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रविवार, 26 जून 2016

geet

​​रचना - प्रति रचना 
राकेश खण्डेलवाल-संजीव 'सलिल'
*
रचना-
जिन कर्जों को चुका न पायें उनके रोज तकाजे आते
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी

हमने चाहा था मेघों के
उच्छवासों से जी बहलाना
इन्द्रधनुष बाँहों में भरकर
तुम तक सजल छन्द पहुँचाना
वनफूलोळ की छवियों वाली
मोहक खुश्बू को संवार कर
होठों पर शबनम की सरगम
आंखों में गंधों की छाया

किन्तु तूलिका नहीं दे सकी हमें कोई भी स्वप्न सिन्दूरी
रही मांहती रह रह सांसें अपने जीने की मजदूरी

सीपी रिक्त रही आंसू की 
बून्दें तिरती रहीं अभागन
खिया रहा कठिन प्रश्नों में
कुंठित होकर मन का सर्पण
कुछ अस्तित्व नकारे जिनका 
बोध आज डँसता है हमको
गज़लों में गहरा हो जाता
अनायास स्वर किसी विरह का

जितनी चाही थी समीपता उतनी और बढ़ी है दूरी
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी

नहीं सफ़ल जो हुये उन्हीं की
सूची में लिखलो हम को भी
पर की कब स्वीकार पराजय ?
क्या कुछ हो जाता मन को भी
बुझे बुझे संकल्प सँजोये
कटी फ़टी निष्ठायें लेकर
जितना बढ़े, उगे उतने की
संशय के बदरंग कुहासे


किसी प्रतीक्षा को दुलराते, भोग रहे ज़िन्दगी अधूरी
और मांगती रहती सांसें अपने जीने की मजदूरी.

***
प्रतिरचना- 
हम कर्ज़ों को लेकर जीते, खाते-पीते क़र्ज़ जरूरी
रँग लाएगी फाकामस्ती, सोच रहे हैं हम मगरूरी 
जिन कर्जों को चुका न पायें, उनके रोज तकाजे आते
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

मेघदूत से जी बहलाता, 
           अलकापुरी न यक्ष जा सका 
इंद्रधनुष के रंग उड़ गए, 
           वन-गिरि बिन कब मेघ आ सका?  
ऐ सी में उच्छ्वासों से जी, 
           बहलाते हम खुद को छलते  
सजल छन्द को सुननेवाले, 
           मानव-मानस खोज न मिलते 

मदिर साथ की मोहक खुशबू, सपनों की सरगम सन्तूरी 
आँखों में गंधों की छाया, बिसरे श्रृद्धा-भाव-सबूरी 
अर्पण आत्म-समर्पण बन जब, तर्पण का व्यापार बन गया 
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

घड़ियाली आँसू गंगा बन, 
           नेह-नर्मदा मलिन कर रहे 
साबरमती किनारेवाले, 
           काशी-सत्तापीठ वर रहे
क्षिप्रा-कुंभ नहाने जाते, 
           नीर नर्मदा का ही पाते  
ग़ज़ल लिख रहे हैं मनमानी 
           व्यर्थ 'गीतिका' उसे बताते 

तोड़-मरोड़ें छन्द-भंग कर, भले न दे पिंगल मंजूरी 
आभासी दुनिया के रिश्ते, जिए पिए हों ज्यों अंगूरी 
तजे वर्ण-मात्रा पिंगल जब, अनबूझी कविताएँ रचकर 
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

मानपत्र खुद ही लिख लाये  
           माला श्रीफल शाल ख़रीदे 
मंच-भोज की करी व्यवस्था  
           लोग पढ़ रहे ढेर कसीदे 
कालिदास कहते जो उनको  
           अकल-अजीर्ण हुआ है गर तो 
फर्क न कुछ, हम सेल्फी लेते 
           फाड़-फाड़कर अपने दीदे 

वस्त्र पहन लेते लाखों का, कहते सच्ची यही फकीरी
पंजा-झाड़ू छोड़ स्वच्छ्ता, चुनते तिनके सिर्फ शरीरी 
जनसेवक-जनप्रतिनिधि जनगण, को बंधुआ मजदूर बनाये    
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
*****

शनिवार, 25 जून 2016

geet

​​रचना-प्रति रचना 
राकेश खण्डेलवाल-संजीव सलिल 
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित - 
बहुत बधाई तुमको भैया! 
अब तुम गीत नहीं लिखते हो 
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है? 
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है   
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें? 
वर देते हैं शिव असुरों को  
अभय दान फिर करें सुरों को   
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को 
महाकाल दें दण्ड भयंकर  
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब 
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब   
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते  
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते  
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर  
सोता कुम्भकर्ण जब जागे  
थाना हो या हो न्यायालय  
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे  
भोग करें, ले आड़ योग की 
पेड़ काटकर छीनें छैंया  
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी 
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी  
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया 
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया 
कहता प्रेम-पंथ को तज कर 
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर 
कौन कहे पोंगा पंडित से 
नहीं महल, हमने चाहा घर 
रहें द्वारका में महारानी 
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण  
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण   
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया   
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया       
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती, 
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं 
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है 
खरे हारकर दूर हुए हैं   
वैतरणी करने चुनाव की 
पार, हुई है साधन गैया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?   
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना 
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना  
जान जाए पर नीति न छोड़ें  
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें  
महिषासुरमर्दिनी देश-हित  
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें   
सात जन्म के सम्बन्धों में 
रोज न बदलें सजनी-सैंया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है 
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है 
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी  
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी   
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में  
जो वे स्वार्थ साध टकराते  
भूले, बंदर रोटी खाता  
बिल्ले लड़ते ही रह जाते  
डुबा रहे मल्लाह धार में  
ले जाकर अपनी ही नैया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी    
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी    
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल  
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल   
बिन साहित्य कहें भाषा को   
नेता-अफसर उद्धारेंगे    
मात-पिता का जीना दूभर 
कर जैसे बेटे तारेंगे  
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर  
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया   
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*****

मंगलवार, 21 जून 2016

navgeet - ram re

नवगीत 
राम रे!
*
राम रे! 
कैसो निरदै काल?
*
भोर-साँझ लौ गोड़ तोड़ रए 
कामचोर बे कैते। 
पसरे रैत ब्यास गादी पै 
भगतन संग लपेटे। 
काम पुजारी गीता बाँचें 
गोपी नचें निढाल-
आँधर ठोंके ताल  
राम रे! 
बारो डाल पुआल। 
राम रे! 
कैसो निरदै काल?
*
भट्टी देह, न देत दबाई
पैलउ माँगें पैसा। 
अस्पताल मा घुसे कसाई 
थाने अरना भैंसा। 
करिया कोट कचैरी घेरे 
बकरा करें हलाल-
बेचें न्याय दलाल 
राम रे !
लूट बजा रए गाल। 
राम रे! 
कैसो निरदै काल?
*
झिमिर-झिमिर-झम बूँदें टपकें 
रिस रओ छप्पर-छानी। 
दागी कर दई रौताइन की 
किन नें धुतिया धानी?
अँचरा ढाँके, सिसके-कलपे 
ठोंके आपन भाल 
राम रे !
जीना भओ मुहाल। 
राम रे! 
कैसो निरदै काल?
***

सोमवार, 20 जून 2016

doha

दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त 
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त 
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम 
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत 
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत 
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम 
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार 
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार 
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम 
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम 
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६ 
lnct jabalpur 

dwipadiyan

एक रचना 
*
प्रभु जी! हम जनता, तुम नेता
हम हारे, तुम भए विजेता।। 

प्रभु जी! सत्ता तुमरी चेरी  
हमें यातना-पीर घनेरी ।। 

प्रभु जी! तुम घपला-घोटाला   
हमखों मुस्किल भयो निवाला।।

प्रभु जी! तुम छत्तीसी छाती   
तुम दुलहा, हम महज घराती।।

प्रभु जी! तुम जुमला हम ताली 
भरी तिजोरी, जेबें खाली।।

प्रभु जी! हाथी, हँसिया, पंजा 
कंघी बाँटें, कर खें गंजा।।

प्रभु जी! भोग और हम अनशन   
लेंय खनाखन, देंय दनादन।।

प्रभु जी! मधुवन, हम तरु सूखा  
तुम हलुआ, हम रोटा रूखा।।

प्रभु जी! वक्ता, हम हैं श्रोता 
कटे सुपारी, काट सरोता।।
(रैदास से क्षमा प्रार्थना सहित)
​***
२०-११-२०१५ 
चित्रकूट एक्सप्रेस, उन्नाव-कानपूर
 

रविवार, 19 जून 2016

navgeet

स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...

इनलाइन चित्र 1
संजीव 'सलिल' 
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे. 
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे. 
पर मिथ्या सपने भाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश. 
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*

अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं 
हर दिन पिता याद आते हैं...
*

navgeet

एक रचना
*
होरा भूँज रओ छाती पै
आरच्छन जमदूत
पैदा होतई बनत जा रए
बाप बाप खें, पूत
*
लोकनीति बनबास पा रई
राजनीति सिर बैठ
नाच नचाउत नित तिगनी का
घर-घर कर खें पैठ
नाम आधुनिकता को जप रओ
नंगेपन खों भूत
*
नींव बगैर मकान तान रए
भौत सयाने लोग
त्याग-परिस्रम खों तलाक दें
चाह भोग लें भोग
फूँक रए रे, मिली बिरासत
काबिल भए सपूत
*
ईंट-ईंट में खेंच दिवारें
तोड़ रए हर जोड़
लाज-लिहाज कबाड़ बता रए
बेसरमी हित होड़
राह बिसर कें राह दिखा रओ
सयानेपन खों भूत
***
२०-११-२०१५
चित्रकूट एक्सप्रेस,
उन्नाव-कानपूर

शनिवार, 18 जून 2016

navgeet

एक रचना-
गीत और
नवगीत नहीं हैं
भारत इंग्लिस्तान।
बने मसीहा
खींचें सरहद
मठाधीश हैरान।
पकड़ न आती
गति-यति जैसे
हों बच्चे शैतान।
अनुप्रासों के
मधुमासों का
करते अनुसंधान।
साठ साल
पहले की बातें
थोपें, कहें विधान।
गीत और
नवगीत नहीं हैं
दुश्मन सच पहचान।
लगे दूर से
बेहद सुंदर
पहले हर मुखड़ा।
निकट हुए तो
फेर लिया मुख
यही रहा दुखड़ा।
कर-कर हारे
कोशिश फिर भी
सुर न सधा सुखड़ा।
तुक तलाशने
अटक-भटककर
निकली हाए! जान।
गीत और
नवगीत नहीं हैं
सच से तनिक अजान।
कभी लक्षणा
कभी व्यंजना
खेल रहीं भॅंगड़ा।
थोप विसंगति
हाय! हो रहा
भाव पक्ष लॅंगड़ा।
बिम्ब-प्रतीकों
ने, मारा है
टॅंगड़ी को टॅंगड़ा।
बन विडंबना
मिथक कर गये
नव रस रेगिस्तान।
गीत और
नवगीत नहीं हैं
आपस में अनजान।
दाल-भात
हो रहे अंतरा
मुखड़ा मूसरचंद।
नवता का
ले नाम मरोड़े
जोड़-तोड़कर छंद।
मनमानी
मात्रा की, जैसे
झगड़ें भौजी-नंद।
छोटी-बड़ी
पंक्तियाॅं करते
बन उस्ताद महान।
गीत और
नवगीत नहीं हैं
भारत पाकिस्तान।
काव्य वृक्ष की
गीति शाख पर
खिला पुहुप नवगीत।
कुछ नवीनता,
कुछ परंपरा
विहॅंस रचे नवरीत।
जो जैसा है
वह वैसा ही
कहे, झूठ को जीत।
कथन-कहन का
दे तराश जब
झूम उठे इंसान।
गीत और
नवगीत मानिए
भारत हिंदुस्तान।
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शुक्रवार, 17 जून 2016

navgeet

एक रचना
*













तुम विरागी,
वीतरागी
विदेही राजा जनक से
*
सिर उठाये खड़े हो तुम
हर विपद से लड़े हो तुम
हरितिमा का छत्र धारे
पुहुप शत-शत जड़े हो तुम  
तना सीधा तना हर पल
सैनिकों से कड़े हो तुम
फल्लियों के शस्त्र थामे
योद्धवत अड़े हो तुम
एकता की विरासत के
पक्षधर सच बड़े हो तुम
तमस-आगी,
सहे बागी
चमकते दामी कनक से
तुम विरागी,
वीतरागी
विदेही राजा जनक से
*
जमीं में हो जड़ जमाये
भय नहीं तुमको सताये
इंद्रधनुषी तितलियों को
संग तुम्हारा रास आये
अमलतासी सुमन सज्जित
छवि मनोहर खूब भाये
बैठ गौरैया तुम्हारी
शाख पर नग्मे सुनाये
दूर रहना मनुज से जो
काटकर तुमको जलाये
 उषा जागी
लगन लागी
लोरियाँ गूँजी खनक से
वीतरागी
विदेही राजा जनक से
*
[मुक्तिका गीत,मानव छंद]

MUKTAK

मुक्तक
*
महाकाल भी काल के, वश में कहें महेश
उदित भोर में, साँझ ढल, सूर्य न दीखता लेश
जो न दिखे अस्तित्व है, उसका उसमें प्राण
दो दिखता निष्प्राण हो कभी, कभी संप्राण
*
नि:सृत सलिल महेश शीश से, पग-प्रक्षालन करे धन्य हो
पिएं हलाहल तनिक न हिचकें, पूजित जग में हे! अनन्य हो
धार कंठ में सर्प अभय हो, करें अहैतुक कृपा रात-दिन
जगजननी को ह्रदय बसाए, जगत्पिता सचमुच प्रणम्य हो
*

गुरुवार, 16 जून 2016

vidhata chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा ३४ :  विधाता/शुद्धगाRoseछंद  
गुरुवार, १५  जून २०१६  


​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा तथा सखी छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ विधाता छन्द ​से
*
छंद लक्षण:  जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा, 
                 यति ७-७-७-७ / १४-१४ , ८ वीं - १५ वीं मात्रा लघु। 
विशेष: उर्दू बहर हज़ज सालिम 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' इसी छंद पर आधारित है। 

लक्षण छंद:

    विधाता को / नमन कर ले , प्रयासों को / गगन कर ले 
    रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले 
    सिद्धि-तिथि लघु / नहीं कोई , दिखा कंकर / मिला शंकर  
    न रुक, चल गिर / न डर, उठ बढ़ , सीकरों को / सलिल कर ले   
    
    संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७ 
              सिद्धि = ८, तिथि = १५ 
उदाहरण:


१.   न बोलें हम, न बोलो तुम, सुनें कैसे बात मन की?
    न तोलें हम न तोलो तुम , गुनें कैसे जात तन की ?  
    न डोलें हम न डोलो तुम , मिलें कैसे श्वास-वन में?   
    न घोलें हम न घोलो तुम, जियें कैसे प्रेम धुन में? 

    जात = असलियत, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात 

२. ज़माने की निगाहों से , न कोई बच सका अब तक

   निगाहों ने कहा अपना , दिखा सपना लिया ठग तक     
   गिले - शिकवे करें किससे? , कहें किसको पराया हम?         
   न कोई है यहाँ अपना , रहें जिससे नुमायाँ हम  

३. है हक़ीक़त कुछ न अपना , खुदा की है ज़िंदगानी          
    बुन रहा तू हसीं सपना , बुजुर्गों की निगहबानी
    सीखता जब तक न तपना , सफलता क्यों हाथ आनी?  
    कोशिशों में खपा खुदको , तब बने तेरी कहानी

४. जिएंगे हम, मरेंगे हम, नहीं है गम, न सोचो तुम 
    जलेंगे हम, बुझेंगे हम, नहीं है तम, न सोचो तुम 
    कहीं हैं हम, कहीं हो तुम, कहीं हैं गम, न सोचो तुम 
    यहीं हैं हम, यहीं हो तुम, नहीं हमदम, न सोचो तुम

- सुनीता काम्बोज

५. दिलों के बीच में उनको खड़ी दीवार करने दो
     हमें बस प्यार आता है, हमें बस प्यार करने दो 
     हमारे चिर मिलन को, यह नहीं अब रोक पाएगा 
     जमाना कर रहा है तो इसे तकरार करने दो

६. समय के साथ थोड़ा सा बदलना भी जरुरी है
    कभी चट्टान बन जाना, पिघलना भी जरुरी है
    नहीं हालात बदलेंगे, हमारे देश के खुद ही 
    घरों से आज थोड़ा सा निकलना भी जरुरी है           
     
                         ********* 

navgeet

एक रचना
यार शिरीष!
*
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
अब भी खड़े हुए एकाकी
रहे सोच क्यों साथ न बाकी?
तुमको भाते घर, माँ, बहिनें
हम चाहें मधुशाला-साकी।
तुम तुलसी को पूज रहे हो
सदा सुहागन निष्ठा पाले।
हम महुआ की मादकता के
हुए दीवाने ठर्रा ढाले।
चढ़े गिरीश
पर नहीं बिगड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
राजनीति तुमको बेगानी
लोकनीति ही लगी सयानी।
देश हितों के तुम रखवाले
दुश्मन पर निज भ्रकुटी तानी।  
हम अवसर को नहीं चूकते 
लोभ नीति के हम हैं गाहक।
चाट सकें इसलिए थूकते 
भोग नीति के चाहक-पालक।
जोड़ रहे
जो सपने बिछुड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम जंगल में धूनि रमाते
हम नगरों में मौज मनाते।
तुम खेतों में मेहनत करते 
हम रिश्वत परदेश-छिपाते।
ताप-शीत-बारिश हँस झेली
जड़-जमीन तुम नहीं छोड़ते।
निज हित खातिर झोपड़ तो क्या
हम मन-मंदिर बेच-तोड़ते।
स्वार्थ पखेरू के
पर कतरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम धनिया-गोबर के संगी
रीति-नीति हम हैं दोरंगी।
तुम मँहगाई से पीड़ित हो
हमें न प्याज-दाल की तंगी।  
अंकुर पल्लव पात फूल फल
औरों पर निर्मूल्य लुटाते।
काट रहे जो उठा कुल्हाड़ी
हाय! तरस उन पर तुम खाते। 
तुम सिकुड़े
हम फैले-पसरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
***

बुधवार, 15 जून 2016

doha

दोहा सलिला- 
ब्रम्ह अनादि-अनन्त है, रचता है सब सृष्टि 
निराकार आकार रच, करे कृपा की वृष्टि 
*
परम सत्य है ब्रम्ह ही, चित्र न उसका प्राप्त 
परम सत्य है ब्रम्ह ही, वेद-वचन है आप्त 
*
ब्रम्ह-सत्य जो जानता, ब्राम्हण वह इंसान 
हर काया है ब्रम्ह का, अंश सके वह मान
*
भेद-भाव करता नहीं, माने ऊँच न नीच
है समान हर आत्म को, प्रेम भाव से सींच
*
काया-स्थित ब्रम्ह ही, 'कायस्थ' ले जो जान 
छुआछूत को भूलकर, करता सबका मान 
*
राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक 
ईश्वर को प्यारा वही, जिसकी करनी नेक 
*
निर्बल की रक्षा करे, क्षत्रिय तजकर स्वार्थ 
तभी मुक्ति वह पा सके, करे नित्य परमार्थ 
*
कर आदान-प्रदान जो, मेटे सकल अभाव 
भाव ह्रदय में प्रेम का, होता वैश्य स्वभाव 
*
पल-पल रस का पान कर, मनुज बने रस-खान 
ईश तत्व से रास कर, करे 'सलिल' गुणगान 
*
सेवा करता स्वार्थ बिन, सचमुच शूद्र महान 
आत्मा सो परमात्मा, सेवे सकल जहान 
*
चार वर्ण हैं धर्म के, हाथ-पैर लें जान 
चारों का पालन करें, नर-नारी है आन 
*
हर काया है शूद्र ही, करती सेवा नित्य 
स्नेह-प्रेम ले-दे बने, वैश्य बात है सत्य 
*
रक्षा करते निबल की, तब क्षत्रिय हों आप 
ज्ञान-दान, कुछ सीख दे, ब्राम्हण हों जग व्याप 
*
काया में रहकर करें, चारों कार्य सहर्ष 
जो वे ही कायस्थ हैं, तजकर सकल अमर्ष 
*
विधि-हरि-हर ही राम हैं, विधि-हरि-हर ही श्याम 
जो न सत्य यह मानते, उनसे प्रभु हों वाम 
*

navgeet

नवगीत
एक-दूसरे को
*
एक दूसरे को छलते हम
बिना उगे ही
नित ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम  
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
मैंने तुम्हें कह दिया स्वामी,
किंतु न अंतर्मन अनुगामी।
तुम प्रयास कर खुद से हारे-
संग न 'शक्ति' रही परिणामी।
साथ न तुमसे मिला अगर तो 
हुई नाक में  
मेरी भी दम।
हैं अभिन्न, स्पर्धी बनकर 
एक-दूसरे को 
खलते हम।
*
मैं-तुम, तुम-मैं, तू-तू मैं-मैं,
हँसना भूले करते पैं-पैं।
नहीं सुहाता संग-साथ भी-
अलग-अलग करते हैं ढैं-ढैं।
अपने सपने चूर हो रहे 
दिल दुखते हैं  
नयन हुए नम।
फेर लिए मुंह अश्रु न पोंछें  
एक-दूसरे बिन  
ढलते हम।
*
 तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम  
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
जब तक 'देवी' तुमने माना
तुम्हें 'देवता' मैंने जाना।
जब तुम 'दासी' कह इतराए
तुम्हें 'दास' मैंने पहचाना।
बाँट सकें जब-जब आपस में
थोड़ी खुशियाँ,
थोड़े से गम
तब-तब एक-दूजे के पूरक
धूप-छाँव संग-
संग सहते हम।
*
'मैं-तुम' जब 'तुम-मैं' हो जाते ,
'हम' होकर नवगीत गुञ्जाते ।
आपद-विपदा हँस सह जाते-
'हम' हो मरकर भी जी जाते।
स्वर्ग उतरता तब धरती पर 
जब मैं-तुम  
होते हैं हमदम।
दो से एक, अनेक हुए हैं 
एक-दूसरे में 
खो-पा हम।
*****
१०-६-२०१६ 
TIET JABALPUR

 


  

रविवार, 12 जून 2016

navgeet

एक रचना
शिरीष के फूल












फूल-फूल कर बजा रहे हैं 
बीहड़ में रमतूल,
धूप-रूप पर मुग्ध, पेंग भर
छेड़ें झूला झूल
न सुधरेंगे
शिरीष के फूल।
*
तापमान का पान कर रहे
किन्तु न बहता स्वेद,
असरहीन करते सूरज को
तनिक नहीं है खेद।
थर्मामीटर नाप न पाये
ताप, गर्व निर्मूल
कर रहे हँस
शिरीष के फूल।।
*
भारत की जनसँख्या जैसे
खिल-झरते हैं खूब,
अनगिन दुःख, हँस सहे न लेकिन
है किंचित भी ऊब।
माथे लग चन्दन सी सोहे
तप्त जेठ की धूल
तार देंगे
शिरीष के फूल।।
*
हो हताश एकाकी रहकर
वन में कभी पलाश,
मार पालथी, तुरत फेंट-गिन
बाँटे-खेले ताश।
भंग-ठंडाई छान फली संग
पीकर रहते कूल,
हमेशा ही
शिरीष के फूल।।
*
जंगल में मंगल करते हैं
दंगल नहीं पसंद,
फाग, बटोही, राई भाते
छन्नपकैया छंद।
ताल-थाप, गति-यति-लय साधें
करें न किंचित भूल,
नाचते सँग
शिरीष के फूल।।
*
संसद में भेजो हल कर दें
पल में सभी सवाल,
भ्रमर-तितलियाँ गीत रचें नव
मेटें सभी बबाल।
चीन-पाक को रोज चुभायें
पैने शूल-बबूल
बदल रँग-ढँग
शिरीष के फूल।।
*****

samanvay prakashan abhiyan


समन्वय प्रकाशन अभियान

समन्वय प्रकाशन अभियान रचनाकारों को कृति प्रकाशन में सहयोग करनेवाला अव्यवसायिक मंच है। पाण्डुलिपि सुधार, टंकण, पाठ्य शुद्धि, भूमिका लेखन, मुद्रण, समीक्षा लेखन, समीक्षा प्रकाशन, विमोचन समारोह, लोकार्पण, कार्यशाला, साक्षात्कार, चर्चा गोष्ठी आदि के रूप में सहयोग न्यूनतम व्यय पर उपलब्ध कराया जा सकता है। पुस्तक प्रकाशन सहयोगाधार पर किया जाता है। पुस्तकों को ISBN दिया जा सकता है।



















समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर द्वारा प्रकाशित
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा लिखित - संपादित साहित्य
०१. कलम के देव, भक्ति गीत, वर्ष १९९७, ISBN ८१-८७७२७-००-४, अनुपलब्ध
०२. भूकंप के साथ जीना सीखें, १९९७, ISBN ८१-८७७२७-००-४ लोकोपयोगी, अनुपलब्ध
०३. लोकतंत्र का मक़बरा, कवितायेँ, २००१, ISBN ८१-८७७२७-०७-१अनुपलब्ध
०४. मीत मेरे, कवितायेँ, २००३, ISBN ८१-८७७२७-११-x, १५०/-, सीमित प्रतियाँ
०५. काल है संक्रांति का, नवगीत, २०१६, ISBN ८१-७७६१-०००-७, ३००/-
०६. राम नाम सुखदाई, भक्तिगीत, शांति देवी वर्मा, १९९९, ISBN ८१-८७७२७-००-४, २००८ ISBN ८१-८७७२७-००-४, अनुपलब्ध
०७. मता-ए-परवीन, ग़ज़ल संग्रह, परवीन हक़, १९९९, ISBN ८१-८७७२७-००-४, ८०/-, अनुपलब्ध
०८. उमर की पगडंडियों पर, गीत, राजेंद्र श्रीवास्तव, २०००, ISBN ८१-८७७२७-००-४१२०/-, अनुपलब्ध
९. पहला कदम, कविताएँ, डॉ. अनूप निगम, २००२, ISBN ८१-८७७२७-०८-x, १००/-, सीमित प्रतियाँ
१०. कदाचित, कवितायेँ, सुभाष पांडेय, २००२, ISBN ८१-८७७२७-१०-१,
११. Off and On, अंग्रेजी ग़ज़ल,अनिल जैन,२००१, ISBN ८१-८७७२७-१९-५, ८०/-
१२. यदा-कदा, उक्त ११ का हिंदी काव्यानुवाद, डॉ. बाबू जोसेफ-स्टीव विंसेंट, २००५, ISBN ८१-८७७२७-१५-२, ८०/-,
१३. नीरव का संगीत, कविताएँ, अग्निभ, २००८, ISBN ६१-८७७२९-१९-s, ८०/-,
१४. समयजयी सहितयशिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'- व्यक्तित्व-कृतित्व, २००५, ISBN SI-७७६१-०४०-६०, ५००/-,
१५. निर्माण के नूपुर, सामूहिक काव्य संग्रह,१९८३, ५/-, अनुपलब्ध,
१६. नींव के पत्थर, सामूहिक काव्य संग्रह,१९८५, १०/-, अनुपलब्ध,
१७. तिनका-तिनका नीड़, सामूहिक काव्य संग्रह,२०००, ISBN ६१-८७७२९-१९-s,२५०/-, सीमित प्रतियाँ,