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सोमवार, 20 अगस्त 2018

abhar

आभार
आपसे शुभ कामना पा, हुआ यह दिन ख़ास
साँस में अमृत घुला ज्यों, सुमन में सुवास
ईश्वर दे पात्रता, बढ़ता रहे नित स्नेह
ज्यों की त्यों चादर रहे, जब जाऊँ अपने गेह
ह्रदय से आभार प्रिय! अनमोल है यह प्यार
जिंदगी के द्वार पर है यही बन्दनवार 

  

रविवार, 19 अगस्त 2018

पाँच बाल गीत

1
योग
विवेक रंजन श्रीवास्तव

थोड़ा-थोड़ा
 योग करो
 सुबह सवेरे 
  रोज करो

 बिल्कुल सीधे
  खड़े रहो
  शव आसन में 
   पड़े रहो 

सांस भरो और 
उठो जरा
 छोड़ो सांसे 
  रुके रहो 

बैठ के आसन
 लेट के आसन
 खड़े-खड़े भी 
  होते आसन

   जैसा जैसा
   गुरु कहें
   वही करो और 
   स्वस्थ रहो ।

2
सफाई
 विवेक रंजन श्रीवास्तव 

रखना साफ-सफाई भाई 
रखना साफ-सफाई
 कभी ना फैलाना तुम कचरा रखना साफ-सफाई

 चाकलेट बिस्किट जो खाओ
रैपर कूड़ेदान में डालो 
फल खाओ तो गुठली छिलके कचरे के डिब्बे में फेंको

 कॉपी अपनी कभी न फाड़ो पुस्तक के पन्ने मत मोड़ो
चिन्धी बिलकुल न फैलाना
रखना साफ सफाई भाई
 रखना साफ सफाई


3
बिजली
विवेक रंजन श्रीवास्तव

 बड़ी कीमती
 होती बिजली
 बिन बिजली 
रहता अंधियार

 चले न पंखा 
और न गीजर
बिन बिजली
 बेकार है कूलर

 बिजली से ही 
चलता टी वी
बिन बिजली 
बेकार कंप्यूटर 

इसीलिए तो 
कहते हैं 
बिजली ना 
बेकार करेंगे 
कमरे से बाहर 
जाना हो
 तो सारे स्विच 
बंद करेंगे


4
 पानी 
विवेक रंजन श्रीवास्तव 

पानी प्यास बुझाता है 
पानी ही नहलाता है
 पानी से बनता है खाना
 पानी ही उपजाता दाना 

पानी मिलता नदियों से 
कुओ और तालाबों से 
नल में जो पानी है आता
 वह आता है बांधों से 

बादल बरसाते हैं पानी 
पानी है सबकी जिंदगानी
 बिन पानी के शुष्क धरा 
पानी ना हो व्यर्थ जरा


 अच्छा लगता है 
विवेक रंजन श्रीवास्तव 

शुद्ध हवा में
 सुबह सवेरे 
गहरी गहरी 
सांसे लेना अच्छा लगता है

 सोकर उठकर
 टूथ ब्रश करना 
और नहाना अच्छा लगता है 

धुली धुलाई 
यूनिफॉर्म में 
सही समय पर 
शाला आना अच्छा लगता है 

भूख लगे तो 
मां के हाथों का 
हर खाना अच्छा लगता है

 होमवर्क पूरा 
  जो हो तो
  लोरी और कहानी सुनकर 
तब सो जाना अच्छा लगता है

एक दोहा

अंबर! प्रियदर्शी रहो, मत तोड़ो मर्याद।
तपा-डुबा क्यों मारते?, हम होते बर्बाद।।

शनिवार, 18 अगस्त 2018

doha shatak gopal krishna chaurasia

ॐ 
दोहा शतक 
गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर'

अभियंता गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' स्वतंत्रता सत्याग्रही-राष्ट्रीय भावधारा के प्रखर कवि स्व. मानिकलाल चौरसिया मुसाफिर के कुल दीपक हैं। माँ शारदा की ऐसी कृपा कि ३ भाई स्व. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', श्री कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक' तथा बहिन भी  सशक्त कवयित्री हैं। 'मधुर जी' नव पीढ़ी को देश की स्वतंत्रता तथा रक्षा के लिए शहीद होने की परंपरा को सशक्त करने के लिए बलिदान को याद रखने को आवश्यक मानते हैं:
शौर्य वीरता त्याग ही. स्वतंत्रता का मान। 
वीर शहीदों का सदा, याद रखें बलिदान।।
सनातन सभ्यतापरक विरासत में मिले जीवन मूल्यों को बिसारकर पश्चिम से थोपे गए मिथ्याचार को अपनाती युवा पीढ़ी को देखकर चिंता होना स्वाभाविक है:   
माखन-मिश्री की जगह, अण्डों का व्यापार।
निज संस्कृति को भूलते, करते मिथ्याचार।।
जिस देश में कभी सुई भी आयात होती थी, वही देश विश्व के उन्नत देशों को कड़ी टक्कर देकर चंद्र और मंगल तक यान भेज रहा है। इस परिदृश्य को बदलने में अभियंताओं का योगदान सर्वोपरि है: 
रोटी कपड़ा जल सड़क, रहने सुलभ मकान। 
अभियंता निर्माण की, हर युग में पहचान।।
शासन और प्रशासन तंत्र में निरंतर बढ़ता भ्रष्टाचार दोहाकार की चिंता का विषय है। कहते हैं 'बद अच्छा बदनाम बुरा', दिशाहीन-सत्ता केन्द्रित दल प्रधान राजनीति जुमलेबाजी की बाजीगरी कर देश को निराश कर रहा है: 
भांग कुँए में घुल गयी, धुत्त नशे में तंत्र। 
जादूगरी दिखा रहा, बदनामी का जंत्र।।
मधुर जी देश के विकास और एकता के लिए हिंदी को व्यवहार में लाने और विदेशी भाषा को श्रेष्ठ मानने की रुग्ण मानसिकता को छोड़ने पर बल देते हैं;
हिंदी भाषा राष्ट्र की, हिंदी में हो काम। 
छोड़ गुलामी मानसिक, सनसे दुआ-सलाम।।
मधुर जी अभियंता होने के नाते अंग्रेजी भाषा पर अधिकार रखने के बावजूद हिंदी की सामर्थ्य को जानते हैं। उनके दोहे प्रसाद गुण संपन्न हैं। वे सरसा, सरल तथा सहज बोल-चाल के हिमायती है। इन दोहों में अमिधा में ही बात कही गयी है। मधुर जी के दोहे जीवन मूल्यों की जय-जयकार गुंजाकर नव पीढ़ी को उनमें शिक्षित-दीक्षित करने के प्रति आग्रही है। 
 
      

baal kavita kalpana bhatt

बाल कविताएँ
कल्पना भट्ट
*
१. भोर
*
भोर हो गयी जागो प्यारे
चले गए हैं चाँद-सितारे।
भोर हुई है आई चिड़िया
आँख खुली मत लाओ निंदिया ।
आओ! करें सूर्य का स्वागत
सुभ सुनहरा है अब आगत ।
गोरैया आ गीत सुनाओ
आशाओं के  दीप जलाओ ।
*
२. हम बालक
हम बालक छोटे अज्ञानी
क्यों करे कोई छल बताओ?
हमको पसंद है चॉकलेट-टॉफी
बड़े न खाने को ललचाओ।
हम माँगें जब खेल-खिलौने
देते हैं हमको क्यों  ताने?
पढ़ो-लिखो, फिर रटो पहाड़ा
बोलो कब हम गाएँ गाने?
रहें प्रेम से हम सब बच्चे 
क्यों कहते हो हमको बंदर?
मनमानी कर लड़ें बड़े ही
मम्मी-पापा घर के अंदर।
बालक है बचपना न छीनो
हमको करने दो नादानी।
बात न मानी तो रूठेंगे
याद दिला देंगे हम नानी।
*
३ पेड़ और पौधे
कट गए कितने ही वन
कम हो गए कितने उपवन
खुली हवा हो गयी है कम
कैसे रहेंगे तुम और हम!
बंद खिड़की को खोलो तुम
वरना घुट जाएगा दम
हवा के झोंके जो न आये
कैसे रहेंगे तुम और हम!
एक पौधा तुम भी लगाओ
अपना आँगन तुम ही सजाओ
न रहेंगे जब पेड़ और पौधे
कैसे रहेंगे तुम और हम !
यह चमन तुम्हारा है
यह आँगन तुम्हारा है
महकेंगे जब यह फूल उपवन
जी उठेंगे फिर तुम और हम!
*
४. कहानियाँ
चाँद नहीं ,तारे भी नहीं
मुझे पसंद नानी की कहानियाँ
छोटी-छोटी हँसाने वालीं
जंगलों की रोचक सी कहानियाँ ।
नन्हें-नन्हें सपने हैं मेरे
मुझे पसन्द हैं मेरे खिलौने
नानी के संग मैं खेलता हूँ
कहती हैं वो खिलौनों से कहानियाँ ।
चिड़िया बोले , तोता भी बोले
हाथी नाचे ,चींटी पट खोले
तितलियों सी विविध रंगों से बनी
रंगीन चित्रों वालीं यह कहानियाँ ।
अजब गज़ब के घर हैं होते
भालू ,शेर, घोड़े संग होते
चॉकलेट के लिये यह भी हैं रोते
मीठी मीठी होती यह कहानियाँ ।
*
५ स्कूल नहीं जाऊँगा
बोला एक दिन बंदर  मामा
स्कूल नहीं जाऊँगा
सुनकर यह सब चकित हुए
पूछ बैठे ,'क्यों भला ?'
बोला वो इतराकर यह
नया मोबाइल लाये है पापा
नए गेम्स खेलूंगा मैं भी
स्कूल नहीं जाऊँगा |
रोज़-रोज़ की वही पढाई
रोज़ एक टीचर की डांट
मैं नहीं अब सुनने वाला
स्कूल नहीं जाऊंगा मैं |
सुन रहे थे यह सब उसके साथी
सुन रहा था उनका मामा हाथी
बोला वो बंदर से यह
'कहते हो स्कूल नहीं जाओगे
मोबाइल से खेलोगे ?'
कुछ रुका फिर बोला हाथी मामा
'चलो एक काम करते हैं
नदी से कहते है न बहे
सूरज से कहते है न उगे
चाँद से कहते है न आये
पेड़ो से कहते है फल न दे
चलो इन सब के साथ मोबाइल गेम्स खेलते है |
सुनकर यह बोला बंदर
ऐसा गज़ब न करना मामा
भूके ही मर जायेंगे सब
समझ गया हूँ मैं अपनी गलती
अब से नहीं कहूंगा यह |
काम सब के अपने अपने
सबको करने पड़ते है
स्कूल भी जाऊँगा मैं
पढ़ लिखकर कुछ बंजाऊंगा मैं |
*
६ खिलौने
बाबा , खिलौने ला दो
मोबाइल नहीं खिलौने ला दो
गेंद बल्ला , गुल्ली डंडा
घर में भालू , मोर और गेंडा |
बाहर जाकर खेलना है मुझको
दोस्तों के संग रहना है मुझको
गुड़िया को भी ले जाऊंगा
साथ उसके भी  मैं खेलूंगा
वो भी यही चाहती होगी
भैया खेले यह कहती होगी |
बाबा , मुझको खिलौने ला दो
लूडो ,चेस, कैरम ला दो
बाबा ऑफिस से जब आएंगे
थके हारे जब चाहेंगे
मिलकर हम सब साथ खेलेंगे
साथ हसेंगे साथ बैठेंगे
मोबाइल ने तो अलग किया है
हम सब को ही तो अलग किया है
मोबाइल को अब अलग करेंगे
खिलौने ले हम संग रहेंगे |
*
७ आधा चाँद
माँ एक चाँद ला दो
आधा ही सही पर ला दो
चाँद के संग मैं खेलूंगा
गेंद बनाकर इसे खेलूंगा
अपने हाथो में इसे पकडूँगा
आसमान से यह बुलाता हैं
मेरे दिल को यह भाता है
माँ, यह चाँद मुझको ला दो
आधा ही सही पर ला दो |
आसमान में रहने वाला
तुझको यह लुभाने वाला
बेटा यह चाँद कैसे ला दूँ
आसमान से कैसे ला दूँ
मेरी बात मान जा बेटे
न कर इसकी ज़िद अब तू
देख यह रोटी को देख ले
चाँद सी इस रोटी को देख ले
अपना पेट यही भरेगी
रोटी तेरी चाँद बनेगी |
रात का चाँद आसमान में
मेरा चाँद मेरे घर में
राजा बेटा चाँद है तू
मेरी आँखों का तारा है तू
देख रात हो रही
अब सो जा ,
सपनो में तेरे खो जा
चाँद तेरा तुझको मिलेगा
आधा ही सही पर जरूर मिलेगा |
*
८ माँ
माँ
माँ मेरी क्यों रूठ गयी?
रूठ कर देखो बैठ गयी है
कैसे हँसाऊँ , कैसे मनाऊँ
उनकी खुशियों को कैसे लाऊँ !
माँ ,आप हो बहुत भोली-भाली
मुझको लगती हो प्यारी-प्यारी
न रूठो ऐसे मान भी जाओ
अब न करूँगा कोई मन मानी ।
देखो होमवर्क कर लिया है
बस्ता भी कल का जमा लिया है
आओ माँ अब तो भूख लगी है
पेट में चूहों की दौड़ लगी है ।
माँ बेटे की खत्म हुई लड़ाई
दोनों ने मिलकर रोटी खायी
रात हुई तो देखे तारे
सुबह उठकर नींद भगाई ।
*
९ एक कहानी
नानी एक कहानी सुना दो
जल्दी से फिर मैं सो जाऊंगा
सुबह सवेरे उठकर जल्दी
फिर मैं अपने स्कूल जाऊँगा ।
कहानी में होती है बिल्ली रानी
कभी होती है राजा रानी की कहानी
नानी तुम तो बहुत अच्छी हो
रोज़ सुनाओ तुम मुझको एक कहानी।
पापा मम्मी थक जाते है
खिलौने भले ही ढेरों लाते है
जो कहानी तुम हो मुझको सुनाती
नींद मुझको फिर प्यारी आती ।
अच्छी नानी, प्यारी नानी
मेरी हो तुम सयानी नानी
जल्दी से सुनाओ एक कहानी
फिर ही मुझको है नींद आनी ।
*
१० सब कहाँ गए
हाथी भालू सब कहाँ गए
क्या किताबों में बंद हो गए ।
घने जंगल , और पशु पक्षी
क्या किताबों में बंद हो गए ।
या खेल रहे यह सब छुपन छुपैया
जो ढूंढे इनको यह उनको पाये ।
जल पर्बत धरा हमारी
है सबसे यह निराली
आओ! इन सबकी रक्षा करें हम
इनको अपना जान एक वरदान बने हम ।
*

ॐ doha shatak avinash beohar


दोहा शतक
खोटे सिक्के चल रहे



















अविनाश ब्यौहार
जन्म: २८.१०.१९६६, उमरियापान, जिला कटनी, मध्य प्रदेश।
आत्मज: श्रीमती मीरा ब्यौहार-श्री लक्ष्मण ब्यौहार।
जीवन संगिनी:
काव्य गुरु: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
लेखन विधा: दोहा, काव्य, व्यंग्य आदि।
प्रकाशन: अंधा पीसे कुत्ते खाएँ व्यंग्य काव्य संग्रह, पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ।
उपलब्धि: गुरु का आशीष।
संप्रति: व्यक्तिगत सहायक महाधिवक्ता कार्यालय, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय जबलपुर। 
संपर्क: राॅयल स्टेट काॅलोनी, कटंगी रोड, माढ़ोताल जबलपुर ।
चलभाष: 9826795372, 9584015234
ईमेल: a1499.9826795372@gmail.com
*
अविनाश ब्योहार दोहा दुनिया में निरंतर गतिशील हैं। वे दोहा के शिल्प और भाषा की समझ रखते हैं। कथ्य को दोहा में ढालने का बौद्धिक व्यायाम उन्हें मनोरंजन की तरह प्रिय है। शहरों में बढ़ती आधुनिकता, नष्ट होती हरियाली, अंधानुकरण करते गाँव और लुप्त होती परंपरा  की छाँव की त्रासदी को अविनाश ने धूप के माध्यम से रूपायित किया है:
शहर आधुनिक हो गये, पीछे-पीछे गाँव।
धूप न खोजे पा सके, थककर थोड़ी छाँव।।
युग-परिवर्तन के साथ आरहे मांगलिक बदलावों में से एक बेटी-बेटे में समानता का विचार है जो सतत पल्लवित-पुष्पित हो रहा है: 
बेटे-बेटी में रहा, अब न जरा भी फर्क।
भेद-भाव जो कर रहा, उसका बेड़ा गर्क।।
ग्राम और शहर से एक साथ जुड़ने का अवसर पाकर अविनाश जी अपने दोहों में दोनों को सहेजते हैं। फसलों के पकाने और अमराई में आम आने के साथ तोतों का सहगान उन्हें संसद में उठने वाले शोर की याद दिलाता है: 
झूमी फसलें खेत में, महक रही है बौर।
अमराई संसद बनी, है तोतों का शोर।।
संसार को माया कहना और फी उसी में रमे रहना, यह दोहरा आचरण दोहाकार को कहलाता है। नदी की धार और घाट के माध्यम से सच-झूठ की मरीचिका को इंगित किया गया है:
रिश्ते-नाते झूठ हैं, फिर सच क्या है यार।
पूछ रही तट-घाट से, बह नदिया की धार।।
राजनीति में बढ़ती मूल्यहीनता से सामान्य देशवासियों की तरह अविनाश जी भी चिंतित हैं। अवसरवादी नेताओं की सत्ताप्रियता और सफलता दोनों पर व्यंग्य करता यह दोहा खीसें निपोरना और खोटे सिक्के चलने जैसे मुहावरों का सार्थक प्रयोग  अविनाश की सामर्थ्य का संकेत करता है- 
फूट डालकर पा रहे, सत्ता यहाँ खबीस।
खोटे सिक्के चल रहे, खरे निपोरें खीस।।
अविनाश के दोहे 'पूत के पाँव पलने में दीखते हैं' कहावत को चरितार्थ करते हैं। जैसे-जैसे वे दोहा लेखन में आगे बढ़ेंगे, उनकी कलम  की धार अधिकाधिक पैनी होती जाएगी। 
*
बने रहेंगे फासले, बना रहेगा प्यार।
साझे की खेती बुरी, साझे का व्यापार।।
आग बबूला हो गया, जेठ मास में सूर्य।
इस मौसम में क्या बजे, हरियाली का तूर्य।।
नदिया दुबली हो गई, सूख गया है नीर।
कब तक अंबुद घिरेंगे, धरणी हुई अधीर।।
बंधु-बहिन दो फूल हैं, बगिया है परिवार।
रक्षाबंधन पर्व है, ईश्वर का उपहार।।
दीवाली त्यौहार में, चहुं दिश है उजियार।
अँधियारे भी रीझते, दीपक पर सौ बार।।
नाते कडुवाहट भरे, नहीं किसी से मेल।
भटकन पाॅंवों से बँधी, पकड़ न पाए रेल।।
कोयल कुहके बाग में, जंगल मिले हुलास।
मधु़ऋतु में होने लगा, मीठा सा अहसास।।
बेटे-बेटी में रहा, अब न जरा भी फर्क।
भेदभाव जो कर रहा, उसका बेड़ा गर्क।।
रंग भौजियों के दिए, देवर जी ने गाल।
होली के त्यौहार में, पुलकित रंग-गुलाल।।
धान रोपते गा रहे, बनिहारे मिल गीत।
फसल लहलहा रही है, हुई कृषक की जीत।।
झूमी फसलें खेत में, महक रही है बौर।
अमराई संसद बनी, है तोतों का शोर।।
जाड़ा ऐसा पड़ रहा, काॅंप रहा है संसार।
सूरज चंदा सा लगे, बुझते ज्यों अंगार।।
कोहरे में डूबी सुबह, सूरज अंतर्ध्यान।
हाड़ कंपाती ठंड है, कुछ दिन की मेहमान।।
गरमी में ऐसा लगे, दिनकर उगले आग।
पोखर; नदिया; ताल के, फूट गये हैं भाग।।
रिश्ते-नाते  झूठ हैं, फिर सच क्या है यार।
पूछ रही तट-घाट से, बह नदिया की धार।।
अमराई की गंध से, मौसम है मदहोश।
कोयल कूकी बाग में, तब आया है होश।।
दफ्तर का बाबू हुआ, ज्यों अफसर का खास।
ले-दे यह मालिक हुआ, वह है इसका दास।।
स्वाभिमान मत छोड़ना, स्याने देते सीख।
हाकिम क्या जो माँगता, हाथ पसारे भीख।।
मौसम ऐसा खुशनुमा, नृत्य कर रहे मोर।
मेहा रिमझिम बरसते, है गर्जन का शोर।।
गरमी में काँटा नदी, वर्षा में फुँफकार।
डरा कहे बचकर रहो, शरद-बाँटती प्यार।।
रितु करती ऋतुराज का, फूलों से श्रृंगार।
भौंरें गुन-गुन कर रहे, सुना मंगलाचार।।
रूप मनोहर देखकर, मन है भाव-विभोर।
जन्म-जन्म के मीत हम, जैसे चाँद-चकोर ।।
कानों में रस घोलती, मधुकर की गुंजार।
कली-कली सुन डोलती, नाचे मुग्ध बहार।।
अमराई गंधों भरी, गंधों भरे मधूक।
मन को भाती जा रही, है कोयल की कूक।।
फूट डालकर पा रहे, सत्ता यहाँ खबीस।
खोटे सिक्के चल रहे, खरे निपोरें खीस।।
कलयुग में मिल रहे हैं, गिरगिट जैसे यार।
छुरा पीठ में भौंकते, कर जीवन दुश्वार।।
हैं अमावसी रात के, जुगनू जी सरताज।
तारे भी शर्मा रहे, इनके आगे आज।।
आया ऐसा दौर कि, जोबन है बेकार।
श्याम सफेदी देखती, शीशा बारंबार।।
प्रजातंत्र में भी लगे, रहे गुलामी-झेल।
शासन दुःशासन हुआ, उठा-पटक है खेल।।
राजनीति व्यभिचारणी, करे न कोई फर्क।
शर-शैया पर सो रहे, सच के तर्क-वितर्क।।
आमदनी है अठन्नी, खर्च रूपैया रोज।
तांडव करती गरीबी, कर्जा करता भोज।।
बगिया में हँस खिल रहा, इठला सुर्ख कनेर।
सबसे हिल-मिलकर रहे, ऋतु-परिवर्तन हेर।।
बड़े बुजुर्गों से लगे, पीपल-बरगद पेड़।
देते हैं छाया घनी, बता रही है मेड़।।
है पलाश वन दहकता, ज्यों जल रहा अलाव।
लाली देखी आँख में, सेमल दाबे पाँव।।
काला-काला रंग है, मिसरी से मधु बोल।
चातक-कोयल स्वर मधुर, सुन दिल जाता डोल।।
काँव-काँव कर टेरता, बैठा काग मुंडेर।
पाहून कोइ आ रहा, घर पर देर सबेर ।।
प्रजातंत्र में बन गया, ले खा ही इतिहास।
जेब गर्म जो करेगा, वही बनेगा खास।।
दिल्ली के दरबार में, नेताओं की भीड़।
जनहित-पंछी खोजता, केवल अपना नीड़।।
राजनीति कुल्टा हुई, काले धन से यार।
कितना भी धोओ इसे, सारा श्रम बेकार।।
शहर आधुनिक हो गये, पीछे-पीछे गाँव।
धूप न खोजे पा सके, थककर थोड़ी छाँव।।
इस मिथ्या संसार की, टकसाली हर बात।
रोज सुनहरी भोर हो, रोज चाँदनी रात।।
अँधियारे की दौड़ में, गया उजाला छूट ।
अंधाधुंध कटाई से, वृक्ष-वृक्ष है ठूॅंठ।। 
पतझड़ की ऋतु आई है, झरने लगे चिनार।
ऐसे मोहक दृष्य लख, सब गम जाते हार।।
गपबाजों के शहर में, हम क्या हाॅंके डींग ।
ईमाॅं बचा लिया अगर, समझो खरहा-सींग ।।
एक भयावह रात थी, आंखों में थे ख्वाब।
अलग हो गये इस तरह, ज्यों गायब सुर्खाब।। 
अटल, अटल थे, अटल ही, है उनका यश-मान।
ऐसे काल पुरुष न अब मिल पाते; लें मान।।
धनपतियों ने थाम ली, अब शासन की डोर ।
जन-प्रतिनिधि बन गए हैं, एक नंबरी चोर ।।४७
नेतागण मक्कार हैं, सच्चा मिला न एक।
पावन आत्मा देश की, जार जार है रोई ।।
व -ुनवजर्याा ऐसी हो रही, मेघ करें जलदान ।
कुदरत का ये खेल है, मान ले रे इन्सान ।।



शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

ॐ दोहा शतक प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव 'विदग्ध'

ॐ 
जीवन में आनंद
दोहा शतक 
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"














जन्म: २३ मार्च १९२७, मण्डला म.प्र.।
आत्मज: स्व, सरस्वती देवी-स्व. छोटेलाल वर्मा स्वतंत्रता सत्याग्रही। 
जीवन संगिनी: स्व. दयावती श्रीवास्तव।
शिक्षा एम.ए. हिंदी , एम.ए.अर्थशास्त्र, साहित्य रत्न , एम.एड.।
संप्रति: सेवानिवृत्त प्राध्यापक शासकीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर, संस्थापक प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय जबलपुर क्रमांक १। 
प्रकाशन: ईशाराधन, वतन को नमन, अनुगुंजन, नैतिक कथाएँ, आदर्श भाषण कला, कर्म भूमि के लिये बलिदान, जनसेवा, अंधा और   
लंगड़ा, मुक्तक संग्रह, स्वयं प्रभा सरस गीत संग्रह, अंतर्ध्वनि सरस गीत संग्रह, मानस के मोती लेख संग्रह। 
अनुवादित पुस्तकें: भगवत गीता हिन्दी पद्यानुवाद, मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद, रघुवंशम् पद्यानुवाद, प्रतिभा साधन।  
शैक्षिक किताबें: समाजोपयोगी कार्य, शिक्षण में नवाचार, संकलन उद्गम , सदाबहार गुलाब , गर्जना , युगध्वनि ,जय जवान जय किसान।  
संपादन: अर्चना, पयस्वनी, उन्मेष , वातास पत्रिकाएँ। प्रसारण: आकाशवाणी व दूरदर्शन।  
उपलब्धि: भारतीय लेखन कोश, म.प्र. के सृजनधर्मी, हू इज हू इन मध्य प्रदेश, मण्डला जिले का साहित्यिक विकास आदि ग्रंथो में
परिचय प्रकाशित। विविध संस्थाओं द्वारा अनेक अलंकरण, राष्ट्रीय आपदाओं तथा समाजोत्थान कार्यक्रमों में तन-मन-धन से योगदान। 
संपर्क: बंगला नम्बर ओ.बी.११, विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. / विवेक सदन, नर्मदा गंज, मण्डला म.प्र.।
चलभाष: ०९४२५४८४४५२, ईमेल: vivekranjan.vinamra@gmail.com
*
प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध' देश और समाज में गत नौ दशकों में हुए परिवर्तन और विकास के साक्षी हैं। शिक्षण प्रणाली और शिक्षा
शास्त्र के अधिकारी विद्वान होने के साथ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद के क्षेत्र में में उनका अवदान उल्लेखनीय है। सामाजिक समरसता और
सद्भव के लिए आजीवन सक्रिय रहे विदग्ध जी के लिए कबीर आदर्श रहे हैं:
जो भी कहा कबीर ने, तप कर; सोच-विचार।
वह धरती पर बन गया, युग का मुक्ताहार।।
लोकतंत्र लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिए स्थापित शासन प्रणाली है। इसकी सफलता के लिए नागरिकों की सहभागिता और
जागरूकता अपरिहार्य है अन्यथा शासन-प्रशासन तंत्र स्वामी को दस बनाने में विलम्ब नहीं करता-
आम व्यक्ति को चाहिए, रखनी प्रखर निगाह।
राजनीति करती तभी, जनता की परवाह।।
लोकतंत्र में कर्तव्य केवन 'जन' के नहीं प्रतिनिधि और शासन तंत्र के भी होते हैं। शासक के मन में नीति-न्याय के प्रति सम्मान होना
आवश्यक है-  
शासक-मन में हो दया, नीति-न्याय का ध्यान।
तब होता दायित्व का, जन-मन को कुछ ध्यान।।
नियति और प्रारब्ध को कोई नहीं जान सकता। उक्ति है 'जो तोकू काटा बुवै, ताहि बोय तू फूल / बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरशूल'।
इस सनातन सत्य को विदग्ध जी वर्तमान सन्दर्भ में अधिक स्पष्टता से कहते है- 
हानि-लाभ किससे-किसे, कह सकता कब-कौन?
कभी ढिंढोरा हराता, कभी जिताता मौन।।
'जीवेम शरद: शतम्' के वैदिक आदर्श की और बढ़ रहे विदग्ध जी जीवन का सार निर्मल मन को ही मानते हुए कहते हैं कि पवित्रता से
 ही आनंद और ईश्वर दोनों मिलते हैं: 
पावन मन से उपजता, जीवन में आनंद।
निर्मल मन को ही सदा, मिले सच्चिदानंद।।
विदग्ध जी के दोहे शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। वे सौंदर्य की अपेक्षा भाव और भावना को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके दोहों
में प्रयुक्त भाषा सहज ग्राह्य है। सफल शिक्षक होने के नाते वे जानते हैं कि सरलता से कही गयी बात अधिक प्रभावी तथा स्थाई होती है। 
इस अनुष्ठान में उनकी सहभगिता नई पीढ़ी को आशीर्वाद के समान है।
*
है कबीर संसार के, बिना पढ़े विद्वान
जिनकी जग मे हुई है, ईश्वर सम पहचान 
*
छुआ न कागज-कलम पर, बने कबीर महान।
जिन्हें खोजने को स्वतः, निकल पड़े भगवान।।
*
चिंतन-मनन कबीर का, धर्म-कर्म व्यवहार।
सीख-समझ; पढ़-सुन हुआ, समझदार संसार।।
*
गाते गीत कबीर के, इकतारे के साथ।
जगा रहे नित साधु कई, दुनियाॅ को दिन-रात।।
*
सीधे सच्चे ज्ञानमय, है कबीर के बोल।
जो माया का आवरण, मन से देते खोल।।
*
अचरज यह; इस अपढ़ की, सीधी-सच्ची बात।
पढ-लिख-समझ कई हुए, पीएच.डी. विख्यात।।
*
कर ले घर के काम सब, बनकर संत सुजान।
जीवन भर करते रहे, कबिरा जन कल्याण।।
*
अनपढ संत कबीर का, है यह बड़ा कमाल।
समझ लिया जिसने उन्हें, सचमुच मालामाल।।
*
अनपढ संत कबीर थे, निर्गुण उनके राम।
था जन-मन को जोड़ना, उनका अद्भुत काम।।
*
जो भी कहा कबीर ने, तप कर; सोच-विचार।
वह धरती पर बन गया, युग का मुक्ताहार।।   
*
वाणी संत कबीर की, देती दिव्य प्रकाश।
हुआ न आलोकित मगर, अंधों का आकाश।।
*
निर्मल संत कबीर के, मन में था विश्वास।
ईश्वर कहीं न दूर है, मन में उसका वास।।
*
बड़े न, छोटे ही भले, जिनको प्रिय कानून।
कभी कहीं करते नहीं, नैतिकता का खून।।
*
धनी गरीबों का नहीं, किंचित रखते ध्यान।
निर्धन उनका ध्यान रख, बन जाते गुणवान।।
*
बड़े लोग अभिमान वश, करते हैं अपराध।
छोटों को डर सभी का, छोटी उनके साध।।
*
पढ़े-लिखे अक्सर चलें, नियमों के प्रतिकूल।
अनपढ़ चलते राह पर, स्वतः बचाकर धूल।।
*
छोटो का जीवन सरल, करते सच्चे काम।
उन्हें याद रहता सदा, देख रहा है राम।।   
*
बड़ा नहीं वह काम का, जिसे झूठ अभिमान।
सामाजिक आचार का, जिसे न रहता ध्यान।।
*
छोटे ही आते सदा, कठिनाई मे काम।
बड़े हमेशा चाहते, जी भरकर विश्राम।।
*
वास्तव मे वे बड़े जो, करते पर उपकार।
जिनकी करते याद सब, सज्जन बारंबार।।
*
धन कम; धन से अधिक गुण, होते प्रमुख प्रधान।
सद्गुण से पाता मनुज, दुनिया में सम्मान।।  
*
जो करता है व्यर्थ ही, अधिक घमण्ड-गुरूर।
वह अपयश पाता सदा, हों सब उससे दूर।।
*
गुणी व्यक्ति का ही सदा, गुण ग्राहक संसार।
ऐसे ही चलता रहा, अग-जग; घर-परिवार।।  
*
राजनीति हत्यारिनी, करे अगिन अपराध।
उन्हें नहीं जीने दिया, दिया न जिनने साथ।।
*
कत्ल कभी भाई किया, कभी कैद कर बाप।
ताज-तख्त के लोभ में, गले लगाए पाप।। 
*
आम व्यक्ति को चाहिए, रखनी प्रखर निगाह।
राजनीति करती तभी, जनता की परवाह।।
*
मानव के इतिहास में, अजरामर है नाम।
अपनी आप मिसाल थे, पुरुषोत्तम श्री राम।।
राम राज्य आदर्श था, है अब भी विश्वास।
सुख कम; दुःख ज्यादा सहा, कहता है इतिहास।। 
*
जो छल-बल से पा गए, सत्ता पर अधिकार।
मत्स्य न्याय करते रहे, मूक रहा परिवार।। 
*
राजनीति करती सदा, सत्ता की परवाह।
चित-पट मेरे कह चले, निज मनमानी राह।।
*
होनी चाहिये धार्मिक, पर करती है पाप।
इससे कम होते नहीं, जनता के संताप।।
*
शासक-मन में हो दया, नीति-न्याय का ध्यान।
तब होता दायित्व का, जन-मन को कुछ ध्यान।। 
*
नेता करते आजकल, उल्टा ही व्यवहार।
वादों को जुमला बता, छलें बना सरकार।।
*
नीति-नियम, सिद्धांत से, शोभित हो दरबार।
तभी राज्य हर दुखी का, कर सकता उद्धार।।
*
राजनीति चलती सदा, टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
जन-विश्वास गँवा चुकी, देश-हाल बेहाल।।  
*
राजनीति के रंग दो, तनिक न उनमें मेल।
गोल-माल दो-चार दिन, शेष उम्र भर जेल।।
राजनीति में सहज है, सज जाना सिर-ताज।
बहुत कठिन ना दाग़ हो, और न जन नाराज।।
*
सत्ता-सुख या जेल हैं, राजनीति के छोर।
पहुॅचाती है व्यक्ति को, हवा बहे जिस ओर।।   
*
हानि-लाभ किससे-किसे, कह सकता कब-कौन?
कभी ढिंढौरा हराता, कभी जिताता मौन।।
*
भला-बुरा कुछ भी नहीं, घटना समयाधीन।
है दरिद्र गुणवान जन, कभी धनी गुणहीन।। 
*
हर सुयोग देता समय, यही भाग्य की बात।
हो कुयोग छोटा मगर, हो जाता विख्यात।।
*
कर्मयोग में रत सतत, लोग खटें दिन-रात
बिना परिश्रम कई मगर, जग में होते ख्यात।।
*
राजनीति में नाम के, साथ-साथ जंजाल।
भाग्य रहे यदि साथ तो, झट हो मालामाल।।  
*
यदि चुनाव में जीत हो, तो डग-डग सम्मान।
हार दिखाती व्यक्ति को। केवल कूडादान।।
*
राजनीति के युगों से, रंगे खून से हाथ।
रहम न करना जानती, कभी किसी के साथ।।
*
राजनीति उनको कठिन, जो हैं मन के साफ।
गाॅधी और सुभाष तक, पा न सके इंसाफ।।   
*
स्वार्थ नीति से है भरी, राजनीति की चाल।
जब जिसको मैाका मिला हथियाया हर माल।। 
*
जिसका मन निर्मल उसे, सुखप्रद यह संसार।
उसे किसी का भय नहीं, सबका मिलता प्यार।।
*
प्रेम भाव निज मित्र है, रिपु है मनोविकार।
शांति प्राप्ति हित मन स्वयं, देता है आधार।।
*
जैसा गंगा-नर्मदा, का शुभ पावन नीर।
वैसे ही निर्मल रखो, अपना मन व शरीर।
*
अपने मन की मलिनता, कौन सका है जान।
जान रहा सब को मनुज, खुद से ही अनजान।।
*
गुण दोषों का शाब्दिक, होता अधिक बखान।
सच्चाई से व्यक्ति की, होती कम पहचान।।
*
जीवन औ‘ वातावरण, जिसका सहज पुनीत।
उसकी ही हर क्षेत्र में, होती निश्चित जीत।।
*
जिसको रहे सचाई का, अपनी पल-पल ध्यान।
उसे घेर सकता नहीं, कभी-कहीं अभिमान।।
*
जीवन ईश्वर का दिया, है अनुपम उपहार।
प्रतिदिन उसके दान का, ध्यान रहे उपकार।।  
*
देख विविधता विश्व की, होता है अनुमान। 
कहीं नियंता छिपा है, कहें उसे भगवान ।
*
टी.वी. मोबाइल मिले, ऐसे आविष्कार।
जिनने जन सामान्य के, बदल दिये व्यवहार।।
*
अब आपस में बैठ मिल, कम हो पाती बात।
मोबाइल पर ही करें, चैट मनुज दिन-रात।।
*
कहे नहीं जाते कहीं, मन के मधुर प्रसंग।
अधिक समय नित बीतता, मोबाइल के संग।।
*
मौखिक बातें कह-सुनी, जाती हैं कम आज।
लोगों को भाती अधिक, मोबाइल आवाज।।  
*
अपनों से सुनते नहीं, अब अनुभव उपदेश।
वयोवृद्ध के बढ गए, घर मे कष्ट-कलेष।।
*
यद्यपि सुविधाएँ बढ़ीं, बढ़ा अधिक व्यापार।
पर धोखा छल झूठ का, भी हो चला उभार।।
*
जीवन बना मशीन सा, नीरस सब व्यवहार।
प्रेम भाव दिखता नहीं, धन का है व्यापार।।
*
मानव जीवन बन गया, लेन-देन बाजार।
भूल गये कर्तव्य सब, याद रहे अधिकार।। 
*
इस जग के हर देश में, हो शुभ ममता-भाव।
पावन प्रिय संवाद का, कहीं न रहे अभाव।।
*
सही सोच सद्वृत्ति से, मन बनता बलवान। 
मिटते सबके कष्ट सब, होता शुभ कल्याण।।
*
मन है जिसका ड्रायवर, यह तन है वह कार।
अगर  ड्रायवर शराबी, खतरों की भरमार।
*
मानव मूल्यों का सतत, होता जाता ह्रास। 
इससे उठता जा रहा, आपस का विश्वास।।
*
मन पवित्र हो तो दिखे, वातावरण पवित्र।
नहीं कहीं रिपु हो तभी, हर जन दिखता मित्र।।
*
पावन मन से उपजता, जीवन मे आनंद।
निर्मल मन को ही सदा मिले सच्चिदानंद।।
*
शांत शुद्ध मन में नहीं, उठते कभी विकार। 
मन की सात्विक वृत्ति हित, धर्म सबल आधार।।
*
राजनीति को कम रहा नैतिकता से प्यार।
उसको तो भाता रहा, मनचाहा अधिकार।।
*
अनशन द्वेष विरोध हैं, राजनीति के धर्म।
गिरफतार-बदनाम हों, नहीं तनिक भी शर्म।।   
*
इस युग में बन गई है, राजनीति व्यापार।
जिससे बढ़ता ही गया, खुलकर भ्रष्टाचार।।
*
झूठ बोल करती सदा, बढ़-चढ़ आत्म प्रचार।
बातें ज्यादा काम कम, करती है सरकार।।
*
संविधान की भावना, तज दल-हित को तूल।
दे करती सरकार ही, काम नियम प्रतिकूल।।  
*
पावन मन में कभी भी, पलते नही विकार।
मन की सात्विक वृत्ति का, सदा धर्म आधार।।
*
मन यदि पावन हो तभी, वातावरण पवित्र।
नहीं कहीं भी शत्रु हो, सब दिखते हैं मित्र।।
*
हो संयमित विचार तो, सुखी रहे संसार।
कभी किसी परिवेश में, बढ़े न अत्याचार।।
*
जिसे मलिन नहिं कर सके, उथले मनोविचार।
 ऐसी होनी चाहिये, दृढ विचार सरकार।। 
*
अस्थायी संसार है, नश्वर हर व्यवहार।
मरणशील है जगत यह, अमर एक बस प्यार।
*
घटनाएँ होती क्षणिक, किंतु सतत हो याद।
नहीं भुलाए भूलतीं, सुनें नहीं फरियाद।।
*
आते जाते हैं सतत, मन में भाव हजार।
प्रेम भाव ही हमेशा, है सुख का आधार।।
*
बड़ी गूढ संसार में, है कर्मो की बात।
कर्मो से ही उपजते, सुख-दुख औ' आघात।।
*
मन ही खुद की कैद है, जीवन कारागार।
फल देता सबको सदा, खुद का ही व्यवहार।।
*
काम कराते व्यक्ति से, उसके ही संस्कार।
व्यक्ति आप ही बनाता, है अपना संसार।।
*
बचपन यौवन चार दिन, बीते युग की बात।
वृद्धावस्था ही सदा, देती सबको साथ।।
*
जो न अनैतिकता कभी, मान सका निज प्यार।  
सुख से कर सकता वही, भव सागर को पार।
*
जिसको निज मन जीतने, से होती है प्रीति।
उसे कभी संसार में, कहीं न कोई भीति।।
*
मलिन न कर पाए जिसे, उथले मनोविकार।
ऐसी आत्मा को नहीं, कठिन जगत उद्धार।।
*
अगर शांति से चाहता, जाना  भव के पार।
बना सत्य औ' प्रेम को, जीवन का आधार।।
*
जिसके मन संतोष है, जो दे-पाता प्यार।
उसको भी छोड़े नहीं, दुःख देता संसार।।
*
भारतीय भाषाओ की, संस्कृत मूलाधार।
जिसमे अगणित ज्ञान, का भरा अमर भंडार।।
*
प्रकृति सदा हर जीव का, करती है उपकार।
उसकी पावन कृपा से, संचालित संसार।।
*
मिला सुमन को दैव से, है अनुपम वरदान।
देवताओं के शीश पर, चढ़ कर पता मान।।
*
सदा प्रथाएँ बदलतीं, आते नए विचार।
बीती सदियों से बहुत, आगे अब संसार।।
*
जिस पर प्रभु करते कृपा, वह पाता वरदान।
जैसे सबके पूज्य हैं, राम भक्त हनुमान।।
*
कृषक सदा न्व आस से, करते कृषि के काम।
पर मौसम की मार का, डर रहता हर शाम।।
*
नई सभ्यता ने किया, नदियों को निष्प्राण।
ऐसे में नदियाॅ करें, कैसे जन कल्याण।। 
*
नादानी करता रहा, युग-युग से इंसान।
उसका दुश्मन रहा है, उसका ही अज्ञान।।  
*
वर्षा सूखा शीत या, आतप का संताप।
मानव मन को सताता, पर वह है चुपचाप।।  
*
नहीं किसी के बिन कभी, रुके जगत के काम।
विकट व्यवस्था काल की, उसको विनत प्रणाम।।१०२ 
***

दोहा शतक: संतोष नेमा


जीवन नाट्य समान
दोहा शतक 






















संतोष नेमा "संतोष"
जन्म: १५-७-१९६१, आदेगाँव, सिवनी, मध्य प्रदेश। 
आत्मज:श्रीमती रमा-स्वर्गीय श्री देवीचरण जी नेमा।  
जीवन संगिनी:श्रीमती सरिता नेमा।   
शिक्षा:बी.कॉम.,एलएल.बी.
लेखन विधा:दोहा, मुक्तक, लघुकथा, कहानी, गीतिका आदि। 
प्रकाशित:दोहा संकलन इन्द्रधनुष प्रकाशनाधीन। 
उपलब्धि: अखिल भारतीय डाक कर्मचारी संघ ग्रुप सी में संभागीय / प्रांतीय सचिव। 
संपादन:यूनियन वार्ता। 
संपर्क: अमनदीप, ७८ आलोक नगर, अधारताल,  जबलपुर। 
चलभाष: ९३००१०१७९९। 
ईमेल:nemasantoshkumar@gmail.com  
*
संतोष नेमा जी कबीर के अवदान, रानी दुर्गावती के उत्सर्ग, माँ की महिमा तथा पर्यावरण प्रदूषण जैसे प्रसंगों पर दोहा रचना कर अपनी कलम को माँज रहे हैं। संस्कारधानी जबलपुर में अंकुरित हो रही दोहकारों की नयी पंक्ति में संतोष जी तत्परतापूरकरचना कर्म में संलग्न हैं। संतोष जी को इस परिवेश में कबीर की उपादेयता और कमी दोनों शिद्दत से अनुभव हो रही है-   
अब कबीर कोई नहीं, जिसकी गहरी मार।
कुरीतियों को जो सके, बिना डरे ललकार।।
राजनीति द्वारा निरंतरउडेला जा रहा सामाजिक विद्वेष दोहाकार को चिंतित करता है। वह 'जब आवै संतोष धन, सब धन धूर समान' की विरासत को खुशहाली की कुंजी ठीक ही मानता है।  यहाँ अपने नाम का उपयोग वह शब्दकोशीय अर्थ में भी करता है। श्लेष अलंकार का यह उदहारण उसकी सजगता का परिचायक है- 
दिल में हो 'संतोष' तो, होंगे सब खुशहाल। 
द्वेष आपसी रखा तो, जग होगा बदहाल।।
भौतिकता और भोगवाद का चोली-दामन का साथ है। भोग को लोग भोग रहे या भोग लोगों को भोग रहे की श्लेषार्थ को समाहित करता यह दोहा उल्लेख्य है-
भौतिकता के दौर में, फँसे हुए हैं लोग।
आपा-धापी बढ़ रही, भोग रहे हैं भोग।।
पारिवारिक संबंधों को जीवन में सुख का उत्स मानते हुए दोहाकार उनक महत्व प्रतिपादित करता है-
शुभचिंतक नहिं बहिन सा, नहीं तिया सा मित्र।
भागीदार न बंधु सा, नहीं नेह सा इत्र।
दुनिया के रंगमंच पर आम आदमी चेचरे पर चेहरा ओढ़े हुए अभिनय करता रहता है। संतोष जी की सजग दृष्टि से यह सत्य छिपा नहीं है-
अंतर्मन में पीर है, चेहरे पर मुस्कान।
असली अभिनय यही है, जीवन नाट्य समान।
वर्तमान जीवन शैली में कष्टों का मूल कारण चादर से बाहर पैर पसारना ही है। संतोष जी मन पर लगाम लगाकर संयमित जीवन शैली को अपनाने में विश्वास करते हैं- 
मन से ही काया चले, मन से मिलते राम।
करें राम का अनुकरण, मन पर रखें लगाम।।
दोहा सहित काव्य की विविद विधाओं में हाथ आजमा रहे संतोष जी में दोहा की समझ और उसे प्रयोग करने की सामर्थ्य है। वे अपनी सृजन यात्रा में नए मुकाम हासिल करेंगे, यह विश्वास किया जा सकता है। 
*
आँधी, तूफां देख; सुन, बरखा की पदचाप। 
दिनकर ओझल हो गये, छुपे कहीं चुपचाप।।

बरखा रानी झूमकर, करती सुंदर नृत्य।
आँखें रवि की नम हुईं, देख मनोहर कृत्य।। 

सूरज की गर्मी गई, मना करें वे लाख।
सुन बादल की गर्जना, गिरती उनकी साख।।

सुन वर्षा का आगमन, व्याकुल महि को हर्ष। 
वर्षा जल में लिपट कर, हुआ धूल-अपकर्ष।। 

आँखों में जागी चमक, खुश हो गये किसान।
खेतीवाले जुट गए, करने काम तमाम।।

पशु-पक्षी व्याकुल हुए, जीव-जंतु बेहाल।
आई बरखा देखकर, सबका बिगड़ा हाल।।

बाग-बगीचे खिल उठे, सुन भौंरों की तान।
सबके मुखमंडल दिखे, फूलों सी मुस्कान।।

इंद्रधनुष को देखकर, जागी बदन-उमंग।
पिया-मिलन की आस में, धीर न धरते अंग।।

मेघ बरस कर दे रहे, खुशियों का संदेश।
प्यास सभी की बुझ रही, जल से भरे प्रदेश।।

धानी चूनर से हुए, हरे धरा के अंग।
नगर, गाँव, उपवन, डगर, चहुँदिश बिखरे रंग।।

बरखा रानी दे रही, समता का संकेत।
गले मिलें नाले-नदी, जग-जीवन के हेत।।

दादुर, कोयल स्वर भरें, मोर, पपीहा संग।
मेघ बजाएँ झूमकर, ढोलक, चंग, मृदंग।।

हवा अहम में डूबकर, छोड़े अपना मान।
लाती वर्षा पूर्व ही, आँधी सँग तूफान।।

बरसाते जब मेघ मिल, शीतल जल-बौछार।
लगता प्रेमी युगल को, नभ से बरसा प्यार।।

दिल में हो 'संतोष' तो, होंगे सब खुशहाल।
द्वेष आपसी रखा तो, जग होगा बदहाल।।

अब कबीर कोई नहीं, जिसकी गहरी मार।
कुरीतियों को जो सके,  बिना डरे ललकार।।

मानवता का धर्म ही, है कबीर की सीख।
दिखा गये हैं प्रेम-पथ, सबके जैसा दीख।।

कबिरा को भाया नहीं, कभी झूठ-पाखण्ड।
साथ सत्य के खड़े हो, दिया झूठ को दण्ड।।

डरे हुए थे जिस समय, मजहब-ठेकेदार।
करते रहे कबीर नित, पाखंडों पर वार।।

गागर में सागर लिए, साखी-संत कबीर।
वाणी से ही खींच दी, सामाजिक तसवीर।।

मानव-मानव में कभी, किया न किंचित भेद।
खुद खोजी निज बुराई, बिना हिचक कर खेद।। 

दीन कबीर ने सीख जो, आतीं सबके काम।
करने से उन पर अमल, मन पाता आराम।।  

सिद्धांतों से अलग हट, दे सांसारिक ज्ञान।
अधिक धर्म से भी दिया, मानवता को मान।।

आज धर्म के नाम पर, मानवता है लुप्त।
चिंतक-कवि भी हो गए, आत्मलीन ज्यों सुप्त।।

सीख आज भी मिल रही, है साखी से मीत। 
सदा करे "संतोष" मन, यही नीक है रीत।।

रानी दुर्गावती बनी, गोंड राज्य की शान।
जिसके वैभव से डरे, शासक मुगल महान।।

मुगलों के विस्तार से, रानी थीं बैचैन।
कर मुक़ाबला मुगल से, छीना उनका चैन।।

बीमारी से चल बसे, राजा दलपत शाह।
विधवा रानी धैर्य धर, सबको बनी पनाह।।

हाथों में तलवार ले, दुश्मन को ललकार।
रानी रण लड़ती रही, शत्रु दलों को मार।।

दुर्गा दुर्गा सम लड़ी, साहस रखा अपार।
घर-भेदी था बदनसिंह, मिलकर बड़ा प्रहार।।

रण चंडी बन टूटती, अरि पर करती वार।
छक्के छूटें शत्रु के, देख हाथ तलवार।।

समस्याओं से घिरे हैं, यहां सभी इंसान।
संकट को जो साध ले, है वह व्यक्ति महान।।

परेशानियाँ घूमतीं, डंडा लेकर हाथ।
खुद निज शीश बचाइए, कोई न देगा साथ।।

किरण रोशनी की सदा, लाती मन उत्साह।
अंधेरों को चीरकर, देती नया प्रवाह।।

भौतिकता के दौर में, फँसे हुए हैं लोग।
आपा-धापी बढ़ रही, भोग रहे हैं भोग।।

बाबाओं के नाम पर, करें धर्म-बदनाम।
साधु-संत-ऋषि भ्रमित हैं, भूले अपना काम।।

माया सर चढ़ बोलती, जिसके सभी गुलाम।
पुण्य दान से मिलेगा, आ औरों के काम।।

कथनी-करनी सम रखें, धैर्य-धर्म हो साथ।
ईश्वर में रख आस्था, उन्नत रख निज माथ।।

जीवन के हर मोड़ पर, मिलते लोग हजार।
छली-स्वार्थी-चतुर से, बच; रख साथ उदार।।

अपने क्रिया-कलाप पर, रखिए सदा लगाम।
खुद भी चिंता मुक्त हों, लिए एक पैगाम।।

पैर पसारे सो रहे, चादर-सलवट खूब।
सोचे-समझे बिना क्यों, रहे फ़िक्र में डूब।।   

नहें काम कर यह कहें, 'मुझे बैल आ मार'। 
फिर लिपटें अवसाद में, हो खुद से बेजार।।

मेरा साया पूछता, साथ खड़ा है कौन। 
है कोई जो साथ में, चले रात-दिन मौन।।

नारी-शोषण कर रहे, बाबाओं के धाम।
नारी खुद जा लुट रही, कैसे लगे लगाम।।

ज्ञान बाँटते फिर रहे, ढोंगी बाबा संत।
खुद ही भ्रम में डूबकर, करते खुद का अंत।।

चादर ओढ़ें धर्म की, पुण्य कमाता पूत।
घर में भूखी माँ कहे, 'उठा मुझे यमदूत'।।  

शुभचिंतक नहिं बहिन सा, नहीं तिया सा मित्र।
भागीदार न बंधु सा, नहीं नेह सा इत्र।।

नहीं सहारा पिता सा, माता जैसी छाँह। 
हितू नहीं परिवार सा, थामे पल-पल बाँह।।

नींव नहीं परिवार बिन, यह जीवन-आधार। 
संस्कार का कोष है, सभी सुखों का सार।।

अंतर्मन में पीर है, चेहरे पर मुस्कान।
असली अभिनय यही है, जीवन नाट्य समान।।

पर्यावरण न नष्ट हो, हर कोई दे ध्यान।
तापमान बढ़ रहा है, दूषण लेता जान।।   

पौधारोपण कीजिए, आक्सीजन ले शुद्ध। 
दूर कीजिए रोग सब, चलिए! बनें प्रबुद्ध।। 

रक्षित रख पर्यावरण, स्वच्छ रखें संसार।
शुद्ध पेय जल मिल सके, ऐसा हो आचार।।

सही वक्त पर चाहिए, वर्षा, ठंडक धूप।
प्रकृति का सम्मान कर,चलें नियति अनुरूप।।

मानवता को मारते, जिनका दीन न धर्म।
आतंकी दानव अधम, करते नित्य कुकर्म।।

अभिलाषाएँ खत्म हैं, रहा न कोई लोभ।
राजा तब ही जानिए, जब न रहे मन-क्षोभ।।   

धीरज मन में रख सदा, प्रभु इच्छा बलवान।
आएगा अच्छा समय, होगा तब कल्याण।।

सूरज ने वृष राशि में, जैसे किया प्रवेश।
वैसे ही नौतपा का, दे रोहिणि संदेश।।

नव दिन तक नवतपा की, झेल-झेलकर मार।
व्याकुल धरती जल रही, छोड़ रही है झार।

पशु-पक्षी भी चाहते, पानी ठंडी छाँव।
नखरे हवा दिखा रही, यादों में है गाँव।।

सूरज भी तेवर बदल, दिखा रहा है आँख।
ठंडी न बाहर आ सके, दबा रखा है काँख।।  

गर्मी से हो रहा है, हर मानव हैरान।
रातों की निंदिया गई, दिवस हुए वीरान।।

तापमान जब भी बढ़े, रखें स्वास्थ्य का ध्यान। 
खानपान हो मौसमी, पड़े जान में जान।।

पानी ज्यादा पीजिये, रक्षित रखिये देह।
करिए धूप-बचाव भी, जब-जब छोड़ें गेह।। 

गर्मी पाकर सूर्य की, रोहिणि का जल तत्व।
आता वर्षा-गर्भ में, समझें रीति-महत्व।।

नौ नक्षत्रों सह फिरे, चंदा नौ दिन रोज।
रहता चुप 'संतोष' कर, नहीं प्रकृति पर बोझ।।

सुख सत्ता का जो चखे, उसको लगता खून।
दौलत ऐसी बढ़ रही, रात चार दिन दून।।

पूर्वाग्रह से ग्रसित हो, सर्वे करते लोग।
अपने मकसद के लिए, फैलाते भ्रम-रोग।।   

जीवन में सुख-शांति हो, बाहर व्यर्थ तलाश।
खुद के अंदर झाँक लें, मिल जाए आकाश।।

मन से ही काया चले, मन से मिलते राम।
करें राम का अनुकरण, मन पर रखें लगाम।। 

वादा को उल्टा करें, दावा करते झूठ।
नेताओं की आदतें, लें जनता को लूट।।

आम आदमी खा रहा, मँहगाई की मार।
अब तेलों के दाम भी, दिखा रहे हैं धार।।

जन-सेवा के नाम पर, मची हुई है लूट।
सेवक मालिक बन गए, देश रहा है टूट।।

जिन तत्वों से बना है, अपना मनुज शरीर।
उनमें ही मिल जाएगा, क्यों हम व्यर्थ अधीर।।   

निपट अकेले रह गए, सच की बाँहें थाम।
झूठ झपट आगे बढ़ा, करने अपना काम।।

स्वाभिमान गिरवी रखा, दे कुर्सी हित दाम। 
लड़ा चुनाव विरोध में, मिले लपक गुलफाम।।

अपनी सत्ता छोड़ कर, दी औरों के हाथ।
फिर भी बंदे खुश हुए, ले गैरों का साथ।।

जोड़-तोड़ की सफलता, सत्ता की पहचान।
अवसर चूका बड़ा दल, मेरा देश महान।।     

धर्म-कर्म में मन लगा, कर प्रभु में विश्वास।
दीन-हीन-उपकार कर, करें शांति-आभास।।

भगवत कथा श्रवण करें, जप सहस्त्र हरि नाम।
सकल मनोरथ पूर्ण हों, बनते बिगड़े काम।।

सूखा जंगल चीखकर, मचा रहा है शोर।
पेड़ों को मत काटिये, चलें प्रकृति की ओर।।

पानी से जीवन चले, अमृत सी हर बूँद।
पानी व्यर्थ न फेकिये, अपनी आँखें मूँद।।

आग उगलता भास्कर, दिखा रहा है क्रोध।
दिन सन्नाटा छा रहा, सूनी रात अबोध।।  

पशु-पक्षी व्याकुल फिरें, पानी करें तलाश।
मानव से ही आस थी, लेकिन हुए निराश।।

ताल-तलैया सूखते, सिमटी नदिया-धार।
सूखी धरती तप रही, सहती दुहरी मार।।

जीव-जंतु बेहाल हैं,जीना हुआ मुहाल।
शासन की सामर्थ्य पर,करते लोग सवाल।।

जल बिन हो पता नहीं, किसी तरह का काम।
दूर उपयोग करें नहीं, खुद पर रखें लगाम।

विश्व युद्ध अब तीसरा, होना है जल हेतु। 
जल ही जीवन जानिए, तोड़ न आशा-सेतु।।   

माँ ही जीवनदायिनी, रखती सबका ध्यान।।
माँ -चरणों में स्वर्ग है, माँ ही हैं भगवान।।

मां के ही आशीष से, फलते हैं सब लोग।
चरण कमल माँ के पकड़, कर 'संतोष' सुयोग।।

माँ से ही रिश्ते बने, माँ से ही परिवार।
माँ से ही हमको मिला, निज आचार-विचार।। 

माँ है मूरत त्याग की, माँ भावों की खान। 
माँ की सेवा जो करे, उसे मिले सम्मान।।

माँ की महिमा समझिये, माँ ईश्वर अवतार। 
कौन चुका सकता कभी, माता का उपकार।।

अच्छे-अच्छे सुधरते, सुन पत्नी-फटकार।
तुलसी रामायण रची, खुले भक्ति के द्वार।।   

कभी न पीछा छोड़ते, करते हम जो कर्म।  
फल भी वैसा ही मिले, यही बताता धर्म।।

समता,संयम,शांति का, करिए सदा प्रचार। 
विलग रहे अतिचार से, जिनके सद-आचार।।

मन परिवर्तन पर दिया, सदा बुद्ध ने जोर।
मन ही करता है सदा, सबसे ज्यादा शोर।।

दीन-हीन पर दया कर, चल नेकी की राह।
करुणा जीवन में रखें, राग-रंग मत चाह।। 

हिंदू-मुस्लिम बाद में, पहले हम इंसान। 
जिसमें मानवता नहीं, समझो है शैतान।।

श्रम से ही हो सफलता, बिनु श्रम सफल न आप। 
पर्सा भोजन सामने, उदर न पहुँचे आप।।
***


मां से बढ़कर जहां में, दूजा नहिं है कोय
दुनिया जिसकी गोद में,सुखी सदा ही होय

दुनिया में कोई नहीं,मां से बड़ा महान
सारे ग्रंथों से मिला, हमें एक यही ज्ञान

सभी तीरथ चरणों में, मां ही चारों धाम
सेवा माँ की जो करे, वह पहुँचे सुरधाम

चिंता सबकी छोड़िये, सबके दाता राम
पालें,पोषें,सभी को, दें सबको आराम

धीरज संयम साथ सदा,मन में हो विस्वास
ईश्वर में हो आस्था,बनते बिगड़े काज

बुरे वक्त में उड़ाते, जो किसी की मजाक
वक्त बदलते ही सदा, उनकी कटती नाक

कथनी करनी में रखें, अंतर बारह मास
कब खोखले सिद्धांत से, कौन बना है खास 

इस जहां में ईश्वर की,मां सच्ची अवतार
माँ चरणों में जन्नत है, माँ ही सच्चा प्यार

सादर नमन है बुद्ध को, दिया शुद्ध आचार
हैं हरेक पल कारगर, उनके सम्यक विचार

वैशाख माह पूर्णिमा, बुद्ध लिये अवतार
सत्य अहिंसा,प्रेम का, किया सदा विस्तार

बुद्धम शरणं गच्छामि, याद रखें यह मंत्र
जीवन में "संतोष"का, यही सुनहरा यंत्र
प्रभु! 'संतोष' पड़ा चरण, त्राहि-त्राहि कर जोर।
कारज सभी सँवारिए, विनती सुनिए मोर।।
जल संरक्षण किए बिन, कहाँ बुझेगी प्यास?
वर्ना मीलों भटक कर, करना पड़े तलाश
*
राजनीति में शिक्षा का, होता सदा अभाव
बिना पढ़े ही डालते, सब पर बड़ा प्रभाव
राजनीति में शिक्षा का, होता सदा अभाव
बिना पढ़े ही डालते, सब पर बड़ा प्रभाव
सूरज आंख तरेरता, बड़ा रहा है ताप
वृक्षारोपण कीजिये, तभी बचेंगे आप
सूर्य सक्रांति हो नहीं, अधिक होत एक मास
कारज मांगलिक न करें, कोई इस मलमास
पूजा पाठ,दान हवन,कर पुरुषोत्तम मास
दीप दान और यज्ञ कर,व्रत ध्यान उपवास
मां दया की सागर है, ऊंचा मां का स्थान
है मां से संसार भी, मां घर की है शान

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

ॐ दोहा शतक मनोज कुमार शुक्ल

ॐ 
मन विश्वास जगाइए  
दोहा संकलन
























मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’

जन्म: १६  अगस्त १९५१ जबलपुर, मध्य प्रदेश। 
आत्मज:  स्व. नर्मदा देवी-स्व. रामनाथ शुक्ल ‘श्री नाथ’ 
जीवन संगिनी: श्रीमती ममता शुक्ला। 
शिक्षा:  एम.काम.
लेखन विधा: कविता, कहानी, निबंध, व्यंग्य आदि
प्रकाशन: कहानी संग्रह- क्रांति समर्पण, एक पाव की जिंदगी, काव्य संग्रह- संवेदनाओं के स्वर, याद तुम्हें मैं आऊॅंगा
संप्रति:  सेवा निवृत सहायक प्रबंधक विजया बैंक 
उपलब्धि: अनेक संस्थाओं से सम्मान व अलंकरण।दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से प्रकाशन।  
विशेष: टोरंटो कनाडा में सम्मानित तथा हिंदी प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित।  
संपर्क: आशीष दीप, ५८ उत्तर मिलौनीगंज, जबलपुर ४८२००२ मध्य प्रदेश   
चलभाष: ९४२५८६२५५० 
ई मेल: mkshukla४८@gmail.com
*
हिंदी साहित्य सृजन की विरासत को मन-प्राण से सम्हालकर अपने यशस्वी पिता स्व. रामनाथ शुक्ल ‘श्री नाथ’ के रचनाकर्म को प्रकाश में लाने के पश्चात आप भी हिंदी साहित्य संवर्धन के प्रति समर्पित रहनेवाले मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलत: कहानीकार हैं। कहानी तथा कविता के पश्चात दोहा से जुड़ाव का सुपरिणाम यह कि वे विविध प्रसंगों पर दोहा-कथा रच रहे हैं। यह प्रयोग बाल-शिक्षा हेतु उपयोगी हो सकता है। मनोज जी सृष्टि के रंगमंच पर श्वेत-श्याम का समायोजन देखते हैं- 
रंगमंच सा लग रहा, दुनिया का यह मंच।
कुछ करते हैं साधना, कुछ खल रचें प्रपंच।।
शीम्द्भाग्वाद्गीता का कर्म सन्देश 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' को आत्मसात कर मनोज जी कर्मठ को ही उन्नति का मूल मानते हैं- 
कर्मठता इंसान को, करे शिखर-आसीन।
जीवन की खुशियाँ सभी, मिलें न बनिए दीन।।
ग्राम्यांचलों में चल रही परिवर्तन की हवा को देखकर बूढ़ी होती होती पीढ़ी की हैरानी को बरगद के माध्यम से मनोज जी ने बखूबी व्यक्त किया है-
बूढ़ा बरगद देखता, चौपालों की शाम।
कैसी हवा बदल रही, जीना हुआ हराम।।
इस काल में धन के प्रति बढ़ते अंध मोह ने आम जन स एलेकर नेता, धनपतियों और अधिकारीयों तक को ग्रास लिया है। दोहाकार धन को निस्सार नहीं मानता किन्तु वह धन को सब कुछ भी नहीं स्वीकारता, उसके अनुसार धन और विद्या-विवेक साथ हों तभी मंगलदायी होते हैं-
होती लक्ष्मी चंचला, उसका कहीं न ठौर।
सरस्वती को साथ रख, सदा रहेगी भोर।।
शुभाशुभ के संयोग से बनी प्रकृति में भले-बुरे हमेशा हे रहे हैं। मनुष्य को स्वविवेक से सही-गलत की पहचान कर जीवन जीना होगा-
हर कोई ढोंगी नहीं, सब न करें प्रतिघात। 
मन विश्वास जगाइए, तभी कटेगी रात।।
मनोज जी दोहे मनरंजन नहीं, जीवन-मूल्यों के प्रति चिंतनकर विचार के मोती लेने-देने के उद्देश्य से लिखते हैं। उनके दोनों में व्यन्जनात्मकता या लक्षणात्मकता पर अमिधात्मकता को वरीयता सहज दृष्टव्य है। मनोज की सार्थक और सकारत्मक लेखन के आग्रही हैं। उनका उद्देश्य नई पीढ़ी का दिशा-दर्शन है। दोहा उनके लिए इस उद्देश्य पूर्ति का उपकरण है।  
*
आदिशक्ति दुर्गा बनी, जग की तारण हार।
जिनके तेज प्रताप से, संकट भगे हजार।। 

मन चंचल होता बहुत, पाखी सा उड़ दूर।
वश में जिसने कर लिया, हँसता वही हुजूर।।

रंगमंच सा लग रहा, दुनिया का यह मंच।
कुछ करते हैं साधना, कुछ खल रचें प्रपंच।। 

नाते- रिश्ते झगड़ते, पहुँचाते संताप।
आस कभी मत पालिये, सपने में भी आप।।

पाला-पोसा चल दिये, जिगर तोड़कर लाल।
आशाओं को लूटकर, बना गये कंगाल।।

लोभ-जाल में जब फँसे, मछली होती मौत।
मोह-जाल में फँस मनुज, पालें अपनी सौत।।

बचपन गुजरा खेल में, गई जवानी झूम।
खड़ा बुढ़ापा मोड़ पर, मौत ले रही चूम।।

उम्र फिसलती जा रही, ज्यों मुट्ठी से रेत।
झट तन यह चुक जाएगा, हो जायेगा खेत।।   

जब सुख की बरसात का, दिखे हो रहा अंत।
दुख को अंगीकार कर, बन जाओ तब संत।। 

कुछ खाएँ पूँजी सकल, फिर कहते हे राम।
कुछ माथे पर लिख रहे, कर्म करो अविराम।।

विमुख रहे जो कर्म से, सदा भोगते कष्ट।
कर्म किया जिसने सदा, वही रहे संतुष्ट।।

साहस कर आगे बढ़ो, चखते सुफल अनेक।
राह किनारे बैठकर, कौन बना है नेक।।

पास रहा जो खो गया, चिंता है बेकार।
शेष बचा जो सामने, उसकी करो सँभार।।  

कर्मठता श्रम- लगन में, छिपा हुआ है राज। 
इस पथ पर जो भी चला, बनते बिगड़े काज।।

बढ़ना है संसार में, चलो उठाकर माथ।
सारी दुनियाँ आपको, लेगी हाथों-हाथ।।

कर्मठता इंसान को, करे शिखर-आसीन।
जीवन की खुशियाँ सभी, मिलें न बनिए दीन।।

विपदाओं के सामने, कभी न मानें हार।
श्रम जीवन की संपदा, पहनाए मणिहार।।  

बिना कर्म के व्यर्थ है, इस जग में इंसान।
गीता की वाणी कहे, कर्म बने पहचान।। 

प्रभु की दया असीम है, जो चाहें लें आप।
काम करें निष्काम यदि, मिट जाए सब पाप।।

अपने अंदर झाँकिये, बसे मिलेंगे राम। 
मन-मंदिर में बालिए, दीपक उम्र तमाम।।

महल संपदा जोड़कर, व्यर्थ अकड़ते आज। 
जब भी  किस्मत रूठती, छिन जाते हैं ताज।।

जीवन में जब क्रोध के, उठने लगें गुबार।
समझो तब फिर हो रहे, कष्टों के दीदार।।  

कितने कंटक राह में, बिछे पड़े हैं आज।
कौन बुहारेगा उसे, गूँज रही आवाज।।

मन संवेदनशील हो, तो होता कल्यान। 
शांति बसे उर में सदा, दूर रहे अभिमान।।

दुर्गम पथ जब भी लगे, जीवन हो दुश्वार। 
प्रभु से लगन लगाइए, सभी  हटेंगे भार।।

जीवन की इस डोर को, थामे रखना नाथ।
चटक कहीं यदि टूटती, होते तभी अनाथ।। 

जीवन के हर मोड़ पर, चलना सरल न काम।
मंजिल पाने के लिये, चलते चल अविराम।।

जीवन में जब दुखों का, लग जाए अंबार।
निर्धन कुटिया-झाँकना, कम होंगे भंडार।।

मन के रोगी बहुत हैं, तन के कम हैं रोग।
मन को ही यदि साध लें, दुखी न होंगे लोग।।

शर्मिंदा होना पड़े, ऐसा करें न काम ।
मन को निर्मल ही रखें, सदा बढ़े अविराम।।  
*
नारी को अबला समझ, करें नहीं नर भूल।
वह सबला चुन शूल अब, बिछा रहि है फूल।।
नारी नर की खान है, नर नारी का मान।
जब मिलते तब जन्म लें, हर युग में भगवान।।  
विश्व शांति का पक्षधर, मानवता की शान।
आदि काल से है यही, भारत की पहिचान।।
वेद और उपनिषद में, विश्व शांति संदेश।
ज्ञान योग विज्ञान में, पारंगत यह देश।।
अवतारों की भूमि है, ऋषियों का यशगान।
भारतवासी साथ मिल, गाते मंगल गान।।
सिया-राम, राधा-किशन, हनुमत; गौतम बुद्ध। 
महावीर, नानक कहें, रखो आचरण शुद्ध
पवन मेघ गिरि वृक्ष जल, ईश्वर के उपहार।
धरा-प्रकृति-आराधना, भारत के त्यौहार।।  
सदियों से भारत रहा, बहु पंथों का देश।
गंग-जमुन सम मिल रहे, किया न किंचित क्लेश।।
हर संस्कृति पलती यहाँ, पाती है सम्मान।
आपस में मिलकर रहे, यही सही पहचान।।
मंत्र हमारा एक है, शांति शांति औ शांति।
कभी नहीं छा रहे, जग में कहीं अशांति।।
शुभ कार्यों में हम सदा, पढ़ते जग-हित मंत्र।
आव्हान सुख-शांति का, पूजन करते यंत्र।।
आजादी के बाद से, हुआ समुन्नत देश।

राष्ट्र संघ में छा रहा, भारत का गणवेश।। 
रानी दुर्गावती यश-कथा  
रानी दुर्गावती का, अमर नाम-इतिहास।
वीर पराक्रम शौर्य की, अमर दुंदुभी खास।।
पंद्रह सौ चौबीस में, कीर्ति पिता की शान।
दुर्गाष्टमी के पर्व पर, कन्या हुई महान।।
माँ दुर्गा का रूप थी, दुर्गावती सुनाम।
मात-पिता हर्षित हुए, माँ को किया प्रणाम।।
राजमहल में खेलकर, तरकश तीर कमान।
बच्ची बढ़ युवती हुई, सभी गुणों की खान।।
सुतवधु नृप संग्राम की, दलपत की थी जान।
चंदेलों की लाड़ली, गौंड़वंश की शान।।
दलपतशाह-निधन हुआ, थमी शासन-डोर।
सिंहासन पर बैठकर, पाई कीर्ति-अँजोर।।
किया सुशासन अभय हो, फैली कीर्ति जहान।
नन्हें वीर नारायण, में बस्ती थी जान।।   
शासन सोलह वर्ष का, रहा प्रजा में हर्ष।
जनगण का सहयोग ले, किया राज्य-उत्कर्ष।।
ताल तलैया बावली, खूब किये निर्माण।
सुखी प्रजा सारी रही, पा विपदा से त्राण।।
सोने की मुद्राओं से, भरा रहा भंडार।
योद्धाओं की चौकसी, अरि पर सतत प्रहार।।
हुए आक्रमण शत्रु के, विफल किये हर बार।
रणकौशल में सिद्धहस्त, थी सेना-सरदार।।
थे दीवान धार सिंह, हाथी सरमन साथ।
दुश्मन पर जब टूटते, शत्रु पीटते माथ।।
बाजबहादुर को हरा, किया नेस्तनाबूत।
बुरी नजर जिनकी रही, गाड़ दिया ताबूत।।  
अकबर को यश खल गया, करी फौज तैयार।
आसफखाँ सेना बढ़ा, आ धमका इस बार।।
समरांगण में आ गईं, हाथी पर आरूढ़।
रौद्ररूप को देखकर, भाग रहे अरि मूढ़।।
अबला को निर्बल समझ, आए थे शैतान।
वीर सिंहनी भिड़ गयी, धूल मिलाई शान।।
वीरों का था आचरण, डटी रही दिन रात।
भारी सेना थी उधर, फिर भी दे दी मात।।  
चौबिस जून घड़ी बुरी, आया असमय पूर। 
अरि-सेना नाला नरइ, घिर रानी मजबूर।।
तीर आँख में आ घुसा, तुरत निकाला खींच।
मुगल-सैन्य के खून से, दिया धरा को सींच।।
बैरन तोपें गरजतीं, दुश्मन-सैन्य अपार।
मुट्ठी भर सेना न पर, शत्रु पा सका पार।।
अडिग रही वीरांगना, अंत सामने जान।
शत्रु-सैन्य से घिर गई,किया आत्म-बलिदान।।  
गरज सिंहनी ने तभी, मारी आप कटार।
मातृभूमि पर जान दे, सुरपुर गई सिधार।। 
*
नन्हीं चिड़िया  
मैं कुर्सी पर बैठकर, देख रहा परिदृश्य।
मन संवेदित हो गया, मुझे भा गया दृश्य।।

नन्हीं चिड़िया डोलती, शयन कक्ष में रोज।
चीं-चीं करती घूमती, कुछ करती थी खोज।।

चीं-चीं कर चूजे उन्हें,  नित देते संदेश।
मम्मी-पापा कुछ करो, क्यों सहते हो क्लेश।।

नीड़ बना था डाल पर, जहाँ न पत्ते फूल।
झुलसाती गर्मी रही, जैसे तीक्ष्ण त्रिशूल।।

वातायन से झाँककर, देखा कमरा कूल।
ठंडक उसको भा गयी, हल खोजा अनुकूल।।

कूलर से खस ले उड़ी, वह नन्हीं सी जान।
तेज तपन से थी विकल, वह अतिशय हैरान।।

पहुँच डाल उसने बुना, खस-तृण युक्त मकान।
ग्रीष्म ऋतु में मिल गया, लू से उसे निदान।।

सब में यह संवेदना, प्रभु ने भरी अथाह।
बोली भाषा अलग पर, सुख की सबको चाह।।

कौन कष्ट कब चाहता, जग में जीव जहान।

सुविधायें सब चाहते, पशु- पक्षी इन्सान।।  
*
बूढ़ा बरगद देखता, चौपालों की शाम।
कैसी हवा बदल रही, जीना हुआ हराम।।

घर-घर में छा रहा है, क्षुद्र स्वार्थ का रोग।
विपदा में हैं वृद्ध जन, माँगे मिले न भोग।।

जीवन भर रिश्ते गढ़े, कुछ न आ रहे काम।
अपने ही मुँह फेरकर, हुए अचानक वाम।।

धीरे से दिल ने कहा, चल खोजें अब ठौर।
अपना घर अब है नहीं, यही हवा का दौर।। 

माला गूँथी  प्रेम की, सभी रहेंगे साथ।
सूखी रोटी देखकर, सबने खींचे हाथ।।

आज समझ में आ गया, नहीं किया अहसान।
अपनों की खातिर जिये, तब हम थे नादान।।

समाचार के पृष्ठ पर, आँखें करती खोज। 
कौन हमारा चल दिया, पढ़ें यही अब रोज।। 

हर कोई ढोंगी नहीं, सब न करें प्रतिघात। 
मन विश्वास जगाइए, तभी कटेगी रात।।

लोग न चाहें आपको, मिलने से हों दूर।
मन-झाँकें; देखें कमी, हो मुखड़े पर नूर।।

मन चंचल होता बहुत, पाखी सा उड़ दूर।
वश में जिसने कर लिया, हँसता वही हुजूर।। 

सदा बड़ों को चाहिए, छोटों को दें प्यार।
छोटों को भी चाहिए, सदा करें मनुहार।।

अज्ञानी सिर पीटता, हो जाता लाचार।
ज्ञानी अपने ज्ञान से, लाता नये विचार।।  

शहनाई की गूँज संग, डोली आती  द्वार।
साजन संग अठखेलियाँ, आँगन मिले दुलार।।

बाबुल का घर छोड़कर, जब आती ससुराल।
वधु अपनापन ढूॅँढ़ती, घर-आँगन खुशहाल।।  

पाखंडी धरने लगेे, साधु संत का रूप।
धर्म ज्ञान वैराग्य को, करने लगे कुरूप।।

भोले-भाले भक्त जन, करते हैं विश्वास।
उनकी श्रृद्धा भक्ति का, करें कुटिल उपहास।। 

आडंबर फैला रखा, धन पर रखते ध्यान। 
अधिक दान यदि दे सके, तब लेते संज्ञान।।

बाह्य रंग को देखकर, फँस जाते यजमान।
पाप-पुण्य के फेर में, बस इनका कल्यान।।

धर्म मर्म से विमुख हैं, तिलक लगाते माथ।
तृप्ति बोध से दूर हो, नित खुजलाते हाथ।।

चमचों की जयकार से, खुश होते श्रीमान।
दया धर्म आता नहीं, मन में है अभिमान।।

मिथ्या ज्ञान बघारते, करें न कुछ उपकार।
नारी को ही ज्ञान दें, पुरूषों को फटकार।।

दूजों कोेे उपदेश दें, धर्म-कर्म के नाम।
खुद के जीवन में सदा, करते उल्टे काम।।

शिक्षित होंगे यदि सभी, नहीं फँसेंगे लोग।
बुद्धिमान ही जगत में, पायें मोहन भोग।।

वेद उपनिषद् में भरा, बृहद् ज्ञान भंडार। 
जिसने इसको है पढ़ा,जीवन उसका पार।। 

समझदार के पास ही, धन का है उपयोग।
अज्ञानी के हाथों से, मिट जाते सब योग।।

होती लक्ष्मी चंचला, उसका कहीं न ठौर।
सरस्वती को साथ रख, सदा रहेगी भोर।।  

जहाँ प्रकृति सौंदर्य हैं, वहीं बसें  भगवान।
अनुपम छवि को देखकर, नत मस्तक इंसान।। 




कविता संग की दोस्ती, थामा उसका हाथ।
मुझसे जब-जब रूठती, तब-तब हुआ अनाथ।।

प्रश्न करे जग बावरा, लिखता जो दिन रात ।
कौन पढ़ेगा यह सभी, तेरे दिल की बात ।।

कुछ अपनेे ही कोसते, देख मेरा यह काज।
प्रतिपल समय गवाँ रहा, आती है ना लाज।।

तन की ताकत के लिये, पौष्टिक हैं आहार ।
मन की शक्ती के लिये, जीवन में सुविचार ।।

कविता कभी न चाहती, मानवता पर घात ।
जिसमें जग का हित रहे, उसे सुहाती बात ।।

मिटे विषमता देश की, अरू मानव मन भेद ।
प्रगति राह में सब बढ़ें, व्यर्थ बहे न श्वेद ।।

जगे हृदय संवेदना, या बदले परिवेश ।
यही सोच कर लिख रहा, शायद बदले देश ।।8


छल प्रपंच की आड़ ले..............
करुणा जागृत कीजिये, निज मन में श्री मान ।
अहंकार की विरक्ति से, जग होता कल्यान ।।

दूर छिटकने जब लगें, सारे अपने लोग ।
तब समझो है लग गया, अहंकार का रोग ।।

मन ग्लानि से भर उठे, अपने छोड़ें साथ ।
काम न ऐसा कीजिये, झुक जायेे यह माथ।।

मन अशांत हो जाय जब, मत घबरायें आप ।
विचलित कभी न होइयेे, करंे शांति का जाप ।।

गिर कर उठते जो सदा, करते ना परवाह ।
पथ दुरूह फिर भी चलें, मिलती उनको राह ।।

कष्टों में जीवन जिया, मानी कभी न हार ।
सफल वही होते सदा, जीत मिले उपहार ।।

भूत सदा इतिहास है, वर्तमान ही सत्य ।
कौन भविष्यत जानता, काल चक्र का नृत्य ।।

छल प्रपंच की आड़ ले, बना लिया जो गेह ।
पंछी यह उड़ जाएगा, पड़ी रहेगी देह ।।8

समय चक्र के सामने.....................
बच्चे हर माँ बाप को, लगें गले का हार।।
समय चक्र के सामने, फिर होते लाचार।।

समय अगर प्रतिकूल हो, मात-पिता हों साथ।
बिगड़े कार्य सभी बनें, कभी न छोड़ें हाथ।।

जीवन का यह सत्य है, ना जाता कुछ साथ।
आना जाना है लगा, इक दिन सभी अनाथ।।

मन में होता दुख बहुत, दिल रोता दिन रात ।
आँखों का जल सूखकर, दे जाता  आघात ।।

जीवन का दर्शन यही, हँसी खुशी संग साथ ।
जब तक हैं संसार में, जियो उठाकर माथ ।।

तन पत्ता सा कँापता, जर्जर हुआ शरीर ।
धन दौलत किस काम की, वय की मिटें लकीर ।।

जीवन भर जोड़ा बहुत, जिनके खातिर आज ।
वही खड़े मुँह फेर कर, हैं फिर भी नाराज ।।

छोटे हो छोटे रहो, रखो बड़ों का मान ।
बड़े तभी तो आपको, उचित करें सम्मान ।।

दिल को रखें सहेज कर, धड़कन तन की जान ।
अगर कहीं यह थम गयी, तब जीवन बेजान।।

परदुख में कातर बनो, सुख बाँटो कुछ अंश।
प्रेम डगर में तुम चलो, हे मानव के वंश ।।

सास-ससुर,माता-पिता................
बहू अगर बेटी बने, सब रहते खुशहाल ।
दीवारें खिचतीं नहींे, हिलमिल गुजरें साल ।।

सास अगर माता बने, बढ़ जाता है मान ।
जीवन भर सुख शांति से, घर की बढ़ती शान ।।

सास बहू के प्रेम में, छिपा अनोखा का राज ।
रिद्धि सिद्धि समृद्धि का, रहता सिर पर  ताज ।।

खुले दिलों से सब मिलें, ना कोई खट्टास ।
वातायन जब खुला हो, सुख शान्ति का वास।।

रिश्तों का यह मेल ही, खुशियों की बरसात ।
दूर हटें संकट सभी, सुख की बिछे बिसात।।

सास-ससुर, माता-पिता, दोनों एक समान ।
कोई भी अन्तर नहीं, कहते वेद पुरान ।।8

रिश्तों में  खट्टास का.....
रिश्तों में खट्टास का, बढ़ता जाता रोग ।
समय अगर बदला नहीं, तो रोएँगे लोग ।।

लोभ मोह में लिप्त हैं, आज सभी इंसान ।
ऊपर बैठा देखता, समदर्शी भगवान ।।

अगला पिछला सब यहीं, करना है भुगतान ।
पुनर्जन्म तक शेष ना, कभी रहेगा जान ।।

जीवन का यह सत्य है, ग्रंथों का है सार ।
जो बोया तुमने सदा, वही काटना यार ।।

संस्कृति कहती है सदा, यह मोती की माल ।
गुथी हुयी उस डोर से,  टूटे ना हर हाल ।।

रिश्तों में बंधकर रहें, हँसी खुशी के साथ ।
बरगद सी छाया मिले, सिर पर होवे हाथ ।।

रिश्ते नाते हैं सदा, खुशियों के भंडार ।
सदियों से हैं रच रहे, उत्सव के संसार  ।।7


पाखंडी धरने लगेे ...........
शिक्षा सबको है मिले, ज्ञान बढ़े दिन रात।
शिक्षित मानव ही सदा, तम को देंवंे मात।।11


प्रिये आपकी बात को, सुनता हूँ  ...
प्रिये आपकी बात को, सुनता हूँ दिन रात ।
नहीं सुनी तुमने कभी, मेरे दिल की बात ।।
भावुक मेरा यह हृदय,क्या लिखता दिन रात।
कभी नहीं तुमने कहा, मुझे सुनाओ तात।। 
ऐसे ही जीवन गया, कैसा है संगात।
मेरे भावों से रहीं, तुम बिल्कुल अज्ञात।।
कविता के आकाश में, जब भी भरूँ उड़ान ।
सारी हवा निकाल कर, बन जातीं नादान ।।
कविता मेरे दिल बसी, मिला नेक संसार।
पाकर उसको खुश हुये, यह जीवन आधार ।।
हर पल रहती साथ में, दिन हो चाहे रात ।
प्रियतम जैसी है वही, समझे हर जज्बात।।
हर कवि की पीड़ा यही,स्वजनों में न खास।
दूजांे के दिल में बसें, पत्नी रहे उदास।।
कवि की यह अंतरव्यथा, चाहे तुलसी दास ।
रखा नाम रत्नावली, जग जाहिर इतिहास ।। 
पत्नी की झिड़की सुनी, छोड़ गये घर द्वार।
कविता के संग में रहे, दिया विश्व उपहार।।
राम चरित मानस लिखा, अदभुत् सौंपा ग्रंथ ।
जन मानस में छा गये, दिखा गये नव पंथ ।।
पति पत्नी का धर्म है, यदि कविता हो साथ।
सहर्ष उसे स्वीकारिये, ऊँचा होगा माथ।। 
कविता के बल पर कवि, जग में हुये महान ।
युग अभिनंदन कर रहा, लोग करे गुणगान।।12


कलियुग में धन ही सदा.............
कलियुग में धन ही सदा, आता सब के काम।
सदियों से हर आदमी, इसका रहा गुलाम।।

धन ही सबकी चाह है, सदा रहा सिरमौर।
घर में कितना हो भरा, सभी चाहते और।।

धन लूटन को हैं खड़े, सारे चोर डकैत। 
सुख की नींद न सो सकें, पालें सभी लठैत।।

धन सहेजना है सरल, अधिक कठिन है ज्ञान।
धन अनुगामी ज्ञान का, यही सत्य है जान।।

शुभ धन कहलाता वही, नेक रहें जब श्रोत।
गलत राह से जब मिले, सुख की नींद न सोत।।

धन से होता है बड़ा, जीवन में सद्ज्ञान ।

जिसके बल पर आदमी, बन जाता इन्सान ।।8

पानी की बूँदें कहें ......................



बादल बरखें नेह के, धरती भाव विभोर।
हरित चूनरी ओढ़कर, हर्षित होती भोर।।

पानी की बूँदें  कहें, मुझको रखो सहेज।
व्यर्थ न बहने दो मुझे, प्रभु ने दिया दहेज।।

जल जीवन मुस्कान है, समझें इसका अर्थ।
पानी बिन सब सून है, नहीं बहायें  व्यर्थ।।

ताल तलैया बावली, बनवाने का काम।
पुण्य कार्य करते रहे, पुरखे अपने नाम।।

निर्मल जल पीते रहे, दुनिया के सब लोग।
नहीं किसी को तब हुआ, इससे कोई रोग।।

अविवेकी मानव हुआ, दूषित कर आबाद।
नदी सरोवर बावली, किए सभी बरबाद।।

जल को संचित कीजिये, बाँध नदी औ कूप। 
साफ स्वच्छ इनको रखें, नहीं चुभेगी धूप।।

सरवर गंदे हो गये, जीवन अब दुश्वार। 
जल.थल.नभचर,जड़.अचर,संकट बढ़ें हजार।।

नदी ताल औ बाँध हैं, जगती के अवतार। 
इनका नित वंदन करें, हैं जीवन आधार।।

आकाशवाणी 11 मई 2018



खिड़की से अब झाँकते.................
खिड़की से अब झाँकते, हर बूढ़े माँ बाप ।
गुम सुम से हैं देखते, सूरज का संताप ।।

जीवन भर दौड़े बहुत, नहीं किया विश्राम ।
आया जब संकट समय,उन पर लगा विराम।। 

श्वासें अब हैं टूटतीं, रोते नेत्र निचोर ।
नील गगन में डूबती, आशाओं की भोर ।।

विश्वासों की पोटली, संजाये थे साथ।
काल परिंदा ले उड़ा, क्षण में किया अनाथ।।

जीवन की संध्या घड़ी, अंधकार गहराय ।
आशाओं के दीप को,उर में कौन जलाय।।

जिन गलियों में खेलकर, बड़े हुये युवराज ।
उन राहों को लाँघ कर, चले गये सरताज ।।

नये क्षितिज पर उड़ गये, बेटा भानु प्रताप।
काट डोर सम्बन्ध कीे, बिछुड़ गये माँ बाप ।।

अपेक्षायें न राखिये, अपनों से कुछ आप ।
मन दर्पण सा टूट कर, बन जाये अभिशाप।।8

नीड़ बनाने को उड़ा, इक दिन पँछी भोर .........
नीड़ बनाने को उड़ा, इक दिन पँछी भोर ।
लेकर तिनका चोंच में, चला विहग उस ओर ।।  
पंख पसारे पहुँच गया, सुन जंगल का शोर ।
जहाँ प्रकृति की गोद में, नाच रहा था मोर ।।
वृक्षों ने आश्रय दिया, फैला दी निज बाँह ।
यहाँ बसेरा तुम करो, हम सब देंगे छाँह ।।
निर्भय होकर तुम रहो, ऊँची उड़ो उड़ान ।
मीठे फल खाते रहो, श्रम से नहीं थकान ।।
हरियाली मन मोहती, पशु पक्षी वनराज ।
झरने नदी पहाड़ संग, छेड़ो अपना साज ।।
कोयल  की जब गूँजतीे, मनमोहक आवाज ।
सारा जंगल झूमता,  पवन  बजाता साज ।।
हर्षित हो कर नाचता,  पंख फैलाए मोर ।
सबके मन को मोहता, कुहू कुहू का शोर  ।।
हम रक्षक इस विपिन के, पाते जग से मान ।
मिलकर आपस में रह़ें, यही हमारी शान ।।
सृष्टि का हम मिल सभी, करते नित श्रंगार । 
त्रिविध पवन गिरि फूल से, भरते कोषागार ।। 
सुबह शाम बस छेड़ना, अपनी मधुरिम तान । 
करतल घ्वनि से हम सभी, करते हैं  सम्मान ।।

वृक्षों की यह बात सुन, पँछी हुआ विभोर ।
नीड़ बनाया डाल में, यहीं हमारा ठौर ।।12

अहंकार रवि को हुआ ................

अहंकार रवि को हुआ, मैं इस जग की शान ।
कौन जगत में है यहाँ, मुझसे बड़ा महान ।।
कहकर रवि जाने लगा, संग गया प्रकाश ।
अंधकार छाने लगा, तब जग हुआ हताश ।।
बात उठी तब चतुर्दिश, प्रश्न बना सरताज ।
देगा कौन प्रकाश अब, अंधकार का राज ।।
दीपक कोने से उठा, फैला गया उजास ।
मानो सब से कह रहा, क्यों हैं आप उदास ।।
मैं छोटा सा दीप हूँ, जग में करूँ प्रकाश ।
सदियों से मैं लड़ रहा, कभी न हुआ निराश ।।
सुप्त मनोबल जग उठा, जागा दृढ़ विश्वास ।
जाग उठी नव चेतना, परिवर्तन की आस ।।
तब मानव ने है कहा, सुन सूरज यह बात ।
हम सब तुम से कम नहीं, तुझको दूॅँगा मात ।।
कमर कसी उसने तभी, रवि को देने मात ।
ऊर्जा श्रोत तलाश कर, तम से दिया निजात ।।
न्यूक्लियर में खोजता, ऊर्जा के अब श्रोत ।
अंधकार से भिड़ गया, इक छोटा खद्योत ।।
अविष्कार वह कर रहा, उस दिन से वह रोज ।
परख नली में कर रहा, नव जीवन की खोज ।।
जूझ चुनौती से रहा, मानव आज जहान ।
बौद्धिक क्षमता से हुआ, वह सच में बलवान ।।
आकाशवाणी 11 मई 2018 

नारी ने पैदा किये, जग में देव महान।
उसकी छाया में पले, राम कृष्ण भगवान।।
नारी कोमल फूल सी, पुरुष वृक्ष की छाँह।
जिसकी छाया में सजे, घर-आँगन की बाँह।।
संस्कारों की गंध को, फैलाती चहुँ ओर।
उसके इसी प्रयास से, घर घर होती भोर।।
मध्यकाल अबला रही, ढाये जुल्म अनेक। 
दासी हो कर रह गयी,नियत नहीं थी नेक।।
सुरा सुंदरी चाह ने, कोठे किये अबाद।
नारी महिमा भूलकर, किया उसे बरबाद।।
बदल गया है अब समय, शिक्षित है इंसान।
नर नारी का भेद हर, दिया उचित स्थान।। 
अबला अब सबला हुई, दौड़ रही सब ओर।
पीछे सबको छोड़कर, पकड़ रही हर छोर।।
मोह सदा गुड़-चाशनी, मक्खी सा चिपकाय ।
इसमें जो भरमा गया, जीवन भर पछताय।।
कविता मेरी है सखा, मेरा दिल बहलाय ।
मेरे मन को वह सदा, नित संबल पहुँचाय ।।