कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

लेख : द्वापरकालीन सामाजिक व्यवस्था और कृष्ण

krishnotsavmagzine20@gmail.com 
आलेख :
द्वापरकालीन सामाजिक व्यवस्था और कृष्ण 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
उत्तर वैदिक काल के अंत से लेकर बुध्द काल को द्वापर या महाभारत काल कहा जाता है। इस काल में समाज का आधार संयुक्त परिवार था। परिवारों के समूह ग्राम थे। कुल या परिवार के सब सदस्य एक साथ रहते थे। कुल का प्रमुख कुलपति पिता या सबसे बड़ा भाई होता था जिसका अनुशासन सभी को मान्य होता था। प्रायः परिवार में प्रेम होता था। आयु में छोटे सदस्य बड़े परिवारजनों को मान देते थे और कुलपति सबका पालन करते हुए उनके विकास में सहायक होते थे। नि:संतान दंपति लड़का या लड़की गोद लेकर उसे उत्तराधिकारी बनाते थे। आयु में बड़े भाई-बहन से पहले छोटे भाई-बहनों की शादी  करना बुरा माना जाता था। पिता के मृत्यु की बाद सबसे बड़ा भाई अपने छोटे भाई-बहनों का पालक होता था।

आश्रम 
महाभारतकालीन आश्रम व्यवस्था के कारण लोगों का नैतिक उत्थान हुआ। आश्रम व्यवस्था के चार भाग ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास थे। ब्रह्मचर्य काल में गुरु के आश्रम में रहकर स्वयं अपने सारे काम करते हुए विद्याध्ययन करना होता था। आश्रम में कुलपति और गुरुमाता सब विद्यार्थियों के साथ समान व्यवहार कर, योग्यतानुसार विषयों की शिक्षा देते थे। शिक्षा पूर्ण कर, व्यक्ति (गृहस्थ) वैवाहिक जीवन में प्रवेश करते थे। गार्हस्थ जीवन के समस्त उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर चुकने के बाद वानप्रस्थ में व्यक्ति त्याग का जीवन बिताकर  गृहस्थी के बंधनों से मुक्त होता था। अंतत: सब पारिवारिक-सामाजिक बंधनों को त्याग कर, ईश्वर प्राप्ति हेतु आत्मसंयम के साथ तपस्वी का जीवन जीता था। यह आश्रम व्यवस्था शिक्षाहीन निम्न वर्ग पर लागू नहीं थी चूँकि उन्हें धर्म ग्रंथ पढ़ने का अधिकार नहीं था। कृष्ण आश्रम व्यवस्थानुसार संदीपनी ऋषि से शिक्षा प्राप्त करने अवंतिकापुरी (उज्जयिनी) गए। उन्होंने गोप प्रमुख नंद बाबा के पुत्र होते हुए भी विशेष सुविधा प्राप्त नहीं की और निर्धन ब्राह्मण पुत्र सुदामा के साथ गुरु द्वारा सौंपे गए सब कार्य संपादित किए। संदीपनी के पुत्र 'पुनर्दत्त' का समुद्र में स्नान करते समय 'तिमि' नमक जंतु ने अपहरण कर लिया था। चिर काल से लापता गुरु पुत्र  को मृत मान लिया गया था किन्तु गुरु को उसके जीवित होने का विश्वास था। शिक्षा पूर्ण होने पर परंपरानुसार गुरु दक्षिणा  के रूप में संदीपनी ने कृष्ण को अपने पुत्र को खोज लाने का आदेश किया।  कृष्ण ने शंखासुर के कब्जे से गुरुपुत्र को मुक्त कराया तथा समुद्र मंथन के समय प्राप्त ६ वे रत्न पांचजन्य शंख को छीन लिया। यह कथा महाभारत सभा पर्व के 'अर्घाभिहरण पर्व' के अंतर्गत अध्याय ३८ में वर्णित है

जाति प्रथा 
द्वापरकालीन जाति प्रथा व्यवसाय आधारित थी। इसने समाज को स्थायित्व प्रदान किया। सामान्यत: पिता का व्यवसाय उसका पुत्र अपनाता था, इसलिए पूरा परिवार उस व्यवसाय से जाना जाता था। जातियों की संख्या बहुत अधिक थी और उनमें संघर्ष भी होते थे। कुशल धनुर्धर होते हुए भी कर्ण को 'सूतपुत्र' केवल इसलिए कहा जाता रहा कि वह सारथी अधिरथ का पाल्य पुत्र था। जातियों में ऊँच-नीच थी। सामान्यत: समान जाति में विवाह संबंध होते थे। उच्च वर्ण के लिए निम्न वर्ण की कन्या से विवाह मान्य था जबकि निम्न वर्ण के लिए उच्च वर्ण की कन्या से विवाह वर्जित था। समर्थ व्यक्ति बहु विवाह करते थे। स्वयं कृष्ण और उनके स्नेही पांडवों ने भी अनेक विवाह किये थे। इस काल में दास प्रथा का प्रचलन था जिन पर स्वामी का पूरी अधिकार होता था। चीरहरण प्रसंग में दुर्योधन द्रौपदी को दासी मानते हुए भरी सभा में निर्वस्त्र करने का आदेश देता है।  'काह न राजा न करि सकै', 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं', 'राजा करै सो न्याय' आदि लोकोक्तियों का जन्म इसीलिए हुआ कि समर्थ जन मनमानी करने लगे थे। कृष्ण ने आजीवन श्रेष्ठि जनों के दुराचारों से संघर्ष किया और उन्हें दंडित किया।   

वर्ण व्यवस्था 
शांति-व्यवस्था के लिए मनुष्य समाज कर्तव्यों के आधार पर चार वर्ण (भाग) में विभाजित था। मानव जीवन के मुख्य कर्तव्य - शिक्षा, रक्षा, व्यापार और सेवा के आधार पर चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र थे। जन्म से ही अपने पिता के व्यवसाय को अपनाते हुए, उसी वर्ण में होने के कारण जाति और वर्ण एक दूसरे का पर्याय बनता गया। कृष्ण गोपालन व्यवसाय पर आश्रित गोप, यादव या या ग्वाले थे जो क्षत्रिय वर्ण में था। उन्होंने  उच्च गोत्र की किसी ब्राह्मण से विवाह न कर परंपरा का पालन किया। कृष्ण की ८ पत्नियाँ रुक्मिणी (राजा भीष्मक की पुत्री), जांबवती (जांबवान की पुत्री), सत्यभामा (सत्राजित यादव की पुत्री), कालिंदी (सूर्य पुत्री), मित्रवृन्दा (उज्जयिनी की राजकुमारी), सत्या (राजा नग्नजित की पुत्री), भद्रा (कैकेय राजकुमारी) तथा लक्ष्मणा (भद्र देश की राजकुमारी) क्षत्रिय वर्ण की ही थीं। 

स्त्रियों की स्थिति 
इस काल में स्त्रियों को कोई विशेष अधिकार नही थे। स्त्रियों को पैतृक या श्वसुरालय की सम्पति में स्वामित्व का अधिकार नहीं था। अविवाहित स्त्री पिता तथा विवाहित स्त्री पति की संपत्ति का उपभोग कर सकती थी पर स्वामी नहीं थी। स्त्री स्वयंवर में अपना वर चुन सकती थी। विधवाओं का पुनर्विवाह हो सकता था। पति के न रहने पर उसके छोटे भाई को द्विवर अर्थात दूसरा वर मानकर विवाह किया जा सकता था। कालांतर में पुत्रियों के अपेक्षा पुत्रों का अधिक मान होने लगा। द्रौपदी राजकुमारी तथा राजरानी थीं तथापि उनके पास कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी। पति ने उन्हें जुए में  हार दिया। कुंती। द्रौपदी, कुब्जा आदि शोषत-पीड़ित स्त्रियों के साथ कृष्ण की हमेशा सहानिभूति रही और उन्होंने ऐसी स्त्रियों को सम्मान और रक्षा देते हुए उनके अपराधियों को दंडित किया। 

विवाह प्रणाली  
महाभारत काल में शादी की मुख्य प्रचलित प्रणालियाँ ब्रह्म विवाह, दैव विवाहगंधर्व विवाह, प्रजापत्य विवाह, आर्श विवाह, असर विवाह, राक्षस विवाह तथा पिशाच विवाह थे। कृष्ण ने इनमें से प्रथम चार के माध्यम से ८ पत्नियाँ प्राप्त कीं। अंतिम ४ पद्धतियों का प्रयोग उन्होंने नहीं किया चूँकि इनमें कन्या सहमति नहीं होती। स्पष्ट है कि कृष्ण विवाह के लिए कन्या की सहमति आवश्यक मानते थे। वे अपनी बहिन सुभद्रा की सहमति जानकर, परिवारजनों की सहमति  के बिना भी अर्जुन को उसके अपहरण के लिए प्रेरित कर पूर्ण योजना बनाते हैं।   

शिक्षा
द्वापर काल में सोलह संस्कार के अंतर्गत उपनयन संस्कार पश्चात् गुरु के आश्रम में बच्चे विद्या प्राप्त करते थे। वे गुरु की आज्ञानुसार हवन के लिए लकडियाँ लाने, भिक्षा माँगने आदि कार्य करते हुए विद्यार्जन करते थे। आचार्य  बिना किसी शुल्क के भाषा, व्याकरण, सामान्य गणित, नैतिक शिक्षा आदि देते थे। राज परिवार के सदस्यों को सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा दी जाती थी। उच्च वर्ग की कन्याएँ भी शिक्षा पा सकती थीं। एक गुरु के शिष्य गुरु भाई, गुरु बहिन मान्य थे, उनमें विवाह वर्जित था। कृष्ण ने इन मर्यादाओं का सदा पालन किया।  

सामंती व्यवस्था और कृष्ण 
सामंत शब्द समता के अंत का सूचक है। जनसामान्य को समान तथा उन पर नियंत्रण करने वाले शासक को विशेष अधिकार संपन्न मानते हुए सामंत कहा गया। द्वापर में 'सामंत' शब्द प्रचलित नहीं था। इसका प्रयोग मौर्य काल में कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा अशोक के शिलालेख में है। कृष्ण ने जन सामान्य अत्याचार करनेवाले राजाओं और सामंतों का विनाश किया। कृष्ण ने सामंती व्यवस्था के पोषक कालिया नाग, इंद्र, शंखासुर, शिशुपाल आदि का समापन अथवा मान-मर्दन खुद किया तथा जरासंध, करवों आदि का विनाश  करने में सहायक बने। वैश्या गमन, जुआ खेलना, गाना बजाना और शराब पीना सामंतों के लिए आम बात थी। कृष्ण ने इन दुष्प्रवृत्तियों से न केवल खुद को दूर रखा अपितु इन दुष्प्रवृत्तियों को अपनानेवालों का सफाया कर दिया। विधि की विडंबना यह कि कृष्ण के अग्रज बलराम और  यादव कुल ही मद्यपान से बच नहीं सके और यादवों का विनाश आपस में लड़कर हुआ। 

कृष्ण ने कंस वध पश्चात् मथुरा का सिंहासन न खुद ग्रहण किया, न अपने स्वजनों को ग्रहण करने दिया। जरासंध का भीम के हाथों वध कराकर या शिशुपाल को खुद मारने के बाद भी कृष्ण ने सामंती चरित्रानुसार सत्ता का लोभ किया। कौरवों और पांडवों से समान संबंध होते हुए भी कृष्ण  कौरवों के विनाश लीला उनके सामंती चरित्र तथा दुराचार  ही कराई। कृष्ण को उनके उनके मानवेतर कार्यों और नव समाज संरचना के अलौकिक प्रयासों ने उनके जीवनकाल में ही भगवान की मान्यता और अगणित भक्त उपलब्ध कराए। 
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान , ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन  जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४  ईमेल salil.sanjiv@gmail.com       

कोई टिप्पणी नहीं: