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बुधवार, 8 जुलाई 2015

एक प्रश्न : प्रेम, विवाह और सृजन

एक प्रश्न:
*
लिखता नहीं हूँ, 
लिखाता है कोई
*
वियोगी होगा पहला कवि 
आह से उपजा होगा गान 
*
शब्द तो शोर हैं तमाशा हैं 
भावना के सिंधु में बताशा हैं 
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है
*
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं,
*
अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट.
*
जितने मुँह उतनी बातें के समान जितने कवि उतनी अभिव्यक्तियाँ

प्रश्न यह कि क्या मनुष्य का सृजन उसकी विवाह अथवा प्रणय संबंधों से प्रभावित होता है? क्या अविवाहित, एकतरफा प्रणय, परस्पर प्रणय, वाग्दत्त (सम्बन्ध तय), सहजीवी (लिव इन), प्रेम में असफल, विवाहित, परित्यक्त, तलाकदाता, तलाकगृहीता, विधवा/विधुर, पुनर्विवाहित, बहुविवाहित, एक ही व्यक्ति से दोबारा विवाहित, निस्संतान, संतानवान जैसी स्थिति सृजन को प्रभावित करती है? 

आपके विचारों का स्वागत और प्रतीक्षा है.      


muktak


मुक्तक:
शब्द की सीमा कहाँ होती कभी, व्यर्थ शर्मा कर इन्हें मत रोकिये
असीमित हैं भाव रस लय छंद भी, ह्रदय की मृदु भूमि में हँस बोइये
'सलिल' कब रुकता?, सतत बहता रहे नाद कलकल सुन भुला दुःख खोइए
दिल  में क्यों निज दर्द ले छिपते रहें करें अर्पित ईश को, फिर सोइये
*    

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

गीत

गीत बरबस
गुनगुना दो तुम
*
चहचहाती मुखर गौरैया
जागरण-संदेश दे जाए
खटखटाकर द्वार की कुण्डी
पवन-झोंका घर में घुस आए
पलट दे घूँघट, उठें नैना
मिलें नैनों से सँकुच जाएँ
अचंभित दो तन पुलक सिहरें
मन तरंगित जयति जय गाएँ
तनिक कंगन
खनखना दो तुम
गीत बरबस
गुनगुना दो तुम
*
चाय की है चाह, ले आओ
दे रहीं तो तनिक चख जाओ
स्वाद ऐसा फिर कहाँ पाऊँ
दिखा ठेंगा यूँ न तरसाओ
प्रीत सरिता के किनारे पर
यह पपीहा पी कहाँ टेरे
प्यास रहने दो नहीं बाकी
चाह ही बन बाँह है घेरे
प्राण व्याकुल
झनझना दो तुम
गीत बरबस
गुनगुना दो तुम
*
कपोलों पर लाज सिन्दूरी
नयन-पट पलकें हुईं प्रहरी
लरजते लब अनकही कहते
केश लट बिखरी ध्वजा फहरी
चहक बहकी श्वास हो सुरभित
फागुनी सावन हुआ पुरनम
बरसती बूँदें करें नर्तन
धड़कते दिल या बजी सरगम
तीर चितवन के
चला दो तुम
झनझना दो तुम
गीत बरबस
गुनगुना दो तुम
*

व्यापम घोटाला

व्यापम घोटाला का दुष्प्रभाव :
व्यापम घोटाले को इतना छोटा रूप मत दीजिये। पिछले २० सालों में कितने फर्जी डॉक्टर तैयार हुए जो पोसे फेंककर एडमिशन लेने के बाद पैसे के ही दम पर परीक्षा उत्तीर्ण हुए और बाजार में दुकान खोले मरीजों को लूट और मार रहे हैं. इनकी पहचान कैसे हो? मरीज डॉक्टर पर भरोसा कैसे करे? ये फर्जी डॉक्टर हजारों की संख्या में हैं और लाखों मरीज मार चुके हैं, बेधड़क मार रहे हैं और खुद के मरने तक मारते रहेंगे। इनसे कैसे बचा जाए? कोई राह है क्या? ये फर्जी डॉक्टर आतंकवादियों से भी ज्यादा खतरनाक हैं. सबसे ज्यादा अफ़सोस की बात यह है कि आई. एम. ए. जैसी संस्थाएं डॉक्टरों को बचने मात्र में रूचि रखती हैं. डॉक्टरी के पेशे में ईमानदारी पर जरा भी ध्यान नहीं है.
क्या पिछले २० वर्षों में जो डॉक्टरी परीक्षा उत्तीर्ण हुए उनकी फिर से परीक्षा नहीं ली जानी चाहिए? इंडियन मेडिकल असोसिएशन अपने सभी सदस्यों को उनकी पात्रता और ज्ञान प्रमाणित करने के लिए बाध्य क्यों नहीं करता? इनके प्रैक्टिसिंग लाइसेंस अस्थायी रूप से निरस्त कर आई. एम. ए. प्रवीणता परीक्षा ले और उत्तीर्ण हों उन्हें जो नए लाइसेंस जारी करे.
कोई राजनैतिक दल, एन जी ओ, वकील भी इसके लिए पहल नहीं कर रहे.

मुक्तक

मुक्तक:
संजीव 
*
राम देव जी हों विभोर तो रचना-लाल तराशें शत-शत
हो समृद्ध साहित्य कोष शारद-सुत पायें रचना-अमृत
सुमन पद्म मधु रूद्र सलिल रह निर्भय दें आनंद पथिक को 
मुरलीधर हँस नज़र उतारें गह पुनीत नीरज सारस्वत
*
सद्भावों की रेखा खीचें, सद्प्रयास दें वास्तव में श्री
पैर जमीं पर रखें जमाकर, हाथ लगेगा आसमान भी
ममता-समता के परिपथ में, श्वास-आस गृह परिक्रमित हों
नवरस रास रचाये पल-पल, राह पकड़कर नवल सृजन की
*

सोमवार, 6 जुलाई 2015

muktika:

मुक्तिका:
संजीव
*
खुलकर कहिये मन की बात
सुने जमाना भले न तात
*
सघन तिमिर के बाद सदा
उगती भोर विदा हो रात
*
धन-बल पा जो नम्र रहे
जयी वही, हो कभी न मात
*
बजे चना वह जो थोथा
सह न सके किंचित आघात
*
परिवर्तन ही जीवन है
रहे एक सा कभी न गात
*
अब न नयन से होने दे
बदल ही कर दे बरसात
*
ऐसा भी दिन दिखा हमें
एक साथ हो कीर्तन-नात
*  

kundalini

कुण्डलिनी:
संजीव 
*
हे माँ! हेमा है खबर, खाकर थोड़ी चोट 
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट 
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
व्ही आई पी है खास, आम जन हुए पराये
कब तक नेताओं को, जनता करे क्यों क्षमा?
काश समझ लें दर्द, आम जन का कुछ हेमा
***

muktika:

मुक्तिका:
संजीव
*
नित नयी आशा मुखर हो साल भर
अब न नेता जी बजायें गाल भर
मिले हिंदी को प्रमुखता शोध में
तोड़कर अंग्रेजियत का जाल भर
सनेही है राम का जो लाल वह
चाहता धरती रहे खुशहाल भर
करेगा उद्यान में तब पुष्प राज
जब सुनीता हो हमारी चाल भर
हों खरे आचार अपने यदि सदा
ज्योति को तम में मिलेगा काल भर
हसरतों पर कस लगामें रे मनुज!
मत भुलाना बाढ़ और भूचाल भर
मिटेगी गड़बड़ सभी कानून यदि
खींच ले बिन पेशियों के खाल भर
सुरक्षित कन्या हमेशा ही रहे
संयमित जीवन जियें यदि लाल भर
तंत्र सुधरेगा 'सलिल' केवल तभी
सम रहें सबके हमेशा हाल भर
***

navgeet:

नवगीत:
संजीव 
*
प्राणहंता हैं 
व्यवस्था के कदम 
*
परीक्षा पर परीक्षा
जो ले रहे.
खुद परीक्षा वे न
कोई दे रहे.
प्रश्नपत्रों का हुआ
व्यापार है
अंक बिकते, आप
कितने ले रहे?
दीजिये वह हाथ का
जो मैल है-
तोड़ भी दें
मन में जो पाले भरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
हर गली में खुल गये
कॉलेज हैं.
हो रहे जो पास बिन
नॉलेज है.
मजूरों से कम पगारी
क्लास लें-
त्रासदी के मूक
दस्तावेज हैं.
डिग्रियाँ लें हाथ में
मारे फिरें-
काम करने में
बहुत आती शरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
घुटालों का प्रशिक्षण
है हर जगह
दोषियों को मिले
रक्षण, है वजह
जाँच में जो फँसा
मारा जा रहा
पंक को ले ढाँक
पंकज आ सतह
न्याय हो नीलाम
तर्कों पर जहाँ
स्वार्थ का है स्वार्थ
के प्रति रुख नरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*

navgeet : sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
वैलेंटाइन 
चक्रवात में 
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
हम-तुम
देख रहे खिड़की के
बजते पल्ले
मगर चुप्प हैं.
दरवाज़ों के बाहर
जाते डरते
छाये तिमिर घुप्प हैं.
अन्तर्जाली
सेंध लग गयी
शयनकक्ष
शिशुगृह में आया.
जसुदा-लोरी
रुचे न किंचित
पूजागृह में
पैग बनाया.
इसे रोज
उसको दे टॉफी
कर प्रपोज़ नित
किसी और को,
संबंधों के
अनुबंधों को
भुला रही सीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
पशुपति व्यथित
देख पशुओं से
व्यवहारों की
जय-जय होती.
जन-आस्था
जन-प्रतिनिधियों को
भटका देख
सिया सी रोती.
मन 'मॉनीटर'
पर तन 'माउस'
जाने क्या-क्या
दिखा रहा है?
हर 'सीपीयू'
है आयातित
गत को गर्हित
बता रहा है.
कर उपयोग
फेंक दो तत्क्षण
कहे पूर्व से
पश्चिम वर तम
भटकावों को
अटकावों को
भुना रही चीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
५-७-२०१५

muktak:

मुक्तक:
*
त्रासदी ही त्रासदी है इस सदी में

लुप्त नेकी हो रही है क्यों बदी में

नहीं पानी रहा बाकी आँख तक में

रेत-कंकर रह गए बाकी नदी में

*

पुस्तकें हैं मीत मेरी

हार मेरी जीत मेरी

इन्हीं में सुख दुःख बसे हैं

है इन्हीं में प्रीत मेरी

*

शनिवार, 4 जुलाई 2015

kruti charcha:

कृति चर्चा:
अँधा हुआ समय का दर्पन : बोल रहा है सच कवि का मन 
चर्चाकार: आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: अँधा हुआ समय का दर्पन, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', नवगीत संग्रह, १९०९, आकार डिमाई, पृष्ठ १२७, १५०/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, अयन प्रकाशन दिल्ली, संपर्क: ८६ तिलक नगर, फीरोजाबाद १८३२०३, चलभाष: ९४१२३६७७९,dr.yayavar@yahoo.co.in] 
*
डॉ, यायावर के लिए चित्र परिणामश्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' के आठवें काव्य संकलन और तीसरी नवगीत संग्रह 'अँधा हुआ समय का दर्पण' पढ़ना युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडम्बनाओं से आहत कवि-मन की सनातनता से साक्षात करने की तरह है. आदिकाल से अब तक न विसंगतियाँ कम होती हैं न व्यंग्य बाणों के वार, न सुधार की चाह. यह त्रिवेणी नवगीत की धार को अधिकाधिक पैनी करती जाती है. यायावर जी के नवगीत अकविता अथवा प्रगतिवादी साहित्य की की तरह वैषम्य की प्रदर्शनी लगाकर पीड़ा का व्यापार नहीं करते अपितु पूर्ण सहानुभूति और सहृदयता के साथ समाज के पद-पंकज में चुभे विसंगति-शूल को निकालकर मलहम लेपन के साथ यात्रा करते रहने का संदेश और सफल होने का विश्वास देते हैं. 

इन नवगीतों का मिजाज औरों से अलग है.  इनकी भाव भंगिमा, अभिव्यक्ति सामर्थ्य, शैल्पिक अनुशासन, मौलिक कथ्य और छान्दस सरसता इन्हें पठनीयता ही नहीं मननीयता से भी संपन्न करती है. गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, हाइकु, ललित निबंध, समीक्षा, लघुकथा और अन्य विविध विधाओं पर सामान दक्षता से कलम चलाते यायावर जी अपनी सनातन मूल्यपरक शोधदृष्टि के लिये चर्चित रहे हैं. विवेच्य कृति के नवगीतों में देश और समाज के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक परिदृश्य का नवगीतीय क्ष किरणीय परीक्षण नितांत मलिन तथा तत्काल उपचार किये जाने योग्य छवि प्रस्तुत करता है. 

पीर का सागर / घटज ऋषि की / प्रतीक्षा कर रहा है / धर्म के माथे अजाने / यक्ष-प्रश्नों की व्यथा है -२५, 

भूनकर हम / तितलियों को / जा रहे जलपान करने / मंत्र को मुजरे में / भेजा है / किसी ने तान भरने -२६, 

हर मेले में / चंडी के तारोंवाली झूलें / डाल पीठ पर / राजाजी के सब गुलाम फूलें / राजा-रानी बैठ पीठ पर / जय-जयकार सुनें / मेले बाद मिलें / खाने को / बस सूखे पौधे - ३८ 

दूधिया हैं दाँत लेकिन / हौसला परमाणु बम है / खो गया मन / मीडिया में / आजकल चरचा गरम है / आँख में जग रहा संत्रास हम जलते रहे हैं - ३९ 

सूखी तुलसी / आँगन के गमले में / गयी जड़ी / अपने को खाने / टेबिल पर / अपनी भूख खड़ी / पाणिग्रहण / खरीद लिया है / इस मायावी जाल ने - ४४ 

चुप्पी ओढ़े / भीड़ खड़ी है / बोल रहे हैं सन्नाटे / हवा मारती है चाँटे / नाच रहीं बूढ़ी इच्छाएँ / युवा उमंग / हुई सन्यासिन / जाग रहे / विकृति के वंशज / संस्कृति लेती खर्राटे -५२ 

भूमिका पर थी बहस / कुछ गर्म इतनी / कथ्य पूरा रह गया है अनछुआ / क्या हुआ? / यह क्या हुआ? - ५७  

यहाँ शिखंडी के कंधे पर / भरे हुए तूणीर / बेध रहे अर्जुन की छाती / वृद्ध भीष्म के तीर / किसे समर्पण करे कहानी / इतनी कटी-फ़टी -६०-६१ 

सम्मानित बर्बरता / अभिनन्दित निर्ममता / लांछित मर्यादा को दें सहानुभूति / चलो / हत्यारे मौसम के कंठ को प्रहारें -७१ 

पीड़ा के खेत / खड़े / शब्द के बिजूके / मेड़ों पर आतंकित / जनतंत्री इच्छाएँ / वन्य जंतु / पाँच जोड़  बांसुरी बजाएँ / पीनस के रोगी / दुर्गन्ध के भभूके / गाँधी की लाठी / पर / अकड़ी बंदूकें -७३ 

हर क्षण वही महाभारत / लिप्साएँ वे गर्हित घटनाएँ / कर्ण, शकुनि, दुर्योधन की / दूषित प्रज्ञायें / धर्म-मूढ़ कुछ धर्म-भीरु / कुछ धर्म विरोधी / हमीं दर्द के जाये / भाग्य हमारे फूटे-७६ 

मुखिया जी के / कुत्ते जैसा दुःख है / मुस्टंडा / टेढ़ी कमर हो गयी / खा / मंहगाई का डंडा / ब्याज चक्रवर्ती सा बढ़कर / छाती पर बैठा / बिन ब्याही बेटी का / भारी हुआ / कुँआरापन -८७

पीना धुआँ, निगलने आँसू / मिलता  ज़हर पचने को / यहाँ बहुत मिलता है धोखा / खाने और खिलाने को / अपना रोना, अपना हँसना / अपना जीना-मरना जी / थोड़ा ही लिखता हूँ / बापू! / इसको बहुत समझना जी- पृष्ठ ९९



इन विसंगतियों से नवगीतकार निराश या स्तब्ध नहीं होता। वह पूरी ईमानदारी से आकलन कर कहता है:
'उबल रहे हैं / समय-पतीले में / युग संवेदन' पृष्ठ ११०

यह उबाल बबाल न बन पाये इसीलिये नवगीत रचना है. यायावर निराश नहीं हैं, वे युग काआव्हान करते हैं: 'किरणों के व्याल बने / व्याधों के जाल तने / हारो मत सोनहिरन' -पृष्ठ ११३

परिवर्तन जरूरी है, यह जानते हुए भी किया कैसे जाए? यह प्रश्न हर संवेदनशील मनुष्य की तरह यायावर-मन को भी उद्वेलित करता है:
' झाड़कर फेंके पुराने दिन / जरूरत है / मगर कैसे करें?' -पृष्ठ ११७

सबसे बड़ी बाधा जन-मन की किंकर्तव्यविमूढ़ता है:
देहरी पर / आँगन में / प्राण-प्रण / तन-मन में / बैठा बाजार / क्या करें? / सपने नित्य / खरीदे-बेचे / जाते हैं / हम आँखें मींचे / बने हुए इश्तहार / क्या करें? -पृष्ठ १२४
पाले में झुलसा अपनापन / सहम गया संयम / रिश्तों की ठिठुरन को कैसे / दूर करें अब हम? - पृष्ठ ५६

यायावर शिक्षक रहे हैं. इसलिए वे बुराई के ध्वंस की बात नहीं कहते। उनका मत है कि सबसे पहले हर आदमी जो गलत हो रहा है उसमें अपना योगदान न करे:
इस नदी का जल प्रदूषित / जाल मत डालो मछेरे - पृष्ठ १०७

कवि परिवर्तन के प्रति सिर्फ आश्वस्त नहीं हैं उन्हें परिवर्तन का पूरा विश्वास है:
गंगावतरण होना ही है / सगरसुतों की मौन याचना / कैसे जाने? / कैसे मानें? -पृष्ठ ८४

यह कैसे का यक्ष प्रश्न सबको बेचैन करता है, युवाओं को सबसे अधिक:
तेरे-मेरे, इसके-उसके / सबके ही घर में रहती है / एक युवा बेचैनी मितवा -पृष्ठ ७९

आम आदमी कितना ही  पीड़ित क्यों न हो, सुधार के लिए अपना योगदान और बलिदान करने से पीछे नहीं हटता:
एकलव्य हम / हमें दान करने हैं / अपने कटे अँगूठे -पृष्ठ ७५

यायावर  जी शांति के साथ-साथ जरूरी होने पर क्रांतिपूर्ण प्रहार की उपादेयता स्वीकारते हैं:
सम्मानित बर्बरता / अभिनन्दित निर्ममता / लांछित मर्यादा को दे सहानुभूति / चलो / हत्यारे मौसम के कंठ को प्रहारें - पृष्ठ ७१

भटक रहे तरुणों को सही राह पर लाने के लिये दण्ड के पहले शांतिपूर्ण प्रयास जरूरी है. एक शिक्षक सुधार की सम्भावना को कैसे छोड़ सकता है?:
आज बहके हैं / किरन के पाँव / फिर वापस बुलाओ / क्षिप्र आओ -पृष्ठ ६९

प्रयास होगा तो भूल-चूक भी होगी:
फिर लक्ष्य भेद में चूक हुई / भटका है / मन का अग्निबाण - पृष्ठ ६२

भूल-चूल को सुधारने पर चर्चा तो हो पर वह चर्चा रोज परोसी जा रही राजनैतिक-दूरदर्शनी लफ्फ़ाजियों सी बेमानी न हो:
भूमिका पर थी बहस / कुछ गर्म इतनी / कथ्य पूरा रह गया है अनछुआ / यह क्या हुआ? / यह क्या हुआ? -पृष्ठ ५७

भटकन तभी समाप्त की  जा सकती है जब सही राह पर चलने का संकल्प दृढ़ हो:
फास्टफूडी सभ्यता की कोख में / पलते बवंडर / तुम धुएँ को ओढ़कर नाचो-नचाओ / हम, अभी कजरी सुनेंगे- पृष्ठ ५४

कवि के संकल्पों का मूल कहाँ है यह 'मुक्तकेशिनी उज्जवलवसना' शीर्षक नवगीत में इंगित किया गया है:
आँगन की तुलसी के बिरवे पर / मेरी अर्चना खड़ी है -पृष्ठ ३१

यायावर जी नवगीत को साहित्य की विधा मात्र नहीं परिवर्तन का उपकरण मानते हैं. नवगीत को युग परिवर्तन के कारक की भूमिका में स्वीकार कर वे अन्य नवगीतिकारों का पथप्रदर्शन करते हैं:
यहाँ दर्द, यहाँ प्यार, यहाँ अश्रु मौन / खोजे अस्तित्व आज गीतों में कौन? / शायद नवगीतकार / सांस-साँस पर प्रहार / बिम्बों में बाँध लिया गात -पृष्ठ ३०

यायावर के नवगीतों की भाषा कथ्यानुरूप है. हिंदी के दिग्गज प्राध्यापक होने के नाते उनका शब्द भण्डार समृद्ध और संपन्न होना स्वाभाविक है. अनुप्रास, उपमा, रूपक अलंकारों की छटा मोहक है. श्लेष, यमक आदि का प्रयोग कम है. बिम्ब, प्रतीक और उपमान की प्रचुरता और मौलिकता इन नवगीतों के लालित्य में वृद्धि करती है. आशीष देता सूखा कुआँ, जूते से सरपंची कानून लाती लाठियाँ, कजरी गाता हुआ कलह, कचरे में मोती की तलाश, लहरों पर तैरता सन्नाटा, रोटी हुई बनारसी सुबहें आदि बिम्ब पाठक को बाँधते हैं.

इन नवगीतों का वैशिष्ट्य छान्दसिकता के निकष पर खरा उतरना है. मानवीय जिजीविषा, अपराजेय संघर्ष तथा नवनिर्माण के सात्विक संकल्प से अनुप्राणित नवगीतों का यह संकलन नव नवगीतकारों के लिये विशेष उपयोगी है. यायावर जी के अपने शब्दों में : 'गीत में लय का नियंत्रण शब्द करता है. इसलिए जिस तरह पारम्परिक गीतकार के लिये छंद को अपनाना अनिवार्य था वैसे हही नवगीतकार के लिए छंद की स्वीकृति अनिवार्य है.… नवता लेन के लिए नवगीतकार ने छंद के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किये हैं. 'लयखंड' के स्थान पर 'अर्थखण्ड' में गीत का लेखन टी नवगीत में प्रारंभ हुआ ही इसके अतिरिक्त २ लग-अलग छंदों को मिलकर नया छंद बनाना, चरण संख्या घटाकर या बढ़ाकर नया छंद बनाना, चरणों में विसंगति और वृहदखण्ड योजना से लय को नियंत्रित करना जैसे प्रयोग पर्याप्त हुए हैं. इस संकलन में भी ऐसे प्रयोग सुधीपाठकों को मिलेंगे।'

निष्कर्षत: यह कृति सामने नवगीत संकलन न होकर नवगीत की पाठ्य पुस्तक की तरह है जिसमें से तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ परिनिष्ठित भाषा और सहज प्रवाह का संगम सहज सुलभ है. इन नवगीतों में ग्रामबोध, नगरीय संत्रास, जाना समान्य की पीड़ाएँ, शासन-प्रशासन का पाखंड, मठाधीशों की स्वेच्छाचारिता, भक्तों का अंधानुकरण, व्यवस्थ का अंकुश और युवाओं की शंकाएं एक साथ अठखेला करती हैं.

***** 

      

एक ग़ज़ल : और कुछ कर या न कर...

और कुछ कर या न कर ,इतना तो कर
आदमी को आदमी  समझा  तो  कर

उँगलियाँ जब भी उठा ,जिस पे उठा
सामने इक आईना रख्खा  तो कर 

आज तू है अर्श पर ,कल खाक में
इस अकड़ की चाल से तौबा तो कर

बन्द कमरे में घुटन महसूस होगी
दिल का दरवाजा खुला रख्खा तो कर

दस्तबस्ता सरनिगूँ  यूँ  कब तलक ?
मर चुकी ग़ैरत अगर ,ज़िन्दा तो कर

सिर्फ़ तख्ती पर न लिख नारे नए
इन्क़लाबी जोश भी पैदा तो कर

हो चुकी  अल्फ़ाज़ की  जादूगरी
छोड़ जुमला ,काम कुछ अच्छा तो कर 

कुछ इबारत है लिखी  दीवार पर
यूँ कभी ’आनन’ इसे देखा तो कर

शब्दार्थ
दस्तबस्ता ,सरनिगूँ = हाथ जोड़े सर झुकाए

-आनन्द.पाठक-
09413395592

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
भीड़ जुटाता सदा मदारी
*
तरह-तरह के बंदर पाले,
धूर्त चतुर
कुछ भोले-भाले.
बात न माने जो वह भूखा-
खाये कुलाटी
मिले निवाले।
यह नव जुमले रोज उछाले,
वह हर बिगड़ी
बात सम्हाले,
यह तर को बतलाये सूखा,
वह दे छिलके
केले खाले।
यह ठाकुर वह बने पुजारी
भीड़ जुटाता सदा मदारी
*
यह कौआ कोयंल बन गाता।   
वह अरि दल में 
सेंध लगा लगाता।  
जोड़-तोड़ में है यह माहिर-
जिसको चाहे 
फोड़ पटाता।
भूखा रह पर डिजिटल बन तू-
हर दिन ख्वाब  
नया दिखलाता।
ठेंगा दिखा विरोधी दल को 
कर मनमानी 
छिप मुस्काता।
अपनी खुद आरती उतारी 
भीड़ जुटाता सदा मदारी
*
 




  

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

दोहे का रंग नीबू के संग :
संजीव
*









वात-पित्त-कफ दोष का, नीबू करता अंत
शक्ति बढ़ाता बदन की, सेवन करिये कंत
*
ए बी सी त्रय विटामिन, लौह वसा कार्बोज
फॉस्फोरस पोटेशियम, सेवन से दें ओज
*
मैग्निशियम प्रोटीन सँग, सोडियम तांबा प्राप्य
साथ मिले क्लोरीन भी, दे यौवन दुष्प्राप्य
*
नेत्र ज्योति की वृद्धि कर, करे अस्थि मजबूत
कब्ज मिटा, खाया-पचा, दे सुख-ख़ुशी अकूत
*
जल-नीबू-रस नमक लें, सुबह-शाम यदि छान
राहत दे गर्मियों में, फूँक जान में जान
*
नींबू-बीज न खाइये, करे बहुत नुकसान
भोजन में मत निचोड़ें, बाद करें रस-पान
*
कब्ज अपच उल्टियों से, लेता शीघ्र उबार
नीबू-सेंधा नमक सँग, अदरक है उपचार
*
नींबू अजवाइन शहद, चूना-जल लें साथ
वमन-दस्त में लाभ हो, हँसें उठकर माथ
*
जी मिचलाये जब कभी, तनिक न हों बेहाल
नीबू रस-पानी-शहद, आप पियें तत्काल
*











नींबू-रस सेंधा नमक, गंधक सोंठ समान
मिली गोलियाँ चूसिये, सुबह-शाम गुणवान
*
नींबू रस-पानी गरम, अम्ल पित्त कर दूर
हरता उदर विकार हर, नियमित पियें हुज़ूर
*
आधा सीसी दर्द से, परेशान-बेचैन
नींबू रस जा नाक में, देता पल में चैन
*
चार माह के गर्भ पर, करें शिकंजी पान
दिल-धड़कन नियमित रहे, प्रसव बने आसान
*
कृष्णा तुलसी पात ले, पाँच- चबायें खूब
नींबू-रस पी भगा दें, फ्लू को सुख में डूब
*
पियें शिकंजी, घाव पर, मलिए नींबू रीत
लाभ एक्जिमा में मिले, चर्म नर्म हो मीत
*
कान दर्द हो कान में, नींबू-अदरक अर्क
डाल साफ़ करिये मिले, शीघ्र आपको फर्क
*
नींबू-छिलका सुख कर, पीस फर्श पर डाल
दूर भगा दें तिलचटे, गंध करे खुशहाल
*
नीबू-छिलके जलाकर, गंधक दें यदि डाल
खटमल सेना नष्ट हो, खुद ही खुद तत्काल
*
पीत संखिया लौंग संग, बड़ी इलायची कूट
नींबू-रस मलहम लगा, करें कुष्ठ को हूट
*








नींबू-रस हल्दी मिला, उबटन मल कर स्नान
नर्म मखमली त्वचा पा, करे रूपसी मान
*
मिला नारियल-तेल में, नींबू-रस नित आध
मलें धूप में बदन पर, मिटे खाज की व्याध
*
खूनी दस्त अगर लगे, घोलें दूध-अफीम
नींबू-रस सँग मिला पी, सोयें बिना हकीम
*
बवासीर खूनी दुखद, करें दुग्ध का पान
नींबू-रस सँग-सँग पियें, बूँद-बूँद मतिमान
*
नींबू-रस जल मिला-पी, करें नित्य व्यायाम
क्रमश: गठिया दूर हो, पायेंगे आराम
*
गला बैठ जाए- करें, पानी हल्का गर्म
नींबू-अर्क नमक मिला, कुल्ला करना धर्म
*
लहसुन-नींबू रस मिला, सिर पर मल कर स्नान
मुक्त जुओं से हो सकें, महिलायें अम्लान
*
नींबू-एरंड बीज सम, पीस चाटिये रात
अधिक गर्भ संभावना, होती मानें बात
*
प्याज काट नीबू-नमक, डाल खाइये रोज
गर्मी में हो ताजगी, बढ़े देह का ओज
*
काली मिर्च-नमक मिली, पियें शिकंजी आप
मिट जाएँगी घमौरियाँ, लगे न गर्मी शाप
*
चेहरे पर नींबू मलें, फिर धो रखिये शांति
दाग मिटें आभा बढ़े, अम्ल-विमल हो कांति
***



 
       

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

munh par doha: sanjiv

दोहा के रंग मुँह के संग
संजीव
*













मुँह देखी जो बोलता, उसे न मानें मीत
मुँह पर सच कहना 'सलिल', उत्तम जीवन-रीत
*
जो जैसा है कीजिए, वैसा ही स्वीकार
मुँह न बनायें देखकर, दूरी बने दरार
*
मुँह दर्पण पर दिख रहा, मन में छिपा विचार
दर्पण में मुँह देखकर, कर सच को स्वीकार
*
मत जाएँ मुँह मोड़कर, रिश्ते रखिए जोड़
एक  साथ मिल जीतिए, हर विपदा कर होड़
*
लाल हुआ मुँह क्रोध से, बिगड़े सारे काज
सौ-सौ खिले गुलाब जब, आयी तुमको लाज
*
मुँह मयंक पर हो गया, मन चकोर कुर्बान
नेह चाँदनी देखकर, सपने हुए जवान
*
प्रीत अगर हो दोमुँही, तत्क्षण करिये दूर
सूर रहे जो प्रीत में, बने महाकवि सूर
*
मुँह मोड़े जो विपद में, उससे मुँह ले फेर
गलती तुरत सुधारिये, पल भर करें न देर
*
मुँह में पानी आये तो, करें नियंत्रण आप
मुँह हाँडी में डालकर, नहीं कीजिए पाप
*
मुँह बाये नेता हुए, घपलों के पर्याय
पत्रकार नित खोलते, सौदों के अध्याय
*
मुँह में पानी तक नहीं, गया, सुनो भगवान
ताक रहे मुँह भक्तगण, सुन भी लो श्रीमान!
*
मुँह जूठा कर उठ गये, क्यों? क्या कहिए बात
फुला रहे बेबात मुँह, पहुँचाकर आघात
*
गये मौत के मुँह समा, हँस सीमा पर धीर
छिपा रहे मुँह भीत हो, नेता भाषणवीर
*
मुँह न खोलना यदि नहीं, सत्य बात हो ज्ञात
मुँह खुलवाना हो नहीं, सत्य कहीं अज्ञात
*
रगड़ रहे मुँह-मुँह मिला, अधिक- करें कम नृत्य
ताली लोग बजा रहे, देख अलज्जित कृत्य
*
फाड़ रहे मुँह देखकर, उत्सुक कन्या पक्ष
उतर गया मुँह जब सुना, आप नहीं समकक्ष
 
***  




navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
चैन तुम बिन?
नहीं गवारा है.
दर्द जो भी मिले
मुझे सहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
रात-दिन बिन
रुके पुकारा है
याद की चादरें
रुचा तहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
मुस्कुरा दो कि
कल हमारा है
आसुँओं का न
पहनना गहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
हर कहीं तुझे
ही निहारा है
ढाई आखर ही
तुझसे है कहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
दिल ने दिल को
सतत गुहारा है
बूँद बन 'सलिल'
संग ही बहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*

   

muktika

मुक्तिका:
संजीव
*
हाथ माटी में सनाया मैंने
ये दिया तब ही बनाया मैंने

खुद से खुद को न मिलाया मैंने
या खुदा तुझको भुलाया मैंने

बिदा बहनों को कर दिया लेकिन
किया उनको ना पराया मैंने

वक़्त ने लाखों दिये ज़ख्म मगर
नहीं बेकस को सताया मैंने

छू सकूँ आसमां को इस खातिर
मन को फौलाद बनाया मैंने

*

rachna-prati rachna : fauji - sanjiv

कविता-प्रतिकविता 
* रामराज फ़ौज़दार 'फौजी' 
जाने नहिं पीर न अधीरता को मान करे
अइसी बे-पीर से लगन लगि अपनी 
अपने ही चाव में, मगन मन निशि-दिनि 
तनिक न सुध करे दूसरे की कामिनी
कठिन मिताई के सताये गये 'फौजी' भाई
समय न जाने, गाँठे रोब बड़े मानिनी
जीत बने न बने मरत कहैं भी कहा
जाने कौन जन्मों की भाँज रही दुश्मनी
*
संजीव
राम राज सा, न फौजदार वन भेज सके 
काम-काज छोड़ के नचाये नाच भामिनि 
कामिनी न कोई आँखों में समा सके कभी
इसीलिये घूम-घूम घेरे गजगामिनी 
माननी हो कामिनी तो फ़ौजी कर जोड़े रहें 
रूठ जाए 'मावस हो, पूनम की यामिनी 
जामिनि न कोई मिले कैद सात जनमों की 
दे के, धमका रही है बेलन से नामनी
(जामनी = जमानत लेनेवाला, नामनी = नामवाला, कीर्तिवान) 
*

बुधवार, 1 जुलाई 2015

jeebh par doha: sanjiv

दोहा सलिला:













दोहे का रंग जीभ के संग:

संजीव
*
जीभ चलाने में तनिक, लगे न ईंधन मीत
फिर भी न्यून चलाइये, सही यही है रीत
*
जीभ उठा दे मारते, तालू से सरकार
बिन सोचे क्या हो रहा, इससे बंटाधार
*
जीभ टंग रसना जिव्हा, या फिर कहें जुबान
बोला वापिस ले नहीं, जैसे तीर कमान
*
अस्त्र-शस्त्र के वार शत, करते काम आघात
वार जीभ का जब लगे, समझो पाई मात
*
जीभ चिढ़ा ठेंगा दिखा, करतीं अँखियाँ गोल
चित्त चुराकर भागतीं, छवि सचमुच अनमोल
*










बोल मधुर कह जीत ले, जीभ सकल संसार
दिल से मिल दिलवर बने, पहुँच प्रीत-दरबार
*
चाट जीभ से वत्स को, गौ करती संपुष्ट
'सलिल' न तजती मलिन कह, रहे सदा संतुष्ट
*
विष-अमृत दोनों रखे, करे न लेकिन पान
जीभ संयमी संत सी, चुप हो तो गुणवान
*
बत्तिस दाँतों से घिरी, किन्तु न हो भयभीत
भरी आत्म विश्वास से, जीभ न तजती रीत
*
जी से जी तक पहुँचने, जीभ बनाती सेतु
जी जलने का भी कभी, बने जीभ ही हेतु
*