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मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

युगपरिधि समीक्षा सलिल

कृति चर्चा: 
युगपरिधि : कृष्णात्मज प्रद्युम्न की अलौकिक गाथा 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[ कृति विवरण : युगपरिधि, उपन्यास, डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी, प्रथम संस्करण, वर्ष २०१९, पृष्ठ ३६३, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., मूल्य ६५०/-, नमन प्रकाशन नई दिल्ली]
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कृष्ण-कथा का एक महत्वपूर्ण किन्तु अपेक्षाकृत अल्पचर्चित पक्ष है प्रद्युम्न प्रसंग। वर्तमान संक्रमण काल में जब समयाभाव को कारण बताकर लघुकथा, हाइकु  और नवगीत जैसी लघ्वाकारी विधाओं का चलन बढ़ रहा है, त्रेता के अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय चरित्र से संबंधित सामग्री का संकलन, अध्ययन, मनन कर उस पर एक महत्तम ग्रंथ रचना श्रम और समय साध्य तो है ही, साहस का कार्य भी है। पाञ्चरात्र आगम की अध्येता विदुषी डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी ने वार्धक्य (जन्म १८ दिसंबर १९४५) को चुनौती देते हुए महर्षि सांदीपनि वेद-विद्या प्रतिष्ठान उज्जयिनी द्वारा प्रदत्त पंचवर्षीय यू.जी.सी. पोस्ट डॉक्टरल फेलोशिप के अंतर्गत इस दुरूह कार्य को कृष्ण-कृपा से इस तरह पूर्ण किया है कि यह इस दशक की महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृतियों में गणनीय है। संस्कृत में पी-एच. डी. तथा एम्.डी.एस. कर १५ वर्ष से अधिक काल तक महाविद्यालयीन प्राध्यापक व् प्रवाचक रह चुकी चंद्रा जी द्वारा रचित ३ महत्वपूर्ण कृतियाँ  'कालिदास एवं अश्वघोष के दार्शनिक तत्व', 'वैष्णव आगम के वैदिक आधार' तथा 'उन्मेष' इसके पूर्व प्रकाशित-चर्चित हो चुकी हैं। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा 'महीयसी' सम्मानोपाधि से अलंकृत चंद्रा जी इस कृति को निवृत्त शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी द्वारा आशीषित किया जाना इसकी गुणवत्ता का प्रमाण है। 
वैष्णव दर्शन में चतुर्व्यूह सिद्धांत का विशेष महत्व है। इस चतुर्व्यूह के चार अंग श्री कृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध हैं। सृष्टि के आरंभ में शिव तप-भंग के दुस्साहस हेतु भस्म किये गए कामदेव की निर्दोष प्रिया रति विधवा होकर करुण प्रार्थना कर वरदान पाती है कि त्रेता में कामदेव कृष्णात्मज होकर जन्म लेंगे और तब उनका पुनर्मिलन हो सकेगा। सतही दृष्टि से पत्नी का सृष्टि आरंभ काल से त्रेता तक जीवित रहना और त्रेता में जन्में पति (करोड़ों वर्ष छोटे) से फिर विवाह होना कपोल कल्पना प्रतीत होता है किन्तु चित्र जी ने इसे तर्क की कसौटी पर खरा रखने का सफल प्रयास किया है। 
उपन्यास में भगवान संकर्षण का कथन 'सृष्टि में प्रलय काल के पहले  कुछ भी नष्ट नहीं होता, रूपांतरण होता है, एक सोपान से दूसरे सोपान तक। इस सृष्टि में पृथ्वी से व्योम तक तरंग ही लय के रूप में काम करती है। गति का यह आंतरिक स्वरूप परस्पर संबद्धता बनाये रखता है।'' पूर्णत: वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है कि ऊर्जा न उत्पन्न की जा सकती है, न नष्ट की जा सकती है केवल रूपांतरित की जा सकती है। 
महाभारत, हरिवंश पुराण, विष्णुपुराण, गर्गसंहिता, नारदभक्ति सूत्र आदि ग्रंथों से प्राप्त विवरणों को सर्वथा मौलिक कथा सूत्र में गूँथना और हर पात्र के साथ न्याय करते हुए, कथा सूत्र का विकास इस तरह करना कि वैचारिक, दार्शनिक, व्यावहारिक और सर्वकालिक निकष पर खरी प्रतीत हो, दुष्कर कार्य है। लेखिका के अनुसार इस कृति का प्रणयन आरंभ करने के पूर्व उसने नरेंद्र कोहली, चित्र चतुर्वेदी, मनुशर्मा आधी के पौराणिक इतिहास आधारित उपन्यासों को पाठन कर उनकी रचनाधर्मिता से साक्षात किया।  इस कृति में कहीं भी किसी अन्य उपन्यासकार का प्रभाव नहीं है। चंद्र जी ने शैली और तथ्य प्रस्तुति अपने मौलिक अंदाज़ में की है। सामान्यत: प्रद्युम्न को रतिपति के रूप में सौंदर्य और कमनीयता के लिए जाना जाता है किंतु उनके महावीर-महाबली योद्धा रूप को यह कृति उद्घाटित करती है। 
रति (रूपांतरित मायावती) कथा सूत्रों को संयोजित करते हुए काम दहन प्रसंग के पूर्व व् पश्चात् का घटना क्रम, त्रेता पूर्व से द्वापर तक अपनी व्यथा-कथा अत्यंत व्याकुल देख शिव द्वारा काम को जीवित करना किन्तु देह कृष्ण के पुत्र में मिलने का वर देने, नारद द्वारा यह बताने पर कि पुनर्जन्म पश्चात् कृष्णपुत्र के रूप में कामदेव शंबरासुर के पास मिलने, दैत्यराज शंबर के कोप और वासना से बचते हुए उसकी पाकशाला में कार्य करते हुए उचित समय के प्रतीक्षा करने, रुक्मिणी-पुत्र का शंबरासुर द्वारा हरण कर समुद्र में फेंक देने, मत्स्य द्वारा उसे  निगलने, मछेरे द्वारा उस मत्स्य को पकड़कर शंबरासुर की रसोई में पहुँचाने, मत्स्य के उदर से मानव पुत्र के निकलने, उसे पाल-पोसकर बड़ा करने, उन्हें युद्ध कला व माया युद्ध सिखाने, पूर्व जन्म और इस जन्म का सत्य बताकर शंबरासुर का वध करने और अंत में आकाश मार्ग से द्वारका पहुँचकर कृष्ण परिवार से मिलकर सत्य बताकर विवाह संपन्न होने तक का कथा-क्रम कहती चलती है। 
चंद्रा जी ने देविका की पोषिता चित्रा (मालिन कुब्जा की भतीजी) का मौलिक चरित्र गढ़ा है जो किसी पूर्व ग्रंथ में नहीं है। सात-आठ वर्ष की बाल्यावस्था से वृन्दावन के करील कुंजों में राधा-कृष्ण की बाँकी छवि तथा दिवा लीलाओं की साक्षी रही चित्रा राधारमणविहारी गोपीबल्लभ को अन्तस् में गहरे उतार बैठी है। वह उन्हें कृष्ण को महायोगी, महाप्राण, परतत्व परमात्मा नहीं, भक्ति का आश्रय मानती है। उसकी भावग्राहिता देखकर देवकी मैया भी कह उठती हैं - ‘मेरा मन भी तेरे जैसा हो जाए, तो क्या नहीं कहना!’ उद्धव प्रसंग में बृज वनिताएँ कृष्ण को जिस भक्ति भाव से भजती  हैं वह चित्रा के माध्यम से प्रस्तुत हुआ है। संस्कृत साहित्य की एक अन्य हस्ताक्षर विदुषी डॉ. सुमन लता श्रीवास्तव के मतानुसार ''लेखिका स्वयं चित्रा के उपलक्ष्य से द्वारिका में राजमाता देवकी के भव्य भवन में रत्नजटित झूले में विराजे पीताम्बर स्वर्णमुकुट और मोरपंख धारण किये बाल कृष्ण लाल के विग्रह और स्वर्ण वंशी की पूजा-अर्चना सेवा करती हैं, भक्ति-पूरित भजन गाती हैं, उनके गुणों का संकीर्तन करती हैं, ब्रज की लीलाओं का स्मरण करती हैं, चरण-ंसुश्रुषा करती हैं, वन्दन करती हैं और उनसे सख्यभाव भी स्थापित कर लेती हैं।''   
इस पौराणिक कथा प्रसंग को सनातन चिंतन, वैष्णव दर्शन सूत्रों गूँथकर सरस, सहज तथा विश्वसनीय बनाते हुए प्रस्तुत कर चंद्रा जी ने हिंदी उपन्यास साहित्य में एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। यह औपन्यासिक कृति  सत्साहित्य में रूचि रखनेवाले पाठकों हेतु पठनीय, मननीय तथा संग्रहणीय है। शुद्ध, सहज, सरस भाषा शैली कथानक में जान फूँकती है। अनावश्यक विस्तार से बचते हुए युगों की गाथा को सीमित पृष्ठों में मौलिकता और प्रामाणिकता के साथ औपन्यासिक कथा सूत्र में गूँथकर चंद्रा जी ने कृष्ण लीला के रसिकों पर उपकार किया है। 
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समीक्षक संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,  ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmailcom  

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