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रविवार, 7 जुलाई 2019

doha shatak* arun sharma



दोहा शतक अरुण शर्मा

आत्मज: श्रीमती सुशीला देवी-श्री श्याम बिहारी शर्मा पत्नी: प्रतिमा शर्मा शिक्षा: इंटरमीडिएट
लेखन विधा: दोहा, गीत, मुक्तक
आजिविका: प्राइवेट जाब
प्रकाशित: सम्मिलित काव्य संग्रह
संपर्क: मानसरोवर हाउसिंग सोसायटी, फ्लैट न• ३०१,बिल्डिंग न• ए/२ वराला देवी तालाब के पास
भिवड़ी जिला थाणे महाराष्ट्र पिन कोड ४२१३०२
चलभाष ९६८९३०२५७२ ईमेल: arun96890@gmail.com
चलभाष: ९०२२० ९०३८७ ,
ईमेल: ​
arunsharma968930@gmail.com    
*
ॐ 
दोहा शतक 


मिट्टी की इस देह से, पाल रहे अनुराग।
जब तक साँसें मित्रता, टूट गई तब आग।। 
*
अगर-मगर में क्यों प्रिये, जीवन रहीं गुजार?
जब तक साँसें चल रही, तब तक यह संसार।। 
*
अब कहने को शेष क्या?, तुमसे दिल की बात।
मौन हुए अहसास सब, सुप्त हुए जज्बात।। 
*
कथनी-करनी पर मुझे, खूब मिला उपदेश।
वही हलाहल बाँटता, जो खुद है अमरेश।। 
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शीत मौसमी भेंट है, घना कोहरा, ओस।
सर्दी के कारण हुआ, तरल जलाशय ठोस।। 
*
इस विस्तृत संसार की, सोच हुई संकीर्ण।
सिमट गये सब आज में, कल जो रहे प्रकीर्ण।। 
*
वैधानिक चेतावनी, सिर्फ कागजी काम।
धूम्र-मद्य-मद पान कर, मरता रोज अवाम।। 
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हम-तुम दोनों ठीक थे, बहके थे जज्बात।
ढूँढ़ रहा हूँ आज भी, नगमों वाली रात।। 
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अंतर में छल-छंद है, बाह्य आवरण शुद्ध।
ऐसे कैसे तुम भला, बन पाओगे बुद्ध।। 
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अति ही व्याकुलता भरे, अति करती मजबूर।
प्रेम करें अनिवार्य से, अति से रहना दूर।।
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खौफ न है कानून का, और न है अनुराग।
इसीलिए है देश में, पाकिस्तानी राग।।
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आशाओं के बीज से, निकले हैं कुछ खार।
हम तो भूखे रह गये, व्यंग्य करे संसार।। 
*
क्रोध कभी मत कीजिए, यह दुर्गुण की खान।
हरता बुद्धि, विवेक भी, नहीं छोड़ता ज्ञान।।
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छप्पन इंची वक्ष में, दुनिया का परिमाप।
तब क्यों भूखी देहरी, पेट रही है नाप।। 
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इन नैनों की कोर से, टपक रहे हैं शब्द।
प्रिय! अब तो आकर मिलो, बीत रहा है अब्द।। 
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पाहन कब कहता हमें, पूज्य बनाओ यार।
मानो तो मैं देव हूँ, या पत्थर बेकार।।  
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लाए वर्ष नवीनता, पाएँ हर पल हर्ष।
सुखमय हो जीवन सदा, मिले नित्य उत्कर्ष।। 
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गत ने आगत से कहा, खुश रखना हर हाल।
हाथ तुम्हारे दे दिया, मैंने पूरा साल।।
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अंतर के संताप ने, कलम थमा दी हाथ।
शब्द न रोटी बन सका, बस आँसू का साथ।।
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ऐसे- कैसे तुम मुझे, कहते हो कंगाल?
अंतरघट में छुपाकर, माया का जंजाल।। 
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पावक नभ जल भू हवा, पंचभूत की देह।
सिक्के से क्यों तौलता, होना है जब खेह।। 
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आँसू तेरा मोल क्या, तुझमें ऐब हजार।
जग क्या जाने पीर को, नीर दिखे हर बार।। 
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जिसने पाई ज़िंदगी, निश्चित है अवसान।
फिर भी  माया-मोह में, डूब रहा इंसान।। 
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ढल जाएगी एक दिन, उम्र, समय यह देह।
नश्वर तन प्रेम क्यों, जो मिट्टी का गेह।।
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कर्कश स्वर है काग का, करता दूर विछोह।
कोयल काली है मगर, वाणी लेती मोह।।
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दिल को जो अच्छा लगे, कर लेना निष्काम।
कल की चिंता में कहाँ,खत्म हुआ सब काम।।
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इस कलियुग ने आजकल, किस्से सुने तमाम।
दशरथ जैसे पिता सौ, पुत्र न पाया राम।। 
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खुशबू बसी गुलाब में, पीर छुपाये शूल।
जैसी जिसकी कामना, मिला उसे अनुकूल।।
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विनती करना प्रेम से, करना नहीं दहाड़।
चंद मिनट में आजकल, राई बने पहाड़।।
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ढल जाएँगे एक दिन, उम्र, रूप, मृदु देह।
तन पर इतना प्रेम क्यों, है मिट्टी का गेह।। 
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अगर चाहिए जिंदगी, सेहत भी भरपूर।
परामर्श मेरा यही, हों व्यसनों से दूर।। 
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राहों में बिखरे पड़े, बैर-भाव के शूल।
सोच-समझकर पैर रख, राह नहीं माकूल।। 
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है खराब वह व्यंजना, बाँट रही जो मौत।
बात हमारी सत्य है,व्यसन जिंदगी सौत।। 
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एक पंक्ति में हैं खड़े, तुलसी, नीम बबूल।
अलग-अलग तासीर को, जाने वही रसूल।।
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मौत सत्य है जान लें, जीवन कपट सलीब।
जीना चाहे जिंदगी, आती मौत करीब।। 
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सुखद सुभग सानिन्ध्य को, नमन करूँ कर जोर।
चिरकालिक हो बंधुता, सहज मैत्री डोर।। 
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रखना सदा कुटुंब में, समरसता का भाव।
नियम बने समुदाय को, अपनों में सद्भाव।। 
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जाना सबको एक दिन, राजा रंक फकीर।
सुखद कर्म करते रहें, जब तक रहे शरीर।। 
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रूपवती के रूप में, मैं खोया दिन-रात।
बुद्धिमती समझी नहीं, मेरे मन की बात।। 
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कुछ तारक, कुछ तारका, तारकमय आकाश।
एक सूर्य के उदय से, घर-घर हुआ उजास।। 
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पराधीन को बेड़ियाँ, कर देतीं मजबूर।
आज़ादी संग जिंदगी, जी ले मित्र जरूर।। 
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कुछ क्यारी में पुष्प हैं, कुछ में उगे बबूल।
सोच-समझ अनुबंध कर, काँटे,खुशबू, फूल।। 
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मौन भला कब राह दे, मार्ग न दे वाचाल।
नियत काल की उक्ति ही, करती मालामाल।। 
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शाकाहारी शुद्ध है, नित्य करें आहार।
जीवन को देते कहाँ, मृत शरीर आधार।। 
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रे! मन क्यों होता रहा, जग में नित्य अधीर।
वही कर रहा कर्म तू, जो कहती तकदीर।। 
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स्वयं सिद्धि का मंत्र जो, जपता सुबहो-शाम।
अंत समय में क्या उसे, मिल जाता सुखधाम।। 
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कौन उजाला बाँटता, कौन घनेरी रात?
अपने-अपने कर्म ही, देते फल-सौगात।। 
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अणुवत जन्मा जो वही, होगा आप विलीन।
कद बढ़ना निस्सार है, मानस अगर मलीन।। 
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विषधर विष धारे सदा, कभी न करता पान।
दशन करे वह अन्य का, नहीं गँवाता जान।। 
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चादर छोटी हो गई, या बढ़ गया शरीर।
चला सांत्वना ओढ़कर, जब से हुआ फकीर।। 
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लेखा-जोखा कर्म का, दिया तराजू डाल।
कलयुग बैठा तौलने, सद्गुण दिया निकाल।। 
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जीवन भर परिहास को, रहा तौलता रोज।
अंत हुआ जब सन्निकट, करे स्वयं की खोज।। 
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चंदन घिस-घिस कर मनुज, मस्तक लेता थोप।
पाएगा क्या सत्य को, करे अकारण कोप।। 
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हाथ जोड़कर ज्ञान पा, हाथ पसारे दान।
इज्जत मिलती प्रेम से, भक्ति-मिले भगवान।। 
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जीवन के परिप्रेक्ष्य में, आँखें रखना चार।
दो आँखें सत्कर्म पर, दो रोकें व्यभिचार।। 
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जीवन में प्रभु के लिए, रखें समर्पण-भाव।
भवसागर तारे यही, बनकर सुंदर नाव।। 
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कंकर में शंकर मिले, शंकर में शमशान।
अंतरपट को स्वच्छ रख, पा जाएगा ज्ञान।। 
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काल प्रवर्तित आज में, बदले रोज स्वरूप।
ढाई आखर छोड़कर, कुछ न रहा अनुरूप।। 
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हमने उनसे आज तक, की केवल फरियाद।
और उन्हें लगता रहा, बातें हैं अपवाद।। 
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हार हृदय की हार है, हार यथार्थ, अतीत।
हार मान ले हार जब, तब बेहतर हो जीत।। 
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ठंडक इतनी बढ़ गयी, काँपे नित्य शरीर।
मौन हो गए सूर्य भी, कौन हरे अब पीर।। 
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दिवा स्वप्न जैसी हुई, सुखद सुनहरी धूप।
आग, अँगीठी ही लगे, सुखमय दिव्य अनूप।। ६२ 
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आभूषण निर्मित किया, स्वर्ण तपाकर आग।
स्वर्णकार गुरू तुल्य है, शिष्य विसर्जित भाग।।
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दहन होलिका हो रहा, भेद हृदय में पाल।
समरसता को दफ्न कर, कौन यहाँ खुशहाल।।
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उपकारक रख भावना, तरु से लें संज्ञान
खा पत्थर जिसने दिए, गैरों को उपदान।।
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हाथों से प्रतिरूप पा, मन यह करे विचार।
मोल हमारा तब मिले, जब सुंदर आकार।।
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हाथों के आक्षेप से, पायें सुखद स्वरूप।
गीली मिट्टी मन रहा, ज्ञान मिला बन धूप।।
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कुंभकार के चाक का, किस्सा सुने तमाम।
पल में वह आकार दे, कल जो थे गुमनाम।।
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नश्वर यह संसार है, नश्तर इसके ख्वाब।
चंद दिनों की जिंदगी, प्रेम सभी का आब।।
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प्रेम हमारा तब प्रिये, हो सकता परिमेय।
जब अवगुंठन में कहीं, जाग उठा हो ध्येय।।
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गीत, गजल है वाटिका, मन उसके हैं बंद।
आलिंगन करना सखे, तन मादक मकरंद
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लूट रहा रस माधुरी, मधुकर चूम कपोल।
अनभिज्ञों के बाग में, करते विज्ञ किलोल।।
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बाज़ बड़े जांबाज है, बाज़ न आते बाज।
जीते बाजी बाजकर, नहीं बहानेबाज।।
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दिन अच्छे उनके हुए, जो हैं सदा समीप।
बाकी तो बस ढूढ़ते, फोड़-फोड़ के सीप।।
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धीरे-धीरे हो रहा, रिश्तों में बिखराव।
दो जन का परिवार है, बाकी सिर्फ लगाव।।
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बँटवारे के नाम से, भूल न जाना क्षेम।।
आँगन में दीवार पर, रखना दिल में प्रेम।
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मिट्टी की इस देह से, खूब रहा अनुराग।
साँसें जब तक दोस्ती, टूट गई तब आग।।
*
अगर-मगर में क्यों प्रिये, जीवन रही गुजार।
जब तक साँसें चल रही, तब तक यह संसार।।
*
अब कहने को है कहाँ, तुमसे दिल की बात।
अहसासें शय्या पड़ी, सुप्त हुए जज्बात।।
*
हम-तुम दोनों ठीक थे,बहके थे जज्बात।
ढूँढ रहा हूँ आज भी, नगमों वाली रात।।
*
कथनी-करनी पर मुझे, खूब मिला उपदेश।
वही हलाहल धारता, जिसका नाम उमेश।।
*
शीत ऋतु ने दे दिया, घना कोहरा, ओस।
सर्दी के कारण हुआ, तरल जलाशय ठोस।।
*
सिमट गए सब आज में, कल जो रहे प्रकीर्ण।।
इस विस्तृत संसार की, सोच हुई संकीर्ण।
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आशाओं के बीज से, निकले है कुछ खार।
हम तो भूखे रह गये, खुश होता संसार।। ८४
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जीवन पथ को कर्म से,सुगम करें हर राह।
माँ गंगा देती प्रिये, सबको सुखद पनाह।।
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धीरे-धीरे सुख रहा, माँ गंगे की पाट।
मौजूदा हालात में,कूड़ा कचरा घाट।।
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गंगा नद सा नद नहीं, ना गंगे सा नीर।
दर्जा पाया मातु का,फिर भी गंदे तीर।।
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करते गंगा आरती, लेकर मन संताप।
मन मैला धोये नहीं, कहाँ मिटेगें पाप।।
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ज्ञान बाँटते आजकल, माँ गंगे पर लोग।
सिर्फ दिखावा प्रेम या, करते है अनुयोग।।
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माता माता सब कहे, सबकी सुनती बात।
कब कूड़े से आम जन,देंगे इन्हें निजात।।
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जीवन पा निर्जीव रहे, मृत्यु मिला तब ज्ञान।
माते तेरी घाट पर, सच का सबको भान।।
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साफ-सफाई को अगर, समझेंगे हम युद्ध।।
मिलकर कोशिश गर करें, माँ होयेंगी शुद्ध।
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करे दिवंगत करे लालसा, अंतिम दर्शन गंग।
अस्थि विसर्जित कर मुझे, दो माते का संग।।
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धीरे-धीरे हो रही, माँ गंगे अब दूर।
दोष समय का नहीं है, मनुज-दोष भरपूर।।
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कर्म-कांड सह अर्चना,सब में गंगा-नीर।
पर कोई समझे नहीं, माँ गंगे की पीर।।
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पेट भरे, झोली भरे, अगिन मिटाये रोग।
माँ गंगे की नीर से, जीते कितने लोग
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मने दिवाली धूम से, होंठ सजे मुस्कान।
जले दीप, न हृदय जले, इसका रखना ध्यान
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गले लगाएँ प्रेम से, भूल सभी प्रतिवाद।
झूमर, झाँझर, झाँझरी, झूम करे संवाद
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जली हुई हर वर्तिका, देती यह संदेश।।
दीप जलाता आत्म को, रौशन करता देश
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पूजन-अर्चन से सदा, सफल हुआ हर काम।
रौशन मन-मंदिर करे, प्रेम अगर निष्काम।।
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अमन शांति का पाठ है, खुशियाँ मिले तमाम।
एक दीप रौशन करें, नित शहीद के नाम।।
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दीवाली के पर्व ने, दिया यही संदेश।
सबको दें शुभकामना, घर हो या परदेश। -

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सिर्फ दिखावा प्रेम या, करते है अनुयोग।।
ज्ञान बाँटते आजकल, माँ गंगे पर लोग।
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अस्थि विसर्जित कर मुझे, दो माते का संग।।
करे दिवंगत लालसा, अंतिम दर्शन गंग।
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रंग-बिरंगे रंग है, क्यों मन रखे सफेद।
कण-कण है रंगीन जब, क्यों रखता आच्छेद।।
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पर्वत भी राई बने, अगर हृदय ले ठान।
कोशिश से इस जगत में,बनते लोग महान।।
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तुम टेसू के फूल सम, मैं स्वाति की बूँद।
जग जाहिर है प्रेम क्यों, चलते आँखें मूँद।।
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रिश्तों में दीवार है, पर अपनों की खोज।
यही सिलसिला चल रहा, वर्षों से हर रोज।।
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एक-एक मत कीमती, खोले सबकी पोल।

संवैधानिक धर्म को, मत रुपये से तोल।। १०६
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