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रविवार, 7 जुलाई 2019

अभिलेख : यांत्रिकी परियोजनाएँ और सामाजिक दायित्व

विशेष आलेख:
अभियांत्रिकी परियोजनाएँ और सामाजिक दायित्व 
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' 
DCE, BE, MIE, MA(ECONOMICS, PHILOSOPHY), DIP JAOUNALISM, LL.B.
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मनुष्य और अभियांत्रिकी परियोजनाएँ:
                         मानव सभ्यता का इतिहास अभियंत्रण योजनाओं के अभिकल्पन, रूपांकन, निर्मिति, उपयोग, ध्वंस तथा पुनर्निर्माण  कहानी है। हर देश-काल में अभियांत्रिकी परियोजनाएं मानव द्वारा मानव हेतु बनाई और मिटाती जाती रही हैं, कभी वैयक्तिक आवश्यकता पूर्ति हेतु, कभी सार्वजनिक या सामूहिक आवश्यकता पूर्ति हेतु। अभियांत्रिकी परियाजनाओं के अभिकल्पन और निर्माण काल में सामान्यत: आवश्यकता, उपयोगिता, व्यावहारिकता, सफलता, जीवनकाल तथा पर्यावरण व मानव जीवन पर प्रभावों आदि का ध्यान रखा जाना चाहिए किंतु ऐसा होता नहीं है। वर्तमान में केवल अनुबंध की शर्तों, वित्तीय सीमा, कानूनी पक्ष तथा शासकीय नीति को ही सब कुछ मान लिया गया है। इस कारण वह मानव जिसके लिए सकल अभियांत्रिकी अनुष्ठान किया जाता है, कहीं हाशिए पर भी नहीं रह जाता और जनगण की आशाओं-अपेक्षाओं को तो छोडिए, सामान्य जीवन की भी परवाह नहीं की जाती। फलत: अभियांत्रिकी परियोजनाएँ जन-विरोध और जनांदोलनों की शिकार होकर समय पर पूर्ण नहीं हो पातीं, किसी तरह अनुमान से बहुत अधिक व्यय तथा समय लगाकर पूर्ण हो भी जाएँ तो उपयोगिता के निकष पर खरी नहीं उतरतीं। प्रश्न यह उठता है कि  परियोजनाएँ मनुष्य के लिए हैं या मनुष्य परियोजनाओं के लिए?  

अभियांत्रिकी परियोजनाएँ, लोकमत और प्रशासन:
                         अभियांत्रिकी परियोजनाओं के क्रियान्वयन का कारण और उद्देश्य वे आम जन ही होते हैं जिनकी आवश्यकताओं और कठिनाइयों का पूर्वानुमान कर उन्हें दूर कर, सुख-सुविधाएँ देने के लिए अभियांत्रिकी विभाग, नीतियाँ और  परियोजनाएँ  बनाई और चलाई जाती हैं। विडम्बना यह है कि जन-आवश्यकताओं और जरूरतों का अनुमान लगाकर नीति बनाते समय शासन-प्रशासन और परियोजना बनाते समय अभियंता जन सामान्य से किसी प्रकार का संपर्क ही नहीं करता। जनमत, लोकमत या जनाकांक्षा की पूरी तरह अनदेखी की जाती है। जनजीवन के रहन-सहन, सभ्यता, संस्कृति, आदतों, आवश्यकताओं, रीति-रिवाजों आदि तत्वों को रौंदकर परियोजनाओं को बलात लाद दिया जाता है और जन-विरोध होने पर शासन-प्रशासन मदांध होकर जनगण को रौंद देना ही एक मात्र राह मानता है। अभियंता शासन का वेतनभोगी कर्मचारी होने के नाते आदेश पालन हेतु बाध्य होकर, जनाक्रोश का शिकार होता है। वर्तमान कार्यप्रणाली में अभियांत्रिकी योजनाओं के अभिकल्पन के समय अभियंता की कोई भूमिका ही नहीं होती। परियोजना का नीतिगत निर्णय हो जाने के बाद रूपांकन का कार्य उच्च स्तरीय अभियंता कार्यालयों में होकर, वित्तीय आवंटन होने और निविदा स्वीकृत होने के बाद निचले स्तर के अभियंता पर निर्माण का दायित्व थोप दिया जाता है। अपने ४० वर्षों के कार्यकाल में मैंने क्रमश: 'फील्ड इंजीनियर्स' की भूमिका को कम से कम होते और 'ऑफिस इंजीनियर्स' की भूमिका को बढ़ते हुए देखा है।  
                         सत्तर के दशक में शासन के स्तर से प्राप्त विभागवार आवंटन को विभागाध्यक्ष  मंडल तथा संभाग स्तर पर आवंटित करता था। अनुविभाग स्तर पर ग्राम पंचायतों के माध्यम से जन-आवश्यकताओं का आकलन कर उपखंड से प्राक्कलन बनवाकर विभागीय श्रमिकों या ठेकेदारों से कार्य कराया जाता था। इस पद्धति में ग्राम्य स्तर पर जनमत की भूमिका होती थी। कनिष्ठ यंत्री स्थान विशेष की मिट्टी, वर्षा, पर्यावरण, लोक जीवन, जन आवश्यकताओं आदि के अनुरूप प्रस्ताव बनाता था जिसे संभाग तथा मंडल स्तर पर  परखा जाकर नियमानुसार स्वीकृत कर क्रियान्वित किया जाता था। इस प्रकार जन सामान्य की परोक्ष अनुशंसा होने के कारण परियोजनाओं का विरोध नहीं होता था। यहाँ तक कि अनेक परियोजनों में जन-भागीदारी की शर्त भी होती थी। ग्राम्य विकास के कार्यों में प्रारंभ में ५०% वित्तीय जन सहयोग आवश्यक था जिसे क्रमश: घटाकर शून्य कर दिया गया। जन सहयोग मिलाकर किये गए निर्माण कार्यों के प्रति जन सामान्य का लगाव होता था, कोई भी शासकीय निर्माण सामग्री की न तो चोरी करता था, न निर्माण का विरोध या उसे क्षति पहुँचाई जाती थी। दुर्भाग्य से प्रशासन तंत्र को सीधे पिरामिड के स्थान पर आधार की भूमिका कम कर, शीर्ष की भूमिका अत्यधिक बढ़ा दी गयी, फलत: प्रशासन तंत्र उलटे पिरामिड की तरह अस्थिरता का शिकार हुआ। 
                         वर्तमान में निचले स्तर पर कार्यरत अभियंता और आम जनता की भूमिका परियोजना तय करने में शून्य है, भागीदारी भी नहीं है, लगाव भी शेष नहीं है। अब योजनायें जन-जीवन, जन आवश्यकताओं और जनांक्षाओं का ध्यान रखे बिना तथाकथित जन-प्रतिनिधियों की माँग पर, उच्च-स्तर से लाद दी जाती हैं। इस कारण बाँध, सड़क,  ताप बिजली घर आदि अनेक परियोजनाएँ जन-विरोध और जनांदोलनों का शिकार हुईं। जन-उपेक्षा से आहत जनभावनाएँ नक्सलवाद और अन्य हिंसक गतिविधियों का जनक बनीं। पहले जन सामान्य की राय महत्वपूर्ण थी, अब राजनैतिक दलों विशेषकर सत्ताधारी दल के हित महत्वपूर्ण हो गये हैं। जनतांत्रिक व्यवस्था के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व जनमत की अनदेखी ने परोक्षत: प्रशासन तंत्र को निर्णायक बना दिया है। 'कोढ़ में खाज' यह कि तकनीकी कार्य विभागों की बागडोर मंत्री और प्रशासनिक सचिवों के हाथों में है, अभियंता विभागाध्यक्ष कठपुतली मात्र रह गए हैं। 

सरकार, अभियंता और ठेकेदार:
                         वर्तमान में वृहद अभियांत्रिकी परियोजनाएँ राजनैतिक आधार पर सरकार द्वारा तैयार कर, स्वीकृत और विज्ञापित की जाती हैं। शासकीय तकनीकी कार्य विभागों की भूमिका पर्यवेक्षण मात्र तक सीमित कर दी गयी है। कार्यों के रूपांकन, क्रियान्वयन, मापन और मूल्यांकन तक में ठेकेदार सर्वाधिक प्रभावी है। अधिकांश ठेकेदार राजनैतिक पृष्ठभूमि से, बाहुबल संपन्न, धनार्जनोन्मुखी, तकनीकी शिक्षहीन तथा कार्य की गुणवत्ता के प्रति उदासीन होते हैं। कार्य पर पदस्थ अभियंता को ठेकेदार के दबाव में उसके हित के अनुसार भुगतान करना होता है। बहुत बड़ी राशि के ठेके होने में सर्वोच्च स्तर पर लेन-देन के आरोप लगते रहे हैं। इस स्थिति में ठेकेदार अपना हित साधन न कर गुणवत्ता के प्रति आग्रही अभियंताओं को येन-केन-प्रकारेण रास्ते से हटाता है। अब अनेक छोटी और मझोली परियोजनाओं को एकत्र कर वृहद परियोजनाएँ तैयार की जा रही हैं चूँकि इनमें लाभ की राशी बहुत बड़ी होती है। ठेकेदारों को निर्माण सामग्री आयर यंत्रादि क्रय करने के लिए भी अग्रिम बड़ी धनराशि का भुगतान कर देयकों में समायोजन किया जा रहा है। ठेकेदार राशि का अन्यत्र निवेश कर लाभ कमाता है, योजनाओं को लंबित करता है, विधि विशेषज्ञों की सेवा लेकर तरह-तरह के वाद स्थापित करता है, योजनायें लंबित और अधिक खर्चीली तथा न्यून गुणवत्तायुक्त होती जाती हैं। फलत: अभियंता संवर्ग की सामाजिक छवि को क्षति पहुँचती है, समाचार माध्यम में अभियंता को सर्वाधिक भ्रष्ट चित्रित किया जाता है। 
                         वर्षों पूर्व शिक्षा प्राप्त अभियंताओं को नवीनतम निर्माण प्रविधियों, यंत्रों तथा प्रक्रियाओं का समुचित प्रशिक्षण दिए बिना उन्हें कार्यों पर पदस्थ कर दिया जाता है। शासकीय अभियंता के पास गुणवत्ता नापने का कोई स्वतंत्र साधन नहीं होता, पदार्थ परीक्षण प्रयोगशालाएँ ठेकेदार की ही होती है। परीक्षण यंत्रों की शुद्धता संदिग्ध होती है। यंत्रों का केलिब्रेशन यथासमय नहीं कराया जाता। निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में निम्न शिक्षा स्तर तथा किसी भी तरह से परीक्षा उत्तीर्ण कराने की प्रवृत्ति ने बहुत बड़ी संख्या में ऐसे अभियंता उत्पन्न कर दिए हैं जिनका तकनीकी स्तर निम्न है। यही अकुशल अभियंता बेरोजगारी का शिकार होकर ठेकेदार द्वारा कम वेतन पर परियोजना कार्यों पर नियुक्त किये जाते हैं। सेवानिवृत्ति के समीप पहुँच चुके शासकीय अभियंता नवीनताम निर्माण प्रक्रिया से अपरिचित, ठेकेदार के प्रभाव से भयाक्रांत तथा विभागीय समर्थन के बिब्ना खुद को असहाय पाते हैं। वे कार्य की गुणवत्ता के प्रति कड़ा रुख अपनाएं तो स्थानांतरण, मार-पीट यहाँ तक कि हत्या के शिकार भी हो जाते हैं। यहाँ यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि सैन्य और अर्ध सैन्य बालों के बाद नागरिक सेवाओं में कार्य पर हत्या की सर्वाधिक दर अभियंताओं की है। 
                         अभियांत्रिकी परियोजनाओं के रथ को गतिमान रखनेवाले तीन पहिए सरकार, ठेकेदार और अभियंता के हित भिन्न होते हैं। फलत: वे तीन दिशाओं में गतिमान होते रहते हैं। कोई भी योजना समय पर पूरी नहीं होती और अनुमानित से बहुत अधिक खर्चीली सिद्ध होती है। सरकार और ठेकेदार परस्पर पूरक नहीं, प्रतिस्पर्धी की तरह कार्य करते हैं और दोनों के बीच 'फील्ड इंजीनियर' चक्की के दो पाटों के बीच दाने की तरह पिसता है। कानूनी प्रावधान पढ़ने में बहुत प्रभावी प्रतीत होते हैं किंतु उनका क्रियान्वयन दुष्कर और बहुधा असंभव होता है। अत्यधिक समय साध्य और अव्यावहारिक न्यायप्रणाली का लाभ ठेकेदार उठता है। कार्य की गुणवत्ता, यथासमय पूर्णता, मितव्ययिता, सुदृढ़ता आदि से ठेकेदार को कोई वास्ता नहीं होता, वह शीघ्रादिशीघ्र राशि प्राप्ति में ही रूचि रखता है। 
अनुपयुक्त तकनीक और जनहित की उपेक्षा: 
                         जन सामान्य के हित की अनदेखी उन योजनाओं और सामान्य कार्यों में भी की जाती है जहाँ सहज ही जन-हित संरक्षण संभव है। इसका कारण अभियंताओं का स्वकेंद्रित होना तथा सामाजिक दायित्व की अनुभूति न होना है। विश्व बैंक और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव में नगर विकास के नाम पर बहुत बड़ी मात्रा में ऋण लिया जाकर अव्यवहारिक योजनायें क्रियान्वित की जा रही हैं। 
मकानों में पानी भरना:
                         हर शहर और कसबे में इमारतों और सड़क के 'रिड्यूस लेवल' तय नहीं किये गए हैं। इमारत बनाते समय आसपास की जमीन और सड़क को देखते हुए लगभग एक मीटर ऊँचाई पर कुर्सी तल (प्लिंथ लेवल) तय कर लिया जाता है। कालांतर में सडकों की मरम्मत होते समय पुरानी सतह को खोदे बिना उस पर नई सतह बिछा दी जाती है। कुछ दशकों बाद सड़क का स्तर इमारतों के कुर्सी तल से ऊपर उठ जाता है। लगातार कचरा-मिट्टी पड़ने से जमीन का स्तर उठता जाता है। फलत: मकान डूब में आने लगते हैं। बरसात के समय आसपास का पानी ऊँची उठ चुकी सड़क पर से न बहकर, मकान में भरता जाता है। हजारों शहरों और कस्बों के करोड़ों आम लोगों को इस कष्ट से बचने के लिए करना केवल यह है कि सड़कों, इमारतों, सीवर लाइनों ओर वाटर पाइप लाइनों का 'रिड्यूस लेवल' भू पटीय स्थिति को देखकर तथा दूरी और ढाल के अनुपात को बनाए रखकर तय करना होगा। शासन नीति बना दे तो अभियंता सहज ही यह कार्य कर सकते हैं। 
पुरातात्विक सामग्री और भवनों की अनदेखी: 
                         नागरिक यांत्रिकी (सिविल इंजीनियरिंग) 
     





























  

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