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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

समीक्षा दोहा दीप्त दिनेश, नीना उपाध्याय

पुस्तक चर्चा: 
कालजयी छंद दोहा का मणिदीप "दोहा दीप्त दिनेश"
चर्चाकार: प्रो. नीना उपाध्याय 
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आदर्शोन्मुखता, उदात्त दार्शनिकता और भारतीय संस्कृति की त्रिवेणी के पावन प्रवाह, सामाजिक जागरण और साहित्यिक सर्जनात्मकता से प्रकाशित मणिदीप की सनातन ज्योति है विश्ववाणी हिंदी संस्थान के तत्वावधान में 'शांति-राज पुस्तक माला' के अंतर्गत आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' और प्रो. साधना वर्मा के कुशल संपादन में समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर द्वारा प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा भाग ३ "दोहा दीप्त दिनेश।" सलिल जी से अथक प्रयासों के प्रतिफल इस संकलन के रचनाएँ प्रवाही, और संतुलित भाषा के साथ, अनुकूल भाव-भंगिमा को इंगित तथा शिल्प विधान का वैशिष्ट्य प्रगट करनेवाली हैं। 

'दोहा दीप्त दिनेश' के प्रथम दोहाकार श्री अनिल कुमार मिश्र ने 'मन वातायन खोलिए' में भक्ति तथा अनुराग मिश्रित आध्यात्म तथा वैष्णव व शाक्त परंपरा का सम्यक समावेशन करते हुए आज के मानव की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है- 
देवी के मन शिव बसे, सीता के मन राम। 
राधा के मन श्याम हैं, मानव के मन दाम।।
सगुण-निर्गुण भक्त और संत कवियों की भावधारा को प्रवाहित करते हुए दोहाकार कहता है- 
राम-नाम तरु पर लगे, मर्यादा के फूल। 
बल-पौरुष दृढ़ तना हो, चरित सघन जड़ मूल।।
दोहा लेखन के पूर्व व्यंग्य तथा ग़ज़ल-लेखन के लिए सम्मानित हो चुके इंजी. अरुण अर्णव खरे 'अब करिए कुछ काम' शीर्षक के अंतर्गत जान सामान्य की व्यथा, आस्था व् भक्ति का ढोंग रचनेवाले महात्माओं व् नेताओं के दोहरे आचरण पर शब्दाघात करते हुए कहते हैं- 
राम नाम रखकर करें, रावण जैसे काम। 
चाहे राम-रहीम हों, चाहे आसाराम।।
प्रिय-वियोग से त्रस्त प्रिया को बसंत की बहार भी पतझर की तरह प्रतीत हो रही है-
ऋतु बसंत प्रिय दूर तो, मन है बड़ा उदास।
हरसिंगार खिल योन लगे, उदा रहा उपहास।। 
दोहा दीप्त दिनेश के तृतीय दोहाकार अविनाश ब्योहार व्यंग्य कविता, नवगीत व् लघुकथा में भी दखल रखते हैं। आपने "खोटे सिक्के चल रहे" शीर्षक के अंतर्गत पाश्चात्य सभ्यता और नगरीकरण के दुष्प्रभाव, पर्व-त्योहारों के आगमन, वर्तमान राजनीति, न्याय-पुलिस व सुरक्षा व्यवस्था पर सफल अभिव्यक्ति की है-
अंधियारे की दौड़ में, गया उजाला छूट। 
अंधाधुंध कटाई से, वृक्ष-वृक्ष है ठूँठ।।
न्यायालयों में धर्मग्रंथ गीता की सौगंध का दुरूपयोग देखकर व्यथित अविनाश जी कहते हैं- 
गीता की सौगंध का, होता है परिहास। 
झूठी कसमें खिलाकर, न्याय करे परिहास।।
हास्य कवि इंजी. इंद्रबहादुर श्रीवास्तव " कौन दूसरा आ गया" शीर्षक के अनतरगत भक्ति रस, ऋतु वर्णन, देश-भक्ति तथा लगातार बढ़ती मँहगाई पर नीति दोहों की तरह सरल-सहज दोहे कहते हैं। देश-रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करनेवाले शहीद परिवार के प्रति अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हुए कवि कहते हैं- 
रक्षा करते वतन की, जो देकर बलिदान। 
हम उनके परिवार को, अपनाकर दें मान।। 
निरंतर बढ़ती हुई मँहगाई को दोहों के माध्यम से प्रगट करते हुए आप कहते हैं- 
मुश्किल से हो पा रहा, अब जीवन-निर्वाह। 
मँहगाई आकाश छू, बढ़ा रहे है चाह।।
दोहाकार श्रीमती कांति शुक्ल 'उर्मि' ने "देखे फूल पलाश" शीर्षक से नीति, भक्ति, ऋतु वर्णन तथा श्रम की महत्ता पर सजीव दोहे कहे हैं। जो. तुलसीदास की चौपाई" कलियुग केवल नाम अधारा" के अनुरूप राम-नाम की महत्ता प्रतिपादित करते हुए वे कहती हैं- 
राम-नाम सुख मूल है, अतिशय ललित-ललाम।
सम्मति, शुभ गति, अति प्रियं, सकल लोक अभिराम।। 
कवि पद्माकर ने बसंत को ऋतुराज माना है। इस मान्यता से सहमत कांता जी कहती हैं- 
धानी आँचल धरा का, उड़ता है स्वच्छंद। 
ऋतु बसंत उल्लासमय, लिखती मधुरिम छंद।।
जल संसाधन विभाग से सेवा निवृत्त इंजी. गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' ने "छोड़ गुलामी मानसिक" शीर्षक के अंतर्गत वीर रस से ओत-प्रोत दोहे, औद्योगिकीकरण के दुष्परिणाम, भारतीय संस्कृति की विशेषता अनेकता में एकता तथा बेटी को लक्ष्मी के समान, दो कुलों की शान तथा घर की आन बताया है। 
समर्पित स्वतंत्रता सत्याग्रही के पुत्र मधुर जी ने स्वातंत्र्य-वीरों को स्मरण करते हुए उन्हें प्रतिमान बताया है- 
दीवाने स्वातंत्र्य के, अतुल अमर अवदान। 
नमन वीरता-शौर्य को, प्राणदान प्रतिमान।।
विश्व की संस्कृतियों में भारत की संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए अपने कहा है कि-
अनेकता में एकता, इंद्रधनुष से रंग। 
है विशिष्टता देश की, देखे दुनिया दंग।।
प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध' ने "जीवन में आनंद" शीर्षक से विगत नौ दशकों में हुए परिवर्तन और विकास को अपने दोहों के माध्यम से व्यक्त करते हुए शिल्प पर कथ्य को प्राथमिकता दी है। आपके आदर्श ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीर दास जी हैं। सामाजिक समरसता का भाव दोहा में व्यक्त करते हुए विदग्ध जी कहते हैं कि मनुष्य सद्गुणों से ही सम्मान का अधिकारी बनता है, धन से नहीं-
गुणी व्यक्ति का ही सदा, गुणग्राहक संसार।
ऐसे ही चलता रहा, अग-जग-घर-परिवार।। 
श्री रामचरित मानस में गो. तुलसीदास प्रभु श्री राम के माध्यम से कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
इस चौपाई के कथ्य की सार्थकता प्रमाणित करते हुए विदग्ध जी कहते हैं- 
जिसका मन निर्मल उसे, सुखप्रद यह संसार। 
उसे किसी का भय नहीं, सबका मिलता प्यार।। 
संकलन के आठवें दोहाकार डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ने जन सामान्य के जन-जीवन की दोहों के माध्यम से सरल सहज अभिव्यक्ति की है। आपके दोहों में कहीं-कहीं व्यंग्य का पुट भी समाहित है। प्रायः देखा जाता है कि बड़े-बड़े अपराधी बच निकलते हैं जबकि नौसिखिये पकड़े जाते हैं। लोकोक्ति है कि हाथी निकल गया, पूँछ अटक गई'। बघेल जी इस विसंगति को दोहे में ढाल कर कहते हैं- 
लेते ही पकड़े गए, रिश्वत रुपए पाँच। 
पाँच लाख जिसने लिए, उसे न आई आँच।।
आपने अपनी पैनी दृष्टि से सामाजिक व व्यक्तिगत को है व्यंग्य द्वारा दोहों का सजीव सृजन करने का करने का उत्तम प्रयास किया है-
बुध्द यहीं बुद्धू बने, विस्मृत हुआ अशोक। 
कलमों ने लीकें रचीं, चलता आया लोक।।
संकलन के नवमें दोहाकार मनोज कुमार 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं। आपके दोहे बाल शिक्षा के लिए उपयोगी होने के साथ-साथ भावी पीढ़ी के दिशा-निर्देश की सामर्थ्य रखते हैं। : मन-विश्वास जगाइए' शीर्षक के अंतर्गत आपने आदिशक्ति की उपासना से दोहों का श्री गणेश किया है। राम चरित मानस की चौपाई 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा, करहिं सो तस फल चाखा' तथा गीता के कर्मयोग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए मनोज जी कहते हैं- 
बिना कर्म के व्यर्थ है, इस जग में इंसान। 
गीता की वाणी कहे, कर्म बने पहचान।।
गोंडवाना राज्य की रानी वीरांगना दुर्गावती के शौर्य-पराक्रम को आपने वर्णन 'यश कथा' में किया है-
शासन सोलह वर्ष का, रहा प्रजा में हर्ष। 
जनगण का सहयोग ले, किया राज्य-उत्कर्ष।।
श्री महातम मिश्रा संकलन के दसवें दोहाकार हैं। आपने खड़ी बोली और भोजपुरी मिश्रित भाषा शैली में ईश भक्ति, प्रकृति, पर्यावरण, भारतीय संस्कृति आदि के साथ ही जीवनानुभवों को दोहों में पिरोने का कार्य किया है। दिन-ब-दिन दूषित होते जाते पर्यावरण को शुद्ध और हरा-भरा बनाये रखने हेतु सचेत करते हुए मिश्र जी कहते हैं- 
पर्यावरण सुधार लो, सबकी होगी खैर। 
जल जीवन सब जानते, जल से करें न बैर।। 
देश में जनसंख्या-वृद्धि के कारण बेरोजगारी तीव्र गति से फ़ैल रही है। उपाधिधारी युवा लघु-कुटीर उद्योग अथवा अन्य उपलब्ध कार्य करना अपनी योग्यता के विरुद्ध मानकर निठल्ले घूम रहे हैं। मिश्र जी कहते हैं- 
रोजगार बिन घूमता, डिग्री-धार सपूत। 
घूम रहा पगला रहा, जैसे काला भूत।।
संकलन के ग्यारहवें दोहाकार श्री राजकुमार महोबिया ने "नई प्रगति के मंच पर" शीर्षक के माध्यम से भक्ति, श्रृंगार, पर्यावरण आदि पर केंद्रित दोहे रचने का सफल प्रयास कर, सर्वप्रथम सरस्वती जी की आराधना की है- 
विद्या-बुद्धि-विवेक का, रहे शीश पर हाथ। 
वीणा पुस्तक धारिणी, सदा नवाऊँ माथ।।
पेड़ों को काटकर प्रकृति को पहुँचाई जा रही क्षति युवा राजकुमार को व्यथित करती है- 
जंगल-जंगल में गिरी, विस्थापन की गाज। 
सागौनों शोर में, कौन सुने आवाज।। 
श्री रामलखन सिंह चौहान 'भुक्कड़' जी ने "सम्यक करे विकास जग" शीर्षक से पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक सद्भाव तथा समरसता वृद्धि के दोहों का सफल सृजन किया है। स्वस्थ्य जीवन के लिए आपने खान-पान पर नियंत्रण रखने की बात कही है- 
खान-पान के दोष से, बीमारी बिन मोल। 
करे अतिथि सत्कार क्यों?, कोल्ड ड्रिंक घोल।।
राजनेताओं के क्रिया-कलापों से परेशान मतदाताओं की व्यथा को आपने दोहों में करते हुए है-
मतदाता हैं सोच में, सौंपे किसे कमान? 
जो भी बैठे तख़्त पर, मनमानी ले ठान।।
संकलन के तेरहवें दोहाकार प्रो. विश्वम्भर शुक्ल ने "आनंदित होकर जिए" शीर्षक से भारतीय संस्कृति, वर्तमान राजनीति भक्ति-प्रधान एवं श्रृंगारपरक दोहों की सारगर्भित-सरल-सहज अभिव्यक्ति लयात्मकता और माधुर्य के साथ की है। आपके दोहों में प्रसाद युग की तरह सौंदर्य और कल्पना दोनों का सुंदर समन्वय देखा जा सकता है-
उगा भाल पर बिंदु सम, शिशु सूरज अरुणाभ। 
अब निंदिया की गोद में, रहा कौन सा लाभ।।
हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता को संपूर्ण विश्व की भाषाओँ में अद्वितीय बताते हुए आपने लिखा है- 
शब्द ग्रहण साहित्य हो, धनी बढ़े लालित्य। 
सकल विश्व में दीप्त हो, हिंदी का आदित्य।। 
वर्षा ऋतु के आगमन के साथ जिसमें प्रिय अपने प्रियतम की निरंतर राह देख रही है हुए उसके आने की सूचना पाते ही उसका मन मयूर हो जाता है। संयोग श्रृंगार की उत्तम अभिव्यक्ति का रसानंद अद्भुत है-
लो घिर आए निठुर गहन, ऐसा चढ़ा सुरूर। 
प्रिय के पग की चाप सुन, मन हो गया मयूर।। 
दोहाकार श्रीमती शशि त्यागी ने "हँसी-ठिठोली ही भली" शीर्षक से नैतिक मूल्यों, कृषि, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ एवं प्रकृति के द्वारा प्रस्तुत किया है। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड की स्मृति में आपने लिखा है- 
सदा गवाही रहा, जलियाँवाला बाग़।
आज़ादी की बलि चढ़ा, देश-धर्म अनुराग।।
पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन हेतु पौधे लगाने का संदेश देते हुए शशि जी को कटते हुए वृक्ष की पीड़ा भी याद आती है- 
मानव मन कपटी हुआ, दया न किंचित शेष। 
पौध लगाए वृक्ष हो, काटे पीर अशेष।।
ब्रज धाम के सौंदर्य और उसके अधिष्ठाता प्रभु श्री कृष्ण की मधुर मुरली की तान को दोहे द्वारा शशि जी ने सुंदरता से अभिव्यक्त किया है- 
श्यामा प्रिय घनश्याम को, ब्रज की शोभा श्याम। 
अधर मधुर मुरली धारी, सुने धेनु अविराम।।
संकलन के अंतिम सोपान पर "जीवन नाट्य समान" शीर्षक से दोहाकार श्री संतोष नेमा ने वर्षा ऋतु की प्राकृतिक सुंदरता, गोंडवाना की महारानी दुर्गावती की वीरता, हिंदी साहित्य में संत कबीरदास के अवदान के साथ ही धर्म-अध्यात्म को अपने दोहों का विषय बनाया है। आपने आज मानव कल्याणकारी और हितकारी बताते हुए कहा-
मानवता का धर्म ही, है कबीर की सीख। 
दिखा गए हैं प्रेम-पथ, सबके जैसा दीख।।
भारतीय संस्कृति की नींव संयुक्त परिवार प्रणाली को संस्कार का कोष बताते हुए संतोष जी कहते हैं- 
नींव नहीं परिवार बिन, यह जीवन-आधार। 
संस्कार का कोष है, सभी सुखों का सार।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' तथा प्रो. साधना वर्मा के संपादकत्व में विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के सारस्वत अनुष्ठान 'दोहा शतक मंजूषा' के भाग ३ 'दोहा दीप्त दीनेष में १५ दोहाकारों ने विविध विषयों और प्रसंगों पर अपने चिंतन की दोहा में अभिव्यक्ति की है। भक्ति, अध्यात्म, प्रकृति चित्रण, राष्ट्र-अर्चन, बलिदानियों का वंदन, श्रृंगार, राजनीति, सामयिक समस्याएँ, पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन आदि विषयों को समाहित करते हुए 'दोहा दीप्त दिनेश' के दोहे सहज प्रवाही भाषा और संतुलित भाषाभिव्यक्ति के साथ शिल्प विधान का वैशिष्ट्य प्रगट करते हैं।
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संपर्क: हिंदी विभाग, शासकीय मानकुँवर बाई स्वशासी स्नाकोत्तर महिला महाविद्यालय जबलपुर।

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