पुस्तक सलिला
डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव
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चन्द्रा जी की कृति न केाई ‘काॅफी टेबल बुक’ है और न ही रेलगाड़ी की या़त्रा में निपटा लिया जाने वाला उपन्यास है। कथानक की गुरुता, भाषा की प्रांजलता और वर्णनों की सर्वग्राह्यता के कारण यह उपन्यास शांत चित्त से पारण करने योग्य है। त्रेेता-द्वापरयुगीन युगपुरुषों के महनीय चरित्रों पर आधारित इस उपन्यास में आध्यात्मिक, दार्शनिक तथा वैचारिक विमर्श है; किन्तु एक और पक्ष है, वह है भक्ति का। पराप्रकृति, परमाह्लादिनी, महाशक्ति श्रीजू चतुर्वेदी दम्पत्ति की आराध्या हैं और नित्य संतों, महात्माओं की संगति, स्वाध्याय, तीर्थाटन तथा भागवत के प्रकाण्ड विद्वान आचार्यश्री की अर्धांगिनी होने के कारण संस्कृतविदुषी डाॅ. चन्द्रा चतुर्वेदी ज्ञान और भक्ति की उज्ज्वल सरस धारा से आप्लावित हैं। उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति में प्रथमतः ही स्पष्ट कर दिया है - ‘कई विचारों, कई अनुश्रुतियों और अनेकों तथ्यों को देखती हूँ ,तो मुझे भक्ति, जीवनरस के अमृत-स्रोत सी प्रतीत होती है, जहाँ भावों की सहस्र धाराएँ आनन्द के अमिय बिन्दुओं का सृजन करती चलती हैं।’
भक्ति के उन अमिय बिन्दुओं को पाने की लालसा में उनका मन पुनः पुनः वैभव, ऐश्वर्य, समृद्धि से उद्दीप्त तथा श्रीकृष्ण के बृहत्परिवार से संकुल अनुपम, अद्भुत, अद्वितीय द्वारिका को छोड़-छोड़ कर नन्द-यशोदा, गोपी-ग्वाल, राधा-ललिता के प्रेम से संलिप्त ‘कान्हा-कान्हा’ और कान्हा की वंशी से अनुगुंजित ब्रजभूमि में जा रमता है और वे उस प्रेममाधुरी का वर्णन करती-करती भावविभोर हो जाती हैं। स्वानुभूत ब्रजरस का निर्झर उन्मुक्त होकर उनकी लेखनी से बह निकलता है।
चन्द्रा जी ने इस भक्तिरस का अवलम्बन बनाया है चित्रा का चरित्र गढ़कर। इस चित्रा का उल्लेख न किसी पुराण में है और न जनश्रुतियों में। अल्हड़ चित्रा को मालिनी कुब्जा की भतीजी बताया गया है, जो मथुरा से ही राजमाता देवकी की लालिता-पोषिता है। जब सात-आठ वर्ष की थी, तब वृन्दावन के कुंजों में राधा-कृष्ण की बाँकी छटा तथा लाीलाओं का साक्षात् दर्शन कर चुकी है और तभी से राधारमणविहारी गोपीबल्लभ को अन्तस् में गहरे उतार बैठी है। वह उन्हें महायोगी, महाप्राण, परतत्व परमात्मा नहीं मानती, केवल भक्ति का आश्रय मानती है। उसकी भावग्राहिता देखकर देवकी मैया भी कह उठती हैं - ‘मेरा मन भी तेरे जैसा हो जाए, तो क्या नहीं कहना!’
यह चरित्र लेखिका की अपनी उद्भावना है और मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि लेखिका स्वयं चित्रा के उपलक्ष्य से द्वारिका में राजमाता देवकी के भव्य भवन में रत्नजटित झूले में विराजे पीताम्बर स्वर्णमुकुट और मोरपंख धारण किये बाल कृष्ण लाल के विग्रह और स्वर्ण वंशी की पूजा-अर्चना सेवा करती हैं, भक्ति-पूरित भजन गाती हैं, उनके गुणों का संकीर्तन करती हैं, ब्रज की लीलाओं का स्मरण करती हैं, चरण-ंसुश्रुषा करती हैं, वन्दन करती हैं और उनसे सख्यभाव भी स्थापित कर लेती हैं। वे यदा-कदा स्वयं को तल्लीन कर देती हैं, समाधिस्थ हो जाती हैं। यही तो है नवधा भक्ति -ं
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदन्।।
झूले को डोर से झुलाते हुए भक्तिभाव में निमग्न चित्रा स्वरचित गीत का माधुर्यरस घोलती है और श्रोताओं को भावाभिभूत कर देती है-ं
झूला झूलत आँखन में, क्या जादू मनमोहन में।
तन पीत झँगुलिया पहने हैं, क्या चमक मोरपंखन में
काजल की रेखा गहरी है, क्या लटक चपल अलकन में।
झाँकी झूलत आँखन में।
लेखिका द्वारिकावती से दूर कहीं गोकुल-वृन्दावन में रम जाती हैं। कृष्ण-जन्मोत्सव यदि ऐश्वर्यमयी द्वारिका में रानियों, पटरानियों, पुत्रसमूह के साथ भव्यता से मनाया जाता है, तो ब्रजभूमि में भी कान्हा के अवतरण का दिवस उत्सव का रूप धारण कर लेता है।
सूर्यग्रहण के मेले में चन्द्रा जी द्वारकाधीश की राजधानी द्वारका के परिसर में प्रेमधाम ब्रजभूमि का प्रवेश और आधिपत्य करा देती हैं। जहां प्रेम, प्रेम, प्रेम.....बस प्रेम का ही ज्वार है, ममता का सागर है, प्रेम की सहस्र धाराएँ उमड़ी पड़ती हैं। भावों के मेले लग जाते हैं, जहाँं यशोदा अपने कान्हा को दृष्टि भर देखने के लिए देवराज इन्द्र के समान सहस्र ने़त्रों की कामना करने लगती हैं। चित्रा के मुख से उस वृतान्त को भी निरूपित किया गया है, जब राधाश्री रुक्मणी के दिए हुए गर्म दूध का पान कर लेती हैं, तो राधा के हृदय में विराजित श्रीकृष्ण के चरणों में छाले पड़ जाते हैं।
श्रीराधा की प्रयाण-सूचना तथा कृष्ण की विश्राम करने की उद्घोषणा बहुत मार्मिक बन पड़ी है। डाॅ चन्द्रा चतुर्वेदी की भावभूमि का धरातल उत्कृष्ट है, जहाँ नवधा भक्ति की रसस्यन्दिनी करकणों से पाठकों को अभिसिंचित करती चलती है।
मैं चित्राजी को इस उपन्यास के प्रणयन पर हार्दिक बधाई देती हूँ व कामना करती हूँ कि उनकी रचना-पयस्विनी निरन्तर प्रवहमान रहे।
२७-५-२०२०
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