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सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

गुलाब, नीरज, सलिल

गीत गुंजन : 

जासौन, मोगरा, गेंदा और सदा सुहागिन के बाद इस सप्ताह लिखिए गुलाब पर।    
प्रस्तुत है महाकवि नीरज का गुलाब पर एक मधुर गीत-  















दो गुलाब के फूल - महाकवि नीरज 
*
दो गुलाब के फूल छू गए, जब से होठ अपावन मेरे 
ऐसी गंध बसी है मन में, सारा जग मधुबन लगता है 

जाने क्या हो गया कि हरदम, बिना दिये के रहे उजाला,
चमके टाट बिछावन जैसे, तारों वाला नील दुशाला
हस्तामलक हुए सुख सारे, दु:ख के ऐसे ढहे कगारे
व्यंग्य-वचन लगता था जो कल, वह अब अभिनंदन लगता है 

तुम्हें चूमने का गुनाह कर, ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम-जनम के लिए हरी, हो गई प्राण की बंजर घाटी
पाप-पुण्य की बात न छेड़ो, स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो, मगहर वृन्दावन लगता है 

तुम्हें देख क्या लिया कि कोई, सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया, बन गई, महाकाव्य कोई चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी
जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है 

दो गुलाब के फूल छू गए, जब से होठ अपावन मेरे 
ऐसी गंध बसी है मन में, सारा जग मधुबन लगता है 
***
नवगीत:
.
हमने
बोए थे गुलाब
क्यों नागफनी उग आई?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर नींद कहो कब आई?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों तुमने आँख चुराई?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब ‘आप’ न हो रुसवाई.
***
हास्य सलिला:
लाल गुलाब
*
लालू जब घर में घुसे, लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया, पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन, नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊँगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
फूल न चौका सम्हालो, मैं जाऊँ बाज़ार
सैंडल लाकर पोंछ दो जल्दी मैली कार.'
***

एक दोहा
फूलति कली गुलाब की, सखि यहि रूप लखै न।
मनौ बुलावति मधुप कौं, दै चुटकी की सैन॥
एक सखी दूसरी सखी से विकसित होती हुई कली का वर्णन करती हुई कहती है कि हे सखि, इस खिलती हुई गुलाब की कली का रूप तो देखो न। यह ऐसी प्रतीत होती है, मानो अपने प्रियतम भौंरे को रस लेने के लिए चुटकी बजाकर इशारा करती हुई अपने पास बुला रही हो।
*
हसरत- ए- दीदार लेकर जाग उठी रात भी
चादर- ए-शबनम में लिपटी एक कली गुलाब की - आलोक सक्सेना
*
मैं गुलाब हूँ 
*
            मैं गुलाब हूँ। मुझसे मिलना है तो किसी बगीचे में चले जाओ। मैं  भारत में सर्वत्र सुलभ हूँ। भारत सरकार ने १२ फरवरी को 'गुलाब दिवस' घोषित कर मुझे सम्मान दिया है। मैं वैश्विक पुष्प हूँ। अमेरिका, इंग्लैंड, ईरान और ईराक का मैं राष्ट्रीय पुष्प हूँ। मुझे प्रेम का प्रतीक मन जाता है। मेरा पौधा झाड़ीदार और कटीला होता है।  मेरी १०० से अधिक जातियाँ हैं जिनमें से अधिकांश एशियाई मूल की हैं। कुछ जातियों के मूल प्रदेश यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा उत्तरी पश्चिमी अफ्रीका भी हैं। मेरी सुंदरता तथा कोमलता के कारण मेरी उपमा बच्चों, सुंदरियों तथा प्रेमिकाओं से की जाति है। मेरे वन्य रूप में चार-पाँच छितराई हुई पंखड़ियों की एक हरी पंक्ति होती है। बगीचों में यत्नपूर्वक लगाने पर पंखुड़ियों की संख्या बढ़ती है पर केसरों की संख्या घट जाती है। कलम पैबंद आदि के द्बारा मेरे भिन्न-भिन्न जातियों संकर रूप उत्पन्न किए जाते हैं। कश्मीर और भूटान में मैं पीले जंगली गुलाब के रूप में मिलता हूँ। तुर्की में मेरा कृष्ण वर्ण देखकर सभ मोहित हो जाते हैं। मैं लता या बेल के रूप में भी मिलता हूँ। 'शतपत्री', 'पाटलि' आदि शब्दों को गुलाब का पर्याय हैं।

इतिहास 
            १४५५ से १४८७ तक अंग्रेजी सिंहासन पर नियंत्रण के लिए  हाउस ऑफ़ लैंकेस्टर और हाउस ऑफ़ यॉर्क के समर्थकों के बीच हुए युद्ध वार्स ऑफ द रोसेस (गुलाब के युद्ध) कहे गए। इसका कारण यार्क हाउस का चिह्न सफेद गुलाब, लंकास्टर हाउस का चिह्न लाल गुलाब तथा ट्यूडर हाउस का चिह्न बीच में सफेद, बाहरी परिधि में लाल पंखुड़ियों का गुलाब होना था।

            मुसलमान लेखक रशीउद्दीन ने चौदहवीं शताब्दी में गुजरात में मेरे सत्तर उगाए जाने का जिक्र किया है। बाबर ने भी गुलाब लगाने की बात लिखी है। मेरी लालिमा पर फ़िदा नूरजहाँ ने १६१२ ईसवी में अपने विवाह के अवसर पर पहले पहल मेरा इत्र निकाला था। सीरिया की शाहजादी को मेरा पीले फूल पसंद थे। मुगलानी जेबुन्निसा अपनी फारसी शायरी में कहती है ‘मैं इतनी सुन्दर हूँ कि मेरे सौन्दर्य को देखकर गुलाब के रंग फीके पड़ जाते हैं।‘ भारत के राजे और सीरिया के बादशाह मेरे खूबसूरत बागीचों में सैर किया करते थे।
साहित्य 
            भारतीय साहित्य में मुझे रंगीन पंखुड़ियों के कारण 'पाटल', सदैव तरूण होने के कारण 'तरूणी', शत पत्रों के घिरे होने पर ‘शतपत्री’, कानों की आकृति से ‘कार्णिका’, सुन्दर केशर से युक्त होने ‘चारुकेशर’, लालिमा रंग के कारण ‘लाक्षा’ और गंध पूर्ण होने से गंधाढ्य कहा गया है। फारसी में मेरा नाम 'गुलाब, अंगरेज़ी में रोज, बंगला में गोलाप, तामिल में इराशा और तेलुगु में गुलाबि, अरबी में ‘वर्दे अहमर' है। शिव पुराण में मुझे देव पुष्प कहा गया है।  मैं अपनी सुगंध और रंग से विश्व काव्य में माधुर्य और सौन्दर्य का प्रतीक हूँ। रोम के प्राचीन कवि वर्जिल ने अपनी कविता में मेरे सीरियाई बसंती रूप की चर्चा की है। अंगरेज़ी कवि टामस हूड ने मुझे समय का प्रतिमान, कवि मैथ्यू आरनाल्ड ने प्रकृति का अनोखा वरदान, टेनिसन ने नारी का उपमान बताया है। हिन्दी के श्रृंगारी कवियों  ने मुझ पर अपनी रसिकता आरोपित की है-  ‘फूल्यौ रहे गंवई गाँव में गुलाब’। महाकवि देव ने अपनी कविता में मुझसे बालक बसन्त का स्वागत कराया, महाकवि निराला ने मुझे पूंजीवादी और शोषक के रूप में देखा जबकि रामवृक्ष बेनीपुरी ने संस्कृति का प्रतीक कहा है। जननायक जवाहर लाल नेहरू मुझे हृदय से लगे रखते थे। राजस्थान की राजधानी जयपुर की इमारतें मेरे रंग में रँगी गईं तो इसे 'गुलाबी नगरी' के खिताब से नवाजा गया।
खेती 
                मेरी खेती और उससे उत्पादन के क्षेत्र  में बुलगारिया, टर्की, रुस, फ्रांस, इटली और चीन से भारत काफी पिछड़ा हुआ है। भारत में उत्तर प्रदेश के हाथरस, एटा, बलिया, कन्नौज, फर्रुखाबाद, कानपुर, गाजीपुर, राजस्थान के उदयपुर (हल्दीघाटी), चित्तौड़, जम्मू और कश्मीर में, हिमाचल इत्यादि राज्यों में २ हजार हे० भूमि में दमिश्क प्रजाति के गुलाब की खेती होती है। यह गुलाब चिकनी मिट्टी से लेकर बलुई मिट्टी जिसका पी०एच० मान ७.०-८.५ तक में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। दमिश्क गुलाब शीतोष्ण और समशीतोष्ण दोनों ही प्रकार की जलवायु में अच्छी तरह उगाया जा सकता है। समशीतोष्ण मैदानी भागों में जहाँ पर शीत काल के दौरान अभिशीतित तापक्रम (चिल्ड ताप) तापक्रम लगभग १ माह तक हो वहाँ भी सफलतापूर्वक की जा सकती है। खुशबूदार गुलाबों का इस्तेमाल गुलाब का तेल बनाने के लिए किया जाता है।
उत्पाद 
            भारत में मौसम के अनुसार मेरे दो वर्ग सदागुलाब और चैती (बसरा या दमिश्क जाति के) हैं। गंधहीन सदा गुलाब बारहों महीने फूलता है जबकि सुगंधित चैती गुलाब केवल बसंत में फूलता है। चैती गुलाब से गुलकंद, गुलाब जल, इत्र और दवा बनाई जाती है। गाजीपुर मेरी खेती के लिए मशहूर है। एक बीघा जमीन पर मेरे लगभग १००० पौधे लगे जाते हैं। अलस्सुबह उनके फूल तोड़कर अत्तार उनका जल निकाल लेते हैं। अत्तार पानी के साथ फूलों को देग में रख देते हैं। देग से एक पतली बाँस की नली पानी से भरी नाँद में रखे गए बर्तन 'भभका' में जाती है।  डेग में से सुगंधित भाप उठकर भभके के बर्तन में सरदी से द्रव होकर टपकती है। यही गुलाब जल है।मेरा इत्र तैयार करने के लिए गुलाब जल को गीली जमीन में गड़ाए गए एक छिछले बरतन में रखकर रात भर खुले मैदान में पड़ा रहने देते हैं। सुबह सर्दी से गुलाबजल के ऊपर इत्र की बहुत पतली मलाई सी पड़ जाति है जिसे हाथ से काँछ लिया जाता है। मेरे विकास के लिए छः से आठ घंटे धूप मिलना आवश्यक है। 
वर्गीकरण 
                मेरे पौधों की बनावट, ऊँचाई, फूलों के आकार आदि के आधार पर इन्हें पाँच वर्गों में बाँटा गया है। 
१. हाइब्रिड टी- पौधे झाङीनुमा, लम्बे और फैलनेवाले, प्रत्येक शाखा पर एक सुंदर बड़ा फूल। इस वर्ग की प्रमुख किस्में एम्बेसडर, अमेरिकन प्राइड, बरगण्डा, डबल, डिलाइट, फ्रेण्डसिप, सुपरस्टार, रक्त गंधा, क्रिमसनग्लोरी, अर्जुन, जवाहर, रजनी, रक्तगंधा, सिद्धार्थ, सुकन्या, फस्टे रेड, रक्तिमा और ग्रांडेमाला आदि हैं। 
२. फ्लोरीबण्डा- इसके फूल हाइब्रिड टी किस्मों की तुलना में छोटे और अधिक होते हैं। इस वर्ग की प्रमुख किस्में है- जम्बरा, अरेबियन नाइटस, रम्बा वर्ग, चरिया, आइसबर्ग, फर्स्ट एडीसन, लहर, बंजारन, जंतर-मंतर, सदाबहार, प्रेमा और अरुणिमा आदि। 
३. पॉलिएन्था : इनके पौधों और फूलों का आकार हाइब्रिड डी एवं फ्लोरी बंडा वर्ग से छोटा किंतु गुच्छा आकार में फ्लोरीबंडा वर्ग से भी बड़ा होता है। एक गुच्छे में कई फूल होते हैं। इनमें मध्यम आकार के फूल अधिक संख्या में साल में अधिक समय तक आते रहते हैं।  यह घरों में शोभा बढ़ाने वाले पौधों के रूप में बहुतायत से प्रयोग में लाया जाता है। इस वर्ग की प्रमुख किस्में स्वाति, इको, अंजनी आदि हैं।
४. मिनीएचर : इन्हें बेबी गुलाब, मिनी गुलाब, बटन गुलाब या लघु गुलाब कहा जाता। ये कम लंबाई के छोटे बौने पौधे होते हैं। इनकी पत्तियों व फूलों का आकार छोटा  किंतु संख्या बहुत अधिक होती है। इन्हें ब़ड़े शहरों में बंगलों, फ्लैटों आदि में छोटे गमलों में लगाया जाना उपयुक्त रहता है। इस वर्ग की प्रमुख किस्में ड्वार्फ किंग, बेबी डार्लिंग, क्रीकी, रोज मेरिन, सिल्वर टिप्स आदि हैं।
५. लता गुलाब- इस वर्ग में कुछ हाइब्रिड टी फ्लोरीबण्डा गुलाबोँ की शाखाएँ लताओं की भाँति बढ़ती हैं। इन्हें मेहराब या अन्य किसी सहारे के साथ चढ़ाया जा सकता है। इनमें फूल एक से तीन (क्लाइंबर) व गुच्छों (रेम्बलर) में लगते हैं। लता वर्ग की प्रचलित किस्में गोल्डन शावर, कॉकटेल, रायल गोल्ड और रेम्बलर वर्ग की एलवटाइन, एक्सेलसा, डोराथी पार्किंस आदि हैं। कासिनों, प्रोस्पेरीटी, मार्शलनील, क्लाइबिंग, कोट टेल आदि भी लोकप्रिय हैं।
मेरी नवीनतम किस्में- पूसा गौरव, पूसा बहादुर, पूसा प्रिया, पूसा बारहमासी, पूसा विरांगना, पूसा पिताम्बर, पूसा गरिमा और डा भरत राम आदि हैं। 
पुष्प 
मेरे पौधे में पुष्पासन जायांग से होता हुआ लम्बाई में वृद्धि करता हुआ पत्तियों को धारण करता है। हरे गुलाब के पुष्प पत्ती की तरह दिखाई देते हैं। पुष्पासन छिछला, चपटा या प्याले का रूप धारण करता है। जायांग पुष्पासन के बीच में तथा अन्य पुष्पयत्र प्यालानुमा रचना की नेमि या किनारों पर स्थित होते हैं। इनमें अंडाशय अर्ध-अधोवर्ती तथा अन्य पुष्पयत्र अधोवर्ती कहलाते है। पांच अखरित या बहुत छोटे नखरवाले दल के दलफलक बाहर की तरफ फैले होते हैं। पंकेशर लंबाई में असमान होते है अर्थात हेप्लोस्टीमोनस. बहुअंडपी अंडाशय, अंडप संयोजन नहीं करते हैं तथा एक-दुसरे से अलग-अलग रहते हैं, इस अंडाशय को वियुक्तांडपी कहते हैं और इसमें एक अंडप एक अंडाशय का निर्माण करता है।
आर्थिक महत्व 
फूल के हाट में मेरे लाल-गुलाबी गजरे खूब बिकते हैं।[  गुलाब की पंखुडियों और शक्कर से गुलकन्द बनाया जाता है। गुलाब जल और गुलाब इत्र के कुटीर उद्योग चलते है। उत्तर प्रदेश में कन्नौज, जौनपुर आदि में गुलाब के उत्पाद की उद्योगशाला चलती है।दक्षिण भारत में गुलाब फूलों का खूब व्यापार होता है। मन्दिरों, मण्डपों, समारोहों, पूजा-स्थलों आदि स्थानों में गुलाब फूलों की भारी खपत होती है। यह अर्थिक लाभ का साधन है।
***

फिल्मी गीतों में गुलाब 
एक नज़र डालते हैं हिंदी सिनेमा के कुछ ऐसे ही गानों पर जिसमे गुलाब ने अपनी खुशबू की महक छोड़ी है-

तू कली गुलाब की, १९६४-  अभिनेत्री रेखा पर फिल्माए  गए इस गीत में  महबूबा की तुलना गुलाब के फूल से की गई है। 

गुलाबी आंखे जो तेरी देखीं, १९७०- बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना की मूवी ‘द ट्रेन’ में फिल्माया गया गाना ‘गुलाबी आँखें जो तेरी देखीं...’ में गुलाब शब्द का संजीदगी से किया गया उपयोग काबिले तारीफ़ है। इसे मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाज़ दी थी। 

तेरा चेहरा मुझे गुलाब, १९८१- फिल्म ‘आपस की बात’ में अभिनेता राज बब्बर यह गाना गाते हुए दिख रहें हैं. इस गाने में भी बड़ी खूबसूरती से गुलाब शब्द को उपयोग में लाया गया है.

खिलते हैं गुल यहाँ १९८१- इस गाने में  अभिनेता शशि कपूर अपनी महबूबा को रिझाने के लिए गाना गाते हुए दिख रहें हैं. 

कच्ची कली गुलाब की, खुदा कसम १९८१-  ‘जवान होकर बचपना न करिए हुज़ूर, कच्ची कली गुलाब की ऐसे ना तोड़िए’

गुलाब जिस्म का यूंही नही खिला होगा, अंजुमन १९८६, 

फूल गुलाब का- बीवी हो तो ऐसी १०८८ 

भेजा है एक गुलाब, शिकारी २०००- ये गाना किंग ऑफ रोमांस आवाज़ के लिए मशहूर कुमार सानु ने गाया था. 

गुलाबी शुद्ध देसी रोमांस २०१३- इस गाने को सुशांत सिंह राजपूत और वाणी कपूर के ऊपर फिल्माया गया था.

गुलाबो- शानदार २०१५- शाहिद कपूर और आलिया भट्ट की मूवी शानदार में फिल्माया गया गाना ‘गुलाबो’ के इस गाने को लोगों ने जरुर पसंद किया था.
***

अक्टूबर २८, नीराजना छंद, सफाई, नैरंतरी, कुंडलिया, शे'र, गुलाब, पूर्णिका,

सलिल सृजन अक्टूबर २८
*
पूर्णिका
गुलाब
तेरे चेहरे की आब हो जाऊँ
मैं महकता गुलाब हो जाऊँ

आस कलिका है, प्यास भँवरा है
मूँद पलकें तो ख्वाब हो जाऊँ

खुले जब आँख तो पढ़े दिन भर
तेरे हाथों किताब हो जाऊँ

भीख मुझको मिले मेरे मौला
इश्क की तो नवाब हो जाऊँ

तेरी आँखें सवाल जो भी करें
मैं ही उसका जवाब हो जाऊँ

साँस की साहूकार तू गर हो
तो बही का हिसाब हो जाऊँ

रूप अपना निखार ले आकर
आज दरिया चनाब हो जाऊँ

हुस्न तुझको अता खुदा ने किया
क्यों न तेरा शबाब हो जाऊँ

लबे नाज़ुक पिएँ दो घूँट अगर
आबे जमजम शराब हो जाऊँ

लल्लोचप्पो न तू समझ इसको
गीत! लब्बोलुआब हो जाऊँ
•••
एक काव्य पत्र

जो मेरा है सो तेरा है
बस चार दिनों का फेरा
सब यहीं छोड़कर जाना है
प्रभु पग ही अपना डेरा है
शन्नो जी! जो भी मन भाए
मिल काव्य कलश रस पी पाए
इस मधुशाला में सब अपने
भुज भेंटे जब जो मन भाए
शेयर है मगर न मोल यहाँ
पीटें आनंदित ढोल यहाँ
करिए करिए शेयर करिए
कविता-पाठक पेयर करिए
लें धन्यवाद, आभार आप
खुश सुख को सका न कोई माप
जय हिंद आपकी जय जय हो
हिंदी जग बोले निर्भय हो
***
एक मिसरा : चंद शे'र
अँजुरी भरी गुलाब की, कर दी उसके नाम।
अलस्सुबह जिसने दिया, शुभ प्रभात पैगाम।।
अँजुरी भरी गुलाब की, अर्पित उसके नाम।
लिए बिना लेते रहे, जो लब मेरा नाम।।
अँजुरी भरी गुलाब की, हाय! न जाए सूख।
प्रिये! इन्हें स्वीकार लो, मिटा प्रणय की भूख।।
अँजुरी भरे गुलाब की, ले लो मेरे राम।
केवट-गुह के घर चलो, या शबरी के ग्राम।।
अँजुरी भरी गुलाब की, भेजी है दिल हार।
उसे न भाई चाहती, जो नौलखिया हार।।
अँजुरी भरी गुलाब की, कुछ बेला के फूल।
देख याद तुम आईं फिर, चुभे हृदय में शूल
अँजुरी भरी गुलाब की, खत है उसके नाम।
सूखी कली गुलाब की, जो चूमे हर शाम।।
अँजुरी भरी गुलाब की, भँवरे की लय-तान।
कली-तितलियों के लिए, सहित स्नेह-सम मान।।
२८.१०.२०२४
•••
चिंतन
सब प्रभु की संतान हैं, कोऊ ऊँच न नीच
*
'ब्रह्मम् जानाति सः ब्राह्मण:' जो ब्रह्म जानता है वह ब्राह्मण है। ब्रह्म सृष्टि कर्ता हैं। कण-कण में उसका वास है। इस नाते जो कण-कण में ब्रह्म की प्रतीति कर सकता हो वह ब्राह्मण है। स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना कर्म और योग्यता पर निर्भर है, जन्म पर नहीं। 'जन्मना जायते शूद्र:' के अनुसार जन्म से सभी शूद्र हैं। सकल सृष्टि ब्रह्ममय है, इस नाते सबको सहोदर माने, कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान को देखे, सबसे समानता का व्यवहार करे, वह ब्राह्मण है। जो इन मूल्यों की रक्षा करे, वह क्षत्रिय है, जो सृष्टि-रक्षार्थ आदान-प्रदान करे, वह वैश्य है और जो इस हेतु अपनी सेवा समर्पित कर उसका मोल ले-ले वह शूद्र है। जो प्राणी या जीव ब्रह्मा की सृष्टि निजी स्वार्थ / संचय के लिए नष्ट करे, औरों को अकारण कष्ट दे वह असुर या राक्षस है।
व्यावहारिक अर्थ में बुद्धिजीवी वैज्ञानिक, शिक्षक, अभियंता, चिकित्सक आदि ब्राह्मण, प्रशासक, सैन्य, अर्ध सैन्य बल आदि क्षत्रिय, उद्योगपति, व्यापारी आदि वैश्य तथा इनकी सेवा व सफाई कर रहे जन शूद्र हैं। सृष्टि को मानव शरीर के रूपक समझाते हुए इन्हें क्रमशः सिर, भुजा, उदर व् पैर कहा गया है। इससे इतर भी कुछ कहा गया है। राजा इन चारों में सम्मिलित नहीं है, वह ईश्वरीय प्रतिनिधि या ब्रह्मा है। राज्य-प्रशासन में सहायक वर्ग कार्यस्थ (कायस्थ नहीं) है। कायस्थ वह है जिसकी काया में ब्रम्हांश जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, आत्मा रूप स्थित है।
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनाम्।', 'कायस्थित: स: कायस्थ:' से यही अभिप्रेत है। पौरोहित्य कर्म एक व्यवसाय है, जिसका ब्राह्मण होने न होने से कोई संबंध नहीं है। ब्रह्म के लिए चारों वर्ण समान हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। जन्मना ब्राह्मण सर्वोच्च या श्रेष्ठ नहीं है। वह अत्याचारी हो तो असुर, राक्षस, दैत्य, दानव कहा गया है और उसका वध खुद विष्णु जी ने किया है। गीता रहस्य में लोकमान्य टिळक जो खुद ब्राह्मण थे, ने लिखा है -
गुरुं वा बाल वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं
आततायी नमायान्तं हन्या देवाविचारयं
ब्राह्मण द्वारा खुद को श्रेष्ठ बताना, अन्य वर्णों की कन्या हेतु खुद पात्र बताना और अन्य वर्गों को ब्राह्मण कन्या हेतु अपात्र मानना, हर पाप (अपराध) का दंड ब्राह्मण को दान बताने दुष्परिणाम सामाजिक कटुता और द्वेष के रूप में हुआ।
२८.१०.१०१९
***
हिंदी के नए छंद १८
नीराजना छंद
*
लक्षण:
१. प्रति पंक्ति २१ मात्रा।
२. पदादि गुरु।
३. पदांत गुरु गुरु लघु गुरु।
४. यति ११ - १०।
लक्षण छंद:
एक - एक मनुपुत्र, साथ जीतें सदा।
आदि रहें गुरुदेव, न तब हो आपदा।।
हो तगणी गुरु अंत, छंद नीरजना।
मुग्ध हुए रजनीश, चंद्रिका नाचना।।
टीप:
एक - एक = ११, मनु पुत्र = १० (इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट,
धृष्ट, करुषय, नरिष्यन्त, प्रवध्र, नाभाग, कवि भागवत)
उदाहरण:
कामदेव - रति साथ, लिए नीराजना।
संयम हो निर्मूल, न करता याचना।।
हो संतुलन विराग - राग में साध्य है।
तोड़े सीमा मनुज, नहीं आराध्य है।।
२८-१०-२०१७
***
कविता:
सफाई
मैंने देखा सपना एक
उठा तुरत आलस को फेंक
बीजेपी ने कांग्रेस के
दरवाज़े पर करी सफाई
नीतीश ने भगवा कपड़ों का
गट्ठर ले करी धुलाई
माया झाड़ू लिए
मुलायम की राहों से बीनें काँटे
और मुलायम ममतामय हो
लगा रहे फतवों को चाँटे
जयललिता की देख दुर्दशा
करुणा-भर करूणानिधि रोयें
अब्दुल्ला श्रद्धा-सुमनों की
अवध पहुँच कर खेती बोयें
गज़ब! सोनिया ने
मनमोहन को
मन मंदिर में बैठाया
जन्म अष्टमी पर
गिरिधर का सोहर
सबको झूम सुनाया
स्वामी जी को गिरिजाघर में
प्रेयर करते हमने देखा
और शंकराचार्य मिले
मस्जिद में करते सबकी सेवा
मिले सिक्ख भाई कृपाण से
खापों के फैसले मिटाते
बम्बइया निर्देशक देखे
यौवन को कपड़े पहनाते
डॉक्टर और वकील छोड़कर फीस
काम जल्दी निबटाते
न्यायाधीश एक पेशी में
केसों का फैसला सुनाते
थानेदार सड़क पर मंत्री जी का
था चालान कर रहा
बिना जेब के कपड़े पहने
टी. सी. बरतें बाँट हँस रहा
आर. टी. ओ. लाइसेंस दे रहा
बिन दलाल के सच्ची मानो
अगर देखना ऐसा सपना
चद्दर ओढ़ो लम्बी तानो
***
नैरंतरी काव्य
बचपन बोले: उठ मत सो ले
उठ मत सो ले, सपने बो ले
सपने बो ले, अरमां तोले
अरमां तोले, जगकर भोले
जगकर भोले, मत बन शोले
मत बन शोले, बचपन बोले
*
अपनी भाषा मत बिसराओ, अपने स्वर में भी कुछ गाओ
अपने स्वर में भी कुछ गाओ, दिल की बातें तनिक बताओ
दिल की बातें तनिक बताओ, बाँहों में भर गले लगाओ
बाँहों में भर गले लगाओ, आपस की दूरियाँ मिटाओ
आपस की दूरियाँ मिटाओ, अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ
अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ, अपनी भाषा मत बिसराओ
२८-१०-२०१४
***
: कुंडलिया :
प्रथम पेट पूजा करें
0
प्रथम पेट पूजा करें, लक्ष्मी-पूजन बाद
मुँह में पानी आ रहा, सोच मिले कब स्वाद
सोच मिले कब स्वाद, भोग पहले खुद खा ले
दास राम का अधिक, राम से यह दिखला दे
कहे 'सलिल' कविराय, न चूकेंगे अवसर हम
बन घोटाला वीर, लगायें भोग खुद प्रथम
२८-१०-२०१३
***

रविवार, 27 अक्टूबर 2024

बीना दास,

वीरांगना बीना (वीणा) दास
*

            १९८६ में दिसंबर के महीने में ऋषिकेश में एक खाई से एक अनाथ शव मिला जो पूरी तरह सड़ चुका था। कठिनाई से पता चला कि शव एक महान देश भक्त बीना दास का था।

            बीना दास का जन्म २४ अगस्त, १९११ को कृष्णा नगर, जिला नादिया, पश्चिम बंगाल में हुआ था। वे बेनी माधब दास तथा सरला देवी की पुत्री थीं। बेनी माधब दास ब्रह्म समाज के सदस्य और एक सुविख्यात अध्यापक थे। उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी पढ़ाया था। सरला देवी निराश्रित महिलाओं के लिए स्थापित 'पुण्याश्रम' नामक एक संस्था की संचालिका थीं। इस आश्रम का मुख्य कार्य क्रांतिकारियों की सहायता करना था। इसमें क्रांतिकारियों के लिए शस्त्रों का भंडारण किया जाता था, जिससे ब्रिटिश सरकार को उसी की भाषा में जवाब दिया जा सके।

            बीना दास सेंट जॉन डोसेसन गर्ल्स हायर सैकण्डरी स्कूल और बेथ्यून कॉलेज की छात्रा रहीं। बीना की बड़ी बहन कल्याणी दास भी स्वतंत्रता सेनानी रहीं। अपने स्कूल के दिनों से ही दोनों बहनें अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने वाली रैलियों और मोर्चों में भाग लेती थीं। पुण्याश्रम संघ ब्राह्मो गर्ल्स स्कूल, विक्टोरिया स्कूल, बेथ्यून कॉलेज, डायोकेसन कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज में पढ़ने वाली छात्राओं का समूह था। बंगाल में संचालित इस समूह में शताधिक सदस्य थे, जो भविष्य के लिए क्रांतिकारियों को इसमें भर्ती करते और प्रशिक्षण भी देते थे। संघ में सभी छात्राओं को लाठी, तलवार चलाने के साथ-साथ साइकिल और गाड़ी चलाना भी सिखाया जाता था। इस संघ में शामिल कई छात्राओं ने अपना घर भी छोड़ दिया था और ‘पुण्याश्रम’ में रहने लगीं, जिसका संचालन बीना की माँ सरला देवी करती थीं। यह छात्रावास बहुत सी क्रांतिकारी गतिविधियों का गढ़ था जहाँ भंडार घर में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए हथियार, बम आदि छिपाए जाते थे।

            तरुणी बीना ने शरत चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा १९२६ में लिखित और ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित उपन्यास 'पाथेर दाबी' (पथ के दावेदार) पढ़ा ही नहीं, उसे अपने जीवन में साकार भी किया। वे कोलकाता में महिलाओं के संचालित अर्ध-क्रान्तिकारी संगठन 'छात्री संघ' की सदस्या बन गईं। कलकत्ता के ‘बेथ्युन कॉलेज’ में पढ़ते हुए १९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय बीना ने अपनी कक्षा की कुछ अन्य छात्राओं के साथ अपने कॉलेज के फाटक पर धरना दिया। वे स्वयं सेवक के रूप में कांग्रेस अधिवेशन में भी सम्मिलित हुईं। इसके बाद वे ‘युगांतर’ दल के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आईं। उन दिनों क्रांतिकारियों का एक काम बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों को गोली का निशाना बनाकर यह दिखाना था कि भारतीय उनसे कितनी नफ़रत करते हैं।

            ६ फरवरी १९३२ को कलकत्ता विश्वविद्यालय में समावर्तन उत्सव मनाया जा रहा था। बंगाल के अंग्रेज लॉर्ड सर स्टैनले जैकसन मुख्य अतिथि थे। उन दिनों जैक्सन को ‘जैकर्स’ के रूप में जाना जाता था और उन्होंने इंग्लैंड की क्रिकेट टीम में अपनी सेवाएँ दी थी, इसलिए उनका नाम काफ़ी मशहूर था। जैसे ही जैक्सन ने समारोह में अपना भाषण देना शुरू किया, बीना ने भरी सभा में उठ कर गवर्नर पर गोली चला दी। गोली गवर्नर के कान के पास से निकल गई और वह मंच पर लेट गया। इतने में लेफ्टिनेन्ट कर्नल सुहरावर्दी ने दौड़कर बीना दास का गला एक हाथ से दबा लिया और दूसरे हाथ से पिस्तौलवाली कलाई पकड़कर सीनेट हाल की छत की तरफ कर दी। फिर भी बीना दास गोली चलाती गई, लेकिन पाँचों गोलियाँ चूक गईं। उन्होंने पिस्तौल फेंक दी। इसके बाद बीना दास सभी अख़बारों की सुर्खियाँ बन गयीं – ‘कलकत्ता की ग्रेजुएशन कर रही एक छात्रा ने गवर्नर को मारने का प्रयास किया!’

            अदालत में बीना दास ने एक साहसपूर्ण बयान दिया। अखबारों पर रोक लगा दिये जाने के कारण वह बयान प्रकाशित न हो सका। मुकदमे के दौरान उन पर काफ़ी दबाव बनाया गया कि वे अपने साथियों का नाम उगल दें, लेकिन बीना टस से मस न हुईं। उन्होंने मुकदमे के दौरान कहा- “बंगाल के गवर्नर उस सिस्टम का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसने मेरे 30 करोड़ देशवासियों को गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है।” उन्होंने आगे कहा कि वे गवर्नर की हत्या कर इस सिस्टम को हिला देना चाहती थीं। उन्हें नौ वर्षों के लिए सख़्त कारावास की सजा दी गई। सज़ा मिलने से पहले उन्होंने कलकत्ता हाई कोर्ट में कहा- “मैं स्वीकार करती हूँ, कि मैंने सीनेट हाउस में अंतिम दीक्षांत समारोह के दिन गवर्नर पर गोली चलाई थी। मैं खुद को इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार मानती हूँ। अगर मेरी नियति मृत्यु है, तो मैं इसे अर्थपूर्ण बनाना चाहती हूँ, सरकार की उस निरंकुश प्रणाली से लड़ते हुए जिसने मेरे देश और देशवासियों पर अनगिनत अत्याचार किये हैं….”

            उनके संस्मरण, ‘जीबन अध्याय’ में उनकी बहन कल्याणी दास ने लिखा है कि कैसे भाग्य ने दोनों बहनों को फिर से एक साथ ला खड़ा किया था जब उन्हें भी हिजली कैदखाने में लाकर बंद कर दिया गया था। बाद में इस जगह को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया। मकरंद परांजपे द्वारा लिखे गए इस संस्मरण की एक समीक्षा के अनुसार, बीना अपने साथियों के साथ भूख हड़ताल करके अपनी दर्द सहने की क्षमता को जाँचती थीं। इतना ही नहीं वह कभी जहरीली चींटियों के बिल पर अपना पैर रख देतीं तो कभी अपनी उँगलियों को लौ पर और इस तरह वे सही मायनों में ‘आग से खेलती थी’!

            वर्ष १९३७ में प्रान्तों में कांग्रेस सरकार बनने के बाद अन्य राजबंदियों के साथ बीना १९३९ में जेल से बाहर आईं। उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता प्राप्त कर सन् १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया और पुनः १९४२ से १९४५ तक के लिए कारावास की सजा प्राप्त की। वे १९४६-४७ में बंगाल प्रान्त विधान सभा और १९४७ से १९५१ तक पश्चिम बंगाल प्रान्त विधान सभा की सदस्या रहीं। गाँधी जी की नौआख़ाली यात्रा के समय लोगों के पुनर्वास के काम में वीणा ने भी आगे बढ़कर हिस्सा लिया था।

            सन् १९४७ में उन्होंने युगान्तर समूह के भारतीय स्वतन्त्रता कार्यकर्ता और अपने साथी ज्योतिश चन्द्र भौमिक से विवाह किया किंतु शादी के बाद भी आज़ादी की लड़ाई में भाग लेती रहीं।। बीना दास ने बंगाली में दो आत्मकथाएँ लिखी- श्रृंखल झंकार और पितृधन। अपने पति की मृत्यु के बाद वे कलकत्ता छोड़कर ऋषिकेश जाकर एक छोटे-से आश्रम में एकान्त में रहने लगीं थीं। अपना गुज़ारा करने के लिए उन्होंने शिक्षिका के तौर पर काम किया और ट्यूशनें कीं किंतु सरकार द्वारा दी जानेवाली स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेने से इंकार कर दिया कि देश की सेवा मेरा धर्म था, जिसका कोई मोल नहीं हो सकता। देश के लिए खुद को समर्पित कर देने वाली इस वीरांगना का अंत बहुत ही दुखदपूर्ण स्थिति में २६ दिसंबर १९८६ में हुआ था।

        महान स्वतंत्रता सेनानी, प्रोफेसर सत्यव्रत घोष ने अपने लेख "फ्लैश बैक: बीना दास - रीबोर्न" में उनकी मार्मिक मृत्यु के बारे में लिखा- "उन्होंने सड़क के किनारे अपना जीवन समाप्त किया। उनका मृत शरीर बहुत ही छिन्न भिन्न अवस्था में रास्ते से गुजरने वाले लोगों को मिला। पुलिस को सूचित किया गया और महीनो की तलाश के बाद पता चला कि यह शव वीणा दास का है।

        आज आरक्षण और अनुदानों की भीख लेने और देने वाले क्या बीना दास द्वारा स्वतंत्रता संग्राम पेंशन न लेने की मोल भवन को समझ कार अपनी करनी पर शर्म अनुभव करेंगे। हम देश पर बोझ न बनकर, देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करें तो ही ऐसे सच्चे शहीदों के वारिस हो सकेंगे।
***

अक्टूबर २७, मुक्तक, गीत, करवा चौथ, लघुकथा, नवगीत, चित्रगुप्त

सलिल सृजन अक्टूबर २७
*
भोर उठिए सुमिर प्रभु को, दोपहर में काम कर।
साँझ सुख-संतोष पा ले, रात सो शुभ स्वप्न धर।।
गीत
जीवन जी ले धीरज धरकर
सुख-दुख से मत भाग रे!
ना हो अतिशय भोग-विलासी
और न सब कुछ त्याग रे!
जो जैसा है प्रभु की माया, 
काया पर ईश्वर की छाया।
कर्म किया परिणाम भोग ले,
घटे नहीं अनुराग रे!
चित्र गुप्त होता है प्रभु का, 
नाहक दे आकार तू।
कर्मकांड भरमाते तुझको,
सच को बना सुहाग रे!
धर्म नंदिनी श्वास-श्वास हो,
शुभावती हर आस हो।
शिव हरि रवि राशि बारह सम,
बन जलने दे आग रे!
२७.१०.२०२४
•••
एक रचना
*
दिल जलता है तो जलने दे, दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर, दीवाली है
दीपक-बाती में नाता क्या लालू पूछे
चुप घरवाला है, चपल मुखर घरवाली है
फिर तेल धार क्या लगी तनिक यह बतलाओ
यह दाल-भात में मूसल रसमय साली है
जो बेच-खरीद रहे उनको समधी जानो
जो जला रही तीली सरहज मतवाली है
सासू याद करे अपने दिन मुस्काकर
साला बोला हाथ लगी हम्माली है
सखी-सहेली हवा छेड़ती जीजू को
भभक रही लौ लाल न जाए सँभाली है
दिल जलता है तो जलने दे दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर दीवाली है
२७-१०-२०१९
***
करवा चौथ
*
अर्चना कर सत्य की, शिव-साधना सुन्दर करें।
जग चलें गिर उठ बढ़ें, आराधना तम हर करें।।
*
कौन किसका है यहाँ?, छाया न देती साथ है।
मोह-माया कम रहे, श्रम-त्याग को सहचर करें।।
*
एक मालिक है वही, जिसने हमें पैदा किया।
मुक्त होकर अहं से, निज चित्त प्रभु-चाकर करें।।
*
वरे अक्षर निरक्षर, तब शब्द कविता से मिले।
भाव-रस-लय त्रिवेणी, अवगाह चित अनुचर करें।।
*
पूर्णिमा की चंद्र-छवि, निर्मल 'सलिल में निरखकर।
कुछ रचें; कुछ सुन-सुना, निज आत्म को मधुकर करें।।
करवा चौथ २७-१०-२०१८
***
मुक्तक
*
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह स्वाभाविक है, स्मृतियाँ बिन बिछड़े होती नहीं प्रबल
क्यों दोष किसी को दें हम-तुम, जो साथ उसे कब याद किया?
बिन शीश कटाये बना रहे, नेता खुद अपने शीशमहल
*
जीवन में हुआ न मूल्यांकन, शिव को भी पीना पड़ा गरल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह दुनिया पत्थर को पूजे, सम्प्राणित को ठुकराती है
जो सचल पूजता हाथ जोड़ उसको जो निष्ठुर अटल-अचल
*
कविता होती तब सरस-सरल, जब भाव निहित हों सहज-तरल
मन से मन तक रच सेतु सबल, हों शब्द-शब्द मुखरित अविचल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
हँस रूपक बिम्ब प्रतीकों में, रस धार बहा करती अविकल
*
जन-भाषा हिंदी की जय-जय, चिरजीवी हो हिंदी पिंगल
सुरवाणी प्राकृत पाली बृज, कन्नौजी अपभ्रंशी डिंगल
इतिहास यही बतलाता है, जो सम्मुख वह अनदेखा हो
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
*
दोहा सलिला -
नेह नर्मदा सलिल ही, पा नयनों का गेह
प्रवहित होता अश्रु बन, होती देह विदेह
*
स्नेह-सलिल की लहर सम, बहिये जी भर मीत
कूल न तोड़ें बाढ़ बन, यह जीवन की रीत
*
मिले प्रेरणा तो बने, दोहा गीत तुरंत
सदा सदय माँ शारदा, साक्षी दिशा-दिगंतदोहा
२७-१०-२०१६
***
लघुकथा:
प्यार के नाम
*
पलट रहा हूँ फेसबुक आउट वाट्स ऐप के पन्ने, कहीं गीत-ग़ज़ल है, कहीं शेरो-शायरी, कहीं किस्से-कहानी, कहीं कहीं मदमस्त अदायें और चुलबुले कमेंट्स, लिव इन की खबरें, सबका दावा है कि वे उनका जीवन है सिर्फ प्यार के नाम.…
तलाश कर थक गया लेकिन नहीं मिला कोई भजन, प्रार्थना, सबद, अरदास, हम्द, नात, प्रेयर उसके नाम जिसने बनाई है यह कायनात, जो पूरी करता है सबकी मुरादें, कहें नहीं है चंद सतरें-कोई पैगाम उसके प्यार के नाम।
***
मुक्तक:
जुदा-जुदा किस्से हैं अपने
जुदा-जुदा हिस्से हैं अपने
पीड़ा सबकी एक रही है-
जुदा-जुदा सपने हैं अपने
*
कौन किसको प्यार कर पाया यहाँ?
कौन किससे प्यारा पा पाया यहाँ?
अपने सुर में बात अपनी कह रहे-
कौन सबकी बात कर पाया यहाँ?
*
अक्षर-अक्षर अलग रहा तो कह न सका कुछ
शब्द-शब्द से विलग रहा तो सह न सका कुछ
अक्षर-शब्द मिले तो मैं-तुम से हम होकर
नहीं कह सका ऐसा बाकी नहीं रहा कुछ
२७-१०-२०१५
***
नवगीत:
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
**
***
नवगीत:
ऐसा कैसा
पर्व मनाया ?
मनुज सभ्य है
करते दावा
बोल रहे
कुदरत पर धावा
कोई काम
न करते सादा
करते कभी
न पूरा वादा
अवसर पाकर
स्वार्थ भुनाया
धुआँ, धूल
कचरा फैलाते
हल्ला-गुल्ला
शोर मचाते
आज पूज
कल फेकें प्रतिमा
समझें नहीं
ईश की गरिमा
अपनों को ही
किया पराया
धनवानों ने
किया प्रदर्शन
लंघन करता
भूखा-निर्धन
फूट रहे हैं
सरहद पर बम
नहीं किसी को
थोड़ा भी गम
तजी सफाई
किया सफाया
***
दोहा सलिला :
कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान
पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण
मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ
हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ
हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर
मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर.
मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स
वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स
जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार
छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार
माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार
माटी माटी से मिले, माटी ले आकार
मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम
मैना - कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम
२७-१०-२०१४
***

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

अक्टूबर २६, सॉनेट, चाँद, हाइकु गीत, प्रतीप अलंकार, नैरंतरी छंद, नूर

सलिल सृजन अक्टूबर २६
*
'लफ़्ज़ों के ये नगीने तो निकले कमाल के
ग़ज़लों ने ख़ुद पहन लिए ज़ेवर ख़याल के

ऐसा न हो गुनाह की दलदल में जा फसूँ 
ऐ मेरी आरज़ू मुझे ले चल सँभाल के'

इन अश्आर को क़लमबंद करने वाले शायर कृष्ण बिहारी ‘नूर’ ने तमाम उम्र लफ़्जों को संजीदगी से तराश कर शायरी की। मुशायरों में कलाम पढ़ने का उनका अंदाज़ भी अन्य शायरों से जुदा था। हालांकि, शुरुआत में वो अपना कलाम तरन्नुम में यानी गाकर पेश करते थे। लेकिन बाद में वह तहत में पढ़ने लगे। ८ नवंबर, १९२५ को लखनऊ के ग़ौसनगर मुहल्ले में पैदा हुए नूर का शुमार लखनऊ की तहज़ीब का मेयार बुलंद करने वाली शख़्सियतों में है। कृष्ण बिहारी ‘नूर’ के साथ कई मुशायरे पढ़नेवाले मुनव्वर राना का उनसे ख़ास राब्ता रहा।

वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शायर मुनव्वर राना की आत्मकथा 'मीर आ के लौट गया' में मुनव्वर राना शायर नूर के बारे में लिखते हैं, "उन्हीं दिनों की बात है कि जनाब कृष्ण बिहारी नूर जो फ़ज़ल लखनवी के शागिर्द हैं, मुशायरों में बेहद मक़बूल हो रहे थे। इसी मुशायरे में फ़िराक़ साहब भी मौजूद थे और सदारत कर रहे थे। नूर साहब ग़ज़ल पढ़ने के लिए माइक पर आए और सद्रे मुशायरा से कलाम पढ़ने की इजाज़त तलब की। फ़िराक़ साहब ने हस्बे आदत फब्ती कसते हुए कहा कि 'गाओ, गाओ'। नूर साहब ने निहायत अदब के साथ फ़िराक़ साहब से अर्ज़ किया कि आइन्दा आप मुझे कभी गाते हुए नहीं सुनेंगे। वह दिन है और आज का दिन, नूर साहब तहत में अपना कलाम सुनाते हैं और उनके कलाम सुना चुकने के बाद अच्छे से अच्छा तरन्नुम का शायर कामयाब होने के लिए ख़ून थूक देता है।

सरापा शायर

नूर साहब लखनवी शायरी की उसी नस्ल से तअल्लुक़ रखते हैं जो सरापा शायर कहलाती है। लहजे में शाइस्तगी, तबीयत में इन्क़िसारी, मिज़ाज में शराफ़त और होंठों पर हमेशा क़ुर्बान हो जाने वाली मुस्कुराहट। कुर्ते पाजामे और सदरी से पहचान लिए जाते हैं। मुशायरे के स्टेज पर बैठे हों तो महसूस होता है कि लखनऊ बैठा हुआ है। उठें तो महसूस होता है कि लखनऊ उठ रहा है। चलें तो यूं लगता है तहज़ीब चहल क़दमी कर रही है। आहिस्ता से गुफ़्तुगू करना वह भी नपी तुली, ज़बान पर गाली नाम का कोई लफ़्ज़ नहीं... शायद गाली कभी सीखी ही नहीं।"

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की शख़्सियत के बारे में राना लिखते हैं, "छोटों के आदाब पर हमेशा खिल कर ऐसे दुआएं देते हैं जैसे शहद वाला मिट्टी की हंडिया में शहद उंडेलता है। शायरी में चुने लफ़्जों को चुन-चुन कर ऐसा एहतमाम करते हैं जैसे अरब के लोग मेहमान नवाज़ी में अपने ख़ुलूस की आबरू के लिए अपना सब कुछ झोंक देते हैं। उनकी तहज़ीब, उनकी गुफ़्तुगू उनकी शायरी और उनके रख-रखाव का सबसे बड़ा ईनाम ये है कि बेश्तर मुसलमान उनको अपना हम मज़हब समझते हैं और क्यों न समझें, जब नूर साहब अपनी ज़बान को पाकीज़ा लफ़्जों से वज़ू कराते हुए शेर पढ़ते हैं कि -

वो मलक हों कि बशर हों कि ख़ुदा हों लेकिन
आपकी सबको ज़रूरत है रसूले अरबी
ख़िज्रो ईसा क बुलन्दी की है दुनिया क़ाएल
हाँ मगर तेरी बदौलत है रसूले अरबी

तो उनका भरम ठीक ही लगता है। लखनऊ की धुली धुलाई उर्दू ज़बान के सहारे जब वह औसाफ़े रसूल (रसूल का गुणगान) बयान करते हैं तो फ़रिश्ते उनके दिल में लगे हुए पेसमेकर की हिफ़ाज़त के लिए बारगाहे ख़ुदाबन्दी में दुआएँ करते होंगे। नूर साहब क़ुदरत की तरफ़ से फ़िरक़ा परस्तों के गाल पर उर्दू तहज़ीब का तमाचा हैं। उन्हे देर तक ज़िन्दा रहना चाहिए क्योंकि लखनऊ से ऐसे लोग जब उठ जाते हैं तो गोमती की आँखों का पानी ख़ुश्क होने लगता है। नूर साहब अपनी हाज़िर जवाबी और तबीयत की शोख़ी की बिना पर भी बहुत पसन्द किए जाते हैं।"

मुनव्वर राना और कृष्ण बिहारी ‘नूर’...


मुनव्वर राना और कृष्ण बिहारी ‘नूर’ सिगरेट पीने के काफ़ी शौकीन थे। लेकिन लाल किले के मुशायरे में एक बार ऐसा हुआ कि नूर मुशायरा गाह में मौजूद थे और राना मुशायरे में अपने साथ सिगरेट ले जाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। मुनव्वर राना लिखते हैं, "लाल किले पर मुशायरा हो रहा था। दहशत गर्दी के ख़ौफ़ से पुलिस वाले सिगरेट और माचिस वग़ैरह मुशायरागाह में नहीं ले जाने दे रहे थे। मैं जब वी.आई.पी. गेट पर पहुँचा तो वहाँ तक़रीबन डेढ़ सौ सिगरेट के पैकेट और माचिस की डिबियाँ पड़ी हुई थीं। पुलिस वालों ने मेरी तलाशी ली, फिर सिगरेट और माचिस निकाल कर वहीं छोड़ देने का हुक्म दिया। मैं काहे का हुक्म मानने वाला...मैं उन लोगों से उलझ गया और सिगरेटों का पैकेट वहाँ फेंकने से इंकार कर दिया। चूँकि मैं बीचो-बीच खड़ा था लिहाज़ भीढ़ बढ़ती जा रही थी। पुलिस वाले बहुत पसोपेश में पड़े हुए थे। उन्होंने मुझे फिर समझाने की कोशिश की तो मैंने उनको समझाया कि ये बुरी आदतें जब मेरे वालिदैन नहीं छुड़वा सके तो आप क्या छुड़ायेंगे। मैंने उनसे यह भी कहा कि आप जाइए और देख कर आइए कि स्टेज पर एश्ट्रे भी रखे हुए हैं। मैं सिगरेट के पैकेट उसी सूरत में यहाँ रख सकता हूँ कि आप मेरा कुर्ता भी रख लें...मैं नंगे बदन मुशायरा गाह में जाऊँगा। यह कर मैंने अपना कुर्ता तक़रीबन उतार लिया। पुलिस वाले फ़ौरन पहचान गये कि मैं उन लोगों से ज़्यादा नंगा हूँ। लिहाज़ा दिल न चाहते हुए भी उन्होंने मुझे जाने दिया और मैं जंग जीतने वाले सिपाही की तरह अकड़ कर स्टेज पर पहुँचा।

मुशायरे में उस वक़्त दिल्ली के वज़रीआला मदनलाल खुराना, सिकन्दर बख़्त, नजमा हैपतुल्ला और उस वक़्त के मरकज़ी सिविल एविएशन वज़ीर ग़ुलाम नबी आज़ाद मौजूद थे। मैंने हस्बे आदत सिगरेट का पैकेट नूर साहब की तरफ़ बढ़ाया तो नूर साहब ने कहा- ''भई! जीते रहिए। मैं जानता था कि मुनव्वर मियाँ सिगरेट लेकर आयेंगे। उन्होंने तकल्लुफ़ करते हुए एक सिगरेट निकाली और ढेर सारी दुआएँ दीं। फिर कहने लगे, इस वक़्त मुझे सिगरेट पिला कर आपको वही सवाब मिला है जो किसी प्यासे को पानी पिला कर मिलता है।"
***
पूर्णिका
मिले नैन जब से गुलाबी
हुई साँस अपनी शराबी 
दुनिया भले हो हिसाबी
कुदरत नहीं है हिजाबी
काँटों की संगत सुहाए
देखो कली की नवाबी
शबनम सहेली लुभाए 
रंगत कई हर शबाबी
पैगाम लाएँ तितलियाँ
लेतीं सँदेशा जवाबी
ताला लगा पाए माली
बनी ही नहीं है वो चाबी
•••
चंद अशआर
चाँद की क्या मजाल घर आए।
बहुत गुरूर से 'मावस बोली।।
मिट तो सकता हूँ घट नहीँ सकता।
चाँद से रात सितारे ने कहा।।
चाँद बंजर न कुछ वहाँ उगता।
खोपड़ी देख कह रही बीबी।।
पैर में लगा क्या शनीचर है?
चाँद का पैर ही नहीं टिकता।
भाई से जब न भाई-चारा हो।
चाँद-सूरज की तरह हो जाते।।
मिट्टी-पत्थर तो मिट्टी-पत्थर है।
चाँद पे हो या के धरती पर।।
रूठ सागर से हुआ चाँद जुदा।
ऐसा मुँह फेरा फिर मिला ही नहीँ।
२६.१०.२०२४
••
सॉनेट
बैठ चाँद पर
बैठ चाँद पर धरा देखकर व्रत तोड़ेंगी
कथा कहेंगी सात भाई इक बहिना वाली
कैसे बिगड़ी बात, किस तरह पुनः बना ली
सात जन्म तक पति का पीछा नहिं छोड़ेंगी
शरत्पूर्णिमा पर धारा उल्टी मोड़ेंगी
वसुधा की किरणों में रखें खीर की प्याली
धरा बुआ दिखलाएँ जसोदा धरकर थाली
बाल कृष्ण को बहला-समझा खुश हो लेंगी।
उल्टी गंगा बहे चाँद पर, धरती निरखें
कैसे छू लें धरा? सोच शशि- मानव तरसें
उस कक्षा से इस कक्षा में आकर हरषें
अभियंता-वैज्ञानिक कर नव खोजें परखें
सुमिर सुमिर मंगल-यात्रा को नैना बरसें
रवि की रूप छटाएँ मन को मन आकरषें।
२६.१०.२०२३
•••
अभिनव प्रयोग
राम
हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२६-१०२०२२
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अलंकार सलिला: २५
प्रतीप अलंकार
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अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..
उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है। यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है। प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता है।जब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है।
प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं।
उदाहरण-
१. प्रथम प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर।
उदाहरण-
१. यह मयंक तव मुख सम मोहन
२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती
३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग
कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग?
२. द्वितीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है।
उदाहरण-
१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद
२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि
३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य
बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य
3. तृतीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक
२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.
३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये
४. चतुर्थ प्रतीप:
जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।
२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन
लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
समता कर सकता है
नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?
३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?
४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर
५. पंचम प्रतीप:
जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू
२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..
३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भए हैं.
पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.
४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध
पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध
२८-१०-२०१५
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नैरंतरी छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
२६-१०-२०१४
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बाबू लाल शर्मा, बौहरा सिकंदरा,303326 दौसा,राजस्थान,9782924479 ढूँढाड़ी