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गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

बमबुलियाँ: गिरीश बिल्लोरे मुकुल

लोकगीत :

बमबुलियाँ:गाते हैं नर्मदा परिक्रमा करने वाले

गिरीश बिल्लोरे मुकुल 

ऊपर की फोटो गूगल से साभार नीचे धुंआधार सेल फोन फोटो


नर्मदा के दर्शन को जाने वाले /नर्मदा परिक्रमा करने वाले,बुन्देल खंड के नर्मदा भक्त यात्री बमबुलियाँ गा के अपनें सफर की शुरुआत करतें हैं । ये आवाजें उन दिनों खूब लुभातीं थीं अल्ल सुबह जब "परकम्मा-वासी "[नर्मदा की प्रदक्षिणा करने वाले ] रेल से उतर कर सीधे नर्मदा की और रुख करते और कोरस में उनके स्वर बिखरते हौले-हौले स्वर मध्धम होते जाते । जी हाँ माँ नरमदा के सेवकों का जत्था भेड़ाघाट रेलवे स्टेशन से सीधे भेडाघाट की संगमरमरी चट्टानों को धवल करती अपनी माँ के दर्शन को जाता । पक्के रंगों की साडियों में लिपटीं देवियाँ ,युवा अधेड़ बुजुर्ग सभी दल के सदस्य सब के सब एक सधी सजी संवरी आवाज़ गाते मुझे आज भी याद हैं । सच जिस नर्मदा की भक्ति इनको एक लय एक सूत्र में पिरो देती है तो उसकी अपनी धारा कैसी होगी ? जी बिलकुल एक सधी किंतु बाधित होते ही बिफरी भी चिर कुंवरी माँ नर्मदा ने कितने पहाडों के अभिमान को तोडा है.
बमबुलियाँ:पढ़ें लिखों को है राज
बिटिया....$......हो बाँच रे
पुस्तक बाँच रे.......
बिन पढ़े आवै लाज बिटिया बाँच रे
हो.....पुस्तक बाँच रे.......!!
[01]
दुर्गावती के देस की बिटियाँ....
पांछू रहे काय आज
बिटिया........बाँच ......रे......पुस्तक बाँच ........!
[02]
जग उजियारो भयो.... सकारे
मन खौं घेरत जे अंधियारे
का करे अनपढ़ आज रे
बाँच ......रे....बिटिया ..पुस्तक बाँच ........!
[03]
बेटा पढ़ खैं बन है राजा
बिटियन को घर काज रे.....
कैसे आगे देस जो जै है
पान्छू भओ समाज रे.....
कक्का सच्ची बात करत हैं
दोउ पढ़ हैं अब साथ रे .............!!

*
969/ए-2,गेट नंबर-04 जबलपुर म.प्र.
MAIL : girishbillore@gmail.com
Phone’s: 09926471072

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

कृति चर्चा: 'उत्तरकथा' -संजीव 'सलिल'

नव दुर्गा पर्व समापन पर विशेष कृति चर्चा : 
राम कथा के अछूते आयामों को स्पर्श करती 'उत्तरकथा'
संजीव 'सलिल'
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(कृति परिचय: उत्तर कथा, महाकाव्य, महाकवि डॉ. प्रतिभा सक्सेना, आकार डिमाई, पृष्ठ 208, सजिल्द-बहुरंगी लेमिनेटेड आवरण, मूल्य 260 रु. / 15$, अयन प्रकाशन नै दिल्ली रचनाकार संपर्क: "Pratibha Saksena" <pratibha_saksena@yahoo.com> )

*
विश्व वाणी हिंदी को संस्कृत, प्राकृत से प्राप्त उदात्त विरासतों में ध्वनि विज्ञान आधृत शब्दोच्चारण, स्पष्ट व्याकरणिक नियम, प्रचुर पिंगलीय (छान्दस) सम्पदा तथा समृद्ध महाकाव्यात्मक आख्यान हैं। विश्व की किसी भी नया भाषा में महाकाव्य लेखन की इतनी उदात्त, व्यापक, मौलिक, आध्यात्मिकता संपन्न और गहन शोधपरक दृष्टियुक्त परंपरा नहीं है। अंगरेजी साहित्य के वार-काव्य महाकाव्य के समकक्ष नहीं ठहर पाते। राम-कथा तथा कृष्ण-कथा क्रमशः राम्मायण तथा महाभारत काल से आज तक असंख्य साहित्यिक कृतियों के विषय बने हैं। हर रचनाकार अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप विषय-वास्तु के अन्य-नए आयाम खोजता है। महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पूकाव्य, उपन्यास, कहानी, दृष्टान्त कथा, बोध कथा, प्रवचन, लोकगीत, कवितायेँ, मंचन (नाटक, नृत्य, चलचित्र), अर्थात संप्रेषण के हर माध्यम के माध्यम से असंख्य बार संप्रेषित किये जाने और पढ़ी-सुने-देखी जाने के बाद भी इन कथाओं में नवीनता के तत्व मिलना इनके चरित नायकों के जीवन और घटनाओं की विलक्षणता के प्रतीक तो हैं ही, इन कथाओं के अध्येताओं के विलक्षण मानस के भी प्रमाण हैं जो असंख्य बार वर्णित की जा चुकी कथा में कुछ नहीं बहुत कुछ अनसुना-अनदेखा-अचिंतित अन्वेषित कर चमत्कृत करने की सामर्थ्य रखती है।

इन कथाओं के कालजयी तथा सर्वप्रिय होने का कारण इनमें मानव  अब तक विकसित सभ्यताओं तथा जातियों (सुर, असुर, मनुज, दनुज, गन्धर्व, किन्नर, वानर, रिक्ष, नाग, गृद्ध, उलूक) के उच्चतम तथा निकृष्टतममूल्यों को जीते हुए शक्तिवान तथा शक्तिहीन पात्र तो हैं ही सामान्य प्रतीत होते नायकों के महामानवटीवी ही नहीं दैवत्व प्राप्त करते दीप्तिमान चरित्र भी हैं। सर्वाधिक विस्मयजनक तथ्य यह कि रचनाकार विविध घटनाओं तथा चरित्रों को इस तरह तराश और निखार पाते हैं कि आम पाठक, श्रोता और दर्शक मंत्रमुग्ध रह जाते हैं की यह तो ज्ञात ही नहीं था। यहाँ तक की संभवतः वे चरित्र स्वयं भी अपने बारे में इतने विविधतापूर्ण आयामों की कल्पना न कर पाते। वैविध्य इतना की जो मात्र एक कृति में महामानव ही नहीं भगवन वर्णित है, वही अन्य कृति में अनाचारी वर्णित है, जो एक कृति में अधमाधम है वही अन्य कृति में महामानव है। राम कथा को केंद्र में रखकर रची गयी जिन कृतियों में मौलिक उद्भावना, नीर-क्षीर विवेचन तथा सामयिक व भावी आवश्यकतानुरूप चरित्र-चित्रण कर भावातिरेक से बचने में रचनाकार समर्थ हुआ है, उनमें से एक इस चर्चा के केंद्र में है।

हिंदी की समर्पित अध्येता, निष्णात प्राध्यापिका, प्रवीण कवयित्री तथा सुधी समीक्षक डॉ.प्रतिभा सक्सेना रचित महाकाव्य 'उत्तर कथा' में राम-कथा के सर्वमान्य तथ्यों का ताना-बाना कुछ इस तरह बुना गया है कि सकल कथा से पूर्व परिचित होने पर भी न केवल पिष्ट-पेशण या दुहराव की अनुभूति नहीं होती अपितु निरंतर औत्सुक्य तथा नूतनता की प्रतीति होती है। भूमिजा भगवती सीता को केंद्र में रखकर रचा गया यह महाकाव्य वाल्मीकि, पृष्ठभूमि, प्रस्तावना, आगमन, मन्दोदरी, घटनाक्रम, अशोक वन में, प्रश्न, रावण, युद्ध के बाद, वैदेही, सहस्त्रमुख पर विजय, अवधपुरी में, निर्वासिता, मातृत्व, स्मृतियाँ: रावण का पौरोहित्य, कौशल्या, स्मृतियाँ : सीता, रात्रियाँ, आक्रोश, क्या धरती में ही समा गयी, अयोध्या में, वाल्मीकि, जल समाधि, अंतिम प्रणाम, वाल्मीकि, जल-समाधि, अंतिम प्रणाम, वाल्मीकि  तथा उपसंहार शीर्षक 27 सर्गों में विभाजित है।

प्राच्य काव्याचार्यों ने बाह्य प्रकृति (दृश्य, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदि), अन्य व्यक्ति (गुरु, आश्रयदाता, मित्र, शत्रु आदि), विचार (उपदेश, दर्शन, देश-प्रेम, आदर्श-रक्षा, क्रांति, त्याग आदि), तथा जिज्ञासा को काव्य-प्रेरणा कहा है। पाश्चात्य साहित्यविदों की दृष्टि में दैवी-प्रेरणा, अनुकरण वृत्ति, सौंदर्य-प्रेम, आत्माभिव्यक्ति, आत्म-विस्तार तथा मनोविश्लेषकों के अनुसार अतृप्त कामना, हीनता आदि काव्य-प्रेरणा हैं। विवेच्य कृति में प्राच्य-पाश्चात्य कव्याचार्यों द्वारा मान्य काव्य-तत्वों में से अधिकांश की सम्यक उपस्थिति उल्लेख्य है।

काव्यालंकार में आचार्य भामह महाकाव्य के लक्षण निर्धारित करते हुए कहते हैं:

'' सर्गबद्धो महाकाव्यं महतां च महच्चयत।
अग्राम्यशब्दमर्थ च अलंकारं सदाश्रयं।।
मन्त्रदूत प्रयाणाजिन नायकाभ्युदयन्चवत।
पञ्चभिःसंधिभिर्युक्तं नाति व्याख्येयमृद्धियं।।''

भामह सर्गबद्धता, वृहदाकार, उत्कृष्ट अप्रस्तुतविधान, शिष्ट-नागर शब्द-विधान, आलंकारिक भाषा, महान चरित्रवान दिग्विजयी नायक (केन्द्रीय चरित्र), जीवन के विविध रूपो; दशाओं व् घटनाओं का चित्रण, संघटित कथानक, न्यून व्याख्या तथा प्रभाव की अन्विति को महाकाव्य का लक्षण मानते हैं। धनञ्जय के अनुसार ''अतरैकार्थ संबंध संधिरेकान्वयेसति'' अर्थात संधि का लक्षण एक प्रयोजन से संबद्ध अनेक कथांशों का प्रयोजन विशेष से संबद्ध किया जाना है। 'उत्तरकथा' में महाकाव्य के उक्त तत्वों की सम्यक तथा व्यापक उपस्थति सहज दृष्टव्य है।

पाश्चात्य साहित्य में मूल घटना की व्याख्या (एक्स्पोजीशन ऑफ़ इनीशिअल इंसिडेंट), विकास (ग्रोथ), चरम सीमा (क्लाइमैक्स), निर्गति (डेनौमेंट) तथा परिणति (कैटोस्ट्रोफ्री) को महाकाव्य का लक्षण बताया गया है। इस निकष पर भी 'उत्तरकथा' महाकव्य की श्रेणी में परिगणित की जाएगी। विदुषी कवयित्री ने स्वयं कृति को महाकाव्य नहीं कहा यह उनकी विनम्रता है। भूमुका में उनहोंने पूरी ईमानदारी से रामकथा के बहुभाषी वांग्मय के कृतिकारों, प्रस्तोताओं, आलोचकों, लोक-कथाओं, लोक-गीतों आदि का संकेत कर उनका ऋण स्वीकारा है।

रुद्रट ने महाकाव्य के लक्षण लंबी पद्यबद्ध कथा, प्रसंगानुकूल अवांतर कथाएं, सर्गबद्धता, नाटकीयता, समग्र जीवन चित्रण, अलंकार वर्णन, प्रकृति चित्रण, धीरोद्दात्त नायक, प्रतिनायक, नायक की जय, रसात्मकता, सोद्देश्यता तथा अलौकिकता मने हैं। उत्तर कथा में सामान्य के विपरीत नायक सीता हैं। ऐसे कथानक में सामायतः प्रतिनायक रावण होता है किन्तु यहाँ राम की दुर्बलता उन्हें प्रतिनायकत्व के निकट ले जाती है। यह एक दुस्साहसिक और मौलिक अवधारणा है। राम और रावण में से कौन एक या दोनों प्रतिनायक हैं? यह विचारणीय है। इसी तरह सीता को छोड़कर शेष सभी उनके साथ हो रहे अन्याय में मुखर या मौन सहभागिता का निर्वहन करते दिखते हैं। रचनाकार ने समग्र जीवन चित्रण के स्थान पर प्रमुख घटनाओं को वरीयता देने का औचित्य प्रतिपादित करते हुए भूमिका में कहा है- 'लोक-मानस में राम कथा इतनी सुपरिचित है की बीच की घटनाएँ या कड़ियाँ न भी हों तो कथा-क्रम में बाधा नहीं आती। वैसे भी कथा कहना या चरित गान करना मेरा उद्देश्य नहीं है।' अतः, घटनाओं के मध्य कथा-विकास का अनुमान लगाने का दायित्व पाठक को कथा-विकास के विविध आयामों के प्रति सजग रखता है। प्रकृति चित्रण अपेक्षाकृत न्यून है। यत्र-तत्र अलंकारों की शोभा काठ-प्रवाह या चरित्रों के निखर में सहायक है किन्तु कहीं भी रीतिकालीन रचनाकारों की तरह आवश्यक होने पर भी अलंकार ठूंसने से बचा गया है। नायक की विजय का तत्व अनुपस्थित है। प्रमुख चरित्रों सीता, राम तथा रावण तीनों में से किसी को भी विजयी नहीं कहा जा सकता। सीता का ओजस्वी, धीर-वीर-उदात्त केन्द्रीय चरित्र अपने साथ हुए अन्याय के कारन पाठकीय सहानुभूति अर्जित करने के बाद भी दिग्विजयी तो नहीं ही कहा जा सकता। घटनाओं तथा चरितों के विश्लेषण को विश्वसनीयता के निकष पर प्रमाणिक तथा खरा सिद्ध करने के उद्देश्य से असाधारणता, चमत्कारिकता या अलौकिकता को दूर रखा जाना उचित ही है। आचार्य हेमचन्द्र ने शब्द-वैचित्र्य, अर्थ-वैचित्र्य तथा उभय-वैचित्र्य (रसानुरूप सन्दर्भ-अर्थानुरूप छंद) को आवश्यक माना है किन्तु प्रतिभा जी ने सरलता, सहजता, सरसता की त्रिवेणी को अधिक महत्वपूर्ण माना है। वे परम्परागत मानकों का न तो अन्धानुकरण करती हैं, न ही उनकी उपेक्षा करती हैं अपितु कथानक की आवश्यकतानुसार यथा समय यथायोग्य मानकों का अनुपालन अथवा अनदेखी कर अपना पथ स्वयं प्रशस्त कर पाठक को बांधे रखती हैं। डॉ। नागेन्द्र द्वारा स्थापित उदात्तता मत (उदात्त चरित्र, उदात्त कार्य, उदात्त भाव, उदात्त कथानक व उदात्त शैली) इस कृति से पुष्ट होता है।

महाकाव्यत्व के भारतीय मानकों में प्रसंगानुकूल तथा रसानुकूल छंद वैविध्य की अनिवार्यता प्रतिपादित है जबकि अरस्तू आद्योपरांत एक ही छन्द आवश्यक मानते हैं। प्रतिभा जी की यह महती कृति मुक्त छंद में है किन्तु सर्वत्र निर्झर की तरह प्रवाहमयी भाषा, सम्यक शब्द-चयन, लय की प्रतीति, आलंकारिक सौष्ठव, रम्य लालित्य तथा अन्तर्निहित अर्थवत्ता कहीं भी बोझिल न होकर रसमयी नर्मदा तथा शांत क्षिप्रा की जल-तरंगों से मानव-मूल्यों के महाकाल का भावाभिषेक करती प्रती होता है।

यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) को महाकाव्य (एपिक) का अनिवार्य व केन्द्रीय लक्षण कहा है। सीता के जीवन में हुई त्रासदियों से अधिक त्रासदी और क्या हो सकती है- जन्म के पूर्व ही पिता से वंचित, जन्म के साथ ही  माता द्वारा परित्यक्त, पिता द्वारा शिव-धनुष भंग के प्रण के कारण विवाह में बाधा, विवाह के मध्य परशुराम प्रसंग से अवरोध, विवाह-पश्चात् राम वनवास, रावण द्वारा हरण, मुक्ति पश्चात् राम का संदेह, आग्नि परीक्षा, अयोध्या में लांछन, निष्कासन, वन में युगल पुत्रों का पालन और अंत में निज-त्रासदियों के महानायक राम के आश्रय में पुत्रों को ह्बेजने की विवशता और अनंत अज्ञातवास...। अरस्तु के इस निकष पर महाकाव्य रचना के लिए सीता से बेहतर और कोई चरित्र नहीं हो सकता।

महाकाव्य के मानकों में सर्ग, प्रसंग तथा रसानुकूल छंद-चयन की परंपरा है। छंद-वैविध्य को महाकाव्य का वैशिष्ट्य माना गया है। प्रतिभा जी ने इस रूढ़ि के विपरीत असीमित आयाम युक्त मुक्त-छंद का चयन किया है जिसे बहुधा छंद-मुक्त ता छंद हीन मानने की भूल की जाती है। मानक छंदों के न होने तथा गति-यति के निश्चित विधान का अनुपालन न किये जाने के बावजूद समूची कृति में भाषिक लय-प्रवाह, आलंकारिक वैभव, अर्थ गाम्भीर्य, कथा विकास, रसात्मकता, सरलता, सहजता, घटनाक्रम की निरंतरता, नव मूल्य स्थापना, जन सामान्य हेतु सन्देश, रूढ़ि-खंडन तथा मौलिक उद्भावनाओं का होना कवयित्री के असाधारण सामर्थ्य का परिचायक है।

सामान्यतः छंद पिंगल का ज्ञान न होने या छंद सिद्ध न हो पाने के कारण कवि छंद रहित रचना करते हैं किन्तु प्रतिभा जी अपवाद हैं। उनहोंने छन्द शास्त्र से सुपरिचित तथा छन्द लेखन में समर्थ होते हुए भी छंद का वरण संभवतः सामान्य पाठकों की छंद को समझने में असुविधा के कारण नहीं किया। अधिकतर प्रयुक्त चतुष्पदियों में कहीं-कहीं  प्रथम-द्वितीय तथा तृतीय-चतुर्थ पंक्तियों में तुकांत साम्य है, कहीं प्रथम-तृतीय, द्वितीय-चतुर्थ पंक्ति में पदभार समान है, कहीं असमान... सारतः किसी पहाडी निर्झरिणी की सलिल-तरंगों की तरह काव्यधारा उछलती-कूदती, शांत होती-मुड़ती, टकराती-चक्रित होती,  गिरती-चढ़ती डराती-छकाती, मोहती-बुलाती प्रतीत होती है।

कृतिकार ने शैल्पिक स्तर पर ही नहीं अपितु कथा तत्वों व तथ्यों के स्तर पर भी स्वतंत्र दृष्टिकोण, मौलिक चिंतन और अन्वेषणपूर्ण तार्किक परिणति का पथ चुना है। आमुख में कंब रामायण, विलंका रामायण, आनंद रामायण, वाल्मीकि रामायण आदि कृतियों से कथा-सूत्र जुटाने का संकेत कर पाठकीय जिज्ञासा का समाधान कर दिया है। स्वतंत्र चिन्तन तथा चरित्र-चित्रण हेतु संभवत: राजतरंगिणीकार कल्हण का मत कवयित्री को मन्य है, तदनुसार 'वही श्रेष्ठ कवि प्रशंसा का अधिकारी है जिसके शब्द एक न्यायाधीश के पादक्य की भांति अतीत का चेत्र्ण करने में घृणा अथवा प्रेम की भवना से मुक्त होते हैं।' कवयित्री ने रचना के केन्द्रीय पात्र सीता के प्रति पूर्ण सहानुभूति होते हुए भी पक्षधरता का पूत कहीं भी नहीं आने दिया- यह असाधारण संतुलित अभिव्यक्ति सामर्थ्य उनमें है।

कृतिकार ने सफलता तथा साहसपूर्वक श्री राम पर अन्य कवियों द्वारा आरोपित मर्यादा पुरुषोत्तम, अवतार, भगवान् तथा लंकेश रावण पर आरोपित राक्षसत्व, तानाशाही, अनाचारी आदि दुर्गुणों से अप्रभावित रहकर राम की तुलना में रावण को श्रेष्ठ तथा सीता को श्रेष्ठतम निरूपित किया है। वे श्री इलयावुलूरि राव के इस मत से सहमत प्रतीत होती हैं- 'यह विडंबना की बात है की सारा संसार सीता और राम को आदर्श दम्पति मानकर उनकी पूजा करता है किन्तु उनका जैसा दाम्पत्य किसी को स्वीकार नहीं होगा।'

उत्तरकथा का रावन अपनी लंबी अनुपस्थिति में मन्दोदरी द्वारा कन्या को जन्म देने, उससे यह सत्य छिपाए जाने तथा उसे बताये बिना पुत्री को त्यागे जाने के बाद भी पत्नी पर पूर्ण विशवास करता है जबकि राम रावण द्वारा बलपूर्वक ले जाकर राखी गयी सीता के निष्कलंकित होने पर भी उन पर बार-बार संदेह कर मर्यादा के विपरीत न केवल कटु वचन कहते हैं अपितु अग्निपरीक्षा लेने के बाद भी एक अविवेकी के निराधार लांछन की आड़ में सीता को निष्कासित कर देते हैं। इतना ही नहीं सीता-पुत्रों द्वारा पराजित किये जाने पर राम अपने पितृत्व (जिसे वे खुद संदेह के घेरे में खड़ा कर चुके थे) का वास्ता देकर उन्हें पुत्र देने को विवश करते हैं। फलतः, सीता अपनी गरिमा और आत्म सम्मान की रक्षा के लिए रामाश्रय निकृष्टतम मानकर किसी से कुछ कहे बिना अग्यात्वास अज्ञातवास अंगीकार कर लेती हैं, आत्मग्लानिवश सीता-वनवास में सहयोगी रहे रामानुज लक्ष्मण तथा राम दोनों आत्महत्या करने के लिए विवश होते हैं।

विविध रामकथाओं में से कथा सूत्रों का चयन करते समय प्रतिभा जी को राम की बड़ी बहिन शांता के अस्तिस्व, पुत्रेष्टि यज्ञ के पौरोहित्य की दक्षिणा में ऋषि श्रृंगी से विवाह, लंका विजय पश्चात् बार-बार उकसाकर सीता से रावण का चित्र बनवाने-राम को दिखाकर संदेह जगाने, की कथा भी ज्ञात हुई होगी किन्तु यह प्रसंग संभवतः अप्रासंगिक मानकर छोड़ दिया गया। यक्ष-रक्ष, सुर-असुर सभ्यताओं के संकेत कृति में हैं किन्तु उन्नत नाग सभ्यता (एक केंद्र उज्जयिनी, वंशज कायस्थ) का उल्लेख न होना विस्मित करता है, संभवतः उन्होंने नागों को रामोत्तर माना हो। राम-कथा पर लिखनेवालों ने प्रायः घटना-स्थल की भौगोलिक-पर्यावरणीय परिस्थितियों की अनदेखी की है। प्रतिभा जी ने लीक से हटकर मय सभ्यता तथा मायन कल्चर का साम्य इंगित किया है, यहप्रशंसनीय है।

इस कृति का मूलोद्देश्य तथा सशक्त पक्ष सीता, मन्दोदरी तथा रावण के व्यक्तित्वों को लोक-धारणा से हटकर तथ्यों के आधार पर मूल्यांकित करना तथा जनमानस में सप्रयास भगवतस्वरुप विराजित किये गए राम-लक्ष्मण के चरित्रों के अपेक्षाकृत अल्पज्ञात पक्षों को सामने लाकर समाज पर पड़े दुष्प्रभावों को इंगित करना है। कृतिकार इस उद्देश्य में सफल तथा साधुवाद का पात्र है।
_________________________________
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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0761- 2411131 / 094251 83244


dengue: Symptoms, Treatment & Prevention Dr Acharya L S

HEALTH CORNER_
 
dengue: Symptoms, Treatment & Prevention
 
 Dr Acharya L S का प्रोफ़ाइल फ़ोटो 
 
Dr.Acharya L S


The alarming rise in cases of dengue across cities in the country has become an increasing cause of worry. It now more important than ever to be aware of the risk factors, and protect yourself. Prevention in this case, is truly better than cure.

What is dengue?

Dengue is a disease caused by a family of viruses that are transmitted by mosquitoes. Dengue cannot be spread directly from person to person, i.e., is not contagious. A person can only become infected by the bite of a mosquito that is infected with the dengue virus. It is important to note that these mosquitoes bite during the daytime as well as nighttime.

Symptoms

Dengue usually begins with chills, headache, pain while moving the eyes, and backache. Persistent high fever is characteristic of dengue. Other symptoms to watch out for are exhaustion, backache, joint pains, nausea, vomiting, low blood pressure and rash.

Treatment

Because dengue is caused by a virus, there is no specific treatment for it; treatment of dengue is typically concerned only with the relief of symptoms. People who show the symptoms mentioned above should immediately consult a physician. It is important to drink plenty of fluids, stay hydrated and get as much rest as possible.

Dengue hemorrhagic fever (DHF)

DHF is a more severe form of dengue and can be fatal if untreated. It tends to affect children under the age of ten, and causes abdominal pain, hemorrhage (bleeding), and circulatory collapse (shock).

Prevention

There is no vaccine to prevent dengue. Prevention of dengue requires eradication of the mosquitoes that carry this virus. This means high standards of hygiene and sanitation. Avoid areas littered with garbage. All containers of stationary water (like drums or buckets) should be covered or discarded, including flower vases and pets' feeding bowls. If your area is infested with mosquitoes, wear long sleeves, use mosquito repellants and fumigate if necessary.

Dr.Acharya L S
 
             (Dy.Commissioner)
    VII UP SJAB (India)
                  Lucknow Center
Member UP State Red Cross Management Committee
(National Disaster Response Team of INDIA)
National Disaster WatSan Response Team of India.

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

आज का विचार thought of the day:

आज का विचार thought of the day:

मन ने कल्पित किया कभी कुछ 
निराकार साकार भी।
सच पाया था 'सलिल' कुछ न कुछ
निराधार साधार भी।।




जो न बदल पाऊँ, कर पाऊँ जस का तस, स्वीकार मैं।
बदल सकूँ जो, साहस दे बदलूँ  कर अंगीकार मैं।।
और बुद्धि दे जो अंतर  को अंतर में स्थान दे-
मौन होकर अशुभ-अनय का करूँ 'सलिल' प्रतिकार मैं।।



रविवार, 21 अक्टूबर 2012

विचित्र किन्तु सच: 'आत्मा' का वजन सिर्फ 21 ग्राम !



विचित्र किन्तु सच:

'आत्मा' का वजन सिर्फ 21 ग्राम !

इंसानी आत्मा का वजन कितना होता है?

इस सवाल का जवाब तलाशने के लिये 10 अप्रैल 1901 को अमेरिका के डॉर्चेस्टर में एक प्रयोग किया गया। डॉ. डंकन मैक डॉगल ने चार अन्य साथी डॉक्टर्स के साथ प्रयोग किया था।

इनमें 5 पुरुष और एक महिला मरीज ऐसे थे जिनकी मौत हो रही थी। इनको खासतौर पर डिजाइन किये गये फेयरबैंक्स वेट स्केल पर रखा गया था। मरीजों की मौत से पहले बेहद सावधानी से उनका वजन लिया गया था। जैसे ही मरीज की जान गई वेइंग स्केल की बीम नीचे गिर गई। इससे पता चला कि उसका वजन करीब तीन चौथाई आउंस कम हो गया है।

ऐसा ही तजुर्बा तीन अन्य मरीजों के मामले में भी हुआ। फिर मशीन खराब हो जाने के कारण बाकी दो को टेस्ट नहीं किया जा सका। साबित ये हुआ कि हमारी आत्मा का वजन 21 ग्राम है। इसके बाद डॉ. डंकन ने ऐसा ही प्रयोग 15 कुत्तों पर भी किया। उनका वजन नहीं घटा, इससे निष्कर्ष निकाला कि जानवरों की आत्मा नहीं होती।


फिर भी इस पर और रिसर्च होना बाकी थी लेकिन 1920 में डंकन की मौत हो जाने से रिसर्च वहीं खत्म हो गई। कई लोगों ने इसे गलत और अनैतिक भी माना। इस पर 2003 में फिल्म भी बनी थी। फिर भी सच क्या है ये एक राज है।

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धरोहर: दोहा दुनिया

धरोहर:

दोहा दुनिया


रसखान

प्रेम प्रेम सब ही कहें, प्रेम न जानत कोय।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोय॥

काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सबहीं ते प्रेम है - परे, कहत मुनिवर्य॥

बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥
 

बिहारी

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।
अली कली में ही बिंध्यो, आगे कौन हवाल।।
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।
 

रहीम

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुस, चून॥
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥

 

कबीर

तिनका कबहुँ न निंदिये, पाँव तले भलि होय ।
कबहूँ उड़ आँखन पड़े, पीर घनेरी होय ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ॥

वृन्द

कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥

क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ कैसे निकसे तोय॥

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
 
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मास
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस
[इस दोहे के रचयिता के बारे में संदेह है]
 
केशवदास
केशव केसन असि करी जस अरि हु न कराय
चन्द्र वदन मृग लोचनी बाबा कह कें जाय
 
 
चंदबरदाई
चार बास चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान
ता ऊपर सुल्तान है मत चूकै चौहान
 
रसलीन
कुमति चंद प्रति द्यौस बढ़ि मास मास कढ़ि आय।
तुव मुख मधुराई लखे फीको परि घटि जाय
 
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दोहा दुनिया: नदिया जैसी रात -शशि पाधा

दोहा दुनिया:



नदिया जैसी रात 

शशि पाधा
*
नीले नभ से ढल रही, नदिया जैसी रात
ओढ़ी नीली ओढनी, चाँदी शोभित गात

श्यामल अलकें खोल दीं, तारक मुक्ताहार
माथे सोहे चन्द्रिमा, चाँद गया मन हार
   
सागर दर्पण झांकती, अधरों पे मित हास     
लहरें हँसती डोलतीं, नयनों में परिहास

छमछम झांझर बोलती, धीमी सी पदचाप
पात-पात पर रागिनी, डाली-डाली थाप  

मंद-मंद बहती पवन, मंद्र लहर संगीत 
रजनीगंधा ढूँढती, तारों में मनमीत

ओट घटा के चाँद था, रात न आए चैन
नभ तारों में ढूँढते, विरहन के दो नैन  

चंचल चितवन चातकी, श्याम सलोनी रात
चंदा देखें एकटक, दोनों बैठी साथ 

श्वेत कमलिनी झील में, रात सो गई संग
लहरों में घुल मिल गए, नीलम-हीरा रंग

भोर पलों में सूर्य ने, मानी अपनी भूल
धरती झोली भर दिए, पारिजात के फूल

************

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

धरोहर : स्व0 बलवीर सिंह 'रंग'

धरोहर :


इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में आनंद लें स्व0 बलवीर सिंह 'रंग' की रचना का।

. स्व0 बलवीर सिंह 'रंग'             परिचय -
गीतकार  -.................................................स्व0 बलवीर सिंह 'रंग'
जीवनकाल -      .....................................1911 -  1984
जन्म -स्थान ---                 ..........              जिला -एटा   (उ0प्र0 )                                                                    

हमने जो भोगा सो गाया ।

अकथनीयता को दी वाणी                                             

वाणी को भाषा कल्याणी
कलम कमण्डल लिये हाथ में
दर-दर अलख जगाया
हमने जो भोगा सो गाया ।

सहज भाव से किया खुलासा

आँखों देखा हुआ तमाशा
कौन करेगा लेखा-जोखा
क्या खोया, क्या पाया
हमने जो भोगा सो गाया ।

पीडाओं के परिचायक हैं

और भला हम किस लायक हैं
अन्तर्मठ की प्राचीरों में
अनहद नाद गुँजाया
हमने जो भोगा सो गाया ।

          प्रस्तुतकर्ता-     कमल

माहिया: दिन आस निरास के हैं -शशि पाधा

माहिया:
दिन आस निरास के हैं
शशि पाधा 
*
दिन आस निरास भरे  
धीरज रख रे मन
सपने विश्वास  भरे
 *
सूरज फिर आएगा
बादल छंटने दो
वो फिर मुस्काएगा
 *
हर दिवस सुहाना है
जीवन उत्सव सा
हँस हँस के मनाना है
 *
दुर्बल मन धीर धरो
सुख फिर  लौटेंगे
इस पल की पीर हरो
 *
बस आगे बढ़ना है
बाधा आन  खड़ी
साहस से लड़ना है
 *
थामो ये हाथ कभी  
राहें लम्बी हैं 
क्या दोगे साथ कभी  
 *
फिर भोर खड़ी द्वारे
वन्दनवार सजे
क्यों बैठे मन हारे
 *
नदिया की धारा है
थामों पतवारें
उस पार किनारा है
 *
हाथों की रेखा है
खींची विधना ने
वो कल अनदेखा है
 *
दिन कैसा निखरा है
अम्बर की गलियाँ
सोना सा बिखरा है
 *
शशि पाधा १७ सितम्बर २०१२

माहिया: पंजाब का लोकगीत नवीन चतुर्वेदी

माहिया: पंजाब का लोकगीत
नवीन चतुर्वेदी
*
स्रोत : ग़ज़ल सृजन - द्वारा श्री आर. पी. शर्मा महर्षि
पृष्ठ संख्या 92

यह पंजाब के एक लोकप्रिय गीत से अभिप्रेरित है। सन 1936 में गीतकार हिम्मतराय ने फ़िल्म 'ख़ामोशी' के लिए पहला माहिया लिखा था। माहिया - लेखन में डा. हैदर कुरैशी और डा. मनाज़िर आशिक हरगानवी के नाम प्रमुख हैं। माहिया में तीन मिसरे होते हैं, बह्र निम्न प्रकार है:

मफ़ऊलु मफ़ाईलुन
221 1222

फ़ैलु मफ़ाईलुन
21 1222

मफ़ऊलु मफ़ाईलुन
221 1222


कुछ ग़म के सिवा सोचें
रेत के टीले पर
हम बैठ के क्या सोचें - डा. मनाज़िर आशिक हरगानवी

बोसीदा इमारत है
शेरो सुख़न अब तो
लफ़्ज़ों की तिजारत है - डा. एस. पी. 'तफ़ता ज़ारी'

पैसे की हुकूमत है
झूठ की दुनिया में
सब इस की बदौलत है - एहतिशाम अख़्तर

तू लांस की लज़्ज़त दे
दिल में बिठा मुझको
थोड़ी सी मुहब्बत दे - मुईन महज़र


उदाहरण जहाँ तीनों मिसरे समान होते हैं यानि 221 1222

इस दौर में दहकाँ ही
बोलेगा अगर सच तो
पिछड़ा हुआ इंसाँ ही - डा. एस. पी. 'तफ़ता ज़ारी'

कुछ लोग माहिया यूँ भी लिखते हैं

22 112 22
फ़ैलुन फ़एलुन फ़ैलुन
22 22 2
फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
22 112 22
फ़ैलुन फ़एलुन फ़ैलुन

बादल तो ज़रूर आये
लेकिन साजन का
संदेश नहीं लाये - आर. पी. शर्मा महर्षि

विचारोत्तेजक लेख: इस्लाम : एक वैदिक धर्म प्रकाश गोविन्द

विचारोत्तेजक लेख:
इस्लाम : एक वैदिक धर्म 
 
प्रकाश गोविन्द
*   
वेद सार्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ हैं तथा वैदिक आचरणों से परे न तो कोई अराधना विधि है और न प्रभु तक पहुँचने का मार्ग ! क्षेत्र विशेष तथा समयानुसार इसमें स्वाभाविक परिवर्तन तो होते रहे हैं परन्तु मूल वेद ही रहे ! अनेकानेक विद्वानों के अनुसार 'इस्लाम' भी वैदिक पद्धति पर ही आधारित है ! 

संस्कृत भाषा में 'मख' का अर्थ पूजा की अग्नि होता है सभी जानते हैं कि इस्लाम के आने से पहले समस्त पश्चिम में अग्नि-पूजा का चलन था ! 'मख' इस बात का सूचक है कि  वहां एक विशिष्ट अग्नि-मंदिर था ! 'मक्का-मदीना' वास्तव में 'मख-मेदिनी' अर्थात यज्ञं की भूमि का सूचक है ! 

इस्लाम धर्म के अनुयायी सामान्य रूप से विस्मयादिबोधक अव्यय एवं आराधना के लिए 'या अल्लाह 
(अल्ल: ) का प्रयोग करते हैं ! यह शब्द भी विशुद्ध रूप से संस्कृत मूल का है ! संस्कृत में अल्ल: , अवकः  और अन्बः  पर्यायवाची हैं और इनका अर्थ माता अथवा देवी से होता है ! माँ दुर्गा का आवाह्न  करते समय 'अल्ल :' का प्रयोग किया जाता है ! अतः 'अल्लाह' शब्द इस्लाम में पुरातनकाल से संस्कृत से ज्यों का त्यों ग्रहण कर प्रयोग में लाया गया ! 

मुस्लिम में माह 'रबी' सूर्य के द्योतक  'रवि' का अपभ्रंश लगता है क्योंकि संस्कृत का 'व'  प्राकृत में 'ब' में परिवर्तित हो जाता है ! 

यह आश्चर्यजनक समानता है कि अधिकाँश मुस्लिम त्यौहार शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाये जाते हैं, जो एकादशी के पुरातन वैदिक महत्त्व का द्योतक है ! 
इसी प्रकार संस्कृत में 'ईड ' का अर्थ पूजन है ! पूजा से आनंद जन्मता है ! आनंदोत्सव के रूप में इस्लाम का शब्द 'ईद' विशुद्ध रूप से संस्कृत का ही है ! 

हिन्दू धर्म में राशियों का विवरण है ! एक राशि 'मेष' है, जिसका सम्बन्ध मेमने (भेड़) से है !  पुराने समय में जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता था, तो नवीन वर्ष का आरम्भ होता था ! इस अवसर पर मांस-भोजन का प्रचलन था ! लोग ऐसा करके अपनी ख़ुशी प्रकट करते थे ! 'बकरी- ईद' का उदभव भी इसी तरह हुआ होगा ! 

ईदगाह भी इसी तरह सामने आया होगा ! जहाँ तक नमाज़ का सवाल है, वह संस्कृत की दो धातुएं 'नम' और  'यज' से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ झुकना तथा पूजा करना है ! 

रमजान के महीने को अरबी भाषा में 'सियाम' भी कहा जाता है ! 'सियाम' शब्द  'सौम' से बना है, जिसका अर्थ है - रुक जाना अर्थात एक विशेष अवधि तक के लिए खाने-पीने एवं स्त्री प्रसंग में रुक जाना !      

प्रार्थना करने से पहले शरीर के पांच भागों की स्वच्छता मुस्लिमों के लिए अनिवार्य है ! यह विधान भी 'शरीर शुद्धयर्थ पंचांगन्यास' से ही व्यत्पन्न स्पष्ट होता है ! 

इस्लाम धर्म की मान्यता के अनुसार उनके अनुयायिओं के लिए पांच फ़र्ज़ हैं --
1- तौहीद - (एक ईश्वर और अंतिम पैगम्बर पर ईमान)
2- नमाज़ - (उपासना) 
3- रोजा - (उपवास) 
4- ज़कात - (सात्विक दान) 
5- हज - (तीर्थाटन)  

इससे प्रतीत होता है कि मूलाधार एक ही है, सिर्फ पूजाविधि परिवर्तित है   


प्रस्तुति -                        

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

कजरी गीत: गौरा वंदना -संजीव 'सलिल'

कजरी गीत:





गौरा वंदना
संजीव 'सलिल'
*
गौरा! गौरा!! मनुआ मानत नाहीं, दरसन दै दो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! तुम बिन सूना है घर, मत तरसाओ रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!!  बिछ गये पलक पाँवड़े, चरण बढ़ाओ रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! पीढ़ा-आसन सज गए, आओ बिराजो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! पूजन-पाठ न जानूं, भगति-भाव दो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! कुल-सुहाग की बिपदा, पल में टारो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! धरती माँ की कैयाँ हरी-भरी हो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! लोभ-द्वेष महिषासुर, मार भगाओ रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! पान-फूल स्वीकारो, भव से तारो रे गौरा!
*

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

माहिया गीत: मौसम के कानों में --संजीव 'सलिल'

माहिया गीत   
मौसम के कानों में
संजीव 'सलिल'
*
 
(माहिया:पंजाब का त्रिपदिक मात्रिक छंद है. पदभार 12-10-12, प्रथम-तृतीय पद सम तुकांत, विषम पद तगण+यगण+2 लघु = 221 122 11, सम पद 22 या 21 से आरंभ, एक गुरु के स्थान पर दो गुरु या दो गुरु के स्थान पर एक लघु का प्रयोग किया जाता है, उर्दू पिंगल की तरह हर्फ गिराने की अनुमति, पदारंभ में 21 मात्रा का शब्द वर्जित।)
* 
मौसम के कानों में
कोयलिया बोले,
खेतों-खलिहानों में।
*
आओ! अमराई से
 
आज मिल लो गले, 
भाई और माई से।
*
आमों के दानों में,
गर्मी रस घोले,
बागों-बागानों में---
*
होरी, गारी, फगुआ
गाता है फागुन,
बच्चा, बब्बा, अगुआ।
*
 
प्राणों में, गानों में,
मस्ती है छाई,
दाना-नादानों में---
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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कविता: सुबह-सवेरे इंदिरा प्रताप
















कविता:
सुबह-सवेरे  
इंदिरा प्रताप
*
सुबह सवेरे
छल – छल जल
उमगी एक तरंग
लहर – लहर लहराया
चंचल जल |
भोर – किरण जल थल
खिले सुमन
मृग तृष्णा सा मन
करे नित्य नर्तन |
सन – सन - सन
चली पवन
उड़ा संग ले मन
तन हर्षाया |
कुहू – कुहू की तान
लाया मधुर विहान
दिल भर आया |
रस – रूप – गंध
सब एक संग
हैं तेरे ही अंश
हे ! परमब्रह्म |
सुन्दर, शुभ्र प्रभात
मन भाया
धरती पर
धीरे से
उतर आया |

विष्णु खरे की कविताएं

विष्णु खरे की कविताएं

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छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश में 9 फरवरी, 1940 को जन्मे विष्णु खरे हिंदी कविता, आलोचना और संपादन की दुनिया में एक विरल उपस्थिति हैं। खाते में आधा दर्जन कविता संकलन, बहुत सारे अनुवाद और समीक्षाएं। ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक रहे। लघु पत्रिका ‘वयम्’ निकाली। दो टूक लहजे के कारण हमेशा विवादों से भी वास्ता। फिलहाल दिल्ली
छोड़कर मुंबई में वास। दुनिया के बहुत सारे देशों की यात्राएं।  ईमेलः vishnukhare@yahoo.com
असह्य
दुनिया भर की तमाम प्यारी औरतों और आदमियों और बच्चों
मेरे अपने लोगो
सारे संगीतों महान कलाओं विज्ञानों
बड़ी चीज़ें सोच कह रच रहे समस्त सर्जकों
अब तक के सारे संघर्षों जय-पराजयों
प्यारे प्राणियों चरिन्दों परिन्दों
ओ प्रकृति
सूर्य चन्द्र नक्षत्रों सहित पूरे ब्रह्माण्ड
हे समय हे युग हे काल
अन्याय से लड़ते शर्मिंदा करते हुए निर्भय (मुझे कहने दो) साथियों
तुम सब ने मेरे जी को बहुत भर दिया है भाई
अब यह पारावार मुझसे बर्दाश्त नहीं होता
मुझे क्षमा करो
लेकिन आख़िर क्या मैं थोड़े से चैन किंचित् शान्ति का भी हक़दार नहीं

तभी

सृष्टि के सारे प्राणियों का
अब तक का सारा दुःख
कितना होता होगा यह मैं
अपने वास्तविक और काल्पनिक दुखों से
थोड़ा-बहुत जानता लगता हूँ
और उन पर हुआ सारा अन्याय?
उसका निहायत नाकाफ़ी पैमाना
वे अन्याय हैं जो
मुझे लगता है मेरे साथ हुए
या कहा जाता है मैंने किए
कितने करोड़ों गुना वे दुःख और अन्याय
हर पल बढ़ते ही हुए
उन्हें महसूस करने का भरम
और ख़ुशफ़हमी पाले हुए
यह मस्तिष्क
आख़िर कितना ज़िन्दा रहता है
कोशिश करता हूँ कि
अंत तक उन्हें भूल न पाऊँ
मेरे बाद उन्हें महसूस करने का
गुमान करनेवाला एक कम तो हो जाएगा
फिर भी वे मिटेंगे नहीं
इसीलिए अपने से कहता हूँ
तब तक भी कुछ करता तो रह

संकल्प

सूअरों के सामने उसने बिखेरा सोना
गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्पन व्यंजन
चटाया श्वानों को हविष्य का दोना
कौओं उलूकों को वह अपूप देता था अपनी हथेली पर
उसने मधुपर्क-चषक भर-भर कर
किया शवभक्षियों का रसरंजन
सभी बहरूपिये थे सो उसने भी वही किया तय
जन्मान्धों के समक्ष करता वह मूक अभिनय
बधिरों की सभा में वह प्रायः गाता विभास
पंगुओं के सम्मुख बहुत नाचा वह सविनय
किए जिह्वाहीन विकलमस्तिष्कों को संकेत-भाषा सिखाने के प्रयास
केंचुओं से करवाया उसने सूर्य-नमस्कार का अभ्यास
बृहन्नलाओं में बाँटा शुद्ध शिलाजीत ला-लाकर
रोया वह जन-अरण्यों में जाकर
स्वयं को देखा जब भी उसने किए ऐसे जतन
उसे ही मुँह चिढ़ाता था उसका दर्पन
अन्दर झाँकने के लिए तब उसने झुका ली गर्दन
वहाँ कृतसंकल्प खड़े थे कुछ व्यग्र निर्मम जन

साभार: रचनाकार
************

ENGLISH POEM: A cold Within

ENGLISH POEM:

A cold   Within  ;

In dark and bitter cold 
each one possessed  a stick of wood ,
or so the story's told ,

Their dying fire in need of logs ,
The first woman held hers back,
For on the faces around the fire ,
She noticed one was black ,
                   The next man looking cross the way ,
                   Saw one was not of his church ,
                   and couldn't  bring  himself to give 
                   the fire his stick of birch ,
             
the third one sat in tattered clothes ,
he gave his coat a hitch ,
Why his log be put to use ,
to warm the idle rich?
                   The man  just sat back

The rich man just sat -back and thought
of the wealth he had in store 
And somehow to keep what he had earned
from the lazy shiftless  poor ,
                       
                              The black man's  face bespoke revenge 
                              As the fire  passed from sight ,
                              for all he saw in  his stick of wood 
                              was his chance to spite the white 
 
The last man of this forlorn group,
did not expect  -for   gain ,
giving only to those who gave ,
was how he played the game ,
             
                             The logs held tight in deaths still hands ,
                             was the proof of human sin,
                             They didn't die from the cold without ,
                             They died from the cold within 

                             **********

दो बालगीत: बिटिया / लंगडी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

दो बालगीत: 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

1- बिटिया

*

स्वर्गलोक से आयी बिटिया।
सबके दिल पर छाई बिटिया।।

यह परियों की शहजादी है।
खुशियाँ अनगिन लाई बिटिया।।

है नन्हीं, हौसले बड़े हैं।
कलियों सी मुस्काई बिटिया।।

जो मन भाये वही करेगी.
रोको, हुई रुलाई बिटिया।।

मम्मी दौड़ी, पकड़- चुपाऊँ.
हाथ न लेकिन आई बिटिया।।

ठेंगा दिखा दूर से हँस दी .
भरमा मन भरमाई बिटिया।।

दादा-दादी, नाना-नानी,
मामा के मन भाई बिटिया।।

मम्मी मैके जा क्यों रोती?
सोचे, समझ न पाई बिटिया।।

सात समंदर दूरी कितनी?
अंतरिक्ष हो आई बिटिया।।

*****
*
बाल गीत:
2- लंगडी

आचार्य संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
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94251 83244 / 0761 2411131

poem: words from my heart -mileth

सामयिक लोकगीत: जे पुरवैया मतवारी --रामबाबू गौतम

सामयिक लोकगीत:
जे पुरवैया मतवारी.

रामबाबू गौतम, न्यू जर्सी 
*
       मेरी गाँठिन दर्द उठाय गयी,
                         जे पुरवैया मतवारी ||

     सनन- सनन जे पुरवैया चाले,
     वैरिन साँस मेरी रहि-२ चाले,
एजी ऊपर से बरसे पुरवैया की बौछार,
                       भीगि गयी देह सारी ||  
                       जे पुरवैया मतवारी ....

  अंग - अंग जब दर्द उठे और ठहराये,
  वैरिन संग चले पुरवैया मन घबडाये,
एजी ऊपर ते पसली को दर्द करे लाचार,
                           दर्द उठे अति भारी ||
                           जे पुरवैया मतवारी ..

  कदम-कदम पे उठि- उठि बैठूं चालूँ,
  वैरिन- टाँगें साथ चलें न कैसे चालूँ?,
एजी ऊपर ते दिल - दर्द उठे अनेकों बार,
                      जाते मति गयी है मारी ||
                        जे पुरवैया मतवारी ..

   घिरि- घिरि बदरा मेरे आँगन आयें,
   वैरिन बयार चले बदरा आयें- जायें,
एजी ऊपर ते दामिन तडपे, तडपे जिया हमार,
                    डर, अकुलाइ व्याकुल मैं भारी ||
                              जे पुरवैया मतवारी ..           
               ----------------
            

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

माहियों की छटा प्राण शर्मा

माहियों की छटा
प्राण शर्मा








*
तेरी ये पहुनाई 
कानों में घोले 
रस जैसे शहनाई 

मोहा पहुनाई से 
साजन ने लूटा 
मन किस चतुराई से 

माना तू अपना है 
तुझसे तो प्यारा 
तेरा हर सपना है 

फूलों जैसी रंगत 
क्यों न लगे प्यारी 
मुझको तेरी संगत 

हर बार नहीं करते 
अपनों का न्योता 
इनकार नहीं करते 

रस्ते  अनजाने  हैं 
खोने  का डर है 
साथी  बेगाने   हैं 

आँखों में ख्वाब तो हो 
फूलों के जैसा 
चेहरे पे  आब तो हो 

इक जैसी रात नहीं 
इक सा नहीं बादल 
इक सी बरसात नहीं 

तकदीर बना न सका 
तूली के बिन मैं 
तस्वीर बना न सका 

हम घर को जाएँ क्या 
बीच में बोलते हो 
हम हाल सुनाएँ क्या 

मैं - मैं ना कर माहिया 
ऐंठ नहीं चंगी 
रब से कुछ डर माहिया 

नादान  नहीं  बनते 
सब कुछ जानके भी 
अनजान नहीं बनते 

झगड़ा न हुआ होता 
सुन्दर सा अपना 
घरबार  बना  होता 

पल का मुस्काना न हो 
ए  मेरे  साथी 
झूठा  याराना  न  हो 

कुछ अपनी सुना माहिया 
मेरी भी कुछ सुन 
यूँ   प्यार  जगा  माहिया 

आँखों  में  नीर न  हो 
प्रीत ही क्या जिस में 
मीरा  की  पीर  न हो 

आओ  इक  हो  जाएँ 
प्रीत  की  दुनिया  में 
दोनों   ही   खो   जाएँ 

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