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सोमवार, 1 जुलाई 2019

राजर्षि टंडन

पुरूषोत्तम दास टंडन (१ अगस्त १८८२ इलाहाबाद - १ जुलाई, १९६२) भारत के स्वतन्त्रता सेनानी थे। हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करवाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। वे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता, समर्पित राजनयिक, हिन्दी के अनन्य सेवक, कर्मठ पत्रकार, तेजस्वी वक्ता और समाज सुधारक भी थे। हिन्दी को भारत की राजभाषा का स्थान दिलवाने के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया। १९५० में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उन्हें भारत के राजनैतिक और सामाजिक जीवन में नयी चेतना, नयी लहर, नयी क्रान्ति पैदा करने वाला कर्मयोगी कहा गया। वे जन सामान्य में राजर्षि (संधि विच्छेदः राजा+ऋषि= राजर्षि अर्थात ऐसा प्रशासक जो ऋषि के समान सत्कार्य में लगा हुआ हो।) के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका पहला साध्य था। वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने का। टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ। १७ फ़रवरी १९५१ को मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ` के १७ वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर उन्होंने अपने भाषण में इस बात को स्वीकार भी किया था।

पुरुषोत्तम दास टंडन की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। १८९४ में उन्होंने इसी विद्यालय से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी वर्ष उनकी बड़ी बहन तुलसा देवी का स्वर्गवास हो गया। १८९७ में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनका विवाह मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया। १८९९ कांग्रेस के स्वयं सेवक बने, १८९९ इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की और १९०० में वे एक कन्या के पिता बने। इसी बीच वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया किंतु अपने क्रांतिकारी कार्यकलापों के कारण उन्हें १९०१ में वहाँ से निष्कासित कर दिया गया। १९०३ में उनके पिता का निधन हो गया। इन सब कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने १९०४ में बी०ए० कर लिया। १९०५ से उनके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ। १९०५ में उन्होंने बंगभंग आन्दोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण किया, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया और गोपाल कृष्ण गोखले के अंगरक्षक के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। १९०६ में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया। इस बीच अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थी। उनकी प्रसिद्ध रचना 'बन्दर सभा महाकाव्य' 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित हुई। उन्होंने १९०६ में एलएल.बी की उपाधि प्राप्त कर वकालत प्रारंभ की। उन्होंने १९०७ में इतिहास में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त की और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस समय के नामी वकील तेज बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में टण्डन जी ने एक योद्धा की भूमिका का निर्वाह किया। अपने विद्यार्थी जीवन में १८९९ से ही काँग्रेस पार्टी के सदस्य थे। १९०६ में वे इलाहाबाद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गये। १९१९ में जलियांवाला बाग हत्याकाँड का अध्ययन करने वाली काँग्रेस पार्टी की समिति से भी वे संबद्ध थे। १९२० में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। गाँधी जी के आह्वान पर वे वकालत के फलते-फूलते पेशे को छोड़कर सत्याग्रह में कूद पड़े। सन् १९३० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बस्ती में गिरफ्तार हुए और कारावास का दण्ड मिला।

१९३१ में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन से गांधी जी के वापस लौटने से पहले जिन स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया गया था उनमें जवाहरलाल नेहरू के साथ पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे। १९३४ में उन्होंने बिहार की प्रादेशिक किसान सभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया और बिहार किसान आंदोलन के साथ सहानुभूति रखते हुए उनके विकास के अनेक कार्य किये। उन्होंने ३१ जुलाई १९३७ से १० अगस्त १९५० तक उत्तर प्रदेश की विधान सभा के प्रवक्ता के रूप में कार्य किया। सन् १९३७ में धारा सभाओं के चुनाव हुए। इन चुनावों में से ग्यारह प्रान्तों में से सात में कांग्रेस को बहुमत मिला। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी को था। श्री लाल बहादुर शास्त्री लिखते हैं- सन् १९३६-३७ में नयी प्रान्तीय धारा सभाओं के चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस ने पूरी शक्ति से भाग लिया। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी को जाता है। उन्होंने सारे प्रदेश में दौरा किया वे स्वयं प्रयाग नगर से विधान सभा के लिए खड़े हुए और निर्विरोध विजयी हुए। यह उनके अनुरूप ही था। कुछ समय बाद जब मन्त्रिमण्डल बना, वह धारा सभा के सर्वसम्मत से अध्यक्ष (स्पीकर) चुने गए। टण्डन जी लगातार देश के स्वतंत्रता संग्राम में रत रहे। इसी क्रम में १९४० में नजरबन्द कर लिए गए और एक वर्ष तक जेल में रहे। अगस्त १९४२ को इलाहाबाद में फिर गिरफ्तार हुए और १९४४ में जेल से मुक्त हुए। यह उनकी अन्तिम एवं सातवीं जेल यात्रा थी। उनके संघर्ष और त्याग को लक्षित करते हुए किशोरीदास वाजपेयी जी ने लिखा है- "जब जब राष्ट्रीय संघर्ष हुए, टण्डन जी सबसे आगे रहे। आप खाली बैठना तो जानते ही नहीं।" १९४२ में जब वे जेल से छूटे तो उन्हें दिखलाई पड़ा कि भारतीय समाज में निराशा छायी हुई है, सभी हताश पड़े हुए हैं। अत: उन्होंने 'कांग्रेस प्रतिनिधि असेम्बली' नामक संस्था की स्थापना कर पुन: नई चेतना का संचार किया और जब प्रान्तीय कमेटियाँ बनी तब 'प्रतिनिधि असेम्बली' भंग कर दी गई। टण्डन जी इलाहाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष रहे और अनेक साहसी तथा ऐतिहासिक कार्य किये। वे १९४६ में भारत की संविधान सभा में भी चुने गए। १९५२ में लोकसभा के तथा १९५७ में राज्य सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इस प्रकार वे आजीवन भारतीय राजनीति में सक्रिय रहकर उसे दिशा प्रदान करते रहे।

राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता थे। कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका पहला साध्य था। हिन्दी को वे साधन मानते थे- "यदि हिन्दी भारतीय स्वतंत्रता के आड़े आयेगी तो मैं स्वयं उसका गला घोंट दूँगा। वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने का।" यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ। टंडन जी ने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के लेक्चरर के रूप में कार्य किया उस समय अटल बिहारी वाजपेई विक्टोरिया कॉलेज के छात्र हुआ करते थे।१७ फ़रवरी १९५१ को मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ' के १७ वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर टण्डन जी ने कहा था- "हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया। हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।" टण्डन जी के साध्य स्वतंत्रता और हिन्दी दोनों ही थे।

राजर्षि में बाल्यकाल से ही हिन्दी के प्रति अनुराग था। इस प्रेम को बालकृष्ण भट्ट और मदन मोहन मालवीय जी ने प्रौढ़ता प्रदान करने की। १० अक्टूबर १९१० को काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ और टण्डन जी सम्मेलन के मंत्री नियुक्त हुए और हिन्दी की अत्यधिक सेवा की। टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की। इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था। सम्मेलन हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ सम्पन्न करता था। इन परीक्षाओं से दक्षिण में भी हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ। सम्मेलन के इस कार्य का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा, अनेक महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम को मान्यता मिली। वे जानते थे कि सम्पूर्ण भारत में हिन्दी के प्रसार के लिए अहिन्दी भाषियों का सहयोग अपेक्षित है। शायद उनकी इसी सोच का परिणाम था सम्मेलन में गाँधी का लिया जाना। आगे चलकर 'हिन्दुस्तानी' के प्रश्न पर टण्डन जी और महात्मा गाँधी में मतभेद हुआ। टण्डन जी अपराजेय योद्धा थे। वे सत्य और न्याय के लिए किसी से भी लोहा ले सकते थे। अपने सिद्धान्तों पर चट्टान की तरह अडिग एवं स्थिर रहते थे। परिणामत: गाँधी जी को अपने को सम्मेलन से अलग करना पड़ा, टण्डन जी निरापद अपने मार्ग पर बढ़ते रहे।

सन् १९४९ में जब संविधान सभा में राजभाषा सम्बंधी प्रश्न उठाया गया तो उस समय एक विचित्र स्थिति थी। महात्मा गाँधी तो हिन्दुस्तानी के समर्थक थे ही, पं० नेहरू और डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य अनेक नेता भी हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे, पर टण्डन जी हारे नहीं, झुके नहीं। परिणामत: विजय भी उनकी हुई। ११, १२, १३, १४ दिसम्बर १९४९ को गरमागरम बहस के बाद हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर कांग्रेस में मतदान हुआ, हिन्दी को ६२ और हिन्दुस्तानी को ३२ मत मिले। अन्तत: हिन्दी राष्ट्रभाषा और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई। हिन्दी को राष्ट्रभाषा और 'वन्देमातरम्' को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे। यहाँ यह उल्लेख कर देना भी अपेक्षित है कि टण्डन जी ने नागरी अंकों को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए भरसक कोशिश की इस हेतु उन्होंने उस संस्था को छोड़ा जिसकी सेवा लगभग पाँच दशक तक की। संविधान-सभा में राजर्षि ने अंग्रेजी अंकों का विरोध किया पर नेहरू जी की हिदायत के कारण कांग्रेसी सदस्य श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, श्री गोपाल स्वामी आयंगर के फार्मूले के पक्ष में रहे। टण्डन जी का विरोध प्रस्ताव गिर गया और नागरी अंक संविधान में मान्यता प्राप्त न कर सके।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा और 'वन्देमातरम्' को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे।

साहित्य रचना
राजर्षि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आकलन करते समय प्राय: उनके साहित्यकार रूप को अनदेखा कर दिया जाता है। वह एक उच्चकोटि के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास की खोज की जा सकती है। साहित्यकार के रूप में टण्डन जी निबंधकार, कवि और पत्रकार के रूप में दिखलाई पड़ते हैं। उनके निबंध हिन्दी भाषा और साहित्य, धर्म और संस्कृति तथा अन्य विविध क्षेत्रों से सम्बंधित हैं। भाषा और साहित्य सम्बंधी निबंधों में- कविता, दर्शन और साहित्य, हिन्दी साहित्य का कानन, हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों, मातृभाषा की महत्ता, भाषा का सवाल, गौरवशाली हिन्दी, हिन्दी की शक्ति, कवि और दार्शनिक आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। धर्म और संस्कृति सम्बंधी निबंधों में- भारतीय संस्कृति और कुम्भमेला, भारतीय संस्कृति संदेश तथा अन्य निबंधों में लोककल्याणकारी राज्य, धन और उसका उपयोग, स्वामी विवेकानन्द और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि अति महत्वपूर्ण हैं।
काव्य
काव्य रचनाओं में 'बन्दर सभा महाकाव्य', 'कुटीर का पुष्प' और 'स्वतंत्रता' अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं। इन कविताओं में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की प्रमुखता है। उनकी रचनाओं में काव्यशास्त्र की बारीकी ढूँढ़ना छिद्रान्वेषण करना ही होगा, किन्तु युगीन यथार्थ की अभिव्यक्ति टण्डन जी ने जिस ढँग से की है, वह निश्चय ही श्लाघनीय है-

एक एक के गुण नहिं देखें, ज्ञानवान का नहिं आदर,
लड़ैं कटैं धन पृथ्वी छीनैं जीव सतावैं लेवैं कर।
भई दशा भारत की कैसी चहूँ ओर विपदा फैली,
तिमिर आन घोर है छाया स्वारथ साधन की शैली ॥
अपनी अपनी चाल ढाल को सब कोऊ धर-धर छप्पर पर,
चले लुढ़कते बुरी प्रथा पर जिसका कहीं पैर नहिं सिर।
धनी दीन को दुख अति देवैं, हमदर्दी का काम नहीं,
धन मदिरा गनिका में फूँकै करैं भला कुछ काम नहीं ॥३

'बन्दर सभा महाकाव्य` में आल्हा शैली में अंग्रेजों की नीतियों का भंडाफोड़ किया है। उन्होंने अंग्रेजों के प्रति जो चुटकियाँ ली हैं उनमें से एक-दो का आनन्द आप भी लीजिए-

कबहूँ आँख दाँत दिखलावैं, लें डराय बस काम निकाल।
कबहूँ नम होय सीख सुनावैं, रचैं बात कै जाल कराल ॥४४॥
ऐसे वैसे तो डर जावैं या फँस जावैं हमारे जाल।
जौने तनिक अकड़ने वाले तिनके लिए अनेकन चाल ॥४५॥

पत्रकारिता
पत्रकारिता के क्षेत्र में टण्डन जी अंग्रेजी के भी उद्भट विद्वान थे। श्री त्रिभुवन नारायण सिंह जी ने उल्लेख किया है कि सन् १९५० में जब वे कांग्रेस के सभापति चुने गए तो उन्होंने अपना अभिभाषण हिन्दी में लिखा और अंग्रेजी अनुवाद मैंने किया। श्री सम्पूर्णानन्द जी ने भी उस अंग्रेजी अनुवाद को देखा, लेकिन जब टण्डन जी ने उस अनुवाद को पढ़ा, तो उसमें कई पन्नों को फिर से लिखा। तब मुझे इस बात की अनुभूति हुई कि जहाँ वे हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे, वहीं अंग्रेजी साहित्य पर भी उनका बड़ा अधिकार था।

भारतीय संस्कृति से प्रेम
पुरुषोत्तमदास टण्डन के बहु आयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें 'राजर्षि` की उपाधि से विभूषित किया गया। १५ अप्रैल सन् १९४८ की संध्यावेला में सरयू तट पर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ महन्त देवरहा बाबा ने आपको 'राजर्षि` की उपाधि से अलंकृत किया। कुछ लोगों ने इसे अनुचित ठहराया, पर ज्योतिर्मठ के श्री शंकराचार्य महाराज ने इसे शास्त्रसम्मत माना और काशी की पंडित सभा ने १९४८ के अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन के उपाधि वितरण समारोह में इसकी पुष्टि की। तब से यह उपाधि उनके नाम के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वयं अलंकृत हो रही है।

भारतीय संस्कृति के परम हिमायती और पक्षधर होने पर भी राजर्षि रूढ़ियों और अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं पर भी अपने दो टूक विचार व्यक्त किये। उनमें एक अद्भुत आत्मबल था, जिससे वे कठिन से कठिन कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लेते थे। बालविवाह और विधवा विवाह के सम्बंध में उनका मानना था कि "विधवा विवाह का प्रचार हमारी सभ्यता, हमारे साहित्य और हमारे समाज संगठन के मुख्य आधार पतिव्रत धर्म के प्रतिकूल हैं" उन्होंने स्पष्ट किया कि विधवा-विवाह की माँग इसलिए जोर पकड़ रही है, क्योंकि हमारे समाज में बाल-विवाह की शास्त्र विरुद्ध प्रणाली चल पड़ी है और बाल विधवाओं का प्रश्न ही भारतीय समाज की मुख्य समस्या है। अत: "बाल-विवाह की प्रथा को रोकना ही विधवा विवाह करने की अपेक्षा अधिक महत्व का कर्तव्य सिद्ध होता है।" उनके व्यक्तित्व के इस पहलू के एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे- प्राय: लोग समझते हैं कि पका हुआ भोजन सुपाच्य होता है, पर राजर्षि ने इसे एक रूढ़ि माना और उन्होंने वर्षों तक आग से पके हुए भोजन को नहीं ग्रहण किया। चीनी खाना एक बार छोड़ दिया। एक ओर उन्हें गाय के दूध से परहेज था तो दूसरी ओर चमड़े के जूते से। इस प्रकार वे एक अद्भुत व्यक्तित्व के धारक थे।

भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पूर्व से ही साम्प्रदायिकता की समस्या अपने विकट रूप में विद्यमान रही। कुछ नेता टण्डन जी पर भी सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते रहे हैं। यह सच है कि राजर्षि अपनी संस्कृति के परम भक्त और पोषक थे। वे यह कहने में भी हिचक का अनुभव नहीं करते थे कि भारत में दो संस्कृतियों को जीवित रखना देश के साथ विश्वासघात करना होगा, पर इसका मतलब यह नहीं था कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे, मुसलिम विरोधी थे। इस सम्बंध में कुलकुसुम के विचार कितने सार्थक हैं- यदि किसी धर्म या संस्कृति में कोई व्यक्ति विशेष आस्था रखता है, तो उसके विरोधी प्राय: यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि वह आदमी अन्य धर्मों तथा संस्कृतियों का शत्रु है। यही बात राजर्षि टण्डन के साथ हुई। उनके अनन्य हिन्दी प्रेम, भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं की एकनिष्ठा, आस्था और साधुओं के से वेष-विन्यास को देखकर उनके विरोधियों ने जान बूझकर या अनजाने ही यह प्रचार करने की भूल कर दी कि टण्डन जी मुसलमानों के शत्रु हैं।

स्वयं टण्डन जी ने भी लिखा है- "मेरे हिन्दी के काम के कारण लोगों ने मुझे मुसलमान भाइयों का मुखालिफ समझ लिया। इन लोगों को यह नहीं मालूम कि बहुत से मुसलमान मेरे कितने अच्छे दोस्त हैं। मेरे सामने यदि कोई मुसलमान के साथ अन्याय करे, तो मैं उसके पक्ष में जान की बाजी लगा दूँगा। वास्तव में टण्डन जी का व्यक्तित्व मानववादी था। उनके घर पर जो बालक उनका सहयोग करता था, वह मुसलमान था, पर कैसी विडम्बना है कि लोग कहते हैं कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे।

मानवतावादी आचार-विचार
राजर्षि टण्डन जी के व्यक्तित्व के अन्य अनेक पहलू और भी हैं; जैसे वे गरीबों, पीड़ितों के सहायक थे, सही अर्थों में दीनबंधु थे, करुणा की मूर्ति थे और बाबू जी कितने नैतिक आचरण के व्यक्ति थे इसका अनुमान इस उदाहरण से लगाया जा सकता है- "सन् १९५० का महाकुम्भ था। बहुआ (टण्डन जी की धर्मपत्नी, जिन्हें घर में इसी नाम से जाना जाता है) ने गंगा स्नान के लिए गाड़ी से जाने की बात कही। बाबू जी ने उत्तर दिया कि गाड़ी 'स्पीकर` की है। तुम मेरे साथ तो जा सकती हो, किन्तु अकेले नहीं।"

राजर्षि का व्यक्तित्व बहुआयामी और राजर्षि के अनुरूप था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हिन्दी के अनन्य प्रेमी ही नहीं, बल्कि हिन्दी के पर्याय थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका उल्लेख एक समर्थ कवि और निबंध लेखक के रूप में होता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर संनानियों में उनकी गणना अग्रिम पंक्ति के सेनानियों में की जाती है और उनका नाम भारतीय स्वंतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से अंकित है। वे परम स्नेही, उदार और करुणा की मूर्ति होते हुए भी इस्पाती व्यक्तित्व के धारक थे। हिमालय की तरह अचल और अटल। परम हिन्दी सेवी, राष्ट्र-भक्त और भारतीय संस्कृति के इस उपासक को मेरा शत् शत् नमन।

"देखने में एक अस्थिपंजर किन्तु आँखों में अनन्त ज्योतिराशि, मन में अजस्र आत्म शक्ति, माथे की चिन्तित रेखाओं में युग का संघर्ष, वाणी में निसंग निष्ठा, संकेतों में विश्वास और अस्त-व्यस्त केशों तथा रूखे सूखे कलेवर में अनन्त जीवन रस। छेड़िये तो तपस्वी की विभूति मिले, मौन रूप देखिये तो निर्विकल्प समाधि की परिधि तक चले जाइये। विरोध करिये तो फौलाद के स्पर्श का भान मिले। स्वीकृति दीजिए तो एक दिव्य आलोक की अनुभूति।"

"हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया।...... हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।"

देश का सर्वोच्च सम्मान
में उन्हें भारतवर्ष का सर्वोच्च राजकीय सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की स्मृति में राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय फाफामऊ इलाहबाद में है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना उत्तर प्रदेश राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय, अधिनियम १९९९ उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत हुई।

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