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बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २, व्यतिरेक अलंकार, सराइकी दोहा, तेरह, हाइकु, सॉनेट, गीत, लघुकथा, छंद रविशंकर,

 सलिल सृजन अक्टूबर २९

*
सोनेट
धन तेरस
*
धन तेरा प्रभु! मैं हूँ माध्यम
दे-ले तू जब चाहे जिसको
वर दे नहिं सुख हो, नहिं हो गम
मिले कृपा बस तेरी मुझको।
नहीं तरसना; मत तरसाना
है दायित्व निभाना मुझको
देकर अधिक न पंथ भुलाना
मत देना दे पाऊँ जग को।
धन दे तो दाता-मति भी दे
ज्यों की त्यों धर पाऊँ चादर
लेना है तो दंभ-मोह ले
श्री वास्तव में हो भट नागर।
शक सेना का नाश कर सकूँ
मैं श्रद्धा-विश्वास वर सकूँ।
***
मुक्तक
रच ले मुक्त मन, धनतेरस पर चार
कमा-खर्च-दे-बचा ले, ले मत अधिक उधार
ऊँच-नीच सम मान चल, फूल-शूल रख साथ-
धूप-छाँव में शांत मन बैठ, मना त्यौहार।।
२९.१०.२०२४
***
नवगीत:
*
पधारो,
रमा! पधारो
*
ऊषा से
ले ताजगी
सरसिज से
ले गंध
महाकाल से
अभय हो
सत-शुभ से
अनुबंध
निहारो,
सदय निहारो
*
मातु! गुँजा दो
सृष्टि में शाश्वत
अनहद नाद
विधि-हरि-हर
रिधि-सिद्धि संग
सुन मेरी फरियाद
विराजो!
विहँस विराजो
*
शक्ति-शारदा
अमावस
पूनम जैसे साथ
सत-चित-आनंद
वर सके
सत-शिव-सुंदर पाथ
सँवारो
जन्म सँवारो
***
लघुकथा:
धनतेरस
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊँ?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपड़ी, कपड़े और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे फेंके कचरे को बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस'
कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।
***
एक रचना
: पाँच पर्व :
*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*
माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*
हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*
बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पूजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*
धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-
धनहरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*
पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच
*****
नवगीत
*
मन-कुटिया में
दीप बालकर
कर ले उजियारा।
तनिक मुस्कुरा
मिट जाएगा
सारा तम कारा।।
*
ले कुम्हार के हाथों-निर्मित
चंद खिलौने आज।
निर्धन की भी धनतेरस हो
सध जाए सब काज।
माटी-मूरत,
खील-बतासे
है प्रसाद प्यारा।।
*
रूप चतुर्दशी उबटन मल, हो
जगमग-जगमग रूप।
प्रणय-भिखारी गृह-स्वामी हो
गृह-लछमी का भूप।
रमा रमा में
हो मन, गणपति
का कर जयकारा।।
*
स्वेद-बिंदु से अवगाहन कर
श्रम-सरसिज देकर।
राष्ट्र-लक्ष्मी का पूजन कर
कर में कर लेकर।
निर्माणों की
झालर देखे
विस्मित जग सारा।।
*
अन्नकूट, गोवर्धन पूजन
भाई दूज न भूल।
बैरी समझ कूट मूसल से
पैने-चुभते शूल।
आत्म दीप ले
बाल, तभी तो
होगी पौ बारा।।
***********
गीत:
दीप, ऐसे जलें...
संजीव 'सलिल'
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
धन तेरस पर नव छंद
गीत
*
छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
धनतेरस पर विशेष गीत...
प्रभु धन दे...
*
प्रभु धन दे निर्धन मत करना.
माटी को कंचन मत करना.....
*
निर्बल के बल रहो राम जी,
निर्धन के धन रहो राम जी.
मात्र न तन, मन रहो राम जी-
धूल न, चंदन रहो राम जी..
भूमि-सुता तज राजसूय में-
प्रतिमा रख वंदन मत करना.....
*
मृदुल कीर्ति प्रतिभा सुनाम जी.
देना सम सुख-दुःख अनाम जी.
हो अकाम-निष्काम काम जी-
आरक्षण बिन भू सुधाम जी..
वन, गिरि, ताल, नदी, पशु-पक्षी-
सिसक रहे क्रंदन मत करना.....
*
बिन रमेश क्यों रमा राम जी,
चोरों के आ रहीं काम जी?
श्री गणेश को लिये वाम जी.
पाती हैं जग के प्रणाम जी..
माटी मस्तक तिलक बने पर-
आँखों का अंजन मत करना.....
*
साध्य न केवल रहे चाम जी,
अधिक न मोहे टीम-टाम जी.
जब देना हो दो विराम जी-
लेकिन लेना तनिक थाम जी..
कुछ रच पाए कलम सार्थक-
निरुद्देश्य मंचन मत करना..
*
अब न सुनामी हो सुनाम जी,
शांति-राज दे, लो प्रणाम जी.
'सलिल' सभी के सदा काम जी-
आये, चल दे कर सलाम जी..
निठुर-काल के व्याल-जाल का
मोह-पाश व्यंजन मत करना.....
* **
दोहा-दोहा धन तेरस
*
तेरह दीपक बालिए, ग्यारह बाती युक्त।
हो प्रदीप्त साहित्य-घर, रस-लय हो संयुक्त।।
*
लघु से गुरु गुरुता गहे, गुरु से लघु की वृद्धि।
जब दोनों संयुक्त हो, होती तभी समृद्धि।।
*
धन चराग प्रज्वलित कर, बाँटें सतत प्रकाश।
ज्योतित वसुधा देखकर, विस्मित हो आकाश।।
*
ज्योति तेल-बाती जले, दिया पा रहा श्रेय।
तिमिर पूछता देव से, कहिए क्या अभिप्रेय??
*
ज्योति तेल बाती दिया, तनहा करें न काम।
मिल जाएँ तो पी सकें, जग का तिमिर तमाम।।
*
चल शारद-दरबार में, बालें रचना-दीप।
निर्धन के धन शब्द हों, हर कवि बने महीप।।
*
धन तेरस का हर दिया, धन्वन्तरि के नाम।
बालें तन-मन स्वस्थ हों, काम करें निष्काम।।
*
नवगीत
*
लछमी मैया!
भाव बढ़ रहे, रुपया गिरता
दीवाली है।
भरा बताते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी
तो खाली है
*
धन तेरस पर
निर्धन पल-पल देश क्यों हुआ
कौन बताए?
दीवाली पर
दीवाला ही यहाँ हो रहा?
राम बचाए।
सत्ता चाहे
हो विपक्ष से रहित तंत्र तो
जी भर लूटे।
कहे विपक्षी
लूटपाट कर तंत्र सो रहा
छाती कूटे।
भरा बताते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी
तो खाली है।
*
डाका डालें
जन के धन पर नेता-अफसर
कौन बचाए?
सेठ-चिकित्सक, न्याय व्यवस्था
सत्ता चाहे
हो विपक्ष से रहित तंत्र यह
कहे विपक्षी
लूटपाट कर तंत्र सो रहा
भरा दिखाते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी
तो खाली है।
*
तेरह को जानें
गणित में- १३ एक अभाज्य संख्या , एक सुखद संख्या और एक भाग्यशाली संख्या है। यह ११ के साथ एक जुड़वां अभाज्य संख्या है , साथ ही १७ के साथ एक चचेरा भाई अभाज्य संख्या भी है। यह ज्ञात तीन में से दूसरा विल्सन अभाज्य संख्या है।१३ -पक्षीय नियमित बहुभुज को ट्राइडेकागन कहा जाता है ।
भाषाओं में
व्याकरणसभी जर्मनिक भाषाओं में १३ प्रथम संयुक्त संख्या है; संख्या ११ और १२ के अपने नाम हैं।
रोमांस भाषाएँ अलग-अलग प्रणालियों का उपयोग करती हैं: इतालवी में, ११ पहली मिश्रित संख्या ( अंडीसी ) है, जैसा कि रोमानियाई ( अनस्प्रेज़ेस ) में है, जबकि स्पेनिश और पुर्तगाली में, १५ तक की संख्याएँ (स्पेनिश क्विंस , पुर्तगाली क्विंज़े ), और फ्रेंच और इतालवी में १६ तक की संख्याएँ (फ्रेंच सीज़ , इतालवी सेडिसी ) के अपने नाम हैं। अधिकांश स्लाविक भाषाओं , हिंदी-उर्दू और अन्य दक्षिण एशियाई भाषाओं में भी यही स्थिति है ।
लोक-साहित्य
जर्मनी में, एक पुरानी परंपरा के अनुसार, १३ ( dreizehn ), पहली यौगिक संख्या के रूप में, अंकों में लिखी गई पहली संख्या थी; ० ( null ) से लेकर १३ ( zwölf ) तक की संख्याएँ लिखी जाती थीं। ड्यूडेन (जर्मन मानक शब्दकोश) अब इस परंपरा को (जिसे वास्तव में कभी आधिकारिक नियम के रूप में नहीं लिखा गया था) पुराना और अब मान्य नहीं कहता है, लेकिन कई लेखक अभी भी इसका पालन करते हैं।
अंग्रेजी में
तेरह किशोर संख्यात्मक सीमा (१३-१९) के भीतर दो संख्याओं में से एक है , पंद्रह के साथ, जो कार्डिनल अंक (तीन) और किशोर प्रत्यय से व्युत्पन्न नहीं है; इसके बजाय, यह क्रमिक अंक (तीसरा) से व्युत्पन्न है।
तेरह - तेरा - तुम्हारा
गुरु नानक देव जी की प्रसिद्ध साखीके अनुसार, जब वे सुल्तानपुर लोधी के एक कस्बे में मुनीम थे, तब वे लोगों को किराने का सामान बाँट रहे थे। जब उन्होंने १३ वें व्यक्ति को किराने का सामान दिया, तो वे रुक गए क्योंकि गुरुमुखी और हिंदी में तेरह/ तेरा कहा जाता है, जिसका अर्थ है तुम्हारा। और गुरु नानक देव जी ईश्वर को याद करते हुए कहते रहे, "तेरा, तेरा, तेरा..." लोगों ने बादशाह को बताया कि गुरु नानक देव जी लोगों को मुफ्त भोजन दे रहे हैं। जब खजाने की जांच की गई, तो पहले से ज्यादा पैसे मिले।
यहूदी धर्म में, १३ वह आयु दर्शाता है जिस पर एक लड़का परिपक्व होकर बार मिट्ज्वा (मिन्यन का सदस्य) बन जाता है। मैमोनाइड्स के अनुसार यहूदी धर्म के सिद्धांतों की संख्या .तथा टोरा पर रब्बीनिक टिप्पणी के अनुसार ईश्वर में दया के 13 गुण हैं।
पारसी धर्म- नवरोज़ (ईरानी नव वर्ष) के१३वें दिन को सिज़दा बे-दार कहा जाता है। यह मज़ाक और बाहर समय बिताने के लिए समर्पित एक त्योहार है।
ईसाई धर्म- ईसा मसीह और उनके १२ शिष्य मिलकर १३ का समूह अंतिम भोज में चित्रित है। रोमन कैथोलिक ईसाई के नुसार १९१७ में में वर्जिन (कुआँरी) फातिमा के दर्शन लगातार छह महीनों के १३ वें दिन हुए थे। कैथोलिक भक्ति प्रथा में, तेरह की संख्या पडुआ के संत एंथोनी से भी जुड़ी हुई है , क्योंकि उनका पर्व १३ जून को पड़ता है। सेंट एंथोनी के तेरह मंगलवार नामक एक पारंपरिक भक्ति में तेरह सप्ताह की अवधि में हर मंगलवार को संत से प्रार्थना करना शामिल है। सेंट एंथोनी चैपल, में हरेक में तीन मोतियों के तेरह दशक होते हैं।
इसलाम- शिया में १३ रजब (चंद्र कैलेंडर) महीने के १३ वें दिन को दर्शाता है, जो इमाम अली का जन्म है । १३3 इस्लामी विचारधाराओं में१ पैगंबर और १२ शिया इमाम कुल १३ हैं।
चंद्र पंथ- प्राचीन संस्कृतियों में, संख्या १३ स्त्रीत्व का प्रतिनिधित्व करती थी, क्योंकि यह एक वर्ष में चंद्र (मासिक धर्म) चक्रों की संख्या के अनुरूप थी (१३× २८ = ३६४ दिन )। सिद्धांत यह है कि, जैसे ही सौर कैलेंडर ने चंद्र पर विजय प्राप्त की, संख्या तेरह अभिशाप बन गई।
एज़्टेक पौराणिक कथा के अनुसार , सृष्टि के दौरान देवताओं द्वारा सिपैक्टली के सिर से तेरह स्वर्गों का निर्माण किया गया था।
विक्का धर्म- आम परंपरा यह मानती है कि एक संप्रदाय के सदस्यों की संख्या आदर्श रूप से तेरह है, हालांकि यह परंपरा सार्वभौमिक नहीं है।
हम्मूराबी का कोड- एक मिथक है कि तेरह को अशुभ या बुरा मानने का सबसे पहला संदर्भ बेबीलोनियन कोड ऑफ हम्मुराबी (लगभग १७८० ईसा पूर्व) में है, जहाँ तेरहवें नियम को छोड़ दिया गया है। वास्तव में, हम्मुराबी की मूल संहिता में कोई संख्या नहीं है। रिचर्ड हुकर द्वारा संपादित एलडब्ल्यू किंग (१९१०) के अनुवाद में एक अनुच्छेद को छोड़ दिया गया: यदि विक्रेता (अपने) भाग्य पर चला गया है (यानी, मर गया है), तो खरीदार को विक्रेता की संपत्ति से उक्त मामले में पाँच गुना क्षतिपूर्ति प्राप्त करनी होगी। हम्मुराबी संहिता के अन्य अनुवाद, उदाहरण के लिए रॉबर्ट फ्रांसिस हार्पर द्वारा अनुवाद, में १३ वाँ अनुच्छेद शामिल है।
मायान त्ज़ोलकिन कैलेंडर में, ट्रेसेनास १३ दिन की अवधि के चक्रों को चिह्नित करते हैं। पिरामिड भी ९ चरणों में स्थापित किए गए हैं जो ७ दिन और ६ रात (कुल १३) में विभाजित हैं।
मानक ५२ पत्तों वाले ताश के डेक में चार प्रकार (सूट हुकुम,पान, ईंट, चिड़ी) होते हैं, जिनमें से प्रत्येक में १३ (पत्ते) रैंक होती हैं।
बेकर/शैतान का दर्जन, लंबा दर्जन, या लंबा माप १३ है, जो एक मानक दर्जन से एक अधिक है। तेरहवीं रोटी को वैंटेज रोटी कहा जाता है। १२ की कीमत पर १३ रोटियाँ प्राप्त करना फायदेमंद माना जाता है।
मध्यकालीन ग्रंथों में दर्ज आर्थरियन किंवदंती के अनुसार, राजा आर्थर तथा गोल मेज के १२ महानतम शूरवीर कुल १३ एवलॉन में आराम कर रहे हैं। जब उनका देश संकट में होगा, तब वे वापस लौटेंगे।
ब्रिटेन के तेरह खजाने, उत्तर मध्यकालीन ग्रंथों में सूचीबद्ध जादुई वस्तुओं की एक श्रृंखला है ।
ताई ची के तेरह आसन ८ द्वारों और ५ चरणों से मिलकर बने हैंजिन्हें ताई ची के अभ्यास में मौलिक महत्व का माना जाता है।
खगोल विज्ञान में १२ राशि चक्र व ओफिउचुस कुल १३ तारामंडल हैं।
टैरो कार्ड डेक में, XIII मृत्यु का कार्ड है, जिसमें सामान्यतः पीले घोड़े और उसके सवार को दर्शाया जाता है।
अर्जेंटीना, बुर्किना फासो, जापान, नाइजर और दो मैक्सिकन राज्यों में सहमति की न्यूनतम आयु तेरह वर्ष है ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में कई सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर, बच्चों के ऑनलाइन गोपनीयता संरक्षण अधिनियम (COPPA) के अनुपालन में खाता बनाने के लिए मानक न्यूनतम आयु १३ वर्ष है ।
यह वह आयु है जिस पर एंटरटेनमेंट सॉफ्टवेयर रेटिंग बोर्ड (ईएसआरबी) टी-रेटेड गेम्स का मूल्यांकन करता है और मोशन पिक्चर एसोसिएशन पीजी-१३ रेटिंग वाली फिल्मों की सिफारिश करता है।
कुछ देशों में संख्या १३ को एक अशुभ संख्या माना जाता है। माया कैलेंडर के १३वें बकटुन के अंत को २०१२ की सर्वनाशकारी घटना के अग्रदूत के रूप में अंधविश्वास से जोड़ा गया था। संख्या १३ के डर का एक विशेष रूप से मान्यता प्राप्त भय है , ट्रिसकैडेकाफोबिया, एक शब्द जो पहली बार १९११ में दर्ज किया गया था। ट्रिसकैडेकाफोबिया से पीड़ित अंधविश्वासी लोग तेरह नंबर या लेबल वाली किसी भी चीज़ से दूर रहकर दुर्भाग्य से बचने की कोशिश करते हैं। वे मंजिल संख्या, आसंदी संख्या आदि में १२ के बाद सीधे १४ लिखा जाता है। एक मेज पर तेरह मेहमानों का होना भी अशुभ माना जाता है।
इतिहाससंयुक्त राज्य अमेरिका की महान मुहर में कई समूह हैं जिनमें एक ही प्रकार की 13 चीजें शामिल हैं जैसे १३ जैतून की पत्तियां, १३ तारे, १३ तीर।संयुक्त राज्य अमेरिका का निर्माण तेरह ब्रिटिश उपनिवेशों से हुआ था और इस तरह, संख्या तेरह अमेरिकी हेराल्ड्री में एक सामान्य रूप से आवर्ती रूपांकन है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका की महान मुहर पर तेरह सितारे हैं और अमेरिकी ध्वज पर तेरह धारियाँ हैं और साथ ही एरिज़ोना के ध्वज पर तेरह किरणें हैं ।संयुक्त राज्य अमेरिका के पहले झंडे में तेरह धारियाँ थीं, जो बारी-बारी से लाल और सफ़ेद रंग की थीं, और नीले रंग के संघ में तेरह सफ़ेद सितारे थे। तेरह धारियाँ उन तेरह उपनिवेशों का प्रतिनिधित्व करती थीं जिनसे संयुक्त राज्य अमेरिका का निर्माण हुआ था, और तेरह सितारे नए राष्ट्र में राज्यों की संख्या का प्रतिनिधित्व करते थे। जब १७९५ में संघ में दो नए राज्य जोड़े गए, तो झंडे में पंद्रह सितारे और पंद्रह धारियाँ थीं। १८१८ में पाँच नए राज्यों के जुड़ने के साथ, पट्टियों की संख्या को फिर से सेट किया गया और स्थायी रूप से तेरह पर स्थिर कर दिया गया।
संयुक्त राज्य अमेरिका की महान मुहर पर तेरह नंबर की कई छवियां हैं, जो उन तेरह उपनिवेशों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनसे संयुक्त राज्य अमेरिका का निर्माण हुआ था। मुहर के अग्रभाग पर, ऊपरी महिमा में तेरह सितारे हैं। फैले हुए ईगल के सामने छाती की ढाल पर तेरह धारियाँ (सात सफ़ेद और छह लाल) हैं। ईगल के दाहिने पंजे में शांति की जैतून की शाखा है, जिसमें तेरह जैतून और तेरह जैतून के पत्ते हैं। ईगल के बाएं पंजे में युद्ध के हथियार हैं, जिसमें तेरह तीर हैं। ईगल के मुंह में राष्ट्रीय आदर्श वाक्य "ई प्लुरिबस यूनम" (जो संयोग से, तेरह अक्षरों से बना है) वाला एक स्क्रॉल है। सील के पीछे, अधूरा पिरामिड तेरह स्तरों का है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के तेरहवें संशोधन ने दासता और अनैच्छिक दासता (अपराध के लिए दंड के रूप में छोड़कर) को समाप्त कर दिया।
अपोलो १३ नासा का एक चन्द्रमा मिशन था जो १९७० में "सफल विफलता" के लिए प्रसिद्ध था।
***
सॉनेट
रामकिशोर
*
मधुर मधुर मुस्कान बिखेरें
दर्द न दिल का कभी दिखाते
हर नाते को पुलक सहेजें
अनजाने को भी अपनाते
वाणी मधुर स्नेह सलिला सम
झट हिल-मिल गुल सम खिल जाते
लगता दूर हो गया है तम
प्राची से दिनकर प्रगटाते
शब्दों की मितव्ययिता बरते
कविताओं में सत्य समय का
लिखें लेख पैने मन-चुभते
भान न लेकिन कहीं अनय का
चेहरे छाई रहती भोर
देते खुशियाँ रामकिशोर
२९-१०-२०२२
***
हाइकु
*
करो वंदन
निशि हुई हाइकु
गीत निशीश।
*
मुदित मन
जिज्ञासु हो दिमाग
राग-विराग।
*
चश्मा देखता
चकित चित मौन
चश्मा बहता।
*
अभिनंदन
माहिया-हाइकु का
रोली-चंदन।
*
झूमा आकाश
महमहाया चाँद
लिए चाँदनी।
*
आज की शाम
फुनगी पर चाँद
झूम नाचता
२८-१०-२०२२
***
सराइकी दोहा:
भाषा विविधा:
[सिरायकी पाकिस्तान और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में बोले जानेवाली लोकभाषा है. सिरायकी का उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से हुआ है. इसे लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी आदि भी कहा गया है. सिरायकी की मूल लिपि लिंडा है. मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली इससे मिलती-जुलती बोलियाँ हैं. सिरायकी में दोहा छंद अब तक मेरे देखने में नहीं आया है. मेरे इस प्रथम प्रयास में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है. पाठकों से त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]
*
बुरी आदतां दुखों कूँ, नष्ट करेंदे ईश।
साडे स्वामी तुवाडे, बख्तें वे आशीष।।
*
रोज़ करन्दे हन दुआ, तेडा-मेडा भूल।
अज सुणीज गई हे दुआं,त्रया-पंज दा भूल।।
*
दुक्खां कूँ कर दूर प्रभु, जग दे रचनाकार।
डेवणवाले देवता, वरण जोग करतार।।
*
कोई करे तां क्या करे, हे बदलाव असूल।
कायम हे उम्मीद पे, दुनिया कर के भूल।।
*
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार।
लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
२९-१०-२०१९
*
एक मुक्तक
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे
पंच पर्व पर प्राण-वर्तिका तम पी पाए
२९.५.२०१५
***
एक छंद
*
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएं न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
*
***
एक छंद
राम के काम को, करे प्रणाम जो, उसी अनाम को, राम मिलेगा
नाम के दाम को, काम के काम को, ध्यायेगा जो, विधि वाम मिलेगा
देश ललाम को, भू अभिराम को, स्वच्छ करे इंसान तरेगा
रूप को चाम को, भोर को शाम को, पूजेगा जो, वो गुलाम मिलेगा
***
मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
२९-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला: २६
व्यतिरेक अलंकार
*
हिंदी गीति काव्य का वैशिष्ट्य अलंकार हैं. विविध काव्य प्रवृत्तियों को कथ्य का अलंकरण मानते हुए
पिंगलविदों ने उन्हें पहचान और वर्गीकृत कर समीक्षा के लिये एक आधार प्रस्तुत किया है. विश्व की
किसी अन्य भाषा में अलंकारों के इतने प्रकार नहीं हैं जितने हिंदी में हैं.
आज हम जिस अलंकार की चर्चा करने जा रहे हैं वह उपमा से सादृश्य रखता है इसलिए सरल है. उसमें
उपमा के चारों तत्व उपमेय, उपमान, साधारण धर्म व वाचक शब्द होते हैं.
उपमा में सामान्यतः उपमेय (जिसकी समानता स्थापित की जाये) से उपमान (जिससे समानता
स्थापित की जाये) श्रेष्ठ होता है किन्तु व्यतिरेक में इससे सर्वथा विपरीत उपमेय को उपमान से भी श्रेष्ठ
बताया जाता है.
श्रेष्ठ जहाँ उपमेय हो, याकि हीन उपमान.
अलंकार व्यतिरेक वह, कहते हैं विद्वान..
तुलना करते श्रेष्ठ की, जहाँ हीन से आप.
रचना में व्यतिरेक तब, चुपके जाता व्याप..
करें न्यून की श्रेष्ठ से, तुलना सहित विवेक.
अलंकार तब जानिए, सरल-कठिन व्यतिरेक..
उदाहरण:
१. संत ह्रदय नवनीत समाना, कहौं कविन पर कहै न जाना.
निज परताप द्रवै नवनीता, पर दुःख द्रवै सुसंत पुनीता.. - तुलसीदास (उपमा भी)
यहाँ संतों (उपमेय) को नवनीत (उपमान) से श्रेष्ठ प्रतिपादित किया गया है. अतः, व्यतिरेक अलंकार है.
२. तुलसी पावस देखि कै, कोयल साधे मौन.
अब तो दादुर बोलिहैं, हमें पूछिहैं कौन.. - तुलसीदास (उपमा भी)
यहाँ श्रेष्ठ (कोयल) की तुलना हीन (मेंढक) से होने के कारण व्यतिरेक है.
३. संत सैल सम उच्च हैं, किन्तु प्रकृति सुकुमार..
यहाँ संत तथा पर्वत में उच्चता का गुण सामान्य है किन्तु संत में कोमलता भी है. अतः, श्रेष्ठ की हीन से तुलना होने के कारण व्यतिरेक है.
४. प्यार है तो ज़िन्दगी महका
हुआ इक फूल है !
अन्यथा; हर क्षण, हृदय में
तीव्र चुभता शूल है ! -महेंद्र भटनागर
यहाँ प्यार (श्रेष्ठ) की तुलना ज़िन्दगी के फूल या शूल से है जो, हीन हैं. अतः, व्यतिरेक है.
५. धरणी यौवन की
सुगन्ध से भरा हवा का झौंका -राजा भाई कौशिक
६. तारा सी तरुनि तामें ठाढी झिलमिल होति.
मोतिन को ज्योति मिल्यो मल्लिका को मकरंद.
आरसी से अम्बर में आभा सी उजारी लगे
प्यारी राधिका को प्रतिबिम्ब सो लागत चंद..--देव
७. मुख मयंक सो है सखी!, मधुर वचन सविशेष
८. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू, चाँद कलंकी वह निकलंकू
९. नव विधु विमल तात! जस तोरा, उदित सदा कबहूँ नहिं थोरा (रूपक भी)
१०. विधि सों कवि सब विधि बड़े, यामें संशय नाहिं
खट रस विधि की सृष्टि में, नव रस कविता मांहि
११. अवनी की ऊषा सजीव थी, अंबर की सी मूर्ति न थी
१२. सम सुबरन सुखमाकर, सुखद न थोर
सीय-अंग सखि! कोमल, कनक कठोर
१३. साहि के सिवाजी गाजी करयौ दिल्ली-दल माँहि,
पाण्डवन हूँ ते पुरुषार्थ जु बढ़ि कै
सूने लाख भौन तें, कढ़े वे पाँच रात में जु,
द्यौस लाख चौकी तें अकेलो आयो कढ़ि कै
१४. स्वर्ग सदृश भारत मगर यहाँ नर्मदा वहाँ नहीं
लड़ें-मरें सुर-असुर वहाँ, यहाँ संग लड़ते नहीं - संजीव वर्मा 'सलिल'
***
नवगीत
एक पसेरी
*
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
अनपढ़, बिन पढ़ वह लिखे
जो आँधर को ही दिखे
बहुत सयाने, अति चतुर
टके तीन हरदम बिके
बर्फ कह रहा घाम में
हाथ-पैर झुलसे-सिके
नवगीतों को बाँधकर
खूँटे से कुछ क्यों टिके?
मुट्ठी भर तो लुटा
झोला भर धरना फिर तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
सूरज ढाँके कोहरे
लेते दिन की टोह रे!
नदी धार, भाषा कभी
बोल कहाँ ठहरे-रुके?
देस-बिदेस न घूमते
जो पग खाकर ठोकरें
बे का जानें जिन्नगी
नदी घाट घर का कहें?
मार अहं को यार!
किसी पर मरना फिर तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
लाठी ने कब चाहा
पाये कोई सहारा?
चंदा ने निज रूप
सोच कब कहाँ निहारा
दियासलाई दीपक
दीवट दें उजियारा
जला पतंगा, दी आवाज़
न टेर गुहारा
ऐब न निज का छिपा
गैर पर छिप धरना तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
२९-१०-२०१५
***
नवगीत:
रिश्ते
*
सांस बन गए रिश्ते
.
अनजाने पहचाने लगते
अनचीन्हे नाते, मन पगते
गैरों को अपनापन देकर
हम सोते या जगते
ठगे जा रहे हम औरों से
या हम खुद को ठगते?
आस बन गए रिश्ते
.
दिन भर बैठे आँख फोड़ते
शब्द-शब्द ही रहे जोड़ते
दुनिया जोड़े रूपया-पैसा
कहिए कैसे छंद छोड़ते?
गीत अगीत प्रगीत विभाजन
रहे समीक्षक हृदय तोड़ते
फांस बन गए रिश्ते
.
नभ भू समुद लगता फेरा
गिरता बहता उड़ता डेरा
मीठा मैला खरा होता
'सलिल' नहीं रोके पग-फेरा
दुनियादारी सीख न पाया
क्या मेरा क्या तेरा
कांस बन गए रिश्ते
२९-१०-२०१५
***
नवगीत:
आओ रे!
मतदान करो
भारत भाग्य विधाता हो
तुम शासन-निर्माता हो
संसद-सांसद-त्राता हो
हमें चुनो
फिर जियो-मरो
कैसे भी
मतदान करो
तूफां-बाढ़-अकाल सहो
सीने पर गोलियाँ गहो
भूकंपों में घिरो-ढहो
मेलों में
दे जान तरो
लेकिन तुम
मतदान करो
लालटेन, हाथी, पंजा
साड़ी, दाढ़ी या गंजा
कान, भेंगा या कंजा
नेता करनी
आप भरो
लुटो-पिटो
मतदान करो
पाँच साल क्यों देखो राह
जब चाहो हो जाओ तबाह
बर्बादी को मिले पनाह
दल-दलदल में
फँसो-घिरो
रुपये लो
मतदान करो
नाग, साँप, बिच्छू कर जोड़
गुंडे-ठग आये घर छोड़
केर-बेर में है गठजोड़
मत सुधार की
आस धरो
टैक्स भरो
मतदान करो
(कश्मीर तथा अन्य राज्यों में चुनाव की खबर पर )
संजीवनी अस्पताल, रायपुर
२९.११.२०१४
***
नवगीत:
ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर
धर देता
वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता
सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता
रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता
२९-१०-२०१४
***
नवगीत:
सुख-सुविधा में
मेरा-तेरा
दुःख सबका
साझा समान है
पद-अधिकार
करते झगड़े
अहंकार के
मिटें न लफ़ड़े
धन-संपदा
शत्रु हैं तगड़े
परेशान सब
अगड़े-पिछड़े
मान-मनौअल
समाधान है
मिल-जुलकर जो
मेहनत करते
गिरते-उठते
आगे बढ़ते
पग-पग चलते
सीढ़ी चढ़ते
तार और को
खुद भी तरते
पगतल भू
करतल वितान है
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर
***
नवगीत:
देव सोये तो
सोये रहें
हम मानव जागेंगे
राक्षस
अति संचय करते हैं
दानव
अमन-शांति हरते हैं
असुर
क्रूर कोलाहल करते
दनुज
निबल की जां हरते हैं
अनाचार का
शीश पकड़
हम मानव काटेंगे
भोग-विलास
देवता करते
बिन श्रम सुर
हर सुविधा वरते
ईश्वर पाप
गैर सर धरते
प्रभु अधिकार
और का हरते
हर अधिकार
विशेष चीन
हम मानव वारेंगे
मेहनत
अपना दीन-धर्म है
सच्चा साथी
सिर्फ कर्म है
धर्म-मर्म
संकोच-शर्म है
पीड़ित के
आँसू पोछेंगे
मिलकर तारेंगे
***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २८, गुलाब, शे'र, नीराजना छंद, नैरंतरी काव्य, कुंडलिया,भाषा, कविता,

सलिल सृजन अक्टूबर २८
*
पूर्णिका
गुलाब

तेरे चेहरे की आब हो जाऊँ
मैं महकता गुलाब हो जाऊँ
आस कलिका है, प्यास भँवरा है
मूँद पलकें तो ख्वाब हो जाऊँ
खुले जब आँख तो पढ़े दिन भर
तेरे हाथों किताब हो जाऊँ
भीख मुझको मिले मेरे मौला
इश्क की तो नवाब हो जाऊँ
तेरी आँखें सवाल जो भी करें
मैं ही उसका जवाब हो जाऊँ
साँस की साहूकार तू गर हो
तो बही का हिसाब हो जाऊँ
रूप अपना निखार ले आकर
आज दरिया चनाब हो जाऊँ
हुस्न तुझको अता खुदा ने किया
क्यों न तेरा शबाब हो जाऊँ
लबे नाज़ुक पिएँ दो घूँट अगर
आबे जमजम शराब हो जाऊँ
लल्लोचप्पो न तू समझ इसको
गीत! लब्बोलुआब हो जाऊँ
•••
एक काव्य पत्र
जो मेरा है सो तेरा है
बस चार दिनों का फेरा
सब यहीं छोड़कर जाना है
प्रभु पग ही अपना डेरा है
शन्नो जी! जो भी मन भाए
मिल काव्य कलश रस पी पाए
इस मधुशाला में सब अपने
भुज भेंटे जब जो मन भाए
शेयर है मगर न मोल यहाँ
पीटें आनंदित ढोल यहाँ
करिए करिए शेयर करिए
कविता-पाठक पेयर करिए
लें धन्यवाद, आभार आप
खुश सुख को सका न कोई माप
जय हिंद आपकी जय जय हो
हिंदी जग बोले निर्भय हो
***
एक मिसरा : चंद शे'र

अँजुरी भरी गुलाब की, कर दी उसके नाम।
अलस्सुबह जिसने दिया, शुभ प्रभात पैगाम।।

अँजुरी भरी गुलाब की, अर्पित उसके नाम।
लिए बिना लेते रहे, जो लब मेरा नाम।।

अँजुरी भरी गुलाब की, हाय! न जाए सूख।
प्रिये! इन्हें स्वीकार लो, मिटा प्रणय की भूख।।

अँजुरी भरे गुलाब की, ले लो मेरे राम।
केवट-गुह के घर चलो, या शबरी के ग्राम।।

अँजुरी भरी गुलाब की, भेजी है दिल हार।
उसे न भाई चाहती, जो नौलखिया हार।।

अँजुरी भरी गुलाब की, कुछ बेला के फूल।
देख याद तुम आईं फिर, चुभे हृदय में शूल

अँजुरी भरी गुलाब की, खत है उसके नाम।
सूखी कली गुलाब की, जो चूमे हर शाम।।

अँजुरी भरी गुलाब की, भँवरे की लय-तान।
कली-तितलियों के लिए, सहित स्नेह-सम मान।।
२८.१०.२०२४
•••
चिंतन
सब प्रभु की संतान हैं, कोऊ ऊँच न नीच
*
'ब्रह्मम् जानाति सः ब्राह्मण:' जो ब्रह्म जानता है वह ब्राह्मण है। ब्रह्म सृष्टि कर्ता हैं। कण-कण में उसका वास है। इस नाते जो कण-कण में ब्रह्म की प्रतीति कर सकता हो वह ब्राह्मण है। स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना कर्म और योग्यता पर निर्भर है, जन्म पर नहीं। 'जन्मना जायते शूद्र:' के अनुसार जन्म से सभी शूद्र हैं। सकल सृष्टि ब्रह्ममय है, इस नाते सबको सहोदर माने, कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान को देखे, सबसे समानता का व्यवहार करे, वह ब्राह्मण है। जो इन मूल्यों की रक्षा करे, वह क्षत्रिय है, जो सृष्टि-रक्षार्थ आदान-प्रदान करे, वह वैश्य है और जो इस हेतु अपनी सेवा समर्पित कर उसका मोल ले-ले वह शूद्र है। जो प्राणी या जीव ब्रह्मा की सृष्टि निजी स्वार्थ / संचय के लिए नष्ट करे, औरों को अकारण कष्ट दे वह असुर या राक्षस है।
व्यावहारिक अर्थ में बुद्धिजीवी वैज्ञानिक, शिक्षक, अभियंता, चिकित्सक आदि ब्राह्मण, प्रशासक, सैन्य, अर्ध सैन्य बल आदि क्षत्रिय, उद्योगपति, व्यापारी आदि वैश्य तथा इनकी सेवा व सफाई कर रहे जन शूद्र हैं। सृष्टि को मानव शरीर के रूपक समझाते हुए इन्हें क्रमशः सिर, भुजा, उदर व् पैर कहा गया है। इससे इतर भी कुछ कहा गया है। राजा इन चारों में सम्मिलित नहीं है, वह ईश्वरीय प्रतिनिधि या ब्रह्मा है। राज्य-प्रशासन में सहायक वर्ग कार्यस्थ (कायस्थ नहीं) है। कायस्थ वह है जिसकी काया में ब्रम्हांश जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, आत्मा रूप स्थित है।
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनाम्।', 'कायस्थित: स: कायस्थ:' से यही अभिप्रेत है। पौरोहित्य कर्म एक व्यवसाय है, जिसका ब्राह्मण होने न होने से कोई संबंध नहीं है। ब्रह्म के लिए चारों वर्ण समान हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। जन्मना ब्राह्मण सर्वोच्च या श्रेष्ठ नहीं है। वह अत्याचारी हो तो असुर, राक्षस, दैत्य, दानव कहा गया है और उसका वध खुद विष्णु जी ने किया है। गीता रहस्य में लोकमान्य टिळक जो खुद ब्राह्मण थे, ने लिखा है -
गुरुं वा बाल वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं
आततायी नमायान्तं हन्या देवाविचारयं
ब्राह्मण द्वारा खुद को श्रेष्ठ बताना, अन्य वर्णों की कन्या हेतु खुद पात्र बताना और अन्य वर्गों को ब्राह्मण कन्या हेतु अपात्र मानना, हर पाप (अपराध) का दंड ब्राह्मण को दान बताने दुष्परिणाम सामाजिक कटुता और द्वेष के रूप में हुआ।
२८.१०.१०१९
***
हिंदी के नए छंद १८
नीराजना छंद
*
लक्षण:
१. प्रति पंक्ति २१ मात्रा।
२. पदादि गुरु।
३. पदांत गुरु गुरु लघु गुरु।
४. यति ११ - १०।
लक्षण छंद:
एक - एक मनुपुत्र, साथ जीतें सदा।
आदि रहें गुरुदेव, न तब हो आपदा।।
हो तगणी गुरु अंत, छंद नीरजना।
मुग्ध हुए रजनीश, चंद्रिका नाचना।।
टीप:
एक - एक = ११, मनु पुत्र = १० (इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट,
धृष्ट, करुषय, नरिष्यन्त, प्रवध्र, नाभाग, कवि भागवत)
उदाहरण:
कामदेव - रति साथ, लिए नीराजना।
संयम हो निर्मूल, न करता याचना।।
हो संतुलन विराग - राग में साध्य है।
तोड़े सीमा मनुज, नहीं आराध्य है।।
२८-१०-२०१७
***
कविता:
सफाई
मैंने देखा सपना एक
उठा तुरत आलस को फेंक
बीजेपी ने कांग्रेस के
दरवाज़े पर करी सफाई
नीतीश ने भगवा कपड़ों का
गट्ठर ले करी धुलाई
माया झाड़ू लिए
मुलायम की राहों से बीनें काँटे
और मुलायम ममतामय हो
लगा रहे फतवों को चाँटे
जयललिता की देख दुर्दशा
करुणा-भर करूणानिधि रोयें
अब्दुल्ला श्रद्धा-सुमनों की
अवध पहुँच कर खेती बोयें
गज़ब! सोनिया ने
मनमोहन को
मन मंदिर में बैठाया
जन्म अष्टमी पर
गिरिधर का सोहर
सबको झूम सुनाया
स्वामी जी को गिरिजाघर में
प्रेयर करते हमने देखा
और शंकराचार्य मिले
मस्जिद में करते सबकी सेवा
मिले सिक्ख भाई कृपाण से
खापों के फैसले मिटाते
बम्बइया निर्देशक देखे
यौवन को कपड़े पहनाते
डॉक्टर और वकील छोड़कर फीस
काम जल्दी निबटाते
न्यायाधीश एक पेशी में
केसों का फैसला सुनाते
थानेदार सड़क पर मंत्री जी का
था चालान कर रहा
बिना जेब के कपड़े पहने
टी. सी. बरतें बाँट हँस रहा
आर. टी. ओ. लाइसेंस दे रहा
बिन दलाल के सच्ची मानो
अगर देखना ऐसा सपना
चद्दर ओढ़ो लम्बी तानो
***
नैरंतरी काव्य
बचपन बोले: उठ मत सो ले
उठ मत सो ले, सपने बो ले
सपने बो ले, अरमां तोले
अरमां तोले, जगकर भोले
जगकर भोले, मत बन शोले
मत बन शोले, बचपन बोले
*
अपनी भाषा मत बिसराओ, अपने स्वर में भी कुछ गाओ
अपने स्वर में भी कुछ गाओ, दिल की बातें तनिक बताओ
दिल की बातें तनिक बताओ, बाँहों में भर गले लगाओ
बाँहों में भर गले लगाओ, आपस की दूरियाँ मिटाओ
आपस की दूरियाँ मिटाओ, अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ
अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ, अपनी भाषा मत बिसराओ
२८-१०-२०१४
***
: कुंडलिया :
प्रथम पेट पूजा करें
0
प्रथम पेट पूजा करें, लक्ष्मी-पूजन बाद
मुँह में पानी आ रहा, सोच मिले कब स्वाद
सोच मिले कब स्वाद, भोग पहले खुद खा ले
दास राम का अधिक, राम से यह दिखला दे
कहे 'सलिल' कविराय, न चूकेंगे अवसर हम
बन घोटाला वीर, लगायें भोग खुद प्रथम
२८-१०-२०१३

***

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २७, करवा चौथ, मुक्तक, ताजमहल, लघुकथा, चित्रगुप्त, गीत, दोहा,नैरंतर्य छंद

सलिल सृजन अक्टूबर २७
*
भोर उठिए सुमिर प्रभु को, दोपहर में काम कर।
साँझ सुख-संतोष पा ले, रात सो शुभ स्वप्न धर।।
गीत
जीवन जी ले धीरज धरकर
सुख-दुख से मत भाग रे!
ना हो अतिशय भोग-विलासी
और न सब कुछ त्याग रे!
जो जैसा है प्रभु की माया,
काया पर ईश्वर की छाया।
कर्म किया परिणाम भोग ले,
घटे नहीं अनुराग रे!
चित्र गुप्त होता है प्रभु का,
नाहक दे आकार तू।
कर्मकांड भरमाते तुझको,
सच को बना सुहाग रे!
धर्म नंदिनी श्वास-श्वास हो,
शुभावती हर आस हो।
शिव हरि रवि राशि बारह सम,
बन जलने दे आग रे!
२७.१०.२०२४
•••
एक रचना
*
दिल जलता है तो जलने दे, दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर, दीवाली है
दीपक-बाती में नाता क्या लालू पूछे
चुप घरवाला है, चपल मुखर घरवाली है
फिर तेल धार क्या लगी तनिक यह बतलाओ
यह दाल-भात में मूसल रसमय साली है
जो बेच-खरीद रहे उनको समधी जानो
जो जला रही तीली सरहज मतवाली है
सासू याद करे अपने दिन मुस्काकर
साला बोला हाथ लगी हम्माली है
सखी-सहेली हवा छेड़ती जीजू को
भभक रही लौ लाल न जाए सँभाली है
दिल जलता है तो जलने दे दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर दीवाली है
२७-१०-२०१९
***
करवा चौथ
*
अर्चना कर सत्य की, शिव-साधना सुन्दर करें।
जग चलें गिर उठ बढ़ें, आराधना तम हर करें।।
*
कौन किसका है यहाँ?, छाया न देती साथ है।
मोह-माया कम रहे, श्रम-त्याग को सहचर करें।।
*
एक मालिक है वही, जिसने हमें पैदा किया।
मुक्त होकर अहं से, निज चित्त प्रभु-चाकर करें।।
*
वरे अक्षर निरक्षर, तब शब्द कविता से मिले।
भाव-रस-लय त्रिवेणी, अवगाह चित अनुचर करें।।
*
पूर्णिमा की चंद्र-छवि, निर्मल 'सलिल में निरखकर।
कुछ रचें; कुछ सुन-सुना, निज आत्म को मधुकर करें।।
करवा चौथ २७-१०-२०१८
***
मुक्तक
*
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह स्वाभाविक है, स्मृतियाँ बिन बिछड़े होती नहीं प्रबल
क्यों दोष किसी को दें हम-तुम, जो साथ उसे कब याद किया?
बिन शीश कटाये बना रहे, नेता खुद अपने शीशमहल
*
जीवन में हुआ न मूल्यांकन, शिव को भी पीना पड़ा गरल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह दुनिया पत्थर को पूजे, सम्प्राणित को ठुकराती है
जो सचल पूजता हाथ जोड़ उसको जो निष्ठुर अटल-अचल
*
कविता होती तब सरस-सरल, जब भाव निहित हों सहज-तरल
मन से मन तक रच सेतु सबल, हों शब्द-शब्द मुखरित अविचल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
हँस रूपक बिम्ब प्रतीकों में, रस धार बहा करती अविकल
*
जन-भाषा हिंदी की जय-जय, चिरजीवी हो हिंदी पिंगल
सुरवाणी प्राकृत पाली बृज, कन्नौजी अपभ्रंशी डिंगल
इतिहास यही बतलाता है, जो सम्मुख वह अनदेखा हो
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
*
दोहा सलिला -
नेह नर्मदा सलिल ही, पा नयनों का गेह
प्रवहित होता अश्रु बन, होती देह विदेह
*
स्नेह-सलिल की लहर सम, बहिये जी भर मीत
कूल न तोड़ें बाढ़ बन, यह जीवन की रीत
*
मिले प्रेरणा तो बने, दोहा गीत तुरंत
सदा सदय माँ शारदा, साक्षी दिशा-दिगंतदोहा
२७-१०-२०१६
***
लघुकथा:
प्यार के नाम
*
पलट रहा हूँ फेसबुक आउट वाट्स ऐप के पन्ने, कहीं गीत-ग़ज़ल है, कहीं शेरो-शायरी, कहीं किस्से-कहानी, कहीं कहीं मदमस्त अदायें और चुलबुले कमेंट्स, लिव इन की खबरें, सबका दावा है कि वे उनका जीवन है सिर्फ प्यार के नाम.…
तलाश कर थक गया लेकिन नहीं मिला कोई भजन, प्रार्थना, सबद, अरदास, हम्द, नात, प्रेयर उसके नाम जिसने बनाई है यह कायनात, जो पूरी करता है सबकी मुरादें, कहें नहीं है चंद सतरें-कोई पैगाम उसके प्यार के नाम।
***
मुक्तक:
जुदा-जुदा किस्से हैं अपने
जुदा-जुदा हिस्से हैं अपने
पीड़ा सबकी एक रही है-
जुदा-जुदा सपने हैं अपने
*
कौन किसको प्यार कर पाया यहाँ?
कौन किससे प्यारा पा पाया यहाँ?
अपने सुर में बात अपनी कह रहे-
कौन सबकी बात कर पाया यहाँ?
*
अक्षर-अक्षर अलग रहा तो कह न सका कुछ
शब्द-शब्द से विलग रहा तो सह न सका कुछ
अक्षर-शब्द मिले तो मैं-तुम से हम होकर
नहीं कह सका ऐसा बाकी नहीं रहा कुछ
२७-१०-२०१५
***
नवगीत:
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
***
नवगीत:
ऐसा कैसा
पर्व मनाया ?
मनुज सभ्य है
करते दावा
बोल रहे
कुदरत पर धावा
कोई काम
न करते सादा
करते कभी
न पूरा वादा
अवसर पाकर
स्वार्थ भुनाया
धुआँ, धूल
कचरा फैलाते
हल्ला-गुल्ला
शोर मचाते
आज पूज
कल फेकें प्रतिमा
समझें नहीं
ईश की गरिमा
अपनों को ही
किया पराया
धनवानों ने
किया प्रदर्शन
लंघन करता
भूखा-निर्धन
फूट रहे हैं
सरहद पर बम
नहीं किसी को
थोड़ा भी गम
तजी सफाई
किया सफाया
***
नैरंतर्य छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
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दोहा सलिला :
कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान
पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण
मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ
हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ
हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर
मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर.
मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स
वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स
जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार
छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार
माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार
माटी माटी से मिले, माटी ले आकार
मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम
मैना - कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम
२७-१०-२०१४

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