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गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

पुरोवाक्, समीक्षा, मनीषा सहाय, सुरेन्द्र नाथ सक्सेना

पुरोवाक्
''विष-बाण'' देशभक्ति भावधारा का प्राण 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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            भारत के जन-जीवन, संस्कृति और सभ्यता में राष्ट्र को देवता माना गया है। विश्व गुरु भारत में देश को 'माँ' कहा गया है जबकि शेष अधिकांश देशों में 'पिता' माना गया है। माँ के गर्भधारण के साथ एक शिशु 'माँ' से जुड़ जाता है और माँ की हर अनुभूति को खुद भी अनुभव करता है जबकि पिता के साथ जुड़ाव जन्म लेने के पश्चात ही हो पाता है। भारत की संतानों का भारत 'माँ' के साथ ऐसा ही अभिन्न जुड़ाव होना स्वाभाविक है। माँ संकट में हो तो संतान उसकी पीड़ा दूर करने के जी-जान से प्रयास करता है, यहाँ तक की खुद अपनी जान हथेली पर लेकर माँ के श्री चरणों पर अर्पित कर देता है। भारत माँ की आन-बान-शान, महिमा, गौरव, सौंदर्य आदि तथा उस पर कुर्बान होनेवाले रण-बाँकुरे पुत्रों-पुत्रियों का गौरव गान करने की सनातन परंपरा भारत में रही है। 
            
            मानव सभ्यता के जन्म के साथ ही जन्म-भूमि से जुड़ाव और जन्म भूमि की रक्षा के लिए संघर्ष करने की प्रवृत्ति की भावधारा निरंतर विकसित होती रही है। भाषा के व्याकरण, पिंगल और लिपि के विकास के पूर्व से लोक में 'मातृ-देवता' और 'मातृ-भूमि' की संकल्पना रही है। 'पंच मातृकाओं', सप्त मातृकाओं की अवधारणा पहले लोक में ही विकसित हुई। 'माँ' से शिशु पोषित होता है इसलिए मनुष्य के पोषण के लिए जिन तत्वों को अपरिहार्य पाया गया, उन सबको लोक ने मातृवत ही नहीं मातृ  ही माँ लिया। इसीलिए लोक में जन्मदात्री, धाय, विमाता, धरती, गौ, नदी, वाक् अथवा वाग्देवी, समृद्धिदात्री लक्ष्मी, शक्तिदात्री शिवा आदि को माता कहा गया। मातृ-भाव का विकास अनिष्टकारिणी शक्तियों तक हुआ और शीतल माता आदि के रूप में महामारियों को भी माता मानकर पूजा गया ताकि में संतान के प्रति ममत्व भाव रखकर अनिष्ट न करें। इस चिंतन-धारा ने आपात-काल में मानव को धैर्य, सहिष्णुता, सद्भाव और सहयोग भाव के साथ मिलकर जूझने और उबरने का सामर्थ्य दिया जबकि कोरोना काल में इस भाव की अनुपस्थिति ने जन सामान्य को कातर, असहाय और भीरु बना दिया। लोक ने मातृभूमि के प्रति आभार व्यक्त करते हुए लोक काव्य में राष्ट्रीय भावधारा को सतत विकसित और समृद्ध किया। लोक काव्य  सीधे जनता से जुड़ता है और राष्ट्रीय चेतना, प्रेम, बलिदान और गौरव की भावना को सरल और प्रभावी ढंग से व्यक्त करता है। 

            भाषा और नागर सभ्यता के विकास के साथ लोक में पली-बढ़ी राष्ट्रीय काव्य-धारा का व्यवस्थित विकास एक महत्वपूर्ण साहित्यिक और ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है जो विविध कालों में भारत भूमि पर विदेशी आक्रमणों के समय देशवासियों के मनोबल बढ़ाने, शौर्य जगाने और आत्माहुति हेतु तत्पर युवाओं को संघर्ष करने हेतु आत्म-बल दे सकी। आधुनिक काल में भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रीय काव्य-धाराअपने चरम पर पहुँची । इस भावधारा ने कवियों को देश प्रेम, सांस्कृतिक गौरव, बलिदान और एकता की भावना को अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया। इस राष्ट्रीय भावधारा की मुख्य विशेषताएँ देश प्रेम और बलिदान भाव, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गौरव गान, भारत के गौरवशाली इतिहास और वीर योद्धाओं का गुणगान, जनजागरण और एकतापरक जनगान और आह्वान गीत, आक्रान्ताओं-आतंकियों तथा साम्राज्यवाद विरोधी तथा आदर्शवाद रहे हैं। भारत के दार्शनिक ऋषि-मुनियों ने देश हेतु संघर्षरत योद्धाओं को 'सुर', 'देव' आदि तथा आक्रमणकारियों को 'असुर', 'दैत्य' आदि के रूप में चित्रित किया। असुरों की संहारिणी शक्ति को मातृ-शक्ति के रूप में निरंतर पूजा गया। 

            हिंदी के विकास के साथ राष्ट्रीय भावधारापरक साहित्य सृजन की उदात्त परंपरा सतत पुष्ट होती गई। आदिकाल को वीरगाथाओं के विपुल सृजन के कारण 'वीरगाथा काल' के रूप में नामित किया गया। भक्ति काल में न्याय के पक्ष में संघर्षरत स्थानीय शक्तियों को देव और अन्याय कर रही शक्तियों को राक्षस कहते हुए देवों के पराक्रम और शौर्य का गायन किया गया। सम-सामयिक आक्रान्ताओं के नाश हेतु दैवीय शक्तियों से याचना-प्रार्थना आदि के रूप में राष्ट्रीय-काव्य का नव रूप सामने आया। शिव, दुर्गा, राम और कृष्ण भक्ति काल में राष्ट्रीय नायकों के रूप में अपने भक्तों सहित पूजित हुए। रीतिकाल में कला और शृंगार की प्रधानता होते हुए भी रानी दुर्गावती, राणा प्रताप, चाँद बीबी, छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल बुंदेला आदि के संघर्ष और त्याग-बलिदान का गुणगान, आक्रांता यवनों के अत्याचारों का विरोध आदि के रूप राष्ट्रीय काव्यधारा भी पुष्ट होती रही। अंग्रेज शासन-काल में उसने जूझनेवाले बुंदेला क्रांतिकारी, रानी लक्ष्मीबाई, गोड़ राजा शंकरशाह व उनके पुत्र रघुनाथ शाह, कुँवर सिंह, नाना साहब, तात्या टोपे, क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा व उनकी पत्नी दुर्गा भाभी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, रास बिहारी बोस, सुभाष चंद्र बोस आदि तथा उनके वीरोचित कार्य राष्ट्रीय काव्य धारा के केंद्र में रहे। स्वाधीनता हेतु संघर्षरत अहिंसक राष्ट्र नायकों भीखाजी कामा, लाल-बाल-पाल, राजा, राम मोहन राय, म. गाँधी, सरोजिनी नायडू, जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, महर्षि अरविंद घोष, मौलाना आजाद आदि, सत्याग्रह आंदोलनों आदि को केंद्र में रखकर राष्ट्रीय काव्यधारा समय साक्षी हुई।

            स्वतंत्रता पश्चात हिंदी काव्य में राष्ट्रीय चेतना सतत विकसित होती रही। भारत माता, तिरंगा, क्रांतिकारियों, शहीदों सत्याग्राहियों, राष्ट्र निर्माताओं व सेनाओं का गौरव-गान, जनाकांक्षाओं व लोकमत की अभिव्यक्ति, नए तीर्थों (बाँध, कारखानों आदि), कृषि, राष्ट्रीय प्रतीकों-भाषाओं आदि का महिमा गायन, राष्ट्र के नव निर्माण हेतु आह्वान गान, जनगीत आदि आयाम राष्ट्रीय चेतना के पर्याय बनते गए। विडंबन है कि अपनी उदार व सर्व समावेशी नीति के बाद भी भारत को पड़ोसियों की कुदृष्टि का शिकार होकर आक्रमणों का सामना करने की विवशतावश हथियार थमने पड़े। इस स्थिति में आक्रामकों की निंदा, राष्ट्रीय अस्मिता की रक्ष हेतु जन जागरूकता, सैनिकों की कीर्ति-कथा गायन आदि भी राष्ट्रीय चेतना के अंग हो गए। चीन तथा पाकिस्तान के हमलों के विरोध में देश का है साहित्यकार सेनाओं के मनोबल बढ़ाने, जन-गण में चेतन जगाने, सरकार के हाथ मजबूत करने के लिए 'कल'म को मिसाइल के तरह थामकर शत्रुओं पर शब्द-बाण संधान करने हेतु सन्नद्ध हो गया। हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि डॉ. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना ने ''विष-बाण'' सुदीर्घ काव्य की रचना २ सर्गों, ९४ चतुष्पदियों में करते हुए वीर सैनकों के प्रति काव्यांजली समर्पित की। २१ मार्च १९६३ से १५ फरवरी १०६४ की कालावधि में लिखी गई यह वीर-गाथा किसी एक सेनानी के प्रति न लिखी जाकर देश के सैन्य-बल को नायक मानकर लिखी गई है। 

               सरहद पर अपनी जान हथेली पर लिए अहर्निश जाग रहे सैनिक तथा उसके आयुधों की मान-वंदना करते हुए कवि कहता है- 

जय हो उस मस्तक की, जो कट गया किंतु जो झुका नहीं 
जय हो उस उन्मुक्त चरण की, गिरा किंतु जो रुका नहीं 
जय हो उन हाथों की, जिनने कोटि-कोटि है वार किया
जय हो उन तोपों-गोलों की जिनने कोटि-कोटि है वार किया

जय हो उस अदम्य साहस की, रण में भी जो डिगा नहीं  
जय हो उस नर-नाहर की, जो रण-स्थल तज हटा नहीं 
उनकी ही जय के गीतों से, गगन गूँजता नारों से 
गूँज रहा है आज हिमालय, उनकी जय-जयकारों से 

            सीमा पर हमला कर रहे चीन के नेता द्वय चाउ एन लाई तथा माओ त्से तुंग को कवि विश्व के मिट्टी में मिल चुके तानाशाहों में शुमार कर, लानत भेजते हुए चेताता है- 

सँभलो ए दगाबाज! धोखेबाजों! धरती के गद्दारों!
चेतो चाऊ-माऊ युग-युग के, छद्मवेशी नर! मक्कारों!  
धरती की छाती चीर दिखा दूँगा सो रहे सिकंदर को 
ले विश्व विजय की ध्वस्त कामना, मिले खाक में हिटलर को 

यह बोनापार्ट नया देखो आ गया तुम्हारे ही पथ पर
होने दो दफन इसे भी तो, अपनी श्रेणी में इधर-उधर 

            महाकाल मृत्युंजय सदा शिव तथा आदिशक्ति चंडिका का आह्वान करता कवि पुन: तांडव करने की प्रार्थना करता है। भारतीय सेना के रणबाँकुरों से शत्रु को माटी में मिलाने की अपेक्षा करता है- 

लेना बहादूरों एक-एक दुश्मन को चुन-चुनकर लेना 
पापी शत्रु की छाती में, गहरी तलवार घुसा देना
जिन आँखों ने लिप्सा-दृष्टि डाली है इस धरती पर 
पिघला शीशा भरकर उनमें, धरती में उन्हें सुला देना 

            आतताई चीन को आईना दिखाता कवि भारत के के-एक सैनिक के साथ दस-दस सैनिकों को लड़ाने की नीति पर कटाक्ष करता है -

ओ मार्क्सवाद के अंधभक्त! यह रण-कौशल किससे सीखा?
इंसान चीन में होते हैं, या मात्र भेड़ रण-भयभीता?
ये बलि के बकरे काट-काट क्यों व्यर्थ समय को खोता है?
अत्याचारों का घट भरकर क्यों बोझ पाप का ढोता है?

            चीन द्वारा वादा-खिलाफी और विश्वासघात पर शब्दाघात करने के साथ कवि उसे भारत से मिली बौद्ध धर्म की विरासत तथा व्हेनसांग की परंपरा याद दिलाते हुए युद्धों से आसन्न विश्व के विनाश के खतरे के प्रति सजग करता है। 

अणु के विस्फोटों से पहले, फूटेगा यह मानस कराल 
जलने से पहले अखिल विश्व, धधकेगा यह गिरिवर विशाल 

            दुर्भाग्यवश युद्ध में मिली पराजय से निराश न होकर कवि नए संकल्प के साथ कृष्ण से मिले गीता-ज्ञान को हृदयंगम कर, इतिहास हो चुके बलिदानी-पराक्रमी भारतीय महावीरों के बल-विक्रम को याद कर एक ओर देश के जन-मानस में नव आशा, विश्वास और पुन: उठ खड़े होकर आगे बढ़ने काअ भाव जगाता है दूसरी ओर विश्व शक्तियों को उनके दायित्व की याद और पड़ोसी पाकिस्तान को चीन के साथ गलबहियाँ करने पर लताड़ता है। कवि सर्गांत में यह प्रश्न पूछता है की मानव मात्र का कल्याण युद्ध या शांति किसमें है, महाशक्तियाँ इस पर विचार कर अपना आचरण बदलें और दायित्व का निर्वहन करें। 

            द्वितीय सर्ग में पाकिस्तान द्वारा कच्छ के रन में पाकिस्तान द्वारा किए गए आक्रमण के प्रतिकार में कवि दोनों देशों की नीतियों, आदर्शों और आचरण में अंतर को इंगित करता है- 

यह पाकिस्तान और भारत का युद्ध मात्र ही नहीं रहा 
इतिहास साक्षी है हमने रण की पुकार को नहीं सहा 
हमने न सिकंदर उपजाए जो लौट जाए मुँह की खाकर 

            पाकिस्तान में सेना के दबदबे और उसकी अमेरिका-परस्ती पर कटाक्ष कर कवि उसे आईना दिखाता है- 

लाहौर बेच डाला अमरीका के हाथों इन नीचों ने
मुँह बंद कर दिया जनता का जब संगीनों की नोकों से 
तब रावलपिंडी को बेचा चीनी शैतानों के हाथों 
यों पाक नीति के मस्तक पर, नाच रहा चीनी माओ 

            कवि सुरेन्द्र नाथ जी युद्ध-चर्चा तक सीमित नहीं रहते, वे विश्व और मानवता की हित-चिंता करते हुए अतीत और इतिहास के प्रसंगों को इंगित कर उनसे सीख लेने और विश्व-शांति के समक्ष खतरा बन रहे तत्वों का विरोध कर रही शक्तियों से एक साथ मिलने का आह्वान करते हैं- 
 
जो शक्ति गुटों से परे और जिनको स्वतंत्रता प्यारी है
जागे अफ्रीकी-एशियाई, यह घोर घटा घिर आई है 
जम जाए विदेशी चरण नहीं, प्यारे स्वदेश की धरती पर 
जल जाए स्वार्थ के मोह-जाल में पाल स्वयं ही उभर-उभर 

            कवि युग-धर्म के प्रति सचेत करते हुए शांति प्रिय देशों को उनका दायित्व याद दिलाते हुए कृति को युग-बोध का पर्याय बना देता है -

जिन हाथों में है शक्ति और नैतिक बल आत्म-सुरक्षा का 
उन को न किसी का भय-बंधन, उनकी न किसी पर निर्भरता 
क्यों रुके वीरता के बढ़ते पग, किसी अन्य की आशा में 
है व्यर्थ बात करना दुष्टों से, सदा सभ्यतम भाषा में 

            पाकिस्तान द्वारा युद्ध का विस्तार कश्मीर तक किए जाने पर कवि पाकिस्तानी जनता, सैनिकों और नेताओं को याद दिलाता है कि उनकी रगों में बह रहा रक्त किसी ने का नहिं, भारत माता का ही है- 

पूछो हर एक सिपाही से जो खून बह रहा है उसमें 
वह पाकिस्तानी माँ का है या भारत का है रग-रग में?
पूछो हर एक नमाजी से जब वह सजदे में झुकता है 
तब उसकी आँखों के आगे यह कैसा चित्र उभरता है 

            पकिसतान निर्माण की पृष्ठभूमि में भारत के प्रति घृणा को इंगित कर कवि, विश्व और मानवता के कल्याण हेतु पाकिस्तान का भारत में विलय ही एकमात्र समाधान बताता है- 

धो दो आपस का भेदभाव, हम एक राष्ट्र हों बलशाली
फैले सर्वत्र विभा अपनी, जगमग हो अपनी दीवाली 
जय हो जन जीवन की जय हो, विजयी हो जग में जन मानस
हो भारत-पाक संघ निर्मित, हीव फिर से अखंड भारत

            कृति का शीर्षक भले ही 'विष-बाण'' है किंतु समूची कृति में विषैले वर्तमान से आसन्न सर्वनाश की विभीषिका के प्रति चेतावनी देते हुए विश्व और मानव-कल्याण की कामना ही कवि का लक्ष्य है। 

            सुरेन्द्र नाथ जी की भाषा प्रसंगानुकूल, प्रवाहमयी,  सरल, सरस और शब्द-चयन सटीक है। वीर रस और शांति रस प्रधान इस कृति में करुण रस भी यत्र-तत्र है। कवि ने छंद सृजन में विविधता और शिल्प पर कथ्य को वरीयता की राह चुनी है। हिंदी की राष्ट्रीय काव्य धारा में 
''विष-बाण'' देखन में छोटन लगें, घाव करें गंभीर'' की परंपरा का निर्वहन करता है। गागर में सागर की तरह संकेतों में बहुत महत्वपूर्ण और सर्वकालिक मूल्यों की जयकार करता ''विषबाण'' कवि की अभिव्यक्ति सामर्थ्य और सनातन सत्य मूल्य परक चिंतन का दस्तावेज है। 
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, व्हाटऐप ९४२५१८३२४४