारी परेशानी और चुप्पी से
'विदग्ध' दिल की बता दोगे तो हट सकती परेशानी।
*
विश्व भौतिक है मगर, आध्यात्मिक है जिंदगी' 
बुराई बढ़कर भी आई हारती हर काल में
मकड़ियाँ फँसती रही नित आप अपने जाल में।।
समझता हर व्यक्ति खुद को सदा औरों से भला
पर भला वह है जो हो वैसा सबों के ख्याल में।।
वे बुरे जन जो हैं जीते आज ऊॅची शान से
कल वही जाते हैं देखे भटकते बद हाल में।।
कर्म से किस्मत बनाई जाती है अपनी स्वतः
है नहीं सच यह कि सब कुछ लिखा सबके भाल में।।
प्रकृति देती पौधों को सुविधायें प्रायः एक सी
बढ़ते हैं लेकिन वही, जीते हैं जो हर हाल में।।
धूप, आँधी, शीत, वर्षा, उमस सह लेते हैं जो
फूल सुन्दर सुरभिमय खिलते उन्हीं की डाल में।।
सत्य, श्रम, सद्कर्म मानव धर्म है हर व्यक्ति का
आदमी लेकिन फँसा है व्यर्थ के जंजाल में।।
मन में जिनके मैल, अधरों पै कुटिल मुस्कान है
तमाचा पड़ता सुनिश्चित कभी उनके गाल में।।
चाहते जो जिंन्दगी में सुख यहाँ संसार में
स्वार्थ कम, चिन्ता अधिक सबकी करें हर हाल में।।
विश्व भौतिक है मगर आध्यात्मिक है जिंदगी
ध्यान ऐसा चाहिये हम सबको हर आमाल में।।
*
खुशी मिलती हमेशा सबको, खुद के ही सहारों में।
परेशानी हुआ करती सभी को इन्तजारों में।।
किसी के भी सहारे का, कभी भी कोई भरोसा क्या,
न रह पाये यहाँ वे भी जो थे परवरदिगारों में।।
यहाँ जो आज हैं नाजिर न रह पायेगे कल हाजिर
बदलती रहती है दुनिया नये दिन नये नजारों में।।
किसी के कल के बारे में कहा कुछ जा नहीं सकता
बहुत बदलाव आते हैं समय के संग विचारों में।।
किसी के दिल की बातों को कोई कब जान पाया है?
किया करती हैं बातें जब निगाहें तक इशारों में।।
बड़ा मुश्किल है कुछ भी भॉप पाना थाह इस दिल की
सचाई को छुपायें रखता है जो अंधकारों में।।
हजारों बार धोखे उनसे भी मिलते जो अपने हैं
समझता आया दिल जिनको कि अपने जॉनिसारों में।।
भला इससे यही है अपने खुद पै भरोसा करना
बनिस्बत बेवजह होना खड़े खुद बेकरारों में।।
जो अपनी दम पै खुद उठ के बड़े होते हैं दुनिया में
उन्हीं को मान मिलता है चुनिन्दा कुछ सितारों में।।
*
बढ़ती मुँहगाई के चलते ये सोच के जी घबराता है
कल आनेवाली दुनिया का भगवान न जाने क्या होगा।
मौसम भी बदल चाहे जब तब करता रहता है मनमानी
वर्षा बिन प्यासी धरती का प्रतिदान न जाने क्या होगा।
पानी ही जग का जीवन है, पानी बिन बड़ी परेशानी
बिजली-पानी बिन भोजन का सामान न जाने क्या होगा।
रूपये का गया घट मान बहुत, व्यवहारों में बाजारों में
है चिन्ताओं का बोझ बढ़ा अरमान न जाने क्या होगा ?
नये रीति रिवाजों का है चलन, व्यवहार बदलते आये दिन
मुश्किल में फँसी हर जान है जब, आसान न जाने क्या होगा।
रहना पड़ता है लोगों को, बेमन से अधूरी छाया में
बढ़ती जाती नित बेचैनी, आधान न जाने क्या होगा।
माहौल गरम, दिल बैठा है, हर नये दिन नई लड़ाई है
बेदर्द जमाना मन मौजी, अनुमान न जाने क्या होगा।
दब कर भी अनेकों बोझों में, एक बुझी-बुझी मुस्कान लिये
परवशता में पिसता कल का इन्सान न जाने क्या होगा।
दिखती न कहीं भी कोई डगर जहाँ छाया हो तूफान नहीं
अरमान 'विदग्ध' उड़े जाते भेगवान न जाने क्या होगा।
*
नवयुवाओं देश की नव शक्ति हो, अभिमान हो तुम
राष्ट्र की कल की सुदृढ़ संभावना के प्राण हो तुम।
हर नये युग में सृजन का भार युवकों ने सम्हाला,
तुम्हारे ही ओज ने रच विश्व का इतिहास डाला।
प्रगति पथ पर तुम्हीं ने हरक्षण नया कौतुक किया है
क्रांति में भी शांति में भी, नित नया जीवन दिया है।।
तुम्हारी ही दृष्टि पै है सृष्टि, युग निर्माण हो तुम ।।1।। नव युवकाओं
ले मनोरम कल्पना, कल का सजायें सुघर सपना
कठिन लंबी यात्रा पर चल रहा है देश अपना।
लक्ष्य निश्चित, पथ कठिन है, राह है तुमको बनानी
पीढ़ियों के लिये भी जो अनुकरण की हो निशानी।।
उलझनों के बीच शुभ संकल्प के सन्धान हो तुम।।2।। नव युवाओं
मिटा पसरे अँधेरों को तुम सुनहरा प्रात देना
पोंछ कर हर नयन के आँसू, सुखद सौगात देना।
हर थके-हारे चरण को है तुम्हारा ही सहारा
धो सके हर हृदय का दुख, भावमय शुभ श्रम तुम्हारा।।
भव्य भारत की तुम्हीं अभिव्यक्ति हो, अरमान हो तुम।।3।। नव युवाओं
साथ ले सबको, सजग हो तुम सुपथ ऐसा बनाना,
युगों तक सद्भावना से चल सके जिस पर जमाना।
आ रहे कल की सफलता का सबल विश्वास तुम पर
शहीदों की अधूरी इच्छाओं की है आस तुम पर।।
देश की है लाज तुम पर, देश को वरदान हो तुम ।।
*
चेहरा हर एक उदास है, चिन्तित हर परिवार
रौनक खोते जा रहे, अब सारे त्यौहार।।
महंगा इतना हो गया अब सारा बाजार
केवल वेतन पर कठिन चलना घर-संसार।।
रूपया कर पाता नहीं अब रूपये का काम
पैसा से भी कम हुआ घटकर उसका दाम।।
दस रूप्ये में महीने भर चलता था जो काम
आज हजारों में नहीं मिलता वह आराम।।
सबको बहुत सता रही महंगाई की मार
दिखता उसके सामने शासन तक लाचार।।
करने कभी खरीद यदि जाना हो बाजार
तो कम से कम चाहिये रूपये एक हजार।।
रोटी-चावल-दाल सब्जी और आचार
थाली सह पाती नहीं इन सबका अब भार।।
किसी अतिथि के आगमन से डरते हैं लोग।।
महंगाई के संग बढ़े कई कपट व्यवहार
शोषण, हत्या, डकैती भीषण अत्याचार।।
फल, मिठाई, मेवे सभी के है अब इतने दाम
लेने भर को रह गये इन सबके बस नाम।।
आता था एक रूपये में पहले जो सामान
अब 'विदग्ध' है स्वर्ग-सुख सा उसका अनुमान
*
दिखता है आंदोलनों में अब जो अपराधीकरण
क्या है ये नव जागरण या लोकतंत्र पै आक्रमण
हर दिशा में बढ़ती जाती देश में नित गड़बड़ी
जिसमें स्वार्थों को भुनाने की है सबको हड़बड़ी।
किसी को चिन्ता नहीं है देश जन धन हानि की
पैरवी अपराध की होती, न मन की ग्लानि की।
जलाई जाती है होली राष्ट्र के सामान की
उड़ रही हैं धज्जियाँ विधि की तथैव विधान की।
उठ गई है मन से सबके त्याग तप की भावना
देश हित बंलिदान तक की अब न रही सराहना।
आये दिन उठते हैं झण्डे नये-नये पाखण्ड के
नजर आते भाव कम है एक देश अखण्ड के।
बंटा-बंटा समाज दिखता जाति-भाषा-धर्म में
एक मत दिखते बहुत कम, किसी भी सत्कर्म में।
आँधियों में उड़ रही है भावना बिखराव की
ना समझदारी के नारे, नीति नित टकराव की।
है जरूरत एकता की सही सोच विचार में
समझ हो, सद्भावना हो मानवीय व्यवहार में।
है समय की मॉग संयम, मेल, नव निर्माण की
सुदृढ़ हो संकल्प, मन में भावना उत्थान की।
भीड़तक औ' नासमझदारी है शत्रु विकास के
द्वेष देता काट धागे आपसी विश्वास के।
नियमों का आदर करें सब नवसृजन के वास्ते
बेतुके आंदोलनों से बढ़ती नई कठिनाइयाँ
कठिन हो जाती है क्षति की करनी फिर भरपाइयाँ।
हिंसा आंदोलन 'विदग्ध' मचाते जो उत्पात है
लोकतांत्रिक भावना पर वे कुठाराघात हैं।
*
अब आ गई है दुनिया ये ऐसे मुकाम पै
जो खोखला है, बस टिका है तामझाम पै।।
दिखते जो है बड़े उन्हें वैसा न जानिये
कई तो बहुत ही बौने हैं पैसे के नाम पै।।
युनिवर्सिटी में इल्म की तासीर नहीं है
अब बिकती वहाँ डिगरियाँ सरेआम दाम पै।।
आफिस हैं कई काम पै होता नहीं कोई
कुछ लेन देन हो तो है सब लोग काम पै।।
बाजारों में दुकानें है पर माल है घटिया
कीमत के हैं लेबल लगे ऊंचे तमाम पै।।
नेता है वजनदार वे रंगदार जो भी है
रंग जिनका सुबह और है, कुछ और शाम पै।।
तब्दीलियों का सिलसिला यों तेज हो गया
विश्वास बदलने लगे केवल इनाम पै।
मन्दिर औ' मस्जिदों में भी माहौल है ऐसा
शक करने लगे लोग हैं पण्डित इमाम पै।।
सारी पुरानी बातें तो बस बात रह गई
अब तो सहज ईमान भी बिकता है दाम पै।।
*
सुख दुखों की एक आकस्मिक रवानी जिन्दगी
हार-जीतों की बड़ी उलझी कहानी जिन्दगी।।
समय, श्रम और व्यक्ति को सचमुच समझता है कठिन
है अमर संसार लेकिन आनी-जानी जिंदगी ।।1।।
कहीं कीचड़ में घंसी सी, फूल सी खिलती कहीं
कहीं दिखती उलझनों में सुरभि सी मिलती कहीं।
हर निराशा में भी पर, संग में लिये आशा किरण
रंग बदलती रहती है इससे सुहानी जिंदगी ।।2।।
कहीं है काली घटासी, कहीं जगमग चाँदनी
कहीं हँसती खिखिलाती, कहीं बेहद अनमनी।
भाव कई, अनुभूतियाँ कई, सोच कई, व्यवहार कई
पर हमेशा भावना की राजधानी जिन्दगी ।।3।।
सहके सौ कठिनाइयाँ जिनने रचा इतिहास है
सुलभ उनको ही रहा इस विश्व का विश्वास है।
सुख या दुख की महत्ता कम, महत्ता है कर्म की
कर्म से ही सजी सॅवरी, हुई सयानी जिंदगी ।।
*
हँसी खुशियों से सजी हुई जिन्दगानी चाहिये
सबको जो अच्छी लगे ऐसी रवानी चाहिये।
समय केसंग बदल जाता सभी कुछ संसार में
जो न बदले, याद को ऐसी निशानी चाहिये।
आत्मनिर्भर हो न जो, वह भी भला क्या जिंदगी
न किसी का सहारा, न मेहरबानी चाहिये।
हो भले काँटों तथा उलझन भरी पगडंडियाँ
जो न भटकायें वही राहें सुहानी चाहिये
नजरे हो आकाश पर पर पैर धरती पर रहें
हमेशा हर सोच में यह सावधानी चाहिये।
हर नये दिन नई प्रगति की मन करे नई कामना
निगाहों में किन्तु मर्यादा का पानी चाहिये।
जहाँ मिलते है उड़ानों को नये-नये रास्ते
सद्विचारों की सुखद वह निगहबानी चाहिये।
बाँटती हो जहाँ सबको खुशबू ममता प्यार की
भावना को वह महकती रातरानी चाहिये।
हर अँधेरी रात में जो चमक पथ की खोज ले
बुद्धि की वह कौध बिजली आसमानी चाहिये।
मन 'विदग्ध' विशाल हो औ' हो समन्वित भावना
देश को जो नई दिशा दे वह जवानी चाहिये।
*
रूप जो दिखता जगत का है नहीं वह वास्तविक
समझने को सचाई मन बुद्धि चाहिये सात्विक।
भोग में आसक्त दुनिया फँसी मायाजाल में
समझ कम पाती है सच है तत्व क्या आध्यात्मिक।
पीटती रहती ढिंढोरा अपने धन औ' शक्ति का
करती रहती कई दिखावे धार्मिक अनुरक्ति का।
मानसिक चिन्तन-मनन तज, छोड़के सद्भावना
खोजती है रास्ता परमात्मा की भक्ति का।
अपने निर्मित किले में हर व्यक्ति दिखता बंद है
औरों की सुनने समझने मं जहाँ प्रतिबन्ध है।
प्रेम करूणा प्राणियों के प्रति ही सच्चा धर्म है
जग नियंता तो परम निरपेक्ष परमानन्द है।।
मस्त सब दिखते है लेकिन स्वार्थपूर्ण विचार में
लिप्त है पर कर्म ये इनसे तो सुख मिलता नहीं
जिन्दगी का सुख है सबको प्रीति के व्यवहार में।।
बॅधा है हर जीव निज कर्तव्य औ' अधिकार से
चल रहा, संसार सारा बस प्रकृति के प्यार से।
पंचतत्वों से बना यह विश्व सारा एक है
हैं गुथे संबंध सबके आंतरिक एक तार से।।
*
अचानक राह चलते साथ जो जब छोड़ जाते हैं
वे साथी जिन्दगी भर, सच, हमेशा याद आते हैं।
बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से सीचते रहिये
कठिन मौकों पै आखिर अपने ही तो काम आते हैं।
नहीं देखे किसी के दिन हमेशा एक से हमने
बरसते हैं जहाँ आँसू वे घर भी जगमगाते हैं।
बुरा भी हो तो भी अपना ही सबके मन को भाता है
इसी से अपनी टूटी झोपड़ी भी सब सजाते हैं।
समझना सोचना हर काम के पहले जरूरी है
किये कर्मों का फल क्योंकि हमेशा लोग पाते हैं।
जहाँ पाता जो भी कोई परिश्रम से ही पाता है
जो सपने देखते रहते कभी कुछ भी न पाते हैं।
बहुत सी बातें मन की लोग औरों से छुपाते हैं
अधर जो कह नहीं पाते नयन कह साफ जाते हैं।
*
अकेला चाहे भला हो आदमी संसार में
जिंदगी पर काटनी पड़ती सदा दो चार में।
कट के दुनिया से कहीं कटती नहीं हैं जिंदगी
सुख कहीं मिलता तो, मिलता है वो सबके प्यार में।
भुलाने की लाख कोई कोशिश करे पर हमेशा
याद आते अपने हर एक तीज औ' त्यौहार में।
जहाँ होते चार बरतन खनकते तो है कभी
अलग होते ही हैं सब रूचि सोच और विचारा में।
मन में जो भी पाल लेते मैल वे घुटते ही है
क्योंकि रहता नहीं स्थित भाव कोई बाजार में।
जो जहाँ जैसे भी हो सब खुश रहे फूलें-फलें
समय पर मिलते रहें, क्या रखा है तकरार में।
चार दिन की जिंदगी है, कुछ समय का साथ हैं
एक दिन खो जाना सबको एक घने अँधियार में
है समझदारी यही, सबको निभा सबसे निभें
जग तो मेला है जिसे उठ जाना है दिन चार में।
*
मंजिल कोई दूर नहीं है, चलने का अभ्यास चाहिये।
दूरी स्वयं सिमट जाती हैं, मन का दृढ़ विश्वास चाहिये।।
देखा है मानव को श्रम जल सींच उपल पर फूल खिलाते
मरूथल में सरिता ले जाते, पर्वत को मैदान बनाते
चलने अँधियारी रातों में, पथ पर आत्म प्रकाश चाहिये ।।1।।
दुनिया में है राह कौन सी जिस पर कभी न आई आँधी।
पर वह भी गति दे जाती है, मिले अगर विश्वासी गॉधी।।
अटपट पथरीली राहों पर प्रतिपल क्रमिक विकास चाहिये ।।2।।
बीते 'कल' की बात छोड़कर, बना 'आज' अब का जो स्वामी
आशा देख, प्रपंच छोड़ सब, जग बनता उसका अनुगामी।।
आने वाले 'कल' की छवि का आखों को आभास चाहिये ।।3।।
हर उलझन आसान बनेगी, खेल बनेगी भूल भुलैंयाँ
सागर की लहरों, भवरों को चीर बढ़ेगी आगे नैया
अपने पैरों चलने अपनी बाहों का बल पास चाहिये ।।4।।
मर्यादित है धन की महिमा, श्रम है नव युग का निर्माता
अब तो धन श्रम का चाकर है, श्रम दुनिया का भाग विधाता
श्रम जल से भींगे आनन के अधरों पर बस हास चाहिये ।।
*
सिर्फ बाते व्यर्थ है, कुछ काम होना चाहिये
हर हृदय को शांति-सुख-आराम होना चाहिये।
बातें तो होती बहुत पर काम हो पाते हैं कम
बातों में विश्वास का पैगाम होना चाहिये।
उड़ती बातों औ' दिखावों से भला क्या फायदा ?
काम हो जिनके सुखद परिणाम होना चाहिये।
हवा के झोकों से उनके विचार यदि जाते बिखर
तो सजाने का उन्हें व्यायाम होना चाहिये।
लोगों की नजरों में बसते स्वप्न है समृद्धि के
पाने नई उपलब्धि नित संग्राम होना चाहिये।
पारदर्शी यत्न ऐसे हों जिन्हें सब देख लें
सफलता जो मिले उसका नाम होना चाहिये।
सकारात्मक भावना भरती है हर मन में खुशी
सबके मन आनन्द का विश्राम होना चाहिये।
आसुरी दुष्वृत्तियों के सामयिक उच्छेद को
साथ शाश्वत सजग तत्पर 'राम' होना चाहिये।
*
ले रहा करवट जमाना मगर आहिस्ता बहुत।
बदलती जाती है दुनिया मगर आहिस्ता बहुत।।
कल जहाँ था आदमी है आज कुछ आगे जरूर
फर्क जो दिखता है, आ पाया है आहिस्ता बहुत।
सैकड़ों सदियों में आई सोच में तब्दीलियाँ
हुई सभी तब्दीजियाँ मुश्किल से आहिस्ता बहुत।
गंगा तो बहती है अब भी वहीं पहले थी जहाँ
पर किनारों के नजारे बदले आहिस्ता बहुत।
अँधेरें तबकों में बढ़ती आ चली है रोशनी
पर धुँधलका छंट रहा है अब भी आहिस्ता बहुत।
रूख बदलता जा रहा है आदमी अब हर तरफ
क्दम उठ पाते हैं उसके मगर आहिस्ता बहुत।
निगाहों में उठी है सबकी ललक नईचाह की
सलीके की चमक पर दिखती है आहिस्ता बहुत।
मन 'विदग्ध' तो चाहता है झट बड़ा बदलाव हो
गति सजावट की है पर हर ठौर आहिस्ता बहुत।
*
चलता तो रहता आदमी हर एक हाल में
पर जलता भी रहता सदा मन के मलाल में।
दुनिया बदलती जा रही तेजी से हर समय
पर मन रहा उलझा कई सपनों के जाल में।
सुनता समझता पढ़ता रहा ज्ञान की बातें
बदलाव मगर आ न सका मन की चाल में।
लालच में ही खोई रहीं नित उसकी निगाहें
बस स्वार्थ ही पसरा रहा उसके खयाल में।
इतिहास है गवाह लड़ी गई लड़ाईयाँ
क्योंकि नजर गड़ी रही औरों के माल में।
बातें तो प्रेमकी किया करता रहा बहुत
पर मुझको दिखा हर समय उलझा बवाल में।
खोजें भी हुई ज्ञान औ' विज्ञान की कई
पर स्वार्थ की झलक मिली उसके कमाल में।
हर वक्त रही कामना यश और नाम की
धर्मों के काम तक में औ' हर देखभाल में।
हर समस्या का मिल गया हल होता शांति से
गर पेंच न डाले गये होते सवाल में।
सद्भावना उसकी 'विदग्ध' आती नजर कम
बगुला भगत सी दृष्टि है धन के उछाल में।
*
परिवर्तन की आँधी आई, धुन्ध छाई अँधियार हो गया
जड़ से उखडेमूल्य पुराने, तार-तार परिवार हो गया।
उड़ी मान मर्यादायें सब मिट गई सब लक्ष्मण रेखायें
कंचनमृग के आकर्षण में, सीता का संसार खो गया।
श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं, बढ़ीं होड की परम्परायें
भारतीय संस्कारों के घर पश्चिम का अधिकार हो गया।
पूजा और भक्ति की मालाओं के मनके बिखरे ऐसे
लेन-देन की व्याकुलता में जीवन बस बाजार हो गया।
गांवों-खेतों के परिवेशों में रहते संतोष बहुत था
दुखी बहुत मन, राजमहल का जबसे जुनून संवार हो गया।
मन की तन की सब पावनता युगधारा में बरबस बह गई
अनाचार जब से इस नई संस्कृति का शिष्टाचार हो गया
उथले सोच विचारों में फँस मन मंदिर की शांति खो गई
प्रीति प्यार सब रहन रखा गये, जीना भी दुश्वार हो गया
रच एकल परिवार अलग सब भटक रहे है मारे-मारे
जब से सबसे मिल सकने को बंद घरों का द्वार हो गया।
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परिश्रम आदमी के भाग्य का सच्चा विधाता है।
सदा कठिनाई में खुद का भरोसा काम आता है।।
जिन्हें विश्वास अपने आप पर पक्का नहीं होता
उन्हीं का मन हमेशा, हर कदम पर डगमगाता है।
छुपाने अपनी कमजोरी जो झूठी बाते करते हैं
समझदारों से उनका ढोंग कोई भी छुप न पाता है।
जो खुद सम्मान अपना औरों से कह-कह कराते हैं
उन्हें आदर सही सब से, कभी भी मिल न पाता है।
सुनहरा परदा इज्जत को बचाने डाले रहते जो
हवा का रूख बदलते वह अचानक उघड़ जाता है।
हँसी का पात्र बन कोई खुशी से जी नहीं सकता
अलग औरों से रह अपना तो मुँह सब से छुपाता है।
जो अपने आत्मबल औ' कर्म पै विश्वास रखते हैं
मिलाने हाथ बढ़ के भाग्य उनके पास आता है।
समझ औ' श्रम से जो अपने हमेशा काम लेता है
वहीं संसार में तकदीर अपनी खुद बनाता है।
जमाने को भले धोखा कोई दो-चार दिन दे ले
मगर अपने गुणों के बिन कोई भी टिक न पाता है।
जमाने को 'विदग्ध' कोई भी धोखा दे नहीं सकता
सचाई किस में कितनी है ये सबको समझ आता हैं।
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दुनिया में मोहब्बत भी क्या चीज निराली है।
रास आई तो अमृत है न तो विषभरी प्याली है।।
इसने यहाँ दुनिया में हर एक को लुभाया है
पर दिल है साफ जिनका उनकी ही खुशहाली है।
सच्चों ने घर बसाये, झूठों के उजाड़े हैं
नासमझों के घर रहते सुख-शांति से खाली हैं।
जिनसे न बनी वह तो उनके लिये गाली है।
जो निभ न सके संग मिल, वे जलते रहे दिल में
जिनने सही समझा है घर उनके दीवाली है।
कुछ के लिये ये मीठी मिसरी से सुहानी है
पर कुछ को कटीली ये काँटो भरी डाली है।
मन के जो भले उनको यह रात की रानी है
जो स्वार्थ पगे मन के, उनको तो दुनाली है।
जिसने इसे जो समझा उसके लिये वैसी है
किसी को मधुर गीतों सी, किसी को बुरी गाली है।
जग में 'विदग्ध' दिखते दो रूप मोहब्बत के
कहीं चाँद सी चमकीली कहाँ भौंरे से काली है।
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