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रविवार, 29 अगस्त 2021

श्री गणेश आवाहन : डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर'

श्री गणेश आवाहन :
डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर'
*
आये गजानन द्वार हमारे,मंगल कलश सजाओ/
मित्रो! वन्दनवार बनाओ /
बुद्धि निधान भक्त चित चन्दन
विघ्न विनाशन गिरिजा नंदन
द्वार खड़े सब करलो वंदन
पुष्प चढाय करो अभिनन्दन
घी के दीप जलाओ,मित्रो !सुमन माल ले आओ //
आये गजानन -----------//१//
मूसक वाहन अद्भुत भ्राजे
चतुर्भुजी भगवान विराजे
ऋद्धि सिद्धि दोउ सँग में राजे
झांझर , शंख बजाओ बाजे
मोदक,फल ले आओ ,मित्रो !आरति थार सजाओ /
आये गजानन -----------//२//
ये अंधों के नयन प्रदाता
बाँझन के हैं प्रभु सुत दाता
देव ,मनुज के बुद्धि विधाता
इन्हें प्रथम ही पूजा जाता
एक दन्त गुण गाओ,प्रभु को आसान पर ले आओ /
आये गजानन ------------//३//
जय लम्बोदर भव दुखहारी
हम सब हैं प्रभु शरण तुम्हारी
जय जय जय संतन हितकारी
सुनिए गणपति विनय हमारी
आसन पर आजाओ ,गणपति विमल छटा छिटकाओ /
आये गजानन -----------//४//
कर तन,मन,धन तुम्हें समपर्ण
पत्र , पुष्प , फल करके अर्पण
''मधुकर''जन गण करते अर्चन
प्रभु कीजै निर्मल अंतर्मन
कृपा दृष्टि बरसाओ ,मित्रो !सब मिल आरति गाओ /
आये गजानन ----------//५//

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दोहा छंद अनूप

दोहा छंद अनूप :
संजीव
जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है१। संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है। दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है२। दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है३। आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी४। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युग्परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा पला-बढ़ा और अनेक नामों से विभूषित हुआ।
दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद.
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद.
द्विपथा दोहयं दोहडा, द्विपदी दोहड़ नाम.
दुहे दोपदी दूहडा, दोहा ललित ललाम.
दोहा मुक्तक छंद है :
संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।
हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं।
इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..
हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.
दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भाषियउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारु.
८ वीं सदी के उत्तरार्ध में राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गये अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.
दोहा उतम काव्य है :
दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय.
राह दिखाता मनुज को, जब वह हो निरुपाय.
हिन्दी ही नहीं विश्व की समस्त भाषाओँ के इतिहास में केवल दोहा ही ऐसा छंद है जिसने युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, पराजित और बंदी राजा को अरि-मर्दन का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन भी करानेये। यह दोहे की अतिरेकी प्रशंसा नहीं, सच है। कुछ कालजयी दोहों से साक्षात कीजिये।
दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.
कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.
(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)
दोहा है इतिहास:
दसवीं सदी में पवन कवि द्वारा हरिवंश पुराण में कउवों के अंत में प्रयुक्त 'दत्ता' छंद दोहा ही है.
जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु.
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु.
११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि(अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है.
कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ.
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ
मुनि रामसिंह कृत 'पाहुड दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है । एक दोहा देखें-
वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु.
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु
दोहा उलटे सोरठा :
सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) को नतमस्तक प्रणाम करता दोहा अपने विषम-सम अर्धांश को आपस में बदलकर सोरठा हो गया । कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया । मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किये पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। दोहा गत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठा बनकर गा रहा है-
वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या.
दोहा घणां पुराणां छंद:
११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।
सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.
आतंकवा दी कुछ लोगों को बंदी बना लें तो संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की बंधक बना ली जाए तो भी आतंकवादी छोड़े जाते हैं। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए।
भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.
अर्थात - भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.
अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.
भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.
दोहा दिल का आइना:
दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य.
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य.
दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता से कहता है-
पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण.
अर्थात्
अवगुण कोई न चाहता, गुण की सबको चाह.
चम्पकवर्णी कुंवारी, कन्या देती दाह.
प्रियतम की बेव फाई पर प्रेमिका और दूती का मार्मिक संवाद दोहा ही कह सकता है-
सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु.
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु
यदि प्रिय घर आता नहीं. दूती क्यों नत मुख.
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख.
हर प्रियतम बेवफा नहीं होता. सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है. जिस विरहणी की अंगुलियाँ पीया के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही।
जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण.
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण.
जाते हुए प्रवास पर, प्रिय ने कहे जो दिन.
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन.
परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गए तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आए तो खुशी के कारण नींद गुम हो गयी।
पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब?
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव.
प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद.
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद.
मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है. सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है अथवा मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी?
रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु.
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू.
एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात.
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात.
इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा हेतु उकसाया। परीक्षण के समय कवि मित्र ने एक दोहा पढ़ा। दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम कर लक्ष्य पर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.
दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे. बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है-
श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय.
आल्हखंड बरण करत, आल्हा छंद बनाय.
इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है-
पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल.
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ.
चल पानी पिला:
हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं, आध्यात्म तथा प्रशासन में निष्णात अमीर खुसरो (संवत् १३१२-१३८२)एक दिन घूमते हुए दूर निकल गये, जोर से प्यास लगी.. गाँव के बाहर कुँए पर औरतों को पानी भरते देख खुसरो साहब ने उनसे पानी पिलाने की दरखास्त की। उनमें से एक ने कहा पानी तभी पिलायेंगी जब खुसरो उनके मन मुताबिक कविता सुनाएँ। खुसरो समझ गये कि जिन्हें वे भोली-भली देहातिनें समझ रहे थे वे ज़हीन-समझदार हैं और उन्हें पहचान चुकने पर उनकी झुंझलाहट का आनंद ले रही हैं। कोई और उपाय न देख खुसरो ने विषय पूछा तो बिना देर किये चारों ने एक-एक विषय दे दिया खीर... चरखा... कुत्ता... और ढोल... खुसरो की प्यास के मरे जान निकली जा रही थी, इन बेढब विषयों पर कविता करें तो क्या? पर खुसरो भी एक ही थे, अपनी मिसाल आप, सबसे छोटे छंद दोहा का दमन थमा और एक ही दोहे में चारों विषयों को समेटते हुए ताजा-ठंडा पानी पिया और चैन की सांस ली. खुसरो का वह दोहा है:
खीर पकाई जतन से,चरखा दिया चलाय
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय
ला पानी पिला
खुसरो पानी तो मिला ही, पहला दुमदार दोहा रचने का श्रेय भी मिला।
कवि को नम्र प्रणाम:
राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो में दोहा ने महाकवि चाँद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया-
भारत किय भुव लोक मंह, गणतीय लक्ष प्रमान.
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान.
बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है-
जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त.
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त.
खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार.
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार.
वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार.
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार.
गृहस्थ संत कबीर (सं. १४५५-१५७५) के लिये 'यह दुनिया माया की गठरी'थी। कबीर जुलाहा थे, जो कपड़ा बुनते उसे बेचकर परिवार पलता पर कबीर वह धन साधुओं पर खर्च कर कहते 'आना खाली हाथ है, जाना खाली हाथ'। उनकी पत्नी लोई नाराज होती पर कबीर तो कबीर... लोई ने पुत्र कमाल को कपड़ा बेचने भेजा, कमाल कपड़ा बेच पूरा धन घर ले आया, कबीर को पता चला तो नाराज हुए। दोहा ही कबीर की नाराजगी का माध्यम बना-
'बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल.
हरि का सुमिरन छोड़ के, भरि लै आया माल.
कबीर ने कमाल को भले ही नालायक माना पर लोई प्रसन्न हुई. पुत्र को समझाते हुए कबीर ने कहा-
चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय.
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय.
कमाल था तो कबीर का ही पुत्र, उसका अपना जीवन-दर्शन था। दो पीढियों में सोच का जो अंतर आज है वह तब भी था। कमाल ने कबीर को ऐसा उत्तर दिया कि कबीर भी निरुत्तर रह गये। यह उत्तर भी दोहे में हैं:
चलती चक्की देखकर, दिया कमाल ठिठोय
जो कीली से लग रहा, मार सका नहिं कोय
नीर गया मुल्तान:
सतसंगति की चाह में कबीर गुरुभाई रैदास के घर गये। रैदास कुटिया के बाहर चमड़ा पका रहे थे। कबीर को प्यास लगी तो रैदास ने चमड़ा पकाने की हंडी में से लोटा भर पानी दे दिया। कबीर को वह पानी पीने में हिचक हुई तो उन्होंने अँजुरी होंठ से न लगाकर ठुड्डी से लगायी, पानी मुँह में न जाकर कुर्ते की बाँह में चला गया। घर लौटकर कबीर ने कुरता बेटी कमाली को धोने के लिये दिया। कमाली ने कुर्ते की बाँह का का लाल रंग छूटने पर चूस-चूसकर छुड़ाया जिससे उसका गला लाल हो गया। कुछ दिनों बाद वह अपनी ससुराल चली गयी।
सद्गुरु रामानंद शिष्य कबीर के साथ पराविद्या (उड़ने की सिद्धि) से काबुल-पेशावर गये।बीच में कमाली का ससुराल आया तो मिलने पहुँच गये। कबीर यह देख चकित हुए पूर्व सूचना पहुँचने पर भी कमाली ने हाथ-मुँह धोने के लिये द्वार पर बाल्टी में पानी, अँगोछा लिये खड़ी थी। कमरे में २ बाजोट-गद्दी, २ लोटों में पीने के लिये पानी था। उनके बैठते ही कमाली गरम भोजन ले आयी मानो उसे पूर्व सूचना हो। कमाली से पूछा उसने बताया कि राँगा लगा अँगरखा से चूसकर रंग निकालने के बाद से उसे भावी का आभास हो जाता है। अब कबीर समझे कि रैदास बिना बताये कितनी बड़ी सिद्धि दे रहे थे।
लौटने के कुछ समय बाद कबीर फिर रैदास के पास गये। प्यास लगी तो पानी माँगा। रैदास ने स्वच्छ लोटे में लाकर जल दिया। कबीर बोले: पानी तो यहीं कुण्डी में भरा है, वही दे देते। रैदास ने दोहा कहा:
जब पाया पीया नहीं, मन में था अभिमान
अब पछताए होत क्या, नीर गया मुल्तान
कबीर ने भूल सुधारकर अहं से मुक्त हो अंतर्मन में छिपी प्रभु-प्रेम की कस्तूरी को पहचानकर कहा:
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढे वन माँहि
ऐसे घट-घट राम है, दुखिया देखे नाँहि
पिऊ देखन की आस
सूफी संतों ने दोहा को प्रगाढ़ आध्यात्मिक रंग दिया:
कागा करंग ढढ़ोलिया, सगल खाइया मासु
ए दुइ नैना मत छुहउ, पिऊ देखन की आस -बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५ई.)
प्रसिद्ध सूफ़ी संत शेख मोहिदी के शागिर्द, पद्मावत, अखरावट तथा आख़िरी कलाम रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी ने आज के भाषा विवाद के हल पारदर्शी दृष्टि से ५०० वर्ष पहले ही जानकर दोहा के माध्यम से कह दिया:
तुरकी अरबी हिंदवी, भाषा जेती आहि
जामें मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि
प्रेमपथ के पथिक नानक ने भी दोहा को गले से लगाये रखा:
इक दू जीभौ लख होहि, लख होवहि लख वीस
लखु-लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस - गुरु नानक (१५२६-१५९६)
सूरसागर, सूरसारावली तथा साहित्य लहरी रचयिता चक्षुहीन संत सूरदास (सं. १५३५-१६२०) ने दोहे को प्रगल्भता, रस परिपाक, नाद सौंदर्य आलंकारिकता, रमणीयता, लालित्य तथा स्वाभाविकता की सतरंगी किरणों से सार्थकता दी। सूर एक बार कुँए में पड़े, ६ दिन तक पड़े रहे। ७ दिन बाँकेबिहारी को पुकारा तो भक्तवत्सल भगवान ने आकर उन्हें बाहर निकाला। भगवन जाने लगे तो सूर की अंतर्व्यथा लेकर एक दोहा प्रगट हुआ जिसे सुन भगवान भी अवाक् रह गये:
बाँह छुड़ाकर जात हो, निबल जानि के मोहि
हिरदै से जब जाहिगौ, मरद बदूंगौ तोहि
दोहा आदि से अब तक संतों का प्रिय छंद है:
रोम-रोम में रमि रह्या, तू जनि जानै दूर
साध मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनंद मूर - दादूदयाल (सं. १६०१-१६६०)
बाजन जीवन अमर है, मोवा कह्यो न कोय
जो कोई मोवा कहे, वो ही सौदा होय - बाजन
उसका मुख इक जोत है, घूँघट है संसार
घूँघट में वो छिप गया, मुख पर आँचर डार - बुल्लेशाह
काला हंसा निर्मला, बसे समंदर तीर
पंख पसारे बकह हरे, निर्मल करे सरीर - शेख शर्फुद्दीन याहिया मनेरी
साबुन साजी साँच की, घर-घर प्रेम डुबोय
हाजी ऐसा धोइये, जन्म न मैला होय - हाजी अली
सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय - बू अली कलंदर
कागा सब तन खाइयो, चुन खइयो मास
दू नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस -केशवदास, नागमती
महाकवि तुलसी (सं.१५५४-१६८०) के जन्म, पत्नी रत्नावली द्वारा धिक्कार, श्रीराम-दर्शन, राम-कृष्ण अद्वैत, साकेतगमन तथा स्थान निर्धारण पर दोहा ही साथ निभा रहा था:
पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयौ सरीर
अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीत?
तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति
चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर
तुलसिदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर
कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ
तुलसी मस्तक तब नबै, धनुष-बाण लो हाथ
संवत सोरह सौ असी, असी गंग के तीर
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो सरीर
सूर सूर तुलसी ससी, उडगन केशवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास
सूर ने श्रीकृष्ण को ह्रदय से निकलने की चुनौती दी तो रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) ने तुलसी को, माध्यम इस बार भी दोहा ही बना:
जदपि गये घर सों निकरि, मो मन निकरे नाहिं
मन सों निकरौ ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं
देनहार कोई और है:
मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना (संवत १६१० - संवत १६८२) श्रृंगार बृज एवं अवधी से किया । प्रश्नोत्तरी दोहे उनका वैशिष्ट्य है -
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।
असि (अस्त्र)-मसि (कलम) को समान दक्षता से चलानेवाले अब्दुर्रहीम खानखाना (सं. १६१०-१६८२) अपने इष्टदेव श्री कृष्ण की तरह रणभेरी और वेणुवादन का आनंद उठाते थे। रहीम दानी थे। महाकवि गंग के एक छप्पय पर प्रसन्न होकर उन्होंने एक लाख रुपयों का ईनाम दे दिया था। रहीम को संपत्ति का घमंड नहीं था। उनकी नम्रता देख गंग कवि ने पूछा:
सीखे कहाँ नवाबजू, देनी ऐसी देन?
ज्यों-ज्यों कर ऊँचो करें, त्यों-त्यों नीचे नैन
रहीम ने तुरंत उत्तर दिया:
देनहार कोई और है, देत रहत दिन-रैन
लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन
उन्होंने दोहा को नट तरह कलाओं से संपन्न कहा:
देहा दीरघ अरथ के, आखर थोड़े आहिं
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमटि कूदि चढ़ि जाहिं
दोहा एक दोहाकार दो:
दोहा केवल दो पंक्तियों का छोटा सा छंद है. छंद को दो निपुण दोहाकारों ने पूर्ण किया।
तुलसी की कुटिया में एक दिन एक याचक आया। प्रणाम कर कहा कि बिटिया के हाथ पीले करने हैं, धन चाहिए। रमापति राम में मन रमाये तुलसी की कुटिया में रमा कैसे रहतीं? विप्र समझ गया कि इन तिलों में तेल नहीं है सो निवेदन किया कि बाबा एक कविता लिख दें, तो काम बन जायेगा। तुलसी ने पूछा कविता से बिटिया का ब्याह कैसे होगा? याचक ने बताया कि समीप ही मुग़ल सेना का पड़ाव है, सेनापति सवेरे श्रेष्ठ कविता लानेवाले को एक मुहर ईनाम देते हैं। याचक की चतुराई पर मन ही मन मुस्कुराते बाबा ने कागज़ पर एक पंक्ति घसीट कर दी और पीछा छुड़ाकर पूजन-पाठ में रम गये याचक ने मुग़ल सेनापति के शिविर की ओर दौड़ लगा दी। हाँफते हुए पहुँचा ही था कि सेनापति तशरीफ़ ले आये, उसकी घिघ्घी बँध गयी। किसी तरह हिम्मत कर सलाम किया और कागज़ बढ़ा दिया। सेनापति ने कागज़ लेते हुए उसे पैनी नज़र से देखा, पढ़ा और पूछा तुमने लिखा है? याचक ने सहमति में सर हिलाया तो सेनापति ने कड़ककर पूछा सच कहो नहीं तो सर कलम कर दिया जायेगा। मन मन ही मन बाबा को कोसते याचक ने सचाई बता दी। सेनापति हँस पड़े, कागज़ पर नीचे कुछ लिखा और बोले यह कागज़ बाबा को दे आओ तो तुम्हें दो मुहरें ईनाम में मिलेंगी। सेनापति थे अब्दुर्रहीम खानखाना । कागज़ पर था एक दोहा जिसकी पहली पंक्ति तुलसी ने लिखी थी दूसरी रहीम ने:
सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय
गोद लिये हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय
प्रीत करो मत कोय:
गिरिधर गोपाल की बावरी आराधिका मीरांबाई (१५०३ई.-१५४६ई.) के दोहे देश-काल की सीमा के परे व्याप्त हैं:
जो मैं ऐसा जाणती, प्रीत किये दुःख होय
नगर ढिंढोरा फेरती, प्रीत न कीज्यो कोय
दोहा रक्षक लाज का:
महाकवि केशवदास की शिष्या, ओरछा नरेश इंद्रजीत की प्रेयसी प्रवीण विदुषी-सुन्दरी थीं। नृत्य, गायन, काव्य लेखन तथा वाक् चातुर्य में उन जैसा कोई अन्य नहीं था। मुग़ल सम्राट अकबर को दरबारियों ने उकसाया कि ऐसा नारी रत्न बादशाह के दामन में होना चाहिए। अकबर ने ओरछा नरेश को संदेश भेजा कि राय प्रवीण को दरबार में हाज़िर करें।नरेश धर्म संकट में पड़े, प्रेयसी को भेजें तो आन-मान नष्ट होने के साथ राय प्रवीण की प्रतिष्ठा तथा सतीत्व खतरे में न भेजें तो शक्तिशाली मुग़ल सेना के आक्रमण का खतरा।राज्य बचायें या प्रतिष्ठा? राज्य को बचाने लिये अकबर के दरबार में महाकवि तथा राय प्रवीण उपस्थित हुए। अकबर ने महाकवि का सम्मान कर राय प्रवीण को तलब हरम में रहने को कहा। राय प्रवीण ने बादशाह को सलाम करते हुए एक दोहा कहा लौटने की अनुमति चाही। दोहा सुनते ही दरबार में सन्नाटा छा गया। बादशाह ने राय प्रवीण को न केवल सम्मान सहित वापिस जाने दिया अपितु कई बेशकीमती नजराने भी दिये। राय अस्मिता बचानेवाला दोहा है:
बिनत रायप्रवीन की, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भखत हैं, बारी बायस स्वान॥
दोहा साक्षी समय का:
मुग़ल सम्राट अकबर हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने के लिये बेक़रार रहता था।
गोंडवाना की महारानी दुर्गावती की सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी। महारानी का चतुर दीवान अधारसिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में काँटे की तरह गड़ रहे थे। अधारसिंग के कारण सुव्यवस्था तथा सफ़ेद हाथी कारण समृद्धि होने का बात सुन अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा-
अपनी सीमा राज की, अमल करो फरमान.
भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान.
मरता क्या न करता... रानी ने अधारसिंह को दिल्ली भेजा। दरबार में अधारसिंह ने सिंहासन खाली देख दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की।चमत्कृत अकबर ने अधार से पूछा कि उसने बादशाह को कैसे पहचाना? अधारसिंह ने नम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर न दिखने पर अन्य जानवर उस पर निगाह रखते हैं वैसे दरबारी उन पर नज़र रखे थे इससे अनुमान किया। अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और दरबार में रहने को कहा। अधारसिंहने चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली। अकबर ने अधारसिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया। दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है-
कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान?
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान?
इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान.
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान.
असाधारण बहादुरी से लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती देश पर शहीद हुईं। मुग़ल सेना ने राज्य लूटा, भागते हुए लोगों और औरतों तक को । महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया। जनगण ने अपनी लोकमाता दुर्गावती को श्रद्धांजलि देने के लिये समाधि के समीप सफ़ेद पत्थर एकत्र किये, जो भी वहाँ से गुजरता एक सफ़ेद कंकर समाधि पर चढा देता। स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय इस परंपरा का पालनकर आजादी के लिये संघर्ष का संकल्प लिया गया। दोहा आज भी दुर्गावती, अधार सिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है-
ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर.
हाथ जोर ठांड़े रहें, फरकन लगे बखौर.
अर्थात बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा से प्रेरित हो आपकी भुजाएँ फड़कने लगती हैं।
महाकवि गंग का अंतिम दोहा:
'तुलसी-गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार' प्रसिद्ध महाकवि गंग (सं. १५३८-१६१७) मुग़ल दरबारियों के षड्यंत्र के शिकार हुए, उन्हें क्षमायाचना का हुक्म मिला किन्तु स्वाभिमानी कवि स्वीकार नहीं हुआ. हाथी के पैर तले कुचलवाने का आदेश मिलने पर उन्होंने गज में गणेश-दर्शन कर कर बिदा ली:
कबहुँ न भडुआ रन चढ़ै, कबहुँ न बाजी बंब
सकल सभहिं प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग
माई एहणा पूत जन:
दुर्गावती के बाद अकबर की नज़र में चित्तौरगढ़ महाराणा प्रताप (१५४० ई.-१५९७ई.) खटकते रहे। प्रताप की मौत पर कवि पृथ्वीराज राठौड़ रचित दोहा अकबर को उसकी औकात बताने में नहीं चूका:
माई! एहणा पूत जण, जेहणा वीर प्रताप
अकबर सुतो ओझके, जाण सिराणे साँप
तानसेन के तान:
अकबर के नवरत्नों में से एक महान गायक तानसेन नमन करता दोहा की गुणग्राहकता देखिए:
विधना यह जिय जानिकै, शेषहिं दिये न कान
धरा-मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान
दोहा रोके युद्ध भी:
मुग़ल दरबारियों ने अकबर के साले और नवरत्नों में अग्रगण्य पराक्रमी मानसिंह को चुनौती दी कि उन्हें अपने बाहुबल पर भरोसा है तो श्रीलंका को जीतकर मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित कर दिखाएँ। मानसिंह से समक्ष इधर खाई उधर कुआँ, चारों तरफ धुआं ही धुआँ' की हालत पैदा हो गयी। दूर सेना ले जाकर, समुद्र पार युद्ध अति खर्चीला, सैनिक जाने को तैयार नहीं, जीत की सम्भावना नगण्य, बिना कारण युद्ध हेतु न जाएँ तो सम्मान गँवाएँ। ऐसी विषम परिस्थिति में राजगुरु द्वारा कहा गया निम्न दोहा संकटमोचन सिद्ध हुआ:
विप्र विभीषण जानी कै, रघुपति कीन्हों दान
दिया दान किमि लीजियो, महामहीपति मान
सूर्यवंशी मानसिंह अपने पूर्वज श्रीराम द्वारा बाद विप्र विभीषण को दाम में दी गयी लंका कैसे वापिस लें? दोहे ने युद्ध टालकर असंख्य जान-धन की हानि रोक दी।
मतिराम के अलंकारिक दोहा की रूप छटा मन मोहती है:
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ -अनुप्रास
सरद चंद की चाँदनी, को कहिए प्रतिकूल
सरद चंद की चाँदनी, कोक हिए प्रतिकूल -यमक
अजगर करे न चाकरी
सुखवादियों सिद्धांत सूफियों से बिलकुल उलट होने पर भी दोनों में दोहा-प्रेम समान है।रत्नखान और ज्ञानबोधकार मलूकदास (सं. १६३२-१७३९) ने डूबते शाही जहाज को पानी से निकालकर बचाया और रुपयों का तोड़ा उफनाती गंगा में तैराकर कड़ा से इलाहाबाद भेजा।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम
सुखवादियों को चड़वांक / चार्वाक कहकर लोक ने उन पर व्यंग्य किया। उसका वाहक दोहा ही हुआ:
परे पराई पौर में, बनी बनाई खाँय
रिन-धन कौ खटका नहीं, काए खें दुबराँय
दोहा आँखें खोलता:
जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह जब कमसिन नवोढ़ा रानी के रूपजाल में बँधकर कर्तव्य भूल बैठे तो राजगुरु महाकवि बिहारी (सं.१६६०-१७२०) ने मारक दोहा पढ़कर उन्हें दायित्व बोध कराया:
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल
अली कली ही सौं बँध्यो, आगे कौन हवाल?
महाराज एक दोहा सुनते और एक अशर्फी समर्पित करते। ऐसे ७०० दोहों से बिहारी की दोहा सतसई बनी। श्लेष, वक्रोक्ति, श्रृंगार की त्रिवेणी बिहारी के दोहों में सर्वत्र प्रवाहित है।
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलअत लजियात
भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सौं बात
मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने कुटिलतापूर्वक राजा जयसिंह को मु ग़ल सेना के साथ शिवजी से युद्ध का आदेश दिया। विजय हो तो श्रेय सेना को मिलता, पराजय का ठीकरा जयसिंह फोड़ा जाता। एक बार फिर महाकवि बिहारी ने दोहा को हथियार बनाया और जयसिंह को आत्मघाती युद्ध पर जाने से रोका:
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा, देख विहंग विचार
बाज पराये पानि पर, तू पंछीन न मार
दोहा रसनिधि अमर है:
ठाकुर पृथ्वीसिंह 'रसनिधि' (सं. १६६०-१७१७) ने सतसई हजारा तक पहुँचाया।रसनिधि का वैशिष्ट्य परिमार्जित बृज भाषा में फारसी के तत्सम शब्दों का प्रयोग, तथा प्रसाद गुण प्रधान शैली है:
हिन्दू मैं क्या और है, मुसलमान मैं और?
साहिब सबका एक है, व्याप रहा सब ठौर.
लोक-प्राण दोहा बसे:
दोहा विद्वज्जनों और जनसामान्य दोनों के कंठ में वास करता है। वृंद (१६४३ई.-१७२३ई.) रचकर जनमानस को आत्मानुशासन का पाठ पढ़ाया। उनके दोहे कहावत बनकर अमर हो गये:
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौरि
तेते पाँव पसारिये, जेती लाम्बी सौरि
मतिराम (सं.१६७४-१७४५) के अलंकारिक दोहों की रूप छटा मन मोहती है:
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ -अनुप्रास
सरद चंद की चाँदनी, को कहिए प्रतिकूल
सरद चंद की चाँदनी, कोक हिए प्रतिकूल -यमक
धीरे-धीरे रे मना:
बुंदेलखंड में संतों ने दोहा की नर्मदा को सतत प्रवहमान बनाये रखा. विस्मय है कि आज साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता और भाषिक मतभेद के जिन विवादों से राष्ट्रीय एकता संकट है, उनके समाधान संतों ने सुझाये हैं। महामति प्राणनाथ (१६५८-१७०४ ई.) ने औरंगज़ेब की दमनकारी नीतियों का विरोधकर राष्ट्रीय गौरव के पर्याय छत्रसाल को समर्थन और सर्व धर्म समभाव का उपदेश दोहा माध्यम से दिया:
बाम्हन कहे हमहि उत्तम, यवन कहे हम पाक
दोउ मिट्टी इक ठौर की, एक राख इक खाक
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय
छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय
जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय
छत्रसाल औरंगजेबी दमन विरुद्ध जननायक तरह लोकप्रिय हुए
चौंकि-चौंकि सब दिस उठै, सूबा खान सुभान
अब धौं धावै कौन पर, छत्रसाल बलवान
छत्रसाल खुद भी निपुण दोहाकार थे:
निज स्वारथ सौं पाप नहिं, परस्वारथ सौं पुन्न
दिए इकाई सुन्न ज्यों, हो छत्ता दसगुन्न
छत्रसाल (१६८८-१७३१ ई.) की वृद्धावस्था में पर मुग़ल सिपहसालार मुहम्मद खां बंगश ने भारी भरकम लाव लश्कर के साथ हमला कर दिया। डूबते को तिनके का सहारा, काम आया दोहा जो छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को लिख भेजा:
जो बीती गजराज पे, सो बीती अब आय
बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज
दोहा ने पेशवा का मर्म छुआ, उनकी ताकतवर फ़ौज ने बंगश की मुग़ल फ़ौज को धूल चटा दी।
प्राणनाथ के शिष्य देवचंद कायस्थ दोहा को धार्मिक सहिष्णुता का संदेशवाहक बनाया:
ए जो मोहरे खेल के, धरते भेख विवाद
एक भान पूजा धरें, कहते होत सबाब
महाकवि देव (सं. १७३०-१८३२) ने प्रेम के संयोग पक्ष तथा मानवर्णन को सांगीतिक उल्लास सहित दोहों का कथ्य बनाया। प्रथमतः शब्द शक्तियों पर दोहे कहे:
अमिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन
अधम व्यंजना रस बिरस, उल्टी कहत नवीन
प्रतापगढ़ निवासी भिखारीदास श्रीवास्तव (सं. ) श्रीवास्तव ने नायिका वर्णन कर दोहा को समृद्ध किया:
श्रीमानन के भौन में, भोग्य भामिनि और
तिनहूँ को सुकियाह में, गनें सुकवि सिरमौर
घनानंद कायस्थ (सं. १७४६-१७४६) के काव्य में शुद्धता,लाक्षणिक वक्रता, शैल्पिक सौष्ठव तथा माधुर्य अन्तर्निहित है:
मो से अनपहचान को, पहचाने हरि कौन?
कृपा कान मद नैन ज्यों, त्यों पुकार मति मौन
गिरधर कविराय (सं.१७७०- ) ने दोहा को कुंडलियों का शीश मुकुट बनाया:
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय
सैयद नबी बिलग्रामी "रसलीन"(सं. १७७१-१८३२) ने दोहों को रचना चातुर्य, उक्ति वैचित्र्य तथा चमत्कारिकता से समृद्ध किया:
अमिय हलाहल मदभरे, स्वेत-स्याम रतनार
जियत मरत झुक-झुक परत, जेहि चितवत इक बार
रीतिकालीन दोहाकारों की मणिमाला के अप्रतिम रत्न पद्माकर (सं. १८१०- १८९०) मधुर कल्पना को रस, भाव तथा अलंकार की त्रिवेणी से अलंकृत कर दोहा रचते रहे:
मनमोहन तन सघन घन, रमन राधिका मोर
श्री राधा मुखचंद को, गोकुल चंद चकोर
दोहा देता दिल मिला...
सिद्धहस्त दोहाकार आलम (जन्म से ब्राम्हण) दोहे का पहला पद लिखने के बाद पूरा सके तो संकल्प किया जो दोहा पूरा करेगा उसकी एक इच्छा पूरी करेंगे। वे दोहे की पर्ची पगड़ी में खोंसकर सो गये। शेख नामक रंगरेजिन धोने के लिये ले गयी, अधूरा दोहा पढ़ा, पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगड़ी में रख कर दे आयी। कुछ दिन बाद आलम को अधूरे दोहे की याद आयी। पगडी धुली देखी तो सिर पीट लिया कि दोहा तो गया, खोजा तो न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा था। चिंता हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपने संकल्प के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी। आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया। शेख ने दोहा पूरा करना कुबूल किया, वह आलम को चाहती थी। मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान... शेख कोई दूसरी इच्छा बताने को राजी न हुई, न आलम अपनी बात से पीछे हटाने को। आलम ने मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली। दो दिलों को जोड़नेवाला वह अमर दोहा है -
कनक छड़ी सी कामिनी, काहे को कटि छीन? -आलम
कटि को कंचन काढ़ विधि, कुचन माँहि धरि दीन -शेख
राधापति हिय मैं धरौं:
अनेक कवियों के आश्रयदाता चरखारी नरेश विक्रम सिंह (१८३९-१८८६) के दोहे हृदयग्राही हैं:
राधापति हिय मैं धरौं, राधपति मुख-बैन
राधापति नैनन लहौं, राधापति सुखदैन
पंकज के धोखे मधुप, कियो केतकी संग
अंध भयो कंटक बिधौ, भयो मनोरथ भंग राम सतसई, वाणीभूषण, वृत्त तरंगिणी आदि ग्रंथों के रचयिता रामसहाय अष्ठाना 'राम' ( रचनाकाल १८६०-१८८०) दोहे भाषिक सौष्ठव, मनोरम व्यञ्जनाविधान तथा वाग्वैदग्धता के लिये उल्लेख्य हैं:
हरितन हरितन कत तकै, हरितन हरित निहारि
चरित न तो तन लखि परै, कित चित हित न बिसारि
अहे कहो कच सुमुखि के, बिधि बिरचे रूचि जोरि
छूटे बाँधत हैं बँधे, लेत ललन मन छोरि
बुंदेली के महाकवि ईसुरी (सं.१८९५-१९६६) श्रृंगार और आध्यात्मजड़ित दोहे और फागें रचकर अमर हैं:
आसमान में गरजना, कीको आय सुनाय
रिमझिम बरसत नीर है, बिजुरी खों चमकाय
लोकगीत राई ने दोहे को दिल में बसा रखा है:
बजाई आधी रात, बैरन मुरलिया सौत भई
पोर-पोर सब तन कटे, हरे न औगुन तोर
हरे बाँस की बाँसुरी, लै गई चित्त बटोर
बैरन मुरलिया तू सौत भई.…
विरह व्यथा का ह्रदय विदारक वर्णन हो या घोर श्रृंगार, ईश वंदना से ही गायन आरंभ होता है:
गिरिजसुत को सुमिरै कैं, धर सुरसती को ध्यान
आदिशक्ति जगजननि जू, कण्ठ बिराजो आन
आधुनिक हिंदीभवन के नींव के पत्थर भारतेंदु हरिश्चंद्र रचित दोहा नेता कंठस्थ कर सके होते हिंदी की दुर्दशा का कारण न बनते:
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल
रीतिकालीन दोहायुग की कीर्ति पताका थामकर गिरिधर दास ( गोपालचन्द्र सं. १८९०-१९१७) मात्र २७ वर्ष की आयु में ४० ग्रंथ रचकर हिंदी को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने पुत्र भारतेंदु हरिश्चंद्र के माध्यम से नव संस्कार भी किया:
सिंधु जनित गर हर पियो, मरे असुर समुदाय
नैन बान नैनन लग्यो, भरे करेजे धाय
निज भाषा उन्नति अहै:
प्राण-प्रण से हिंदी हेतु समर्पित भारतेंदु हरिश्चंद्र (१८५०-१८८५ई.) ने दोहा के साथ अन्य विधाओं को भी समृद्ध किया:
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल
महाप्राण निराला जी (१८९६-१९६१ ई.) महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। असत्य, भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। उनके प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव के दोहा संकलन का विमोचन समारोह था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते॰खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कहा, निराला जी चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खडे होकर बडी॰बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया। वह दोहा है:
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
दोहा लगभग २००० वर्ष की यात्रा कर वर्तमान आधुनिक हिंदी के द्वार पर आ खड़ा हुआ। छंदहीनता के पक्षधर तथाकथित प्रगतिशील तत्वों की चुनौती झेलकर दोहा को नवस्फूर्ति के साथ सामायिक और प्रासंगिक बनाये रखने में अनेक समर्थ कलमों के योगदान पर चर्चा फिर कभी। नव पीढ़ी में हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित भाषा को ग्रहण करता दोहा नव प्रतीकों, बिम्बो, उपमानों से खुद को समृद्ध कर संजीवनी पा रहा है:
पल भर भी लगता नहीं, सपने हों अपलोड
निकल गयी सब ज़िंदगी, हुए न डाउनलोड
रैम-रॉम के फेर में, मॉनीटर संसार
कुछ भूले कुछ याद रख, कर दे बड़ा पार
हिंग्लिश की खिचड़ी पकी, वैलेंटाइन नाम
भूल वसन्तोसव रहे, साध्य न मन, है चाम
***
संदर्भ:१. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४, २. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७, ३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे, ४. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०.

द्विपदी सलिला

द्विपदी सलिला:
इस आभासी जग में :
संजीव
*
इस आभासी जग में सचमुच, कोई न पहरेदार
शिक्षित-बुद्धिमान हमलावर, देते कष्ट हजार
*
जिनसे जानते हैं जीवन में, उन्हें बनायें मित्र
'सलिल' सुरक्षित आप रहेंगे, मलिन न होगा चित्र
*
भली-भाँति कर जाँच- बाद में, भले मित्र लें जोड़
संख्या अधिक बढ़ाने की प्रिय!, कभी न करिए होड़
*
नकली खाते बना-बनाकर, छलिए ठगते मीत
प्रोफाइल लें जाँच, यही है, सीधी-सच्ची रीत
*
पढ़ें पोस्ट खाताधारी की, कितनी-कैसे लेख
लेखक मन की देख सकेंगे, रचनाओं में रेख
*
नकली चित्र लगाते हैं जो, उनसे रहिए दूर
छल करना ही उनकी फितरत, रही सजग जरूर
*
खाताधारक के मित्रों को देखें, चुप सायास
वस्त्र-भाव मुद्राओं से भी, होता कुछ आभास
*
देह-दर्शनी मोहकतामय, व्याल-जाल जंजाल
दिखें सोचिए इनके पीछे, कैसा है कंकाल?
*
संचित चित्रों-सामग्री को, देख करें अनुमान
जुड़ें-ना जुड़ें आप सकेंगे, उनका सच पहचान
*
शिक्षा, स्वजन, जीविका पर भी, तनिक दीजिए ध्यान
चिंतन धरा से भी होता, चिन्तक का अनुमान
*
नेता अभिनेता फूलों या, प्रभु के चिपका चित्र
जो परदे में छिपे- न उसका, विश्वसनीय चरित्र
*
स्वजनों के प्रोफाइल देखें, सच्चे या अनमेल?
गलत जानकारी देकर, कर सके न कोई खेल
*
शब्द और भाषा भी करते, गुपचुप कुछ संकेत
देवमूर्ति से तन में मन का, स्वामी कहीं न प्रेत
*
आक्रामक-अपशब्दों का जो, करते 'सलिल' प्रयोग
दूर रहें ऐसे लोगों से- हैं समाज के रोग
*
पासवर्ड हो गुप्त- बदलते रहिए बारम्बार
जान न पाए अन्य, सावधानी की है दरकार
२९-८-२०१३
*

संवाद कथा

संवाद कथा
अनदेखी
संजीव
*
'आजकल कुछ परेशान दिख रहे हैं, क्या बात है?' मैंने मित्र से पूछा.
''क्या बताऊँ? कुछ दिनों से पोत विद्यालय जाने से मना करता है."
'क्यों?'
"कहता है रास्ते में कुछ बदतमीज बच्चे गाली-गलौज करते हैं. इससे उसे भय लगता है.''
'अच्छा, मैं कल उससे बात करूँगा, शायद उसकी समस्या सुलझ सके.'
अगले दिन मैं मित्र और उसके पोते के साथ स्थानीय भँवरताल उद्यान गया. मार्ग में एक हाथी जा रहा था जिसके पीछे कुछ कुत्ते भौंक रहे थे.
'क्यों बेटे? क्या देख रहे हो?'
बाबा जी! हाथी के पीछे कुत्ते भौंक रहे हैं.
'हाथी कितने हैं?'
बाबाजी ! एक.
'और कुत्ते?'
कई
'अच्छा, हाथी क्या कर रहा है?'
कुत्तों की ओर बिना देखे अपने रास्ते जा रहा है.
हम उद्यान पहुँच गए तो ओशो वृक्ष के नीचे जा बैठे. बच्चे से मैंने पूछा: ' इस वृक्ष के बारे में कुछ जानते हो?'
जी, बाबा जी! इसके नीचे आचार्य रजनीश को ज्ञान प्राप्त हुआ था जिसके बाद उन्हें ओशो कहा गया.
मैंने बच्चे को बताया कि किस प्रकार ओशो को पहले स्थानीय विरोध और बाद में अमरीकी सरकार का विरोध झेलना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपनी राह नहीं बदली और अंत में महान चिन्तक के रूप में इतिहास में अमर हुए.
वापिस लौटते हुई मैंने बच्चे से पूछा: 'बेटे! यदि हाथी या ओशो राह रोकनेवालों पर ध्यान देकर रुक जाते तो क्या अपनी मंजिल पा लेते?'
नहीं बाबा जी! कोई कितना भी रास्ता रोके, मंजिल आगे बढ़ने से ही मिलती है.
''यार! आज तो गज़ब हो गया, पोटा अपने आप विद्यालय जाने को तैयार हो गया. कुछ देर बाद उसके पीछे-पीछे मैं भी गया लेकिन वह रास्ते में भौकते कुत्तों से न डरा, न उन पर ध्यान दिया, सीधे विद्यालय जाकर ही रुका.'' मित्र ने प्रसन्नता से बताया.
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अन्ना आन्दोलन

आकलन:अन्ना आन्दोलन
भारतीय लोकतंत्र की समस्या और समाधान:
संजीव 'सलिल'
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अब जब अन्ना का आन्दोलन थम गया है, उनके प्राणों पर से संकट टल गया है यह समय समस्या को सही-सही पहचानने और उसका निदान खोजने का है.

सोचिये हमारा लक्ष्य जनतंत्र, प्रजातंत्र या लोकतंत्र था किन्तु हम सत्तातंत्र, दलतंत्र और प्रशासन तंत्र में उलझकर मूल लक्ष्य से दूर नहीं हो गये हैं क्या? यदि हाँ तो समस्या का निदान आमूल-चूल परिवर्तन ही है. कैंसर का उपचार घाव पर पट्टी लपेटने से नहीं होगा.

मेरा नम्र निवेदन है कि अन्ना भ्रष्टाचार की पहचान और निदान दोनों गलत दिशा में कर रहे हैं. देश की दुर्दशा के जिम्मेदार और सुख-सुविधा-अधिकारों के भोक्ता आई.ए.एस., आई.पी.एस. ही अन्ना के साथ हैं. न्यायपालिका भी सुख-सुविधा और अधिकारों के व्यामोह में राह भटक रही है. वकील न्याय दिलाने का माध्यम नहीं दलाल की भूमिका में है. अधिकारों का केन्द्रीकरण इन्हीं में है. नेता तो बदलता है किन्तु प्रशासनिक अधिकारी सेवाकाल में ही नहीं, सेवा निवृत्ति पर्यंत ऐश करता है.

सबसे पहला कदम इन अधिकारियों और सांसदों के वेतन, भत्ते, सुविधाएँ और अधिकार कम करना हो तभी राहत होगी.

जन प्रतिनिधियों को स्वतंत्रता के तत्काल बाद की तरह जेब से धन खर्च कर राजनीति करना पड़े तो सिर्फ सही लोग शेष रहेंगे.

चुनाव दलगत न हों तो चंदा देने की जरूरत ही न होगी. कोई उम्मीदवार ही न हो, न कोई दल हो. ऐसी स्थिति में चुनाव प्रचार या प्रलोभन की जरूरत न होगी. अधिकृत मतपत्र केवल कोरा कागज़ हो जिस पर मतदाता अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम लिख दे और मतपेटी में डाल दे. उम्मीदवार, दल, प्रचार न होने से मतदान केन्द्रों पर लूटपाट न होगी. कोई अपराधी चुनाव न लड़ सकेगा. कौन मतदाता किस का नाम लिखेगा कोई जन नहीं सकेगा. हो सकता है हजारों व्यक्तियों के नाम आयें. इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. सब मतपत्रों की गणना कर सर्वाधिक मत पानेवाले को विजेता घोषित किया जाए. इससे चुनाव खर्च नगण्य होगा. कोई प्रचार नहीं होगा, न धनवान मतदान को प्रभावित कर सकेंगे.

चुने गये जन प्रतिनिधियों के जीवन काल का विवरण सभी प्रतिनिधियों को दिया जाए, वे इसी प्रकार अपने बीच में से मंत्री चुन लें. सदन में न सत्ता पक्ष होगा न विपक्ष, इनके स्थान पर कार्य कार्यकारी पक्ष और समर्थक पक्ष होंगे जो दलीय सिद्धांतों के स्थान पर राष्ट्रीय और मानवीय हित को ध्यान में रखकर नीति बनायेंगे और क्रियान्वित कराएँगे.

इसके लिये संविधान में संशोधन करना होगा. यह सब समस्याओं को मिटा देगा. हमारी असली समस्या दलतंत्र है जिसके कारण विपक्ष सत्ता पक्ष की सही नीति का भी विरोध करता है और सत्ता पक्ष विपक्ष की सही बात को भी नहीं मानता.

भारत के संविधान में अल्प अवधि में दुनिया के किसी भी देश और संविधान की तुलना में सर्वाधिक संशोधन हो चुके हैं, तो एक और संशिधन करने में कोई कठिनाई नहीं है. नेता इसका विरोध करेंगे क्योकि उनके विशेषाधिकार समाप्त हो जायेंगे किन्तु जनमत का दबाब उन्हें स्वीकारने पर बाध्य कर सकता है.

ऐसी जन-सरकार बनने पर कानूनों को कम करने की शुरुआत हो. हमारी मूल समस्या कानून न होना नहीं कानून न मानना है. राजनीति शास्त्र में 'लेसीज़ फेयर' सिद्धांत के अनुसार सर्वोत्तम सरकार न्यूनतम शासन करती है क्योंकि लोग आत्मानुशासित होते हैं. भारत में इतने कानून हैं कि कोई नहीं जनता, हर पाल आप किसी न किसी कानून का जाने-अनजाने उल्लंघन कर रहे होते हैं. इससे कानून के अवहेलना की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गयी है. इसका निदान केवल अत्यावश्यक कानून रखना, लोगों को आत्म विवेक के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता देना तथा क्षतिपूर्ति अधिनियम (law of tort) को लागू करना है.

शनिवार, 28 अगस्त 2021

कुंडलिया कार्यशाला

कुंडलिया कार्यशाला
बिगडे़ जग के हाल पर, मत चुप रहिए आप।
इंतज़ार में देखिए, शब्द खड़े चुपचाप।।
तारकेश्वरी 'सुधि'
शब्द खड़े चुपचाप, मुखर करिए रचनाकर।
सच कह बनें कबीर, निबल सुधि ले कर आखर।।
स्नेह सलिल दे तृप्ति, मिटाकर सारे झगड़े।
मरुथल मधुवन बने, परिस्थिति अधिक न बिगड़े।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
***
२८-८-२०१९

दोहा सलिला कर माहात्म्य

दोहा सलिला
कर माहात्म्य
*
कर ने कर की नाक में, दम कर छोड़ा साथ
कर ने कर के शीश पर, तुरत रख दिया हाथ
*
कर ने कर से माँग की, पूरी कर दो माँग
कर ने उठकर झट भरी, कर की सूनी माँग
*
कर न आय पर दिया है, कर देकर हो मुक्त
कर न आय दे पर करे, कर कर से संयुक्त
*
कर ने कर के कर गहे, कहा न कर वह बात
कर ने कर बात सुन, करी अनसुनी- घात
*
कर कइयों के साथ जा, कर ले आया साथ
कर आकर सब कुछ हुई, कर हो गया अनाथ
*
दरवाजे पर थाप कर, जमा लिए निज पाँव
कर ने कर समझ नहीं, हार गया हर दाँव
*
कार छीन कर ने किया, कर को जब बेकार
बेबस कर बस से गया, करि हार स्वीकार
२८-८-२०१६
*

पुरोवाक हरि फ़ैज़ाबादी

पुरोवाक-
जीवनमूल्यों से समृद्ध 'हरि - दोहावली '
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'। हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। सार यह कि दोहा मुक्तक छंद है।
घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं। मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है ।
पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय या द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय या त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय या चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय या षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है।
छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है। जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। दोहा (विषम चरण १३ मात्रा, सम चरण ११ मात्रा) प्रमुख अर्ध सम मात्रिक छंद है। लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हैं ।
दोहा छंदों का राजा है। मानव जीवन को जितना प्रभावित दोहा ने किया उतना किसी भाषा के किसी छंद ने कहीं-कभी नहीं किया। दोहा छंद लिखना बहुत सरल और बहुत कठिन है। केवल दो पंक्तियाँ लिखना दूर से आसान प्रतीत होता है किन्तु जैसे-जैसे निकटता बढ़ती है दोहे की बारीकियाँ समझ में आती हैं, मन दोहे में रमता जाता है। धीरे-धीरे दोहा आपका मित्र बन जाता है और तब दोहा लिखना नहीं पड़ता वह आपके जिव्हाग्र पर या मस्तिष्क में आपके साथ आँख मिचौली खेलता प्रतीत होता है। दोहा आपको आजमाता भी है. 'सजगता हटी, दुर्घटना घटी' यह उक्ति दोहा-सृजन के सन्दर्भ में सौ टंच खरी है।
दोहा का कथ्य सामान्यता में विशेषता लिये होता है। दोहे की एक अर्धाली (चरण) पर विद्वज्जन घंटों व्याख्यान या प्रवचन करते हैं। दोहा गागर में सागर, बिंदु में सिन्धु या कंकर में शंकर की तरह कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी बात कहता है। 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' तथा प्रभुता से लघुता भली' में दोहा के लक्षण वर्णित है।
दोहा के कथ्य के ३ गुण १. लाक्षणिकता, २. संक्षिप्तता तथा ३. बेधकता या मार्मिकता हैं।
१. लाक्षणिकता: दोहा विस्तार में नहीं जाता इंगित से संकेत कर अपनी बात कहता है। 'नैनन ही सौं बात' अर्थात बिना कुछ बोले आँखों के संकेत से बोलने का लक्षण ही दोहे की लाक्षणिकता है। जो कहना है उसके लक्षण का संकेत ही पर्याप्त होता है।
२. संक्षिप्तता: दोहा में गीत या गजल की तरह अनेक पंक्तियों का भंडार नहीं होता किन्तु वह व्रहदाकारिक रचनाओं का सार दो पंक्तियों में ही अभिव्यक्त कर पाता है। अतीत में जब पत्र लिखे जाते थे तो समयाभाव तथा अभिव्यक्ति में संकोच के कारण प्रायः ग्राम्य वधुएँ कुछ वाक्य लिखकर 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर अपनी विरह-व्यथा का संकेत कर देती थीं. दोहा संक्षिप्तता की इसी परंपरा का वाहक है।
३. बेधकता या मार्मिकता: दोहा बात को इस तरह कहता है कि वह दिल को छू जाए। मर्म की बात कहना दोहा का वैशिष्ट्य है।
दोहा दुनिया में अपना संकलन लेकर पधार रहे श्री हरि प्रकाश श्रीवास्तव 'हरि' फ़ैज़ाबादी रचित प्रस्तुत दोहा संकलन तरलता, सरलता, सहजता तथा बोधगम्यता के चार स्तंभों पर आधृत है। पारंपरिक आस्था-विश्वास की विरासत पर अभिव्यक्ति का प्रासाद निर्मित करते दोहाकार सम-सामयिक परिवर्तनों और परिस्थितियों के प्रति भी सजग रह सके हैं।
देखो तुम इतिहास में, चाहे धर्म अनेक।
चारों युग हर काल में, सत्य मिलेगा एक।।
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लन्दन पेरिस टोकियो, दिल्ली या बगदाद।
खतरा है सबके लिए, आतंकी उन्माद।।
राम-श्याम की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त अवध-ब्रज अंचल की भाषा हरि जी के मन-प्राण में समायी है। वे संस्कृतनिष्ठ, हिंदी, देशज, उर्दू तथा आंग्ल शब्द पूर्ण सहजता के साथ प्रयोग में लाते हैं। ज्योतिर्मय, जगजननी, बुद्धि विनायक, कृपानिधान, वृद्धाश्रम, चमत्कार, नश्वर, वृक्ष, व्योम, आकर्षण, पाषाण, ख्याति, जीवन, लज्जा, अनायास, बचपना, बुढ़ापा, सुवन, धनुही, दिनी, बेहद, रूहानी, अंदाज़, आवाज़, रफ्तार, ख़िलाफ़, ज़बान, लब, तक़दीर, पिज़्ज़ा, बर्जर, पेस्ट्री, हॉट, डॉग, पैटीज़, सी सी टी व्ही, कैमरा आदि शब्द पंक्ति-पंक्ति में गलबहियाँ डाले हुए, भाषिक समन्वय की साक्ष्य दे रहे हैं।
शब्द-युग्म का सटीक प्रयोग इस संग्रह का वैशिष्ट्य है। ये शब्द युग्म ८ प्रकार के हैं। प्रथम जिनमें एक ही शब्द की पुनरावृत्ति अपने मूल अर्थ में है, जैसे युगों-युगों, कण-कण, वक़्त-वक़्त, राधे-राधे आदि। द्वितीय जिनमें दो भिन्नार्थी शब्द संयुक्त होकर अपने-अपने अर्थ में प्रयुक्त होते हैं यथा अजर-अमर, सुख-दुःख, सीता-राम, माँ-बाप, मन्दिर-मस्ज़िद, दिल-दिमाग, भूत-प्रेत, तीर-कमान, प्रसिद्धि-सम्मान, धन-प्रसिद्धि, ऐश-आराम, सुख-सुविधा आदि। तृतीय जिनमें दो शब्द संयुक्त होकर भिन्नार्थ की प्रतीति कराते हैं उदाहरण राम-रसायन, पवन पुत्र, खून-पसीने, सुबहो-शाम, आदि। चतुर्थ सवाल-जवाब, रीति -रिवाज़, हरा-भरा आदि जिनमें दोनों शब्द मूलार्थ में संयुक्त मात्र होते हैं। पंचम जिनमें दो समानार्थी शब्द संयुक्त हैं जैसे शादी-ब्याह आदि। षष्ठम जिनमें प्रयुक्त दो शब्दों में से एक निरर्थक है यथा देर-सवेर में सवेर। सप्तम एक शब्द का दो बार प्रयोग कर तीसरे अर्थ का आशय जैसे जन-जन का अर्थ हर एक जन होना, रोम-रोम का अर्थ समस्त रोम होना, हम-तुम आशय समस्त सामान्य जान होना आदि। अष्टम जिनमें तीन शब्दों का युग्म प्रयुक्त है देखें ब्रम्हा-विष्णु-महेश, राम चरित मानस, कर्म-वचन-मन, पिज़्ज़ा-बर्जर-पेस्ट्री, लन्दन-पेरिस-टोकियो आदि। शब्द-युग्मों का प्रयोग दोहों की रोचकता में वृद्धि करता है।
समासों का यथावसर उपयोग दोहों की पठनीयता और अर्थवत्ता में वृद्धि करता है। कायस्थ, चित्रगुप्त, बुद्धि विनायक, जगजननी, कृपानिधान, दीनानाथ, अवधनरेश, द्वारिकाधीश, पवनपुत्र, राजनीति, रामभक्त जैसे सामासिक शब्दों का सम्यक प्रयोग दोहों को अर्थवत्ता देता है।
हरी जी मुहावरोंऔर लोकोक्तियों का प्रयोग करने से भी नहीं चूके हैं। उदाहरण-
राजनीति भी हो गयी, अब बच्चों का खेल।
पलकें झगड़ा-दुश्मनी, पल में यारी-मेल।।
कल दिन तेरे साथ था, आज हमारी रात।
किसी ने है यही, वक़्त-वक़्त की बात।।
नीति के दोहे रचकर वृन्द, रहीम, कबीर आदि कालजयी हैं, इनसे प्रेरित हरि जी ने भी अपने नीति के दोहे संग्रह में सम्मिलित किये हैं। दोहों में निहित कुछ विशेषताएं इंगित करना पर्याप्त होगा-
प्रेम वफ़ा इज्जत दगा, जो भी देंगे आप।
लौटेगा बनकर वही, वर या फिर अभिशाप।। -जीवन मूल्य
कण-कण में श्री राम हैं, रोम-रोम में राम।
घट-घट उनका वास है, मन-मन में है धाम।। -प्रभु महिमा, अनुप्रास अलंकार, पुनरावृत्ति अलंकार
चित्रगुप्त भवन को, शत-शत बार प्रणाम।
उनसे ही जग में हुआ, कायस्थों का नाम।। -ईश स्मरण, पुनरावृत्ति अलंकार
इच्छा फिर से हो रही, होने की नादान।
काश मिले बचपन हमें, फिर वो मस्त जहान।। -मनोकामना
जितना बढ़ता जा रहा, जनसंख्या का रोग।
तनहा होते जा रहे, उतने ही अब लोग।। - सामयिक सत्य, विरोधाभास अलंकार
भाता है दिल को तभी, आल्हा सोहर फाग।
घर में जब चूल्हा जले, बुझे पेट की आग ।। - सनातन सत्य, मुहावरा
कहाँ लिखा है चीखिये, करिये शोर फ़िज़ूल।
गूँगों की करता नहीं, क्या वो दुआ क़ुबूल।। - पाखंड विरोध
पैरों की जूती रही, बहुत सहा अपमान।
पर औरत अब चाहती, अब आदर-सम्मान।। -स्त्री विमर्श, मुहावरा
सारत:, हरि जी के इन दोहों में शब्द-चमत्कार पर जीवन सत्यों को, शिल्प पर अर्थ को, श्रृंगारिकता पर सरलता को वरीयता दी गयी है। किताबी विद्वानों को भले ही इनमें आकर्षणक आभाव प्रतीत हो किन्तु जीवन मूल्यों को अपरोहरी माननेवालों के मन को ये दोहे भायेंगे। पूर्व में एक ग़ज़ल संग्रह रच चुके हरि जी से भविष्य में अन्य विधाओं में भी कृतियाँ प्राप्त हों। शुभकामनायें।
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सम्पर्क- समन्वयम , २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१,

भज गोविन्दम्

जन्माष्टमी शुभ हो:
भज गोविन्दम्
(मूल संस्कृत, हिन्दी काव्यानुवाद, अर्थ व अंग्रेजी अनुवाद सहित)
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले, नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥१॥
गोविंद भजो, गोविंद भजो, गोविंद भजो रे मूरख मन।
अंतिम पल में करे न रक्षा, केवल यह व्याकरण रटन॥१॥
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र! गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है ॥१॥
O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as memorizing the rules of grammar cannot save one at the time of death. ॥1॥
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्, कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्, वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥
धन-अर्जन की तृष्णा तज, सद्बुद्धि रखो वासना तजो।
सत्कर्म उपार्जित धन-प्रयोग दे, सदा चित्त को आनंदन॥२॥
हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो ॥२॥
O deluded minded ! Give up your lust to amass wealth. Give up such desires from your mind and take up the path of righteousness. Keep your mind happy with the money which comes as the result of your hard work. ॥2॥
नारीस्तनभरनाभीदेशम्, दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्, मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥
नाभि-वक्ष सौंदर्य देखकर, मत मतवाला हो नारी का।
अस्थि, मांस, मज्जा, मेदा है, अशुचि मोह का कर भंजन॥३॥
स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं ॥३॥
Do not get attracted on seeing the parts of woman's anatomy under the influence of delusion, as these are made up of skin, flesh and similar substances. Deliberate on this again and again in your mind॥3॥
नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥
कमल-पाँखुरी पर क्रीड़ारत, सलिल-बिंदुवत चंचल मति-यश।
रोग, अहं, अभिमानग्रस्त है, सकल विश्व यह समझ अकिंचन॥४॥
जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ॥४॥
Life is as ephemeral as water drops on a lotus leaf . Be aware that the whole world is troubled by disease, ego and grief. ॥4॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥
धन-अर्जन-संचय की जब तक, शक्ति तभी तक आश्रित चिपके।
कोई न चाहे बातें करना, निर्बल-जर्जर जब होगा तन॥५॥
जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ॥५॥
As long as a man is fit and capable to earn money, everyone in the family show affection towards him. But after wards, when the body becomes weak no one enquires about him even during the talks. ॥5॥
यावत्पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥
इस नश्वर शरीर में जब तक, प्राण तभी तक लोग पूछते।
प्राण शरीर छोड़ता, डरती अर्धांगिनी तक लख विकृत तन॥६॥
जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ॥६॥
Till one is alive, family members enquire kindly about his welfare. But when the vital air (Prana) departs from the body, even the wife fears from the corpse.॥6॥
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः, परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
बालक-मन आसक्त खेल में, तरुण-युवा मन हो रमणी में।
चिंतासक्त वृद्ध-मन होता, हो न ब्रम्ह में लीन कभी मन.॥७॥
बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥
In childhood we are attached to sports, in youth, we are attached to woman . Old age goes in worrying over every thing . But there is no one who wants to be engrossed in Govind, the parabrahman at any stage. ॥7॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत आयातः, तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥
कौन तुम्हारा पत्नि-पुत्र है?, यह दुनिया सचमुच विचित्र है।
तुम किसके हो?, आये कहाँ से?, अब तो कर लो यह सच-चिंतन.॥8॥
कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो ॥८॥
Who is your wife ? Who is your son? Indeed, strange is this world. O dear, think again and again who are you and from where have you come. ॥8॥
सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं, निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥
सत्संगति से अनासक्ति हो, अनासक्ति से माया छूटे।
मुक्ति तत्व का अनुभव हो तब, जन्म-मरण का छूटे बंधन॥९॥
सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥९॥
Association with saints brings non-attachment, non-attachment leads to right knowledge, right knowledge leads us to permanent awareness,to which liberation follows. ॥9॥
वयसि गते कः कामविकारः, शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः, ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥
काम कहाँ जब यौवन बीते?, कहाँ जलाशय जब जल रीते?।
धन बिन कहाँ स्वजन औ' परिजन?, तत्व-ज्ञान सच, भ्रम जग-जीवन॥१०॥
आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥१०॥
As lust without youth, lake without water, the relatives without wealth are meaningless, similarly this world ceases to exist, when the Truth is revealed? ॥10॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा, ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥
धन-अनुचर-यौवन पर मत कर, गर्व काल पल में हर लेता।
मिथ्या माया तज दे पल में, जान ब्रम्ह को कर अनुगायन॥११॥
धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ॥११॥
Do not boast of wealth, friends (power), and youth, these can be taken away in a flash by Time . Knowing this whole world to be under the illusion of Maya, you try to attain the Absolute. ॥11॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि, न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥
आते-जाते दिवस-रात, संध्या-प्रभात, ऋतु शिशिर-वसंती।
मिथ्या माया तज दे पल में, जान ब्रम्ह को कर अनुगायन॥१२॥
दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ॥१२॥
Day and night, dusk and dawn, winter and spring come and go. In this sport of Time entire life goes away, but the storm of desire never departs or diminishes. ॥12॥
द्वादशमंजरिकाभिरशेषः, कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२अ॥
बारह पद के पुष्पहार से, उपदेशा व्याकरणाचार्य को ।
आदि शंकराचार्य देव ने, पढ़-सुन-गुन ले कुछ तू भी मन॥१२अ॥
बारह गीतों का ये पुष्पहार उपदेश के रूप में, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण को प्रदान किया गया ॥१२अ॥
This bouquet of twelve verses was imparted to a grammarian by the all-knowing, god-like Sri Shankara. ॥12A॥
काते कान्ता धन गतचिन्ता, वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका, भवति भवार्णवतरणे नौका ॥१३॥
चिंता क्यों भार्या की, धन की?, क्या न तुम्हारा ईश नियामक?
भवसागर से पार उतर जा, कर सुसंग नौका-नौकायन ॥१३॥
तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है ॥१३॥
Oh deluded man ! Why do you worry about your wealth and wife? Is there no one to take care of them? Only the company of saints can act as a boat in three worlds to take you out from this ocean of rebirths. ॥13॥
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥
जटा बढ़ाकर, शीश मुंडाकर, बाल नुचा, गेरुआ पहनकर ।
सत्य देख क्यों देख न पाते?, विविध वेश धर पाते भोजन ॥१४॥
बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो ॥१४॥
Matted and untidy hair, shaven heads, orange or variously colored cloths are all a way to earn livelihood . O deluded man why don't you understand it even after seeing.॥14॥
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥१५॥
बदन गल गया, बाल पक गये, मुँह के दाँत गिर गये सारे।
ले लाठी करता पग-चालन, आशा फिर भी नहीं तजे मन॥१५॥
क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है ॥१५॥
Even an old man of weak limbs, hairless head, toothless mouth, who walks with a stick, cannot leave his desires. ॥15॥
अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः, रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः, तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥१६॥
सूर्य ढले तब अग्नि जला, सह ठंडी घुटने-ठुड्डी पर रख ठुड्डी।
भिक्षा माँगे, तरु नीचे रह, आशा-फंदा ताजे न दामन॥१६॥
सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है ॥१६॥
One who warms his body by fire after sunset, curls his body to his knees to avoid cold; eats the begged food and sleeps beneath the tree, he is also bound by desires, even in these difficult situations . ॥16॥
कुरुते गङ्गासागरगमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन, मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥
गंगासागर गमन करे या, दान करे करके व्रत-पालन।
ज्ञान बिना भव-पार न जाता, सौ-सौ जन्म कहें सब सज्जन॥१७॥
किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है ॥१७॥
According to all religions, without knowledge one cannot get liberated in hundred births though he might visit Gangasagar or observe fasts or do charity. ॥17॥
सुर मंदिर तरु मूल निवासः, शय्या भूतल मजिनं वासः।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः, कस्य सुखं न करोति विरागः ॥१८॥
छाल हिरन की पहन, शयनकर देवालय में तरु के नीचे।
ताजे लालसा-भोग विलासी, सुख न कौन सा पता तब मन?॥१८॥
देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी ॥१८॥
Reside in a temple or below a tree, sleep on mother earth as your bed, stay alone, leave all the belongings and comforts, such renunciation can give all the pleasures to anybody. ॥18॥
योगरतो वाभोगरतोवा, सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं, नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥१९॥
भोग करे या योगलीं हो?, रहे भीड़ में या एकाकी?।
सुखी-प्रसन्न वही वास्तव में, लीन ब्रम्ह में हो जिसका मन॥१९॥
कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ॥१९॥
One may like meditative practice or worldly pleasures , may be attached or detached. But only the one fixing his mind on God lovingly enjoys bliss, enjoys bliss, enjoys bliss. ॥19॥
भगवद्गीता किञ्चिदधीता, गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा, क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥२०॥
किंचित भी भवद्गीता पढ़, एक बूँद भी गंगाजल पी।
पूजे पल भर भी मुरारि को, यदि- हो दूर सदा यम-बंधन॥२०॥
जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है ॥२०॥
Those who study Gita, even a little, drink just a drop of water from the holy Ganga, worship Lord Krishna with love even once, Yama, the God of death has no control over them. ॥20॥
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥२१॥
जन्म-मरण, माँ-गर्भ-शयन, हो बार-बार संसार यही है।
करो कृपा हे देव मुरारि!, उद्धारो कर भव-भय-भंजन॥२१॥
बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें ॥२१॥
Born again, die again, stay again in the mother's womb, it is indeed difficult to cross this world. O Murari ! please help me through your mercy. ॥21॥
रथ्या चर्पट विरचित कन्थः, पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो, रमते बालोन्मत्तवदेव ॥२२॥
जो गुण-दोष-परे पथ का हो, पथिक मात्र गुदड़ी धारणकर।
बच्चे सा उन्मत्त सुयोगी, दैव-चेतना-लीन रहे मन॥२२॥
रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं ॥२२॥
One who wears cloths ragged due to chariots, move on the path free from virtue and sin,keeps his mind controlled through constant practice, enjoys like a carefree exuberant child. ॥22॥
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥२३॥
कौन तुम? हूँ कौन मैं?, आया कहाँ से?, कौन माँ-पितु?।
स्वप्नसम निस्सार जग-तज, तत्व-जिज्ञासा करो मन॥२३॥
तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझकर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो ॥२३॥
Who are you ? Who am I ? From where I have come ? Who is my mother, who is my father ? Ponder over these and after understanding,this world to be meaningless like a dream,relinquish it. ॥23॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः, व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२४॥
तुममें, मुझमें, सकल जगत में, व्याप्त विष्णु ही व्यापक सच है।
क्रुद्ध अकारण हो न, एक सा हर हालत में रखना निज मन॥२४॥
तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ ॥२४॥
Lord Vishnu resides in me, in you and in everything else, so your anger is meaningless . If you wish to attain the eternal status of Vishnu, practice equanimity all the time, in all the things. ॥24॥
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं, सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥
शत्रु-मित्र या संबंधी-सुत, से लड़ना-मिलना न सार्थक।
सब में खुद को देख तजो, अज्ञानजनित वैभिन्न्य भाव मन॥२५॥
शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से द्वेष और प्रेम मत करो, सबमें अपने आपको ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥
Try not to win the love of your friends, brothers, relatives and son(s) or to fight with your enemies. See yourself in everyone and give up ignorance of duality everywhere.॥25॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः, ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥
काम, क्रोध, मद, लोभ त्यागकर, मैं 'वह' हूँ अनुभव कर साधक।
जिन्हें न आत्मज्ञान, वे मूरख, पीड़ित हों बन यम-बंदीजन ॥२६॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वे बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥
Give up desires, anger, greed and delusion. Ponder over your real nature . Those devoid of the knowledge of self come in this world, a hidden hell, endlessly. ॥26॥
गेयं गीता नाम सहस्रं, ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥२७॥
गीता-विष्णुसहस्त्रनाम का गान, ध्यानकर श्री हरि का मन।
सदा रहो सत्संग-लीन मन, दीनों को के दान सदा धन॥२७॥
भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो ॥२७॥
Sing thousand glories of Lord Vishnu, constantly remembering his form in your heart. Enjoy the company of noble people and do charity for the poor and the needy. ॥27॥
सुखतः क्रियते रामाभोगः, पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुंचति पापाचरणं ॥२८॥
क्षणिक भोगकर कायिक सुख, रोगी हो जाते सभी बाद में।
मृत्यु अंत में पाते लेकिन, नहीं त्यागते पाप-आचरण॥२८॥
सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं ॥२८॥
People use this body for pleasure which gets diseased in the end. Though in this world everything ends in death, man does not give up the sinful conduct. ॥28॥
अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं, नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः, सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥२९॥
हर विपत्ति का मूल संपदा, सुख न तनिक भी धन से मिलता।
सुत भी बैरी बने धनिक का, सच स्वीकारी तज दो धन, मन॥२९॥
धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है ॥२९॥
Keep on thinking that money is cause of all troubles, it cannot give even a bit of happiness. A rich man fears even his own son . This is the law of riches everywhere. ॥29॥
प्राणायामं प्रत्याहारं, नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं, कुर्ववधानं महदवधानम् ॥३०॥
क्रिया-नियंत्रण, इन्द्रिय संयम, सत्यासत्य-विवेचन नित कर ।
नित्य-अनित्य विचारण, जप-तप, का अभ्यास सजग रह कर मन॥३०॥
प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो ॥३०॥
Do pranayam, the regulation of life forces, take proper food, constantly distinguish the permanent from the fleeting, Chant the holy names of God with love and meditate,with attention, with utmost attention. ॥30॥
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः, संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं, द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥३१॥
गुरु-पदपद्म-भक्त! इन्द्रिय-मन, नियमन कर भव से छूटो रे।
निज उरवासी देव के करो, दर्शन, तरो मुक्त हो रे मन॥३१॥
गुरु के चरणकमलों का ही आश्रय माननेवाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो ॥३१॥
Be dependent only on the lotus feet of your Guru and get salvation from this world. Through disciplined senses and mind, you can see the indwelling Lord of your heart !॥31॥
मूढः कश्चन वैयाकरणो, डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै, बोधित आसिच्छोधितकरणः ॥३२॥
मुग्ध व्याकरण के नियमों पर, संगत में व्याकरणाचार्य की।
शिष्य कई शंकराचार्य के, ईश-बोध हित हुए सुप्रेरित ॥३२॥
इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए ॥३२॥
Thus through a deluded grammarian lost in memorizing rules of the grammar, the all knowing Sri Shankara motivated his disciples for enlightenment. ॥32॥
भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे ॥३३॥
गोविन्द भजो, गोविन्द भजो, गोविन्द भजो रे मूरख मन।
भव से पार उतरने का है, ईश नाम जप ही साधन॥३३॥
गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ॥३३॥
O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as there is no other way to cross the life's ocean except lovingly remembering the holy names of God. ॥33॥
२८-८-२०१३
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