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शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

आद्यक्षरी रचना, राजेंद्र निगम 'राज', इंदु राज निगम, दोहा सलिला


आद्यक्षरी रचना

राजेंद्र निगम 'राज'

'रा' करता है राज दिलों पर

'जे' जेवर सम काव्य रचे।

'न्' से न्यून न हुआ काव्य-रस

'द्र'वित हुआ दिल, भाव बचे।।

'नि'बल सबल सब साथ रहें मिल

'ग'म पीकर दें बाँट हँसी।

'म'न की बात न हो मनमानी

'रा'ज तभी दे सके ख़ुशी।।

*

इंदु राज निगम

'इ' सको उसको घास न डाली।

'न्'याय किया है दिल के साथ।।

'दु'आ सुनी प्रभु जी ने मेरी

'रा'ह मिली रख ऊँचा माथ।। आद्यक्षरी रचना

'रा' करता है राज दिलों पर

'जे' जेवर सम काव्य रचे।

'न्' से न्यून न हुआ काव्य-रस

'द्र'वित हुआ दिल, भाव बचे।।

'नि'बल सबल सब साथ रहें मिल

'ग'म पीकर दें बाँट हँसी।

'म'न की बात न हो मनमानी

'रा'ज तभी दे सके ख़ुशी।।

*

'ज' य माला ले जीवन साथी

'नि'गम मिले गम मिटे सभी।

'ग'जब हुआ कविता कविता मिल

'म'मता-समता हुई अभी।।

***
दोहा सलिला 

मन आँगन में इंदु हों, लेकर रश्मि अनेक

चित्र गुप्त साकार हों, जाग्रत रखें विवेक

राज करें राजेंद्र जी, रहें नि-गम हँस नित्य

बेगम बे-गम रह उन्हें, दें आनंद अनित्य

भेजें वे गुरु ग्राम खुद, रहें शहर में मस्त

कविता सुना सुना करें, जिसको चाहें त्रस्त

आम आदमी हम मिले, आ हमसे राजेंद्र

काश कभी निशि सकें मिल, आकर आप नरेंद्र

सॉनेट, कवि, नवगीत, समीक्षा, कृष्ण दत्त, प्रेमा छंद, मुक्तिका,

सॉनेट
कवि  
कवि प्रकृति का पूत मुखर है
कण-कण में ईश्वर को देखे
शब्द-सूर्यवत परम प्रखर है
हो आकारित विधि के लेखे

उसको सम भू गह्वर शिखर है
नेह नर्मदा की रेती वह
कलकल करती चपल लहर है
भावों की करता खेती वह

रस बिन श्वासा लगे जहर है
लय सध जाए, ताल न टूटे
रचनारत रह नित; रब रहबर है
अलंकार का हाथ न छूटे

मिथक-बिंब का साथ सुघर है
कवि को कम यह आठ प्रहर है  
२५-११-२०२२
●●●
कार्यशाला ।  

सद्गुण हिय में धारिए,नित करिए उपकार ‌।
अवगुण से मुॅंह मोड़िए, दूर रखो तलवार।।९८८

= धारिए, करिए तथा मोड़िए में अनुरोध है, रखो में आज्ञा। इस विसंगति को हटाएँ।

सद्गुण हिय में धारिए,नित करिए उपकार ‌।
अवगुण से मुॅंह मोड़िए, समझ लीजिए सार।।९८८
© प्रो.मीना श्रीवास्तव 'पुष्पांशी'

सुझाव

= सद्गुण हिय में धारिए,नित करिए उपकार ‌।
अवगुण से मुॅंह मोड़िए, तजिए प्रिय तलवार।।९८८

इस परिवर्तन से विसंगति हटी, 'त' की आवृत्ति तथा प्रिय में 'श्लेष' होने से लालित्य वृद्धि हुई।
'प्रिय तजिए तलवार, हो तो श्लेष नहीं रहता।
-----
आये छुपके छुपाके, धरके मोहन वेश।
राधा निहारे शशिमुख, सजाये किशन केश।।
डॉ. आलोक रंजन कुमार

= दूसरी पंक्ति में लय भंग है। पदांत दोष भी है।

आए छुपके छुपाके, धरके सखि का भेस।
एक कृष्ण-राधा हुए, दरपन देखे केस।।
***
व्यंग्य रचना
राम भक्ति
(पदभार- १२२ x ४ x २ )
तमाम काम राम के, करें न भक्त जी कभी।
मिठाइयाँ दिखा-दिखा, उड़ा रहे विरक्त जी।।
भुला रमेश पूजते, रमा सदा वियुक्त जी।
सदा स्वस्वार्थ साधते, कहें रहे विमुक्त जी।।
कभी न झूठ बोलते, न सत्य ही कहा कभी।
अकाम काम चाहते, कहें करो सभी अभी।।
अनाम नाम माँगते, छदाम भी न त्यागते।
प्रभो! कमी रहे नहीं, मनोरथी न भागते।।
कहें न आप जोड़िए, न साथ धान्य जा सके।।
चढ़ा यहीं सुपुण्य लें, सुभाग्य आप पा सके।।
२५-११-२०२२
***
नवगीत:
*
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
हम-तुम
देख रहे खिड़की के
बजते पल्ले
मगर चुप्प हैं.
दरवाज़ों के बाहर
जाते डरते
छाये तिमिर घुप्प हैं.
अन्तर्जाली
सेंध लग गयी
शयनकक्ष
शिशुगृह में आया.
जसुदा-लोरी
रुचे न किंचित
पूजागृह में
पैग बनाया.
इसे रोज
उसको दे टॉफी
कर प्रपोज़ नित
किसी और को,
संबंधों के
अनुबंधों को
भुला रही सीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
पशुपति व्यथित
देख पशुओं से
व्यवहारों की
जय-जय होती.
जन-आस्था
जन-प्रतिनिधियों को
भटका देख
सिया सी रोती.
मन 'मॉनीटर'
पर तन 'माउस'
जाने क्या-क्या
दिखा रहा है?
हर 'सीपीयू'
है आयातित
गत को गर्हित
बता रहा है.
कर उपयोग
फेंक दो तत्क्षण
कहे पूर्व से
पश्चिम वर तम
भटकावों को
अटकावों को
भुना रही चीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
२५-११-२०१५
***
कृति चर्चा-
जीवन मनोविज्ञान : एक वरदान
[कृति विवरण: जीवन मनोविज्ञान, डॉ. कृष्ण दत्त, आकार क्राउन, पृष्ठ ७४,आवरण दुरंगा, पेपरबैक, त्र्यंबक प्रकाशन नेहरू नगर, कानपूर]
वर्तमान मानव जीवन जटिलताओं, महत्वाकांक्षाओं और समयाभाव के चक्रव्यूह में दम तोड़ते आनंद की त्रासदी न बन जाए इस हेतु चिंतित डॉ. कृष्ण दत्त ने इस लोकोपयीगी कृति का सृजन - प्रकाशन किया है. लेखन सेवानिवृत्त चिकित्सा मनोवैज्ञानिक हैं.
असामान्यता क्या है?, मानव मन का वैज्ञानिक विश्लेषण, अहम सुरक्षा तकनीक, हम स्वप्न क्यों देखते हैं?, मन एक विवेचन एवं आत्म सुझाव, मां पेशीय तनावमुक्तता एवं मन: शांति, जीवन में तनाव- कारण एवं निवारण,समय प्रबंधन, समस्या समाधान, मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता के शीलगुण, बुद्धि ही नहीं भावना भी महत्वपूर्ण, संवाद कौशल, संवादहीनता: एक समस्या, वाणी: एक अमोघ अस्त्र, बच्चे आपकी जागीर नहीं हैं, मांसक स्वास्थ्य के ३ प्रमुख अंग, मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ, संसार में समायोजन का मनोविज्ञान,जीवन में त्याग नहीं विवेकपूर्ण चयन जरूरी, चेतना का विस्तार ही जीवन, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, क्रोध क्यों होता है?, ईर्ष्या कहाँ से उपजती है?, संबंधों का मनोविज्ञान, संबंधों को कैसे संवारें?, सुखी दांपत्य जीवन का राज, अवांछित संस्कारों से कैसे उबरें?, अच्छे नागरिक कैसे बनें? तथा प्रेम: जीवन ऊर्जा का प्राण तत्व २९ अध्यायों में जीवनोपयोगी सूत्र लेखन ने पिरोये हैं.
निस्संदेह गागर में सागर की तरह महत्वपूर्ण यह कृति न केवल पाठकों के समय का सदुपयोग करती है अपितु आजीवन साथ देनेवाले ऐसे सूत्र थमती है जिनसे पाठक, उसके परिवार और साथियों का जीवन दिशा प्राप्त कर सकता है.
स्वायत्तशासी परोपकारी संगठन 'अस्मिता' मंदगति प्रशिक्षण एवं मानसिक स्वास्थ्य केंद्र, इंदिरानगर,लखनऊ १९९५ से मंदमति बच्चों को समाज की मुख्यधारा में संयोजित करने हेतु मानसोपचार (साइकोथोरैपी) शिविरों का आयोजन करती है. यह कृति इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे दूरस्थ जान भी लाभ ले सकते हैं. इस मानवोपयोगी कृति के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं.
२४-११-२०१४
***
छंद सलिला-
प्रेमा छंद
*
यह दो पदों, चार चरणों, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं का छंद है. इसका पहला, दूसरा और चौथा चरण उपेन्द्रवज्रा तथा दूसरा चरण इंद्रवज्रा छंद होता है.
१. मिले-जुले तो हमको तुम्हारे हसीं वादे कसमें लुभायें
देखो नज़ारे चुप हो सितारों हमें बहारें नगमे सुनाये
*
२. कहो कहानी कविता रुबाई लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें सदा वही जो खुद भी सहा हो
*
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें बना न बातें भरमा रे!
२५-११-२०१३
***
मुक्तिका:
सबब क्या ?
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..

न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..

हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..

न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?

न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..

खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को भी 'सलिल' ठेंगा दिखाओ..

२५-११-२०१०
***

गुरुवार, 24 नवंबर 2022

कृति चर्चा: नयी कहानी : संदर्भ शिल्प - डॉ. भारती सिंह

 कृति चर्चा: 

नयी कहानी : संदर्भ शिल्प - कहानी पर गंभीर विमर्श 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

[कृति विवरण - नयी कहानी : संदर्भ शिल्प, समालोचना, डॉ. भारती सिंह, प्रथम संस्करण २०२२, आकार डिमाई,  पृष्ठ २१६, आवरण पेपरबैक बहुरंगी जैकेट सहित, मूल्य २२५/-, प्रकाशक- हिंदुस्तानी अकादमी प्रयागराज, कृतिकार संपर्क dr.bharti_singh@yahoo.com]

                    मनुष्य और कहानी का साथ चोली दामन का सा है। मनुष्य ने बोलना सीखने ही बात बनाना आरंभ कर दिया होगा जो कालांतर में पहले वाचिक और बाद में लिखित कहानी का रूप लेकर साहित्य की अग्रगण्य विधा के रूप में विश्व के हर क्षेत्र और हर बोली-भाषा में प्रतिष्ठित हो गई है।  'हरि अनंत हरिकथा अनंता' की उक्ति कहानी के लिए भी सत्य है। कहानी के अनेक रूप उसकी विकास यात्रा में विकसित हुए हैं, हो रहे हैं और होते रहेंगे। हर दशक में नई कहानी लिखी जाएगी और अगले दशक में पुरानी पड़ने लगेगी। ऐसा कहानी ही नहीं हर सृजन विधा के साथ होता है और  होने ही चाहिए, तभी विधा न केवल जिन्दा रहती है अपितु विकसित भी होती है। सतत परिवर्तनशील विधा होने के नाते कहानी के विषय, कथ्य, उद्देश्य, शिल्प, विधान आदि  हर तत्व में बदलाव होता रहता है। इन बदलावों पर सतर्क किन्तु पूर्वाग्रहविहीन दृष्टि रखकर अब तक हुए विकास का विश्लेषण गंभीर, गहन और व्यापक अध्ययन किए बिना संभव नहीं है। डॉ. भारती सिंह ने अपने शोध के लिए कहानी विशेषकर नई कहानी को चुनकर इस चुनौती से आँखें चार की हैं। इस साहस के लिए उन्हें बधाई। 

                    समालोचना एक ऐसी विधा है जिसके मानक और विधान सतत परिवर्तनशील होते हैं। एक कहानी एक विचारधारा के समालोचक को श्रेष्ठ प्रतीत होती है तो अन्य विचारधारा के समालोचक के लिए वह सामान्य या हे हो सकती है। वास्तव में ऐसा नहीं हो नहीं चाहिए, पर होता है क्योंकि समालोचक निष्पक्ष या तटस्थ दृष्टि से आकलन नहीं करता। हिंदी में समालोचक अपनी वैयक्तिक वैचारिक प्रतिबद्धता को अपने सलोचकीय कर्म पर हावी हो जाने देता है। इस वातावरण में यह निश्चित है कि डॉ. भारती जो भी मत प्रस्तुत करेंगी उसका मूल्याङ्कन समीक्षक अपने वैयक्तिक चिन्तन के आधार पर करेंगे, विषय के साथ हुए न्याय-अन्याय के आधार पर नहीं। भारती जी ने इस दूषित वातावरण में भी समालोचना को चुनने का साहस किया है।

                    विवेच्य २१६ पृष्ठीय कृति सात अध्यायों पारम्परिक कथा प्रतिमानों की निरंतरता और कहानी के नए प्रतिमान, स्वातंत्र्योत्तर रचना का समानांतर परिवेश (राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों के संदर्भ में मोह भंग), मानव अस्मिता का प्रश्न और नयी कहानी, समानांतर सच्चाइयों का दवाब और नयी कहानी के कथानक प्रयोग, अभिव्यक्ति के नए मुहावरों की तलाश (नयी कहानी के भाषिक और शैलीगत प्रयोग), नयी कहानी की कथागत रूढ़ियाँ : गत्यवरोध (साठोत्तरी कहानी की संभावनाएँ) तथा नयी कहानी के स्थापित कथाकार (नयी कहानी के विशिष्ट हस्ताक्षर) में लिखी गई है।  अंत में उपसंहार तथा संदर्भ सूची ने पुस्तक की उपादेयता में वृद्धि की है। आचार्य वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने ठीक ही आकलन किया है कि डॉ. भारती के अनुसार नई कहानी पहचान की पुरानी कसौटियों से भिन्न नई कसौटियों की अपेक्षा रखती है। देवेंद्र प्रताप सिंह के मत में प्रस्तुत शोध कृति नई कहानी के रचना विधान यानी शिल्पगत बदलावों की पड़ताल करती है। कथाकार राजगोपाल सिंह वर्मा के शब्दों में डॉ. भारती सिंह ने स्वातंत्र्योत्तर रचना का समानांतर परिवेश, मानव अस्मिता का परिवेश और नई कहानी की ऐतिहासिकता और संदर्भों की गहनता से परख की है।

                    किसी समालोचनात्मक कृति में कथ्य को तथ्यों पर आधारित होना चाहिए और निष्कर्ष निकलते समय सभी तथ्यों और तत्वों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। शोध कार्य करते समय शोधार्थी पूर्णत: स्वतंत्र नहीं होता। वक टाँगे में जुटे घोड़े के समान निदेशक के मार्गदर्शन में उसके बताए अनुसार ही कार्य करता है। परोक्षत:, निदेशक की दृष्टि शोधार्थी पर आरोपित हो जाते है। इस सीमा में रहकर भारती जी ने प्रस्तुत पुस्तक में विषय का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाले हैं तथापि उनकी पाठकीय और समीक्षकीय दृष्टि की सजगता, सटीकता और सामयिकता की झलक दृष्टव्य है। भारती द्वारा किये गए स्वतंत्र आकलन पर दृष्टिपात करें। 

                    'मुस्लिम और ईसाई समाजों की छाया हिन्दू समाज पर तो पड़ी ही है साथ ही साम्यवादी विचारोंवाले दाम्पत्य जीवन का जो स्वैराचारी चलन है उसका प्रभाव भी भारतीय समाज पर पर्याप्त रूप से पड़ रहा है।- पृष्ठ १५ भारतीय पौराणिक कथाओं में इंद्रादि देवताओं के स्वैराचार के संदर्भ में साम्यवाद को श्रेय देना विचारणीय है। 

                    जिन-जिन बाह्य दबावों का संवेदना के धरातल पर हमारी इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता है, वही रचनात्मक प्रक्रिया से गुजरकर बिम्ब रूप में ढल जाते हैं। यह प्रभाव कच्चे माल के रूप में उपयोग में लाया जाता है। -पृष्ठ २१ इस मत को प्रस्तुत करते समय कुछ उदाहरण दिए जा सकते तो मत संपुष्ट होता। 

                    कहानी में स्वातंत्र्योत्तर परिवेश की चर्चा करते समय काल व मूल्य वैविध्य, मूल्य और आधुनिकीकरण, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक परिवेश की चर्चा है। यांत्रिक, व्यावसायिक,औद्योगिक व अंतर्राष्ट्रीय परिवेश को जोड़कर इसे पूर्णता दी जानी थी। 

                    मानवीय अस्मिता के संदर्भ में व्यक्ति के अस्तित्व का संकट पाश्चात्य साहित्य का दुष्परिणाम बताने का निष्कर्ष (पृष्ठ ६७) यह संकेतित करता है कि इस काल के पूर्व व्यक्ति के अस्तित्व का संकट नहीं था। इस निष्कर्ष को असंदिग्ध बनाने के लिए गहन पड़ताल की आवश्यकत है जो संभवत: शोध पत्र की सीमा के परे रहा हो। 

                    नई कहानी के कथानक संबंधी प्रयोगों के मूल में समानांतर सच्चाइयों का दबाव होने के संदर्भ में लेखिका का मत है -'नई कहानी ने संवेदना और संरचना के दो अनिवार्य मुद्दे अपने रचनात्मक विन्यास के लिए स्वीकार किए, वस्तु विन्यास की दृष्टि से प्रारंभ, मध्य और अंत की अनिवार्यता के के पूर्ण अस्वीकार में मात्र अभीष्ट अर्थ को प्रकाशित करनेवाले तत्वों के प्रयोग की स्थिति स्वीकार की गई.... घटनाएँ सर्वथा नए रूप में सम्मिलित हुईं। ये क्रमिक वर्णन की पूर्वनिर्धारित स्थिति में न घटकर बहुत हेर-फेर के साथ घटती हुई दिखाई पड़ीं किन्तु अपने इस रूप में भी ये अर्थ को अधिक प्रभावित रूप प्रदान करनेवाली सिद्ध हुईं।' - पृष्ठ १०५ इस निष्कर्ष के पूर्व अनेक कहानीकारों की कहानियों का विश्लेषण किया जाना निष्कर्ष को प्रामाणिक बनाता है।   

                     नई कहानी के भाषिक और शैलीगत प्रयोगों की चर्चा करते हुए भारती नई कविता आंदोलन की पृष्ठ भूमि को इसके उत्स का कारण ठीक ही बताती हैं। अमिधा के स्थान पर व्यंजना और लक्षणा का प्रयोग नवगीत की पहचान रहा है। यही प्रवृत्ति बाद में कहानी ने अंगीकार की। नई कहानी में प्रयोगों की बहुलता, सांकेतिक भाषा का प्रयोग, सटीक बिम्ब योजना, सहज लोक प्रचलित भाषा आदि तत्वों की विवेचना कहती है - 'हर कहानीकार आरंभ से ही अपने अलग व्यक्तित्व को लेकर चला और किसी किसी दूसरे या किन्हीं दूसरों के व्यक्तित्व में उसने अपने को खो जाने नहीं दिया।' - पृष्ठ १५९  निष्कर्ष की पृष्ठभूमि में २१४ संदर्भों की सूची इसे विश्वसनीयता प्रदान करती है। 

                    नई कहानी के सृजन पथ के गत्वयारोधों और भावी संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य में  उनके यथर्थाधारित होने के बावजूद उनके सामाजिक प्रभाव पर पुनर्विचार (पृष्ठ १८५) किया जाना वास्तव में आवश्यक है। साहित्य  सामाजिक प्रभाव और साहित्य की सनातनता के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में शुभत्व, शिवत्व तथा सुंदरत्व का होना भी अनिवार्य है। यह तथ्य स्पष्ट:न कहकर भी लेखिका इस और संकेत करती है। 

                     नई कहानी के विशिष्ट हस्ताक्षरों का चयन निर्विवाद हो ही नहीं सकता तथापि लेखिका ने संतुलित दृष्टिसे चयन कर निष्पक्षता प्रदर्शित की है। उपसंहार में हिंदी कहानी के भविष्य क्व संबंध में लेखिका स्वयं कुछ न कहकर लक्ष्मीनारायण लाल का एक कथन देकर समापन करती है , इसका कारण संभवत: यह हो कि वह स्वयं को कहानी के भविष्य के संबंध में कुछ कहने के लिए पर्याप्त वरिष्ठ न पाती हो कि उसकी बात को गंभीरता से लिया जाएगा। 

                    कथ्य और विषय वस्तु की दृष्टि से 'नई कहानी : संदर्भ शिल्प' पठनीय और मननीय कृति है। चन्द्रमा के दाग की तरह विराम चिह्नों, अनुस्वार और अनुनासिक, क्रियापदों के वाचिक रूप आदि के प्रति असावधानी खटकती है। गंभीर साहित्यिक कृतियों में हिंदी भाषा के मानक नियमों का पालन किया ही जाना चाहिए। 

संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com     


मुक्तिका, शिशु गीत, नवगीत, लघुकथा, दोहा, रेलगाड़ी,

विश्ववाणी हिंदी संस्थान
समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१ ८३२४४ ​/ ७९९९५ ५९६१८ ​
salil.sanjiv@gmail.com
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सामयिक लघुकथाएँ
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दोहा शतक मंजूषा
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प्रतिनिधि नवगीत
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शांति-राज स्व-पुस्तकालय योजना
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में नई पीढ़ी के मन में हिंदी के प्रति प्रेम तथा भारतीय संस्कारों के प्रति लगाव तभी हो सकता है जब वे बचपन से सत्साहित्य पढ़ें। इस उद्देश्य से पारिवारिक पुस्तकालय योजना आरम्भ की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत ५००/- भेजने पर निम्न में से ७००/- की पुस्तकें तथा शब्द साधना पत्रिका व् दिव्य नर्मदा पत्रिका के उपलब्ध अंक पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क की सुविधा सहित उपलब्ध हैं। राशि अग्रिम पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com को ईमेल करें। इस योजना में पुस्तक सम्मिलित करने हेतु salil.sanjiv@gmail.com या ७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४ पर संपर्क करें।
पुस्तक सूची
०१. मीत मेरे कविताएँ -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' १५०/-
०२. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' १५०/-
०३. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य -स्व. डी.पी.खरे -आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
०४. पहला कदम काव्य संग्रह -डॉ. अनूप निगम १००/-
०५. कदाचित काव्य संग्रह -स्व. सुभाष पांडे १२०/-
०६. Off And On -English Gazals -Dr. Anil Jain ८०/-
०७. यदा-कदा -उक्त का हिंदी काव्यानुवाद- डॉ. बाबू जोसफ-स्टीव विंसेंट ८०/-
०८. Contemporary Hindi Poetry - B.P. Mishra 'Niyaz' ३००/-
०९. महामात्य महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' ३५०/-
१०. कालजयी महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' २२५/-
११. सूतपुत्र महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' १२५/-
१२. अंतर संवाद कहानियाँ -रजनी सक्सेना २००/-
१३. दोहा-दोहा नर्मदा दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१४. दोहा सलिला निर्मला दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१५. दोहा दिव्य दिनेश दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा ३००/-
१६. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
१७. The Second Thought - English Poetry - Dr .Anil Jain​ १५०/-
१८. हस्तिनापुर की बिथा कथा (बुंदेली संक्षिप्त महाभारत)- डॉ. एम. एल. खरे २५०/-
१९. शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह - जयप्रकाश श्रीवास्तव १२०/-
२०. बुधिया लेता टोह - बसंत कुमार शर्मा - १८०/-
२१. पोखर ठोंके दावा नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १८०/-
२२. मौसम अंगार है नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १६०/-
२३. कोयल करे मुनादी नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार २००/-
२४. अंधी पीसे कुत्ते खाँय व्यंग्य काव्य संग्रह - अविनाश ब्योहार १००/-
२५. काव्य मंदाकिनी काव्य संग्रह - ३२५/-
***
सॉनेट आज ● आज कह रहा जागो भाई! कल से कल की मिली विरासत कल बिन कहीं न कल हो आहत बिना बात मत भागो भाई! आज चलो सब शीश उठाकर कोई कुछ न किसी से छीने कोई न फेंके टुकड़े बीने बढ़ो साथ कर कदम मिलाकर आज मान आभार विगत का कर ले स्वागत हँस आगत का कर लेना-देना चाहत का आज बिदा हो दुख मत करना कल को आज बना श्रम करना सत्य-शिव-सुंदर भजना-वरना २३-११-२०२२ ९४२५१८३२४४ ●●● मुक्तिका
पदभार : १२१२ x ४
प्रभो! तुम्हें सदा जपूँ, कभी न भूलना मुझे।
रहूँ न काम के बिना, अकाम ही सदा रहूँ।।

न याचना, न कामना, न वासना, न क्रोध हो।
स्वदेश के लिए जिऊँ, स्वदेश के लिए मरूँ।।

ध्वजा कभी झुके नहीं, पताकिनी रुके नहीं।
न शत्रु एक शेष हो, सुमित्र के लिए जिऊँ।।

न आम आदमी कभी दुखी रहे, सुखी रहे।
न खास का गुलाम हो, हताश मैं कभी रहूँ।।

अमीर है वही न जो, गरीब से घृणा करे।
न दर्द दूँ कभी, मिटा सकूँ जरा तभी तरूँ।।

स्वधर्म को तजूँ नहीं, अधर्म मैं वरूँ नहीं।
कुरीत से सदा बचूँ, अनीत मैं नहीं करूँ।।

प्रभो! कृपा बनी रहे, क्षमा करो, दया करो।
न पाप हो; न शाप दो, न भाव भक्ति मैं तजूँ।।
२४-११-२०२२
***
दोहा और रेलगाड़ी
*
बीते दिन फुटपाथ पर, प्लेटफॉर्म पर रात
ट्रेन लेट है प्रीत की, बतला रहा प्रभात
*
बदल गया है वक़्त अब, छुकछुक गाड़ी गोल
इंजिन दिखे न भाप का, रहा नहीं कुछ मोल
*
भोर दुपहरी सांझ या, पूनम-'मावस रात
काम करे निष्काम रह, इंजिन बिन व्याघात
*
'स्टेशन आ रहा है', क्यों कहते इंसान?
आते-जाते आप वे, जगह नहीं गतिमान
*
चलें 'रेल' पर गाड़ियाँ, कहते 'आई रेल'
आती-जाती 'ट्रेन' है, बात न कर बेमेल
*
डब्बे में घुस सके जो, थाम किसी का हाथ
बैठ गए चाहें नहीं, दूजा बैठे साथ
*
तीसमारखाँ बन करें, बिना टिकिट जो सैर
टिकिट निरीक्षक पकड़ता, रहे न उनकी खैर
*
दर्जन भर करते विदा, किसी एक को व्यर्थ
भीड़ बढ़ाते अकारण, करते अर्थ-अनर्थ
*
ट्रेन छूटने तक नहीं चढ़ते, करते गप्प
चढ़ें दौड़ गिरते फिसल, प्लॉटफॉर्म पर धप्प
*
सुविधा का उपयोग कर, रखिए स्वच्छ; न तोड़
बारी आने दीजिए, करें न नाहक होड़
*
कभी नहीं वह खाइए, जो देता अनजान
खिला नशीली वस्तु वह, लूटे धन-सामान
*
चेहरा रखिए ढाँककर, स्वच्छ हमेशा हाथ
दूरी रखिए हमेशा, ऊँचा रखिए माथ
*
२३-११-२०२०
***
मुक्तक
मुख पुस्तक मुख को पढ़ने का ग्यान दे
क्या कपाल में लिखा दिखा वरदान दे
शान न रहती सदा मुझे मत ईश्वर दे
शुभाशीष दे, स्नेह, मान जा दान दे
***
नवगीत
.
बसर ज़िन्दगी हो रही है
सड़क पर.
.
बजी ढोलकी
गूंज सोहर की सुन लो
टपरिया में सपने
महलों के बुन लो
दुत्कार सहता
बचपन बिचारा
सिसक, चुप रहे
खुद कन्हैया सड़क पर
.
लत्ता लपेटे
छिपा तन-बदन को
आसें न बुझती
समर्पित तपन को
फ़ान्से निबल को
सबल अट्टहासी
कुचली तितलिया मरी हैं
सड़क पर
.
मछली-मछेरा
मगर से घिरे हैं
जबां हौसले
चल, रपटकर गिरे हैं
भँवर लहरियों को
गुपचुप फ़न्साए
लव हो रहा है
ज़िहादी सड़क पर
.
कुचल गिट्टियों को
ठठाता है रोलर
दबा मिट्टियों में
विहँसता है रोकर
कालिख मनों में
डामल से ज्यादा
धुआँ उड़ उड़ाता
प्रदूषण सड़क पर
२४-११-२०१७
***
नवगीत महोत्सव लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आये हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाये हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोयें-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसायें
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पायें
मतभेदों को विहँस पचायें
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
२४-११-२०१५
***
लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
संजीव
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता था। क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकी सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे।'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था।'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका।
*
***
मुक्तिका
देख जंगल
कहाँ मंगल?
हर तरफ है
सिर्फ दंगल
याद आते
बहुत हंगल
स्नेह पर हो
बाँध नंगल
भू मिटाकर
चलो मंगल
***
नवगीत:
दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप
तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप
हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरिया-झाँके
दीवारों के पार
भौजी चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप
तेल मला दादी के, बैठी
देखूँ किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
***
नवगीत:
अड़े खड़े हो
न राह रोको
यहाँ न झाँको
वहाँ न ताको
न उसको घूरो
न इसको देखो
परे हटो भी
न व्यर्थ टोको
इसे बुलाओ
उसे बताओ
न राज अपना
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो
न भाड़ झोंको
२३-११-२०१४
***
शिशु गीत सलिला : 3
*
21. नाना
मम्मी के पापा नाना,
खूब लुटाते हम पर प्यार।
जब भी वे घर आते हैं-
हम भी करते बहुत दुलार।।
खूब खिलौने लाते हैं,
मेरा मन बहलाते हैं।
नाना बाँहों में लेकर-
झूला मुझे झुलाते हैं।।
*
22. नानी -1
कहतीं रोज कहानी हैं,
माँ की माँ ही नानी हैं।
हर मुश्किल हल कर लेतीं-
सचमुच बहुत सयानी हैं।।
*
23. नानी-2
नानी जी के गोरे बाल,
धीमी-धीमी उनकी चाल।
दाँत ले गए क्या चूहे-
झुर्रीवाली क्यों है खाल?
चश्मा रखतीं नाक पर,
देखें उससे झाँक कर।
कैसे बुन लेतीं स्वेटर?
लम्बा-छोटा आँककर।।
*
24. चाचा
चाचा पापा के भाई,
हमको लगते हैं अच्छे।
रहें बड़ों सँग, लगें बड़े-
बच्चों में लगते बच्चे।।
चाचा बच्चों संग खेलें,
सबके सौ नखरे झेलें।
जो बच्चा थक जाता -
झट से गोदी में ले लें।।
*
25. बुआ
प्यारी लगतीं मुझे बुआ,
मुझे न कुछ हो- करें दुआ।
पराई बहिना पापा की-
पाला घर में हरा सुआ।।
चना-मिर्च उसको देतीं
मुझे खिलातीं मालपुआ।
*
26.मामा
मामा मुझको मन भाते,
माँ से राखी बँधवाते।
सब बच्चों को बैठकर
गप्प मारते-बतियाते।।
हम आपस में झगड़ें तो-
भाईचारा करवाते।
मुझे कार में बिठलाते-
सैर दूर तक करवाते।।
*
27. मौसी
मौसी माँ जैसी लगती,
मुझको गोद उठा हँसती।
ढोलक खूब बजाती है,
केसर-खीर खिलाती है।
*
28. दोस्त
मुझसे मिलने आये दोस्त,
आकर गले लगाये दोस्त।
खेल खेलते हम जी भर-
मेरे मन को भाये दोस्त।।
*
29. सुबह
सुबह हुई अँधियारा भागा,
हुआ उजाला भाई।
'उठो, न सो' गोदी ले माँ ने
निंदिया दूर भगाई।।
गाय रंभाई, चिड़िया चहकी,
हवा बही सुखदाई।
धूप गुनगुनी हँसकर बोली:
मुँह धो आओ भाई।।
*
30. सूरज
आसमान में आया सूरज,
सबके मन को भाया सूरज।
लाल-लाल आकाश हो गया-
देख सुबह मुस्काया सूरज।।
डरकर भाग गयी है ठंडी
आँख दिखा गरमाया सूरज।
रात-अँधेरे से डर लगता
घर जाकर सुस्ताया सूरज।।
२३.११.२०१२
***
मुक्तिका:
जीवन की जय गाएँ हम..
*
जीवन की जय गाएँ हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहराएँ हम..
*
बाधा-संकट-अड़चन से
जूझ-जीत मुस्काएँ हम..
*
गिरने से क्यों कहोडरें?,
उठ-बढ़ मंजिल पाएँ हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गाएँ हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खाएँ हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें हर्षाएँ हम..
*
तम को पी, बन दीप जलें.
दीपावली मनाएँ हम..
*
लगन-परिश्रम-कोशिश की
जय-जयकार गुंजाएँ हम..
*
पीड़ित के आँसू पोछें
हिम्मत दे, बहलाएँ हम..
*
अमिय बाँट, विष कंठ धरें.
नीलकंठ बन जाएँ हम..
***
लीक से हटकर एक प्रयोग:
मुक्तिका:
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
*
न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
*
न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद कर मुस्कुराता है.
*
करा सौदा खरा जिसने, जो जीता वो सिकंदर है.
क्यों कीमत तू अदा करता है?, क्यों तू सिर कटाता है??
*
यहाँ जो सिर कटाता है, कटाये- हम तो नेता हैं.
हमारा शौक- अपने मुल्क को ही बेच-खाता है..
*
करें क्यों मुल्क की चिंता?, सकल दुनिया हमारी है..
है बंटाढार इंसां चाँद औ' मंगल पे जाता है..
*
न मंगल अब कभी जंगल में कर पाओगे ये सच है.
जहाँ भी पग रखे इंसान उसको बेच-खाता है..
*
न खाना और ना पानी, मगर बढ़ती है जनसँख्या.
जलाकर रोम नीरो सिर्फ बंसी ही बजाता है..
*
बजी बंसी तो सारा जग, करेगा रासलीला भी.
कोई दामन फँसाता है, कोई दामन बचाता है..
*
लगे दामन पे कोई दाग, तो चिंता न कुछ करना.
बताता रोज विज्ञापन, इन्हें कैसे छुड़ाता है??
*
छुड़ाना पिंड यारों से, नहीं आसां तनिक यारों.
सभी यह जानते हैं, यार ही चूना लगाता है..
*
लगाता है अगर चूना, तो कत्था भी लगाता है.
लपेटा पान का पत्ता, हमें खाता-खिलाता है..
*
खिलाना और खाना ही हमारी सभ्यता- मानो.
मगर ईमानदारी का, हमें अभिनय दिखाता है..
*
किया अभिनय न गर तो सत्य जानेगा जमाना यह.
कोई कीमत अदा हो हर बशर सच को छिपाता है..
*
छिपाता है, दिखाता है, दिखाता है, छिपाता है.
बचाकर आँख टंगड़ी मार, खुद को खुद गिराता है..
*
गिराता क्या?, उठाता क्या?, फंसाता क्या?, बचाता क्या??
अजब इंसान चूहे खाए सौ, फिर हज को जाता है..
*
न जाता है, न जायेंगा, महज धमकायेगा तुमको.
कोई सत्ता बचाता है, कमीशन कोई खाता है..
*
कमीशन बिन न जीवन में, मजा आता है सच मानो.
कोई रिश्ता निभाता है, कोई ठेंगा बताता है..
*
कमाना है, कमाना है, कमाना है, कमाना है.
कमीना कहना है?, कह लो, 'सलिल' फिर भी कमाता है..
२३-११-२०१०
***

बुधवार, 23 नवंबर 2022

मुक्तक, गीत, लघुकथा, सरस्वती, बृज, सॉनेट


सॉनेट
आज
आज कह रहा जागो भाई!
कल से कल की मिली विरासत
कल बिन कहीं न कल हो आहत
बिना बात मत भागो भाई!

आज चलो सब शीश उठाकर
कोई कुछ न किसी से छीने
कोई न फेंके टुकड़े बीने
बढ़ो साथ कर कदम मिलाकर

आज मान आभार विगत का
कर ले स्वागत हँस आगत का
कर लेना-देना चाहत का

आज बिदा हो दुख मत करना
कल को आज बना श्रम करना
सत्य-शिव-सुंदर भजना-वरना
२३-११-२०२२
९४२५१८३२४४
●●●
सरस्वती स्तवन
बृज
*
मातु! सुनौ तुम आइहौ आइहौ,
काव्य कला हमकौ समुझाइहौ।
फेर कभी मुख दूर न जाइहौ
गीत सिखाइहौ, बीन बजाइहौ।
श्वेत वदन है, श्वेत वसन है
श्वेत लै वाहन दरस दिखाइहौ।
छंद सिखाइहौ, गीत सुनाइहौ,
ताल बजाइहौ, वाह दिलाइहौ।
*
सुर संधान की कामना है मोहे,
ताल बता दीजै मातु सरस्वती।
छंद की; गीत की चाहना है इतै,
नेकु सिखा दीजै मातु सरस्वती।
आखर-शब्द की, साधना नेंक सी
रस-लय दीजै मातु सरस्वती।
सत्य समय का; बोल-बता सकूँ
सत-शिव दीजै मातु सरस्वती।
*
शब्द निशब्द अशब्द कबै भए,
शून्य में गूँज सुना रय शारद।
पंक में पंकज नित्य खिला रय;
भ्रमरों लौं भरमा रय शारद।
शब्द से उपजै; शब्द में लीन हो,
शब्द को शब्द ही भा रय शारद।
ताल हो; थाप हो; नाद-निनाद हो
शब्द की कीर्ति सुना रय शारद।
*
संजीव
२२-११-२०१९
***
लघुकथा
बदलाव का मतलब
*
जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचरण, लगातार बढ़ते कर और मँहगाई, संवेदनहीन प्रशासन और पूंजीपति समर्थक नीतियों ने जीवन दूभर कर दिया तो जनता जनार्दन ने अपने वज्रास्त्र का प्रयोग कर सत्ताधारी दल को चारों खाने चित्त कर विपक्षी दल को सत्तासीन कर दिया।
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में निरंतर पेट्रोल-डीजल की कीमत में गिरावट के बावजूद ईंधन के दाम न घटने, बीच सत्र में अधिनियमों द्वारा परोक्ष कर वृद्धि और बजट में आम कर्मचारी को मजबूर कर सरकार द्वारा काटे और कम ब्याज पर लंबे समय तक उपयोग किये गये भविष्य निधि कोष पर करारोपण से ठगा अनुभव कर रहे मतदाता को समझ ही नहीं आया बदलाव का मतलब।
​३-३-२०१६ ​
***
गीत:
किरण कब होती अकेली…
*
किरण कब होती अकेली?
नित उजाला बाँटती है
जानती है सूर्य उगता और ढलता,
उग सके फिर
सांध्य-बेला में न जगती
भ्रमित होए तिमिर से घिर
चन्द्रमा की कलाई पर,
मौन राखी बाँधती है
चाँदनी भेंटे नवेली
किरण कब होती अकेली…
*
मेघ आच्छादित गगन को
देख रोता जब विवश मन
दीप को आ बाल देती,
झोपड़ी भी झूम पाए
भाई की जब याद आती,
सलिल से प्रक्षाल जाए
साश्रु नयनों से करे पुनि
निज दुखों का आचमन
वेदना हो प्रिय सहेली
किरण कब होती अकेली…
*
पञ्च तत्वों में समाये
पञ्च तत्वों को सुमिरती
तीन कालों तक प्रकाशित
तीन लोकों को निहारे
भाईचारा ही सहारा
अधर शाश्वत सच पुकारे
गुमा जो आकार हो साकार
नभ को चुप निरखती
बुझती अनबुझ पहेली
किरण कब होती अकेली…
२२-११-२०१६
*
मुक्तक
काैन किसका सगा है
लगता प्रेम पगा है
नेह नाता जाे मिला
हमें उसने ठगा है
*
दिल से दिल की बात हो
खुशनुमा हालात हो
गीत गाये झूमकर
गून्जते नग्मात हो
२३-११-२०१४
***

मंगलवार, 22 नवंबर 2022

सॉनेट, दोहा, बाल, सरस्वती, बृज, कुंडलिनी, अनुप्रास, कुण्डलिया, छंद गीता, नवगीत, बेजार, शिशु गीत

सॉनेट
प्रार्थना
नर्मदेश्वर! नमन शत शत लो
बह सके रस-धार जीवन में
कर कृपा आशीष अक्षय दो
भज तुम्हें पल पल सुपावन हो

बह सके, जड़ हो न बुद्धि मलिन
कर सके किंचित् सलिल परमार्थ
जो मिला बाँटे, न जोड़े मन-
साध्य जीवन जी सके सर्वार्थ

हूँ तुम्हारा उपकरण मैं मात्र
जिस तरह चाहो, करो उपयोग
दिया तुमने, तुम्हारा है गोत्र
अहम् का देना न देवा रोग

रहूँ ज्यों का त्यों, न बदलूँ तात
दें सदा दिल खोल आशीष मात
२२-११-२०२२
●●●
अंतर्राष्ट्रीय बाल दिवस
दोहा का रंग बाल के संग 
बाल-बाल जब भी बचें, कहें देव! आभार 
बाल न बाँका हो कभी कृपा करें सरकार 
बाल खड़े हों जब कभी, प्रभु सुमिरें मनमीत 
साहस कर उठ हों खड़े, भय पर पाएँ जीत 
नहीं धूप में किए हैं, हमने बाल सफेद 
जी चाहा जी भर लिखा, किया न किंचित खेद 
सुलझा काढ़ो ऊँछ लो, पटियाँ पारो खूब 
गूँथो गजरा-वेणियाँ, प्रिय हेरे रस-डूब 
बाल न बढ़ते तनिक भी, बाल चिढ़ाते खूब 
तू न तरीका बताती, जाऊँ नदी में डूब 
बाल होलिका-ज्वाल में, बाल भूनते साथ 
दीप बाल, कर आरती, नवा रहे हैं माथ 
बाल मुँड़ाने से अगर, मिटता मोह-विकार 
हो जाती हर भेद तब, भवसागर के पार 
बाल और कपि एक से, बाल-वृद्ध हैं एक 
वृद्ध और कपि एक क्यों, माने नहीं विवेक? 
बाल बनाते जा रहे, काट-गिराकर बाल 
सर्प यज्ञ पश्चात ज्यों, पड़े अनगिनत व्याल 
बाल बढ़ें लट-केश हों, मिल चोटी हों झूम 
नागिन सम लहरा रहे, बेला-वेणी चूम 
अगर बाल हो तो 'सलिल', रहो नाक के बाल 
मूँछ-बाल बन तन रखो, हरदम उन्नत भाल 
भौंह-बाल तन चाप सम, नयन बाण दें मार 
पल में बिंध दिल सूरमा, करे हार स्वीकार 
बाल पूँछ का हो रहा, नित्य दुखी हैरान 
धूल हटा, मक्खी भगा, थका-चुका हैरान 
बाल बराबर भी अगर, नैतिकता हो संग 
कर न सकेगा तब सबल, किसी निबल को तंग 
बाल भीगकर भीगते, कुंकुम कंचन देह 
कंगन-पायल मुग्ध लख, बिन मौसम का मेह 
गिरें खुद-ब-खुद तो नहीं, देते किंचित पीर 
नोचें-तोड़ें बाल तो, हों अधीर पा पीर 
*
ग्वाल-बाल मिल खा गए, माखन रच इतिहास 
बाल सँवारें गोपिका, नोचें सुनकर हास 
बाल पवन में उड़ गए, हुआ अग्नि में क्षार 
भीग सलिल में हँस रहे, मानो मालामाल 
*
***
सरस्वती स्तवन
बृज
*
मातु! सुनौ तुम आइहौ आइहौ,
काव्य कला हमकौ समुझाइहौ
फेर कभी मुख दूर न जाइहौ
गीत सिखाइहौ, बीन बजाइहौ
श्वेत वदन है, श्वेत वसन है
श्वेत लै वाहन दरस दिखाइहौ
छंद सिखाइहौ, गीत सुनाइहौ,
ताल बजाइहौ, वाह दिलाइहौ


२२-११-२-२०१९

***
हिंदी के नए छंद
कुंडलिनी छंद
*
सत्य अनूठी बात, महाराष्ट्र है राष्ट्र में।
भारत में ही तात, युद्ध महाभारत हुआ।।
युद्ध महाभारत हुआ, कृष्ण न पाए रोक।
रक्तपात संहार से, दस दिश फैला शोक।।
स्वार्थ-लोभ कारण बने, वाहक बना असत्य।
काम करें निष्काम हो, सीख मिली चिर सत्य।।
२२-११-२०१८

*

बीते दिन फुटपाथ पर, प्लेटफोर्म पर रात
ट्रेन लेट है प्रीत की, बतला रहा प्रभात
***
दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के

अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
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कार्यशाला-
विधा - कुण्डलिया छंद
कवि- भाऊ राव महंत
०१
सड़कों पर हो हादसे, जितने वाहन तेज
उन सबको तब शीघ्र ही, मिले मौत की सेज।
मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता
जीवन का तब वेग, हमेशा थम ही जाता।
कह महंत कविराय, आजकल के लड़कों पर
चढ़ा हुआ है भूत, तेज चलते सड़कों पर।।
१. जितने वाहन तेज होते हैं सबके हादसे नहीं होते, यह तथ्य दोष है. 'हो' एक वचन, हादसे बहुवचन, वचन दोष. 'हों' का उपयोग कर वचन दोष दूर किया जा सकता है।
२. तब के साथ जब का प्रयोग उपयुक्त होता है, सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज।
३. सबको मौत की सेज नहीं मिलती, यह भी तथ्य दोष है। हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज
४. मौत की सेज मिलने के बाद यम का बुलावा या यम का बुलावा आने पर मौत की सेज?
५. जीवन का वेग थमता है या जीवन (साँसों) की गति थमती है?
६. आजकल के लड़कों पर अर्थात पहले के लड़कों पर नहीं था,
७. चढ़ा हुआ है भूत... किसका भूत चढ़ा है?
सुझाव
सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज
हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज।
मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता
जीवन का रथचक्र, अचानक थम सा जाता।
कह महंत कविराय, चढ़ा करता लड़कों पर
जब भी गति का भूत, भागते तब सड़कों पर।।
०२
बन जाता है हादसा, थोड़ी-सी भी चूक
जीवन की गाड़ी सदा, हो जाती है मूक।
हो जाती है मूक, मौत आती है उनको
सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको।
कह महंत कविराय, सुरक्षित रखिए जीवन
चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत बन।।
१. हादसा होता है, बनता नहीं। चूक पहले होती है, हादसा बाद में क्रम दोष
२. सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको- अभिव्यक्ति दोष
३. रखिए, मत बन संबोधन में एकरूपता नहीं
हो जाता है हादसा, यदि हो थोड़ी चूक
जीवन की गाड़ी कभी, हो जाती है मूक।
हो जाती है मूक, मौत आती है उनको
सड़कों पर देखा चलते इतराकर जिनको।
कह महंत कवि धीरे चल जीवन रक्षित हो
चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत हो।
२२-११-२०१७
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गीत
अनाम
*
कहाँ छिपे तुम?
कहो अनाम!
*
जग कहता तुम कण-कण में हो
सच यह है तुम क्षण-क्षण में हो
हे अनिवासी!, घट-घटवासी!!
पर्वत में तुम, तृण-तृण में हो
सम्मुख आओ
कभी हमारे
बिगड़े काम
बनाओ अकाम!
*
इसमें, उसमें, तुमको देखा
छिपे कहाँ हो, मिले न लेखा
तनिक बताओ कहाँ बनाई
तुमने कौन लक्ष्मण रेखा?
बिन मजदूरी
श्रम करते क्यों?
किंचित कर लो
कभी विराम.
*
कब तुम माँगा करते वोट?
बदला करते कैसे नोट?
खूब चढ़ोत्री चढ़ा रहे वे
जिनके धंधे-मन में खोट
मुझको निज
एजेंट बना लो
अधिक न लूँगा
तुमसे दाम.
२२-११-२०१६

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रसानंद दे छंद नर्मदा ​ ​५६ :
​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन / सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता / शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ गीता छंद ​से
गीता छंद
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छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है, कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित, निष्काम करे विहान
अर्जुन सदृश जो करेगा, हरि पर अटल विश्वास
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो, हरि-हस्त का आभास
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
२१-११-२०१६
***
जन्म दिन पर अनंत शुभ कामना
अप्रतिम तेवरीकार अभियंता दर्शन कुलश्रेष्ठ 'बेजार' को
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दर्शन हों बेज़ार के, कब मन है बेजार
दो हजार के नोट पर, छापे यदि सरकार
छापे यदि सरकार, देखिएगा तब तेवर
कवि धारेगे नोट मानकर स्वर्णिम जेवर
सुने तेवरी जो उसको ही नोट मिलेगा
और कहे जो वह कतार से 'सलिल' बचेगा

***
नवगीत:
रस्म की दीवार
करती कैद लेकिन
आस खिड़की
रूह कर आज़ाद देती
सोच का दरिया
भरोसे का किनारा
कोशिशी सूरज
न हिम्मत कभी हारा
उमीदें सूखी नदी में
नाव खेकर
हौसलों को हँस
नयी पतवार देती
हाथ पर मत हाथ
रखकर बैठना रे!
रात गहरी हो तो
सूरज लेखना रे!
कालिमा को लालिमा
करती विदा फिर
आस्मां को
परिंदा उपहार देती
***
नवगीत:
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?
सुबह उगने साँझ को
ढलता रहे
हरीतिमा की जयकथा
कहता रहे
दे सके औरों को कुछ ले कुछ नहीं
सिखाती है यही भू माता मही
कलुष पंकिल से उगाना है कमल
धार तब ही बह सकेगी हो विमल
मलिन वर्षा जल
विकारों सा बहे
शांत हों, मन में न
दावानल दहे
ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले
कहानी कुदरत की सुन,
अपनी कहे
स्वप्न बनकर नयन में
पलता रहे

***
नवगीत:
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
बीड़ी-गुटखा बहुत जरूरी
साग न खा सकता मजबूरी
पौआ पी सकता हूँ, लेकिन
दूध नहीं स्वीकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
कौन पकाए घर में खाना
पिज़्ज़ा-चाट-पकौड़े खाना
चटक-मटक बाजार चलूँ
पढ़ी-लिखी मैं नार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
रहें झींकते बुड्ढा-बुढ़िया
यही मुसीबत की हैं पुड़िया
कहते सादा खाना खाओ
रोके आ सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
हुआ कुपोषण दोष न मेरा
खुद कर दूँ चहुँ और अँधेरा
करे उजाला घर में आकर
दखल न दे सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
२१-११-२०१४
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शिशु गीत सलिला : १
*
१.श्री गणेश
श्री गणेश की बोलो जय,
पाठ पढ़ो होकर निर्भय।
अगर सफलता पाना है-
काम करो होकर तन्मय।।
*
२. सरस्वती
माँ सरस्वती देतीं ज्ञान,
ललित कलाओं की हैं खान।
जो जमकर अभ्यास करे-
वही सफल हो, पा वरदान।।
*
३. भगवान
सुन्दर लगते हैं भगवान,
सब करते उनका गुणगान।
जो करता जी भर मेहनत-
उसको देते हैं वरदान।।
*
४. देवी
देवी माँ जैसी लगती,
काम न लेकिन कुछ करती।
भोग लगा हम खा जाते-
कभी नहीं गुस्सा करती।।
*
५. धरती माता
धरती सबकी माता है,
सबका इससे नाता है।
जगकर सुबह प्रणाम करो-
फिर उठ बाकी काम करो।।
*
६. भारत माता
सजा शीश पर मुकुट हिमालय,
नदियाँ जिसकी करधन।
सागर चरण पखारे निश-दिन-
भारत माता पावन।
*
७. हिंदी माता
हिंदी भाषा माता है,
इससे सबका नाता है।
सरल, सहज मन भाती है-
जो पढ़ता मुस्काता है।।
*
८. गौ माता
देती दूध हमें गौ माता,
घास-फूस खाती है।
बछड़े बैल बनें हल खीचें
खेती हो पाती है।
गोबर से कीड़े मरते हैं,
मूत्र रोग हरता है,
अंग-अंग उपयोगी
आता काम नहीं फिकता है।
गौ माता को कर प्रणाम
सुख पाता है इंसान।
बन गोपाल चराते थे गौ
धरती पर भगवान।।
*
९. माँ -१
माँ ममता की मूरत है,
देवी जैसी सूरत है।
थपकी देती, गाती है,
हँसकर गले लगाती है।
लोरी रोज सुनाती है,
सबसे ज्यादा भाती है।।
*
१०. माँ -२
माँ हम सबको प्यार करे,
सब पर जान निसार करे।
माँ बिन घर सूना लगता-
हर पल सबका ध्यान धरे।।
२१-११-२०१२

***

गीत:

मत ठुकराओ

*

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

मेवा-मिष्ठानों ने तुमको

जब देखो तब ललचाया है.

सुख-सुविधाओं का हर सौदा-

मन को हरदम ही भाया है.

ऐश, खुशी, आराम मिले तो

तन नाकारा हो मरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

मेहनत-फाके जिसके साथी,

उसके सर पर कफन लाल है.

कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-

श्रम आयुध है, लगन ढाल है.

स्वेद-नर्मदा में अवगाहन

जो करता है वह तरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

खाद उगाती है हरियाली.

फसलें देती माटी काली.

स्याह निशा से, तप्त दिवस से-

ऊषा-संध्या पातीं लाली.

दिनकर हो या हो रजनीचर

रश्मि-ज्योत्सना बन झरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

***

***

नवगीत

पहले जी भर.....

*

पहले जी भर लूटा उसने,

फिर थोड़ा सा दान कर दिया.

जीवन भर अपमान किया पर

मरने पर सम्मान कर दिया.....

*

भूखे को संयम गाली है,

नंगे को ज्यों दीवाली है.

रानीजी ने फूँक झोपड़ी-

होली पर भूनी बाली है..

तोंदों ने कब क़र्ज़ चुकाया?

भूखों को नीलाम कर दिया??

*

कौन किसी का यहाँ सगा है?

नित नातों ने सदा ठगा है.

वादों की हो रही तिजारत-

हर रिश्ता निज स्वार्थ पगा है..

जिसने यह कटु सच बिसराया

उसका काम तमाम कर दिया...

*

जो जब सत्तासीन हुआ तब

'सलिल' स्वार्थ में लीन हुआ है.

धनी अधिक धन जोड़ रहा है-

निर्धन ज्यादा दीन हुआ है..

लोकतंत्र में लोभतंत्र ने

खोटा सिक्का खरा कर दिया...

२२-११-२०१०

***