दोहा सलिला
*
जिसे बसाया छाँव में, छीन रहा वह ठाँव
आश्रय मिले न शहर में, शरण न देता गाँव
*
जो पैरों पर खड़े हैं, 'सलिल' उन्हीं की खैर
पैर फिसलते ही बनें, बंधु-मित्र भी गैर
*
सपने देखे तो नहीं, तुमने किया गुनाह
किये नहीं साकार सो, जीवन लगता भार
*
दाम लागने की कला, सीख किया व्यापार
नेह किया नीलाम जब, साँस हुई दुश्वार
*
माटी में मिल गए हैं, बड़े-बड़े रणवीर
किन्तु समझ पाए नहीं, वे माटी की पीर
*
नाम रख रहे आज वे, बुला-मनाकर पर्व
नाम रख रहे देख जन, अहं प्रदर्शन गर्व
*
हैं पत्थर के सनम भी, पानी-पानी आज
पानी शेष न आँख में, देख आ रही लाज
*
२७-६-२०१७
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
रविवार, 27 जून 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें