कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।। -सोहन परोहा 'सलिल'
मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव।
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।।
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही।
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*
९.७.२०१८
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
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'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।। -सोहन परोहा 'सलिल'
मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव।
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।।
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही।
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
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९.७.२०१८
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