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रविवार, 7 जुलाई 2019

दोहा शतक: डॉ. आकुल, doha shatak: dr. akul

डॉ. गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’


जन्म: १८.६.१९५५, महापुरा, जयपुर।
आत्मज: स्‍व. कृष्‍णप्रिया- स्‍व. वैद्य श्री बलभद्र शर्मा।
जीवन संगिनी: श्रीमती ब्रजप्रिया।
शिक्षा- स्‍नातकोत्‍तर, विद्या वाचस्‍पति।
प्रकाशित: प्रतिज्ञा (कर्ण पर आधारित नाटक), पत्‍थरों का शहर (हिन्‍दी गीत, ग़जल, नज्‍में), जीवन की गूँज (काव्‍य संग्रह), अब रामराज्‍य आएगा (लघुकथा संग्रह), नवभारत का स्‍वर्ग सजायें (गीत संग्रह), जब से मन की नाव चली (नवगीत संग्रह), सम्‍पादित पुस्‍तकें, १४ साझा संकलन १०।
प्रकाशनाधीन: चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचायें संदेश (गीतिका शतक)
उपलब्धि: शब्‍द श्री, शब्‍द भूषण, क्रॉसवर्ड विज़र्ड, साहित्‍य शिरोमणि, रवींद्रनाथ ठाकुर वांड्.मय पीठ सम्‍मान, साहित्‍य मार्तण्‍ड, छंद श्री, मुक्‍तक लोक भूषण सहित लगभग ३० पुरस्‍कार/ सम्‍मान
सम्‍प्रति- सेवा निवृत्त अनुभाग अधिकारी राजस्‍थान तकनीकी विश्‍वविद्यालय, कोटा (राजस्‍थान), व्‍यवस्‍थापक फेसबुक साहित्‍य समूह ‘’मुक्‍तक लोक’’
संपर्क: ‘सान्निध्‍य’, ८१७ महावीर नगर- २ , कोटा (राजस्‍थान)-३२४००५
दूर / चलभाष: ०७४४ २४२४८१८, ९१ ७७२८८२४८१७, ८२०९४८३४७७, ईमेल: aakulgkb@gmail.com  
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दोहा शतक
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वक्रतुण्‍ड प्रथमेश हैं, लम्‍बोदर गणनाथ।
श्रीगणेश आशीष दें, ऋद्धि सिद्धि के साथ।।
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वीणापाणि नमन करूँ, धरूँ ध्‍यान निस्‍स्‍वार्थ।
बस सदैव सार्थक लिखूँ, करूँ सदा परमार्थ।।
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मात-पिता-गुरु-राष्‍ट्र हैं, जीवन का आधार।
शिक्षा संस्‍कृति सभ्‍यता, इनसे है संसार।।
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मात-पिता-गुरु यदि करें, जीवन मार्ग प्रशस्‍त।
राष्‍ट्र बनाता नागरिक, तब होकर आश्‍वस्‍त।।
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मधुबन माँ की छाँव है, निधिवन माँ का ओज।
काशी,मथुरा, द्वारिका, माँ चरणों में खोज।।
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माँ की पवन गोद है, जीवन का आह्लाद।
भोजन माँ के हाथ का, अमृत जैसा स्वाद।।
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मात-पिता-गुरु-राष्‍ट्र से, होता बेड़ा पार।
समाधान इनसे मिले, इनको समझ न भार।।
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कर्मनिष्‍ठ का कर्म से, होता है उत्‍थान।
अकर्मण्‍य के भाग्‍य में, लिख न अभ्‍युत्‍थान।।
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साँस बिना जीवन नहीं, प्राण बिना बेजान।
कर्म बिना उत्‍थान कब?, मृग मरीचिका जान।।
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धर्म-कर्म बिन जीव का, जीवन नर्क समान।
गुरु, विद्या, धन बिना ज्यों, मिले नहीं सम्मान।।
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वंश-बेल फूले-फले, यदि हो पूत सुजान।
निकले पूत कपूत तो,पतन सुनिश्चित जान।।
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आया था तूफान झट, बदले भारी नोट।
काले धन के फेर में, धुले हजारी नोट।।
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पंचतत्‍व से है बना, मानव का यह रूप।
रूप,रंग घर-द्वार से, बनता रूप सुरूप।।
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कर्मनिष्‍ठ बदलें सदा, अपना रूप कुरूप।
जीवन वे जीते सदा, इच्‍छा के अनुरूप।।
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भिक्षा सबसे निम्‍न है, अधमाधम यह कर्म।
नहीं समझते हैं कई, अकर्मण्‍य यह मर्म।।
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बिना मान-सम्‍मान के, धन-दौलत है धूल।
खाद, बीज, श्रम के बिना, खिलते केवल शूल।।
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श्रम को सोना जानिए, श्रम जीवन का मूल।
माटी भीसोना बने, समय रहे अनुकूल।।
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यह जिह्वा वाचाल है, रखना अंकुश आज।
ले आती भूचाल जब, करें निरंकुश राज।।
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नहीं प्रशासन जागता, नहीं जगे सरकार।
जब तक जनता में नहीं, मचता हाहाकार।।
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परेशान चाहे रहे, हो चाहे अंधेर।
सत्‍य एक दिन जीतता, होती देर-सबेर।।
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चंद्रगुप्‍त के वंश का, है स्‍वर्णिम इतिहास।
विक्रम संवत् में निहित, अब भी जन विश्‍वास।।
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मिले न जब तक प्रेरणा, योग न हों अनुकूल।
दुर्लभ प्रभु के दर्श हैं, ग्रंथों का भी मूल।।
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क्‍यों ढूँढूँ संसार में, प्रभु मेरे मन-द्वार।
नैन बंद कर भज लिया, कर ली बातें चार।।
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जो भजता है लीन हो, भूले मोह विकार।
हो जाता वह एक दिन, प्रभु से एकाकार।।
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प्रभु तुझको कैसे मिलें, तन-माया में चूर।
अंग-अंग है विष भरा, मन में मद भरपूर।।
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प्रभु को भजना बाद में, लें पहले आहार।
भजन न हो भूखे कभी, कहता है संसार।।
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कहलाती नदियाँ वहाँ, संगम तीर्थ विहार।
मिल जाती नदियाँ जहाँ, होकर एकाकार।।
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कण-कण में भगवान को, खोज गया मन हार।
प्रभु को ढूँढ़ा जब जहाँ, मौन मिले हर बार।।
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हिंदी भाषा की बने, अब ऐसी पहचान।
ज्यों श्रम कर निर्धन बने, धनिक न खो ईमान।।
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’आकुल’ हिंदी को मिले, ऐसी एक उड़ान।
मसजिद में हों कीरतन, मंदिर पढ़ें अजान।।
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वाहन, घर, महँगे वसन, मोबाइल का ध्‍यान।
हिंदी का भी शौक अब, पालें सब इनसान।।
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मान तिरंगे का करें, कर 'जन गण मन' गान।
ज्यों-त्यों हिंदी के लिए, मन में हो सम्मान।।
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झूठ न हरदम जीतता, कर लो जतन हजार।
भले देर से ही सही, जीते सच हर बार।।
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झूठ तभी भारी पड़ा, बढ़े अधर्मी पाप।
सत्‍य तभी निर्बल पड़ा, हुए न दृढ़ हम आप।।
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सत्‍य सदा जो बोलता, रखना पड़े न याद।
एक झूठ करता सदा, सौ झूठी फरियाद।।
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झूठ घटाता मुश्किलें, तो यह भ्रम मत पाल।
घर में ही क्‍या कम पलें, अब जी के जंजाल।।
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झूठे की रहती सदा, रातों नींद हराम।
सच्‍चा सोता चैन से, निबटा सारे काम।।
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हिंदी की संगत करें, फिर देखें परिणाम।
हिंदी से स्‍वागत करें, कर करबद्ध प्रणाम।।
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हिंदी हित संकल्‍प ले, करें आचमन आज।
होगा अपने ह्रदय पर, बस हिंदी का राज।। *
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करनी होगी पहल अब, धरना है यह ध्‍यान।
घर-घर में चर्चित रहे, हिंदी का अवदान।
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पहनें अच्‍छे वसन तो, बनती है पहचान।
शब्‍दकोश में हैं छिपे, हिंदी के परिधान ।।
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वैज्ञानिक आधार है, हिंदी का यह सिद्ध।
यह भाषा अब जगत में, कहलाती रस-सिद्ध।।*
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हिंदी ने झेला सदा, पग-पग पर अपमान।
साख न बन पाई कभी, कैसे हो उत्‍थान ?
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हिंदी की करता रहा, जन-जन सार सँभाल।
सत्‍ताधीश न कर सके, उन्‍नत इसका भाल।।
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बरखा तब ही काम की, करे न बाढ़-विनाश।
बाढ़ों से सूखा भला, बनी रहे कुछ आश।।
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वर्षा ऐसी मेघ दे, भरे रहें सर ताल।
कोइ घर उजड़े नहीं, पड़े न कभी अकाल।।
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’आकुल’ जल संग्रह करें, वर्षा में हर बार।
वर्षा जल संचय करें, भरा रहे भंडार।। *
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गर्मी के तेवर घटें, पावस की ऋतु देख।
मेघनाद होने लगें, चमकें चपला रेख।। *
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आते देख पयोद नभ, पुलकित कोयल मोर।
नर नारी लेकर चले, खेतों में हल-ढोर।।
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कौआ भी चिरजीव है, कुत्‍ता स्‍वामी भक्‍त।
चाटुकार गीदड़ रहा, सदा-सदा परित्‍यक्‍त।।
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बिन गुरुत्‍व धरती नहीं, धुर बिन चले न चाक।
गुरुजल बिन बिजली नहीं, गुरु के बिना न धाक।।*
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गुरु ही जग में श्रेष्‍ठ है, सच कहता इतिहास।
सुर-नर प्राणी जगत् में, करें सभी अरदास।।
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गुरु से जग में जानिए, धर्म ज्ञान प्रभु आप।
आश्रय जो गुरु का रहे, दूर रहें संताप।।
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गुरु का सिर पर हाथ हो, तर जाते भव-पार।
श्रद्धा, निष्‍ठा, प्रेम, यश, पाते शिष्य अपार।।
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गुरु को जो तोले कभी, मूरख, मूढ़, कुपात्र
बड़बोला अति बोलता, खाली जैसे पात्र।।
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दीक्षा गुरु अरु धर्म गुरु, होते हैं बेजोड़।
इनसे ही संस्‍कृति फले, इनकी कहीं न होड़।।
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मात-पिता, गुरु, राष्‍ट्र ॠण, रहे सदैव उधार।
जब भी जैसे भी मिलें, पा हो तब उद्धार।।
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जो गुरु बिना समर्थ है, दो दिन चाहे खास।
सदा अकेला वह रहे, खोता है विश्‍वास।।
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’आकुल’ बड़भागी बनें, निभा सदा संबंध।
मात-पिता गुरु सिधारें, चढ़कर तेरे स्‍कंध।।
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मौसम आता शीत का, धूप सुहाती खूब।
भाते खूब गरम वसन, लगे भूख भी खूब।।
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होली में मस्‍ती करें, करें न बस हुड़दंग।
सूखी होली खेलिये, रंग न हो बदरंग।।
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श्रम से मजदूरी मिले, पूँजी दे बस ब्‍याज।
मिले किराया भवन से, करता साहस राज ।।
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मुर्गे से तू सीख ले, चुनता मल से बीज।
व्‍यापारी वह ही सफल, रखता जो खेरीज।।
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छंदबद्ध साहित्‍य का, हुआ पराक्रम क्षीण
वैसे ही कुछ रह गए, कविवर छंद प्रवीण।।
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टिम-टिम तारे गगन में, पथ पथ चलें प्रदीप।
दूर क्षितिज तक हो रहा, संदीपन हर दीप।।
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कुरुक्षेत्र है यह जगत, जीवन है संग्राम।
रिश्‍ते अब फिर दाँव पर, कब आएँगे श्‍याम।।
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मौसम कोई भी रहे, क्‍या गर्मी क्‍या ठंड।
चले अगर विपरीत तो, मौसम देता दंड।।
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आकुल इस संसार में, तू कौए से सीख।
नहीं किसी से मित्रता, नहीं किसी से भीख।। *
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शिक्षा दीक्षा गुरु बिना, बिना अस्‍त्र के युद्ध।
बिना रास के वृषभ से, होता पथ अवरुद्ध।।
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बेटी होती जनक-हिय, बेटा माँ की जान।
सखा बने जब पुत्र के, भिड़ें कान से कान।।
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आकुल महिमा जनक की, जिससे जग अनजान।
मनु-स्‍मृति में लेख है, सौ आचार्य समान।।
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दुख का कारण मत बनो, दुख में दो सँग-साथ।
सुख की वजह बनो सदा, सुख में भले न साथ।।
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कभी नहीं दो मशवरा, देख दुखी इंसान।
सदा दर्द में साथ हों, दुख का करें निदान।।
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आकुल इस संसार में, माँ का नाम महान।
माँ की जगह न ले सके, कोई भी इंसान।।
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माँ के सिर पर चंद्र है, कुल किरीट पहचान।
माँ धरती माँ स्‍वर्ग है, गणपति लिखा विधान।।
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पूत कपूत सपूत हो, ममता करे न भेद।
मधुर बजे मुरली सदा, तन में कितने छेद।।
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मात-पिता-गुरु-राष्‍ट्र ये, सर्वोपरि हैं जान ।
कभी न होगा तू उऋण, कर सेवा सम्‍मान।।
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आकुल माँ की जगत् में, महिमा अपरंपार।
सहस्र पितु बढ़ मातु है, मनुस्‍मृति के अनुसार।।
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अधिष्‍ठात्रि तू सृष्टि की, देवी माँ तू धन्‍य।
बुद्धि न आकुल की फिरे, दे आशीष अनन्‍य।।
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जितना ऊपर को उठे, दिनकर बढ़े प्रकाश।
पढ़ा लिखा इंसान ही, छूता है आकाश।।
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वर दो ऐसा शारदे, नमन करूँ ले आस।
हटे तिमिर अज्ञान का, और बढ़े विश्‍वास।।
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आँखों में सपने लिए, हाथों में तकदीर।
चलते हैं ले हौसले, जीवनपथ पर वीर।।
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कब खुशबू रोके रुकी, कभी न रुका समीर।
रुकना मत ऐ जिंदगी!, सहते रहना पीर।।
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जीवन एक जिजीविषा, रहता सदा अधीर।
होता है वह ही सफल, जो धरता है धीर।।
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हाथ धरे बैठे रहें, जीतें कभी न दाँव।
जो उम्‍मीदें पालते, थकते कभी न पाँव।।
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समय उसी के साथ जो, रखता होश-हवास।
नहीं रुका उसके लिए, जिसकी टूटी आस।।
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पंचतत्‍व का संतुलन, प्रकृति रखे तू कौन?
रह आहार-विहार प्रति, सजग शेष तू मौन।।
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पंडित मुल्‍ला, कादरी, कहते सब यह बात।
होती नहीं ज़बान की, जग में कोई जात।।
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भूलें करता जा रहा, मानव क्यों दिन-रात?
प्रकृति प्रदूषित हो रही, मानवता की मात।।
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जन्‍मा यहाँ विवस्‍त्र ही, आँखें-मुट्ठी बंद।
जमा करे क्‍यों संपदा?, करें न क्‍यों आनंद?
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वर्षा ढाती कहर पर, नहीं सँभलते लोग।
कर निसर्ग की दुर्दशा, कष्‍ट रहे हैं भोग।।
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होते हैं ऐसी जगह, तीर्थ तपोवन झार।
दक्षिण से उत्‍तर जहाँ, बहे नदी की धार।।
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हवामहल जो ताश के, होते जल्‍दी ढेर।
नहीं झूठ के पाँव भी, टिकते ज्‍यादा देर।।
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तन कठोर अखरोट का, पानीफल में शूल।
’आकुल’ तनचाहे मलिन, मन रखना तुम फूल।।
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भजन-प्रार्थना योग है, जैसे चिंतन-ध्यान।
इच्‍छा शक्ति करे प्रबल, भक्ति लीजिए मान।।
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अनाचार करता वही, जो होता स्वच्छंद।
खुश रहता वह सर्वदा, जो रहता पाबंद।।
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नहीं लगाएँ द्वार पर, फल-फूलों के पेड़।
आटे-जाते जन सभी, कर सकते हैं, छेड़।।
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जीवन रुकता है कहाँ?, देखो जिस भी ओर।
कर्तव्यों का बोझ हो, पथ पर चाहे घोर।।
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मानव जब तक स्वस्थ्य है, दूर रहेगी मौत।
बने धारा पर बोझ जब, ले जाती बन सौत।।
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बैर न उनसे कीजिए, रहना जिनके बीच।
बनें जानवर जंगली, करें न बाहर खींच।।
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