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बुधवार, 23 जून 2021

नवगीत प्रश्नावली

नवगीत प्रश्नावली
प्रश्नकर्ता : डॉ. संजय यादव, लवली प्रोफेशनल विद्यालय , फगवाड़ा पंजाब 
ए ५७ राठ नगर, अलवर राजस्थान, ३०१००१, चलभाष ८७१७० ८४००५, ९०८६३ ४८४१८, sanjay4643n @gmail.com 
शोध निदेशक विनोद कुमार 
साक्षात्कार : 
प्रश्नकर्ता : डॉ. संजय यादव, लवली प्रोफेशनल विद्यालय , फगवाड़ा पंजाब
उत्तरदाता : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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प्रश्न १ - अध्ययन और मनन के और भी क्षेत्र थे लेकिन उस तरफ न जाकर, साहित्य का पथ अपने चुना, ऐसा किसी सुझाव, विशेष कारण या किसी व्यक्तित्व से प्रेरित होकर अपने इस ओर रुख किया?

उत्तर - मेरा जन्म मसिजीवी (कलम के बल पर जीविका कमानेवाले) बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में हुआ। मेरी मातुश्री शांति देवी वर्मा स्वयं कवयित्री थीं। पारिवारिक कारणों से उनकी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर नहीं मिला तथापि वे महिलाओं की मंडली में रामचरित पाठ के समय प्रसंगानुसार भक्तिगीत, भजन आदि लिखकर गाया करती थीं। 'राम नाम सुखदाई' शीर्षक से उनके द्वारा लिखित भजनों के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। पिताश्री राजबहादुर वर्मा जेलर और जेल अधीक्षक रहे। उन्हें शेरो-शायरी का शौक था। बचपन से घर में पुस्तकें पढ़ने का वातावरण था। हम ६ भाई-बहिन रोज शाम को आरती और भजन करते थे। मंगलवार और शनिवार को जेल परिसर में बजे मंदिर में शाम को मानस का पाठ होता। हम बच्चे सिपाहियों के साथ बैठकर मानस पढ़ते, कोई समझदार सिपाही चौपाई दोहों के अर्थ बताता। होली आदि त्योहारों पर सिपाहियों की पत्नियों हुए सिपाहियों के दल अलग-अलग बंगले पर आते और झूम-झूमकर फागें, कजरी, बिरहा, आदि लोकगीत सुनाते। हम बच्चों को इसमें विशेष रस मिलता। आजीविका से अभियंता होते हुए भी साहित्य की और रुझान का एक कारण यह परिवेश है।

दूसरा कारण मेरी बड़ी बहिन आशा जिज्जी और मेरे शिक्षक कवि द्वय सुरेश उपाध्याय व सुरेंद्र कुमार मेहता हैं। शिक्षा आरंभ होने पर स्वतंत्र दिवस, गणतंत्र पर्वों पर जिज्जी मेरे लिए भाषण लिखतीं या गीत याद करवातीं और उन्हें प्रस्तुत कर मुझे पुरस्कार मिलता। सुरेश उपाध्याय जी तथा सुरेंद्र कुमार मेहता ७ वीं से १० वीं तक सेठ नन्हेंलाल घासीराम उच्चतर माध्यमिक विद्यालय होशंगाबाद में मेरे हिंदी शिक्षक थे। इन दोनों ने हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति अभिरुचि विकसित करने में प्रेरक का कार्य किया।

प्रश्न २ - साहित्य में अन्य विधाओं की अपेक्षा नवगीत ही आपकी प्रतिनिधि विधा क्यों है?

उत्तर - केवल नवगीत मेरी प्रतिनिधि विधा नहीं है। प्रभु चित्रगुप्त और माँ शारदा की कृपा से मैं गद्य-पद्य की सभी मुख्य विधाओं और तकनीकी लेख आदि हिंदी में लिख पाता हूँ। मैं पद्य में गीत ५०० से अधिक, नवगीत ४०० से अधिक, हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) ५०० से अधिक, मुकताक लगभग १०००, क्षणिका, हाइकु लगभग ६००, माहिया आदि, गद्य में लघुकथा ३०० से अधिक, लेख, समीक्षा ४०० से अधिक, समालोचना, व्यंग्य लेख ५० से अधिक, तकनीकी लेख लगभग ५०, भूमिका ७५ आदि लिख चुका हूँ। गूगल सर्च पर मेरे नाम के साथ १ लाख ८५ हजार प्रविष्टियाँ दर्ज हैं। मेरे ब्लॉग दिव्य नर्मदा, मुखपोथी पृष्ठों (फेसबुक पेजों) तथा वाट्स ऐप समूहों पर २०,००० से अधिक मेरी रचनाएँ हैं। अन्य विधाओं की तरह ही गीत-नवगीत मेरी प्रमुख सृजन विधाओं में से एक है।

प्रश्न ३ - जब गीत स्वयं में एक विधा थी और नवगीतकार भी यह मानते हैं, गीत की जानकारी के बिना नवगीत नहीं लिखा जा सकता तो नवगीत नामकरण की क्या विवशता थी? इसे गीत के रूप में ही रहने दिया जाता।

उत्तर - गीत वृक्ष की एक शाखा है नवगीत। लोकगीत, बालगीत, आव्हान गीत, प्रयाण गीत, क्रांति गीत, ऋतु गीत, पर्व गीत, अनुगीत, प्रगीत, अगीत आदि अन्य अनेक शाखाएँ भी हैं। इन शाखाओं पर विविध रसों के गीत (श्रृंगार गीत, भक्ति गीत, लोरी आदि) कुसुम गुच्छ की तरह हैं। मेरी एक रचना का मुखड़ा है 'गीत और नवगीत / नहीं हैं भारत-पाकिस्तान'।

कथ्य के आधार पर नवगीत को विडंबना गीत, वैषम्य गीत, व्यथा गीत बनाने का आग्रह प्रबल रहा है किन्तु बहुसंखयक गीतकार नवगीत को इस रूप में नहीं देखते। युवा नवगीतकारों ने नवगीत के शिल्प में सभी रसों को स्थान देने के सफल प्रयास किया है। कुमार रवींद्र का 'अप्प दीपो भव' बुद्ध पर नवगीतीय प्रबंध कृति है। यह अपनी मिसाल आप है।

गीत की जानकारी के बिना तो बाल गीत या अन्य प्रकार के गीत भी नहीं लिखे जा सकते। गीत तो सभी हैं पर किस प्रकार के गीत हैं? इसका उत्तर देने के लिए वर्गीकरण की आवश्यकता है। यह नामकरण नहीं वर्गीकरण है। गीत किसी भी वर्ग का हो अंतत: गीत ही है। नवगीत को पृथक विधा मानने का दुराग्रह कुछ मठाधीशों का है जो यह सोचते हैं कि इस तरह वे नवगीत के इतिहास में अमर हो सकेंगे पर उन्हें गीत के इतिहास में गीत-द्रोहियों के रूप में लांछना ही मिलेगी।

प्रश्न ४ - क्या आपमें जन्म से लेकर आज तक अपने शिल्प और कथ्य के संदर्भ में परिवर्तन आए हैं? यदि परिवर्तन आए हैं तो वे क्या हैं?

उत्तर - मुझमें क्या हर रचनाकार में समय-समय पर परिवर्तन आते हैं। चेतन पल-पल बदलता है, जो न बदले वह जड़ होता है। साहित्यकार की चेतना प्रबल होती है। गीतकार तो सर्वाधिक संवेदनशील और चेतना संपन्न होता है

मैं आरंभ में छंदरहित कवितायेँ अधिक लिखता था। तब छंद की समझ थी नहीं, वरिष्ठ जन कुछ बताने या सिखाने के स्थान पर हतोत्साहित करते थे। शायद अपना स्पर्धी न बनाकर, कमजोर रखकर अपनी श्रेष्ठता बनाए रखना उनका उद्देश्य था। छात्र जीवन से ही स्वाध्याय मेरा व्यसन रहा है। निरंतर पढ़ने से क्रमशः शब्द भंडार, भाषा-ज्ञान, लय की समझ, मात्रा व गण आदि की जानकारी मिलती रही। वरिष्ठों से मिली उपेक्षा ने एक जिद भी पैदा कर दी कि अपनी राह आप बनाना है। अभियांत्रिकी की पढ़ाई और नौकरी में साहित्य को उपेक्षित होते ही देखा। विभाग और साथी साहित्य से जुड़ाव होने के कारण मुझे विश्वसनीय नहीं मानते थे। उच्चाधिकारी संकेत में एक दूसरे से कहते 'मेहनती तो है, काम जानता भी है पर काम का नहीं है।' उनके लिए काम का वह होता था जो कार्य की गुणवत्ता पर ऊपरी कमाई को वरीयता दे। साहित्य से जुड़े नैतिक मूल्यों के कारण, साहित्यकार की समझ कुछ अधिक होने के कारण वह काम का कैसे रहता? मुझे कार्यस्थलीयों के स्थान पर कार्यालय में संलग्न रखा जाता। मैं इसे वरदान मानकर अधिक से अधिक किताबें पढ़ता। हिंदी प्रचारक संघ वाराणसी और राजकमल प्रकाशन की घरेलू पुस्तकालय योजना से कई वर्षों सैंकड़ों किताबें खरीदी और पढ़ीं। दो-तीन स्थानीय पुस्तकालयों से किताबें लेकर पढ़ता रहा। मेरे एक गीत का मुखड़ा है 'पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख।'

अभियंता संघ से जुड़ने पर मेरी कवि होने की ख्याति (?) के कारण मुझे संघ पत्रिका का संपादक बना दिया गया। अब सम्पादकीय लिखने, तकनीकी लेख लिखने, रिपोर्ताज लिखने, व्यंग्य लेख लिखने की और रुझान हुआ। फिर लघुकथा, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि भी लिखे। सामाजिक पत्रिका चित्राशीष का संपादन-प्रकाशन किया तो सामाजिक समस्याओं पर जी भरकर लिखा। पर्यटन वृतांत भी लिखे। आवश्यकता होने पर अंग्रेजी में कविता, लेख आदि भी लिखे। धीरे-धीरे मेरा झुकाव छंद की और हुआ। गीत और ग़ज़ल में प्रयुक्त छंदों को जानने के लिए पिंगल ग्रंथों को पढ़ा। छंद लिखे अंतरजाल आने पर सबसे पहले वर्षों तक छंद लिखना सिखाया। ५०० से अधिक नए छंद बनाए। तकनीकी लेखन के लिए कई नए शब्द गढ़े। मोबाइल के लिए चलभाष, चैटबॉक्स के लिए दूरलेख मञ्जूषा, फेसबुक के लिए मुखपोथी जैसे शताधिक शब्द गढ़े। शिल्प और कथ्य मेरे कार्यानुभवों के अनुसार बदलता रहा है। मेरी सैंकड़ों रचनाएँ निर्माण स्थलियों पर लिखी गई हैं जिनमें स्थानों के, वहाँ की वनस्पतियों के, श्रमिकों के नाम आए हैं।

विधागत परिवर्तन कविता से, गीत, दोहा, लेख, संस्मरण, ग़ज़ल, लघुकथा, नवगीत, समीक्षा आदि के रूप में हुए। तदनुसार शिल्प और शैली में परिवर्तन आते गए। कथ्य भी सतत बदलता रहा है। अतीत के प्रति अंधश्रृद्धा, राष्ट्र गौरव से यथार्थ की और उन्मुख होने पर लिजलिजी भावुकता का स्थान सत्यपरकता ने लिया। सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक विद्रूपताओं से जैसे-जैसे और जब-जब साक्षात हुआ, उनकी अभिव्यक्ति ने कथ्य को भी बदला है। इस कोरोना काल में प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में हो रहे कदाचार, भ्रष्टाचार, मौका परस्ती, धन लोलुपता, निर्ममता और गिरोहबंदी ने हर सीमा तोड़ दी है। साहित्यकार को इन पर आघात करना ही होगा। मेरी नई रचनाओं में यह पीड़ा मुखर हो रही है।

प्रश्न ५ - आज लिखे जा रहे नवगीत की चुनौतियाँ क्या हैं? क्या वह अपनी समकालीन चिंताओं को सीधी तरह स्वर दे पा रहा है, जैसे हिंदी के अन्य समकालीन काव्य रूप दे रहे हैं?

उत्तर - समय और परिस्थितिगत चुनौतियाँ साहित्य की हर विधा के रचनाकारों के सामने हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि चुनौती एक विधा के रचनाकारों के सामने हों, अन्य के सामने न हों। 
चुनौतियों को तीन वर्गों में रख सकते हैं- १. विधा के सामने चुनौतियाँ और २. रचनाकार के सामने चुनौतियाँ, ३. विधागत चुनौतियाँ।
नवगीत विधा के सामने चुनौती गंभीर है। नवगीत का उद्भव लगभग ८ दशक पूर्व का माना जा रहा है। उद्भव काल में दिए गए लक्षणों और मानकों को आज भी आदर्श बताया जा रहा है। इससे नवता कैसे होगी? इस कारण नवगीत में कथ्य और शिल्प का दुहराव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। नवगीत में ताजगी का अभाव और पिष्टपेषण की प्रवृत्ति चिंता का कारण है। इस चुनौती को स्वीकारते हुए मुझ सहित अनेक नवगीतकारों ने नवगीत को विडंबना, विसंगति, बिखराव, टकराव आदि के पिंजरे से निकालकर सभी रसों को समाविष्ट करते हुए नवगीत रचे हैं किन्तु हठधर्मी और संकुचित दृष्टि का परिचय देते हुए उनका स्वागत न कर अवहेलना का प्रयास किया गया तथापि कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर नवता को प्रधानता देने का कार्य निरंतर प्रगति पर है। 

नवगीतकार के सामने सामान्य चुनौती उसका लिखा हुआ समाज और शासन द्वारा न पढ़े-समझे जाने की है। लिखना और छपना बढ़ता जा रहा है किन्तु गंभीरतापूर्वक पढ़ना-सुनना और प्रतिक्रिया देना घटता जा रहा है। नवगीतकार के सामने व्यक्तिगत चुनौती अनुभूत की अनुभूति को संचित कर अभिव्यक्त कर पाने की है। इस राह पर सम्यक शब्द भंडार, भाषिक संस्कार, निजी कहन और मौलिक कथन की खोज और उसे स्थापित कर पाना सबसे कठिन चुनौती है। 

विधागत चुनौतियों को देखें तो गीत की गणना सर्वाधिक लोकप्रिय विधाओं में की जाती है। नवगीत गीत का ही एक प्रकार है। स्वाभाविक रूप से नवगीत को गीत की लोकप्रियता विरासत में मिली है। विधा के रूप में गीत-नवगीत के सामने ग़ज़ल की चुनौती है। ग़ज़ल मुक्तक का विस्तार और गीत का ही एक अन्य प्रकार है। गीत की कहन मौलिक, अनूठी और चित्ताकर्षक होती है जिसे  'ग़ज़लियत'  कहा जाता है। गीत में अर्थ गांभीर्य, बिम्ब वैचित्र्य और आलंकारिकता का आकर्षण होता है। आजकल गीतकार ग़ज़ल और गज़लकार गीत लिखने लगे हैं जिस कारण दोनों में एक दूसरे के गुण मिलते हैं।  

प्रश्न ६ - युगबोध के विविध आयाम क्या हैं? क्या युगबोध की संकल्पना को संपूर्णता से लाने में सक्षम है यह विधा?

उत्तर - आप जिन आयामों की बात कर रहे हैं उनका उल्लेख करें तो उस संबंध में उत्तर दूँ। मेरी समझ में युग बोधात्मकता गीत का अविच्छिन्न लक्षण है। गीत जिस देश-काल-परिस्थिति से संबद्ध होता है, उसी की बात करता है। कथ्य की माँग के अनुसार युगबोध न हो तो गीत अप्रासंगिक हो जाएगा। 

प्रश्न ७ - आपकी दृष्टि में युगबोध में किस प्रकार की संभावनाएँ निहित हैं?

उत्तर - युगबोध में अन्तर्निहित संभावनाओं का आकलन, प्रस्तुति तथा प्रभाव रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर है। युगबोध के अंतर्गत गतागत का मूल्यांकन, तुलना, शुभाशुभ, विसंगति, विडंबना, साहचर्य, सद्भाव, भविष्य आदि विविध संभावनाएँ समेटी जा सकती हैं। युगबोध समसामयिक परिस्थितियों के ज्ञान की अवधारणा है। समसामयिक परिस्थितियों में किसी काल की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, और आर्थिक स्थितियाँ सम्मिलित की जाती हैं। गीति रचनाओं में युगबोध की अभिव्यक्ति कथ्य चयन के साथ ही शिल्पगत प्रयोग के रूप में प्रकट होती है। युगबोधजनित मानसिकता का प्रस्फुटन गीतों के कथ्य व शिल्प में शब्दित होता है। आधुनिक गीत काव्य के तीन तत्व मिथक, प्रतीक और बिंब समसामयिक परिस्थितियों के यथार्थ पर आधारित हैं। ये आधार निश्चय ही आधुनिक युगबोध से प्रेरित हैं। आधुनिक युगबोध गीत / नवगीत में सर्वत्र शिल्पित होता है। 

प्रश्न ८ - वर्तमान सदी में २१ वीं सदी के नवगीतों को आप २० वीं सदी के नवगीतों से किन आयामों पर भिन्न पाते हैं?

उत्तर - २० वीं सदी के नवगीतों में भाषिक प्रांजलता, भावनात्मक सघनता, शिल्पिक निखार तथा कथ्यात्मक मौलिकता निखार पर थी। संवत: इसलिए कि नवगीत की पहचान स्थापित करने के लिए और नवगीतकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने के लिए नवगीतकार सजग और सतर्क थे। २१ वीं सदी के नवगीतों में विषयों का दुहराव, कथ्य का बासीपन, विषमताओं का अतिरेकी वर्णन, अस्वाभाविक राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धता भी नवगीत के स्वाभाविक विकास, सहजता और सारल्य में बाधक है। आजकल नवगीतों में प्रचारात्मकता अधिक है, संवेदनात्मकता कम।     

प्रश्न ९ - हिंदी कविता की मुख्य धारा में नवगीत की उपस्थिति के मायने क्या हैं?

उत्तर - कविता शब्द का उपयोग किस अर्थ में कर रहे हैं? मूलत: कविता का अर्थ पद्य (पोएट्री) है किंतु सामान्यत: छंदरहित काव्यरचनाओं को कविता कहा जाता है। मैं कविता को मूल अर्थ में लेते हुए कहना चाहता हूँ कि कविता गीतमय ही होती है। छंदानुसार गति-यति, लय आदि परिवर्तित होते हैं किन्तु गीति तत्व हमेशा बना रहता है। गीत-नवगीत की उपस्थिति रस तथा भाव की संवाहक होकर जन-मन को रसानंद और आत्मानंद पाने का अवसर सुलभ कराती है। इसीलिए लोक पर्वों, उत्सवों, विशिष्ट दिवसों पर गीत का आकंठ रसपान करता है। लोकगीत नवगीत का भी पूर्वज है। नवगीत के टटकापन, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, विशिष्ट कहाँ जैसे लक्षण लोकगीतों से ही आते हैं।    
  
प्रश्न १०-  नवगीत का लोकधर्मी अथवा जनसंवादी रूप हमारे सामने सामने क्यों नहीं आ पा रहा है और वर्तमान नवगीत जनता से सीधा संवाद क्यों नहीं कर पा रहा है?

उत्तर - गीत का लोकधर्मी रूप लोकगीत है। लोकगीत की जन जागरण से जुड़ी भावमुद्रा आह्वान गीत, जनगीत, प्रयाणगीत आदि हैं।  गीत का तथाकथित नवगीती रूप  वैचारिक प्रतिबद्ध  मठाधीशों  की दिमागी उपज है जिसमें सामाजिक टकराव-बिखराव जनित नकारात्मकता के अलावा जीवन से संबद्ध अन्य किसी रस या भाव के लिए स्थान ही नहीं है। तो तब हो जब जन के जीवन से जुडी सब भावनाएँ-कामनाएँ  नवगीत में समाहित और प्रतिबिंबित हो। कई नवगीतकार इस तरह का सृजन कर लोकप्रिय हो रहे हैं।  नवगीतों में पारंपरिक छंदों का प्रयोग, लोकधुनों का प्रयोग, लोकप्रतीकों का प्रयोग  है। मेरे दोनों गीत-नवगीत संग्रहों ''काल है संक्रान्ति का'' तथा ''सड़क पर'' में ऐसे कुछ नवगीत हैं। कुमार रवींद्र ने ''अप्प दीपो भव'' में अभिनव प्रयोग किये हैं। बुद्धिनाथ जी मिश्र का नवगीत 'एक बार जाल फिर फेंक रे मछेरे / जाने किस मछली में फँसने की चाह हो'', विनोद निगम का ''चलो चाय पी जाए'' जैसे नवगीत लोक में खूब सराहे जाते हैं। 

लोकप्रियता के लिए प्रस्तुतकर्ता की प्रस्तुति में लोकरंजकता होना भी आवश्यक है। प्रस्तुति की दृष्टि से गीतकार चार तरह के होते हैं। पहले जिनकी प्रस्तुति और कथ्य दोनों श्रेष्ठ हों जैसे हरिवंश राय बच्चन, दूसरे जिनकी प्रस्तुति अपेक्षाकृत कम आकर्षक और रचना श्रेष्ठ हो जैसे मैथिलीशरण गुप्त जी, तीसरे जिनकी प्रस्तुति आकर्षक पर रचना सामान्य हो तथा चौथे जिनकी प्रस्तुति और रचना दोनों सामान्य हों। सकल साहित्य विशेषकर गीत से जनमानस के दूर  कारण  के गीतकारों का बाहुल्य होना है। इस पारिस्थितिक चक्रव्यूह को दूरदर्शनी हास्य सम्मेलनों और नयनाभिराम रूप सज्जा को प्रधानता देती कवयित्रियों ने अभेद्य प्राय बना  दिया है।  
 
प्रश्न ११ - क्या नवगीत एक सीमित बौद्धिक समाज तक ही सिमट कर रह गया है?

उत्तर - दुर्भाग्य से यह बहुत हद तक सच है। नवगीत को तथाकथित बौद्धिक और राजनैतिक विचारधाराओं से प्रतिबद्ध रचनाकारों की कारा से मुक्त कराने की कोशिशें जारी हैं। धुर वामपंथी, धुर दक्षिण पंथी, धुर स्त्री विमर्शवादी, ध्रुव दलितपंथी खेमों में बँटकर गीत-नवगीत ही नहीं पूरे साहित्य की दुर्दशा हुई है। पुरस्कार और अलंकरण भी इसी आधार पर दिए जा रहे हैं।  

प्रश्न १२ - हिंदी कविता की मुख्य धारा की आलोचना नवगीत का मूल्याङ्कन करने से क्यों बचती रही?

उत्तर - हिंदी साहित्य में लाला भगवानदीन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि की तरह  समीक्षक-समालोचक है ही नहीं। रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक अधिकांश समालोचक साम्यवादी विचारधारा के रहे हैं। इसके बाद प्राध्यापकों ने समीक्षक बनकर निजी लाभों के लिए ''जैसी सरकार वैसी समीक्षा'' का सूत्र अपना लिया।  जिस समीक्षक को गीति काव्य की लोकधर्मिता की समझ ही नहीं है, वह निष्पक्ष और स्तरीय समीक्षा कैसे करेगा? आजकल समीक्षा के नाम पर संकलनों का सूचनापरक  आलेख पत्र-पत्रिकाओं  में उपलब्ध स्थान के अनुसार लिखी जा रही हैं हाशिये पर छापकर उपकृत है। निष्पक्ष समीक्षक को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी तो कोई क्यों इसमें सिर खपाएगा?

प्रश्न १३ - समकालीन कविता और नवगीत के बीच इतनी विभेदक रेखाएँ क्यों खींची गई हैं? क्या उसे आलोचना जगत से बहिष्कृत किया गया?

उत्तर - अघोषित रूप से ऐसी ही स्थिति है। वामपंथी समीक्षकों ने तथाकथित प्रगतिशील कविता-कहानी की समीक्षा के पोथे लिख डाले किन्तु साहित्य की शेष विधाओं को दरकिनार कर दिया। गीत / नवगीत भी इस प्रवृत्ति का शिकार हुए। 'कोढ़ में खाज' यह कि नवगीत, अपने मूल गीत  को नीचा और खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करने की मृगतृष्णा में समाज से जुड़ नहीं सका। 

प्रश्न १४ - हिंदी साहित्य के विकास एवं प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है परन्तु नवगीत पर केंद्रित पत्रिकाओं का अभाव क्यों है? 

उत्तर - जब गीत-नवगीत के पाठक-श्रोता न्यून हैं तो पत्रिका स्थान क्यों देंगी? विधा आधारित पत्रिका के ग्राहक ही कहाँ हैं? पत्रिकाएँ  विज्ञापनों और राजनैतिक हित साधन के लिए निकाली जा रही हैं। शिक्षा के प्रसार और टंकण तकनीक की सुलभता के कारण औसत और निम्न स्तरीय इतनी अधिक मात्रा में लिखा, छपाया  और निशुल्क बाँटा जा रहा है कि साहित्य खरीदने की प्रवृत्ति समाप्तप्राय है। सरकारी खरीद में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। पत्रिका निकालने का मेरा कटु अनुभव है, लागत ही नहीं निकलती। इसलिए नवगीत ही क्या, अन्य साहित्य विधाओं में भी पत्रिकाओं का अभाव है। नवगीत स्वतंत्र विधा है ही नहीं, तो केवल इस पर पत्रिका कैसे हो?

प्रश्न १५ - नवगीत की आलोचना को समृद्ध करने के लिए और क्या क्या किया जाना चाहिए?

उत्तर - नवगीत अर्थात गीत की समालोचना हो रही है, होती है पर उस पर ध्यान नहीं दिया जाता। समीक्षा कर्म दोधारी तलवार की तरह है। सत्य समीक्षा करो तो रचनाकार नाराज। विस्तृत समीक्षा करो तो पत्रिकाओं में स्थानाभाव। व्यवहारिकता से समझौता करो और रचनाकार को प्रिय, संपादक के अनुसार समीक्षा करो तो समीक्षा कर्म की महत्ता नष्ट होती है। समीक्षा कब, कहाँ, कैसे और कैसी करनी है यह जानना भी आवश्यक है। समीक्षा शास्त्र का अध्ययन किए बिना, प्रशंसात्मक पुस्तक परिचय को ही समीक्षा के नाम पर छपा जाता है जो पूरी तरह निरर्थक है। साहित्य-समीक्षा को समृद्ध करने के लिए (अ) समीक्षकों को समीक्षा शास्त्र का ज्ञान, (आ)रचनाकार में समीक्षक के प्रति आदरभाव और सहिष्णुता, (इ) संपादक में समीक्षा को प्राथमिकता और पर्याप्त स्थान देने की मनोवृत्ति तथा (ई) पाठक में समालोचना को पढ़कर साहित्य खरीदने-पढ़ने की दृष्टि आवश्यक है।    

प्रश्न १६ - नवगीत परंपरा को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय आप किसे देते हैं?

उत्तर - साहित्य की सभी विधाओं को जन्मने तथा स्वीकार कर प्रतिष्ठा देने का श्रेय और सामर्थ्य केवल और केवल ''लोक'' में है। किसी एक व्यक्ति की सामर्थ्य ही नहीं है कि वह सत्य-शिव-सुंदर' को अन्तर्निहित कर उसका पर्याय बननेवाले साहित्य या उसकी किसी विधा को प्रतिष्ठा दिला सके, जो ऐसे कहता है वह खुद को और खुद पर भरोसा करनेवाले को ठगता है। 

प्रश्न १७ - अपनी ६ दशकों की यात्रा में नवगीत को महिला साहित्यकारों का साथ क्यों नहीं मिल पाया है?

साहित्य की हर विधा में महिला रचनाकार पर्याप्त हैं। गीत (नवगीत सम्मिलित) विधा में माया गोविन्द, महाश्वेता चतुर्वेदी, मनोरमा तिवारी, पूर्णिमा बर्मन, शांति सुमन, नीलमणि दुबे, आदर्शिनी श्रीवास्तव, अंबर प्रियदर्शी, मधु प्रधान, मधु प्रसाद, शांति सुमन, गरिमा सक्सेना, छाया सक्सेना, आभा सक्सेना, संध्या सिंह, शशि पुरवार, भावना सक्सेना, संगीता सक्सेना, कांति शुक्ला, सरिता शर्मा, सीमा अग्रवाल, विनीता श्रीवास्तव, सुनीता सिंह, सुनीता मैत्रेयी, प्रेमलता नीलम, अंजना वर्मा, अरुणा दुबे,  इंदिरा मोहन, मिथलेश बड़गैया, उषा यादव, कल्पना रामानी, कल्पना मनोरमा, कीर्ति काले, गीता पंडित, पूनम गुजरानी, शैल रस्तोगी, भावना तिवारी, मंजुलता श्रीवास्तव, मधु शुक्ला, ममता बाजपेई, मालिनी गौतम, मिथिलेश अकेला, मिथिलेश दीक्षित, मीना शुक्ला, यशोधरा यादव, यशोधरा राठोड़, रजनी मोरवाल, राजकुमारी रश्मि, रेखा लोढ़ा, पुनीता भारद्वाज, सरला वर्मा, वर्षा रश्मि, वर्षा सिंह, शीला पांडेय, शैल रस्तोगी,  सुशीला जोशी, शुचि भावी, रीता सिवानी, अनीता सिंह, आशा देशमुख, इंदिरा सिंह, नेहा वैद, नीलम श्रीवास्तव, निशा कोठरी, निर्मला जोशी, प्राची सिंह, प्रीता प्रिय, मधु शुक्ला, रंजना गुप्ता, शरद सिंह आदि सतत क्रियाशील तथा चर्चित हैं। 

गीत के क्षेत्र में प्रवासी महिला गीतकारों में शार्दूला नौगजा, मानोशी चटर्जी, कविता वाचक्नवी, शशि पाधा, ममता सैनी, तोशी अमृता, उषा वर्मा, उषा राजे सक्सेना आदि उल्लेखनीय हैं। 

प्रश्न १८ - २१वीं सदी  में युगबोध किस प्रकार व्यक्त हो रहा है?

उत्तर - युग अर्थात कालखंड और बोध अर्थात ज्ञान होना। किसी कालखंड विशेष की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, यांत्रिक आदि क्षेत्रों का ज्ञान उस समय का युगबोध कहा जाता है। गीत में युगबोध कथ्य में अन्तर्निहित होता है। २१ वीं सदी द्रुत वैज्ञानिक और यांत्रिक परिवर्तन के साथ-साथ सामाजिक बिखराव का समय है। संयुक्त परिवार क्रमश: समाप्त हो रहे हैं। ग्रामों का शहरीकरण हो रहा है। नैतिक मूल्यों और मान्यताओं का क्षरण हो रहा है। संपन्नता और समृद्धि की वृद्धि के साथ-साथ सुख-सौहार्द्र-सहिष्णुता का ह्रास हो रहा है। स्त्रीपुरुष संबंध मन से कम, तन से अधिक जुड़ रहे हैं। 'लिव इन' और 'समलैंगिकता' ने पारंपरिक मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। 'लव जिहाद' तथा 'किराए की कोख' ने धार्मिक-नैतिक, सामाजिक-विधिक मूल्यों को चुनौती दी है। गीत में मिथक, बिम्ब, प्रतीक भी युगबोध की अभिव्यक्ति करते हैं।      

प्रश्न १९ - आधुनिक युगबोध में सम्मिलित तत्व यथा वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकतावाद, बाज़ारवाद, महामारी, राष्ट्रवाद आदि को नवगीत किस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं?

उत्तर - हिंदी गीतकारों में अंतर्राष्ट्रीय चेतना की कमी है। अधिकांश गीत-नवगीत भारत के ग्राम-शहरों, स्त्री-पुरुषों, नेताओं-धनपतियों, लोक-तंत्र के टकराव पर केंद्रित हैं। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' ने आधुनिक बाज़ारवाद और माल संस्कृति पर तीखे प्रहार किये हैं। मेरे कुछ गीत-नवगीत इसरो और अन्य यांत्रिक-वैज्ञानिक अभियानों को केंद्र में लाते हैं। कोरोना को लेकर मुखपोथी पृष्ठों (फेसबुक पेजेस) पर अनेक गीत-नवगीत हैं। वॉट्सऐप समूह और चिट्ठे (ब्लॉग) पर भी इन आयामों को स्पर्श करते गीत-नवगीत मिलते हैं किंतु हिंदी के प्राध्यापक अभी यहाँ तक नहीं पहुँच सके हैं। प्राध्यापकों को वाकिताबों के साथ-साथ सामाजिक विमर्श के इन नए पटलों पर पहुँचकर इनसे जुड़ना होगा। कोरोनाजनित तालाबंदी (लोकडाउन) ने इसके पूर्व अंतर्जाल से दूर रहनेवालों को भी अंतरजाल से जुड़ने के लिए विवश कर दिया है। यह एक शुभ संकेत है।   

प्रश्न २० - दलित, स्त्री, आदिवासी आदि विमर्शों में नवगीत का क्या स्थान है? क्या यह वर्तमान विमर्शों को व्यक्त कर पा रहा है?

उत्तर - यह प्रश्न दोमुखी है। १. विविध विमर्शों में नवगीत का स्थान और २. नवगीत में विविध विमर्शों का स्थान। दलित, स्त्री, आदिवासी आदि से जुड़े तथाकथित विमर्श केवल वाग्विलास है। इस साहित्य का पुस्तकालयों और गोष्ठियों के बाहर शेष समाज से जुड़ाव ही नहीं है। जिन्हें केंद्र बनाकर इन्हें लिखा जाता है, उनसे रचनाकार का कोई संपर्क नहीं होता। आज अख़बार या दूरदर्शन पर खबर आई, कल उसे केंद्र बनाकर सैंकड़ों रचनाएँ तैरने लगती हैं इनके रचनाकार को पीड़ितों या मुद्दे से कुछ लेना-देना नहीं होता। एक स्त्री विमर्श में मैं भी आमंत्रित था। बहुओं पर हो रहे अत्याचारों पर धाराप्रवाह भाषणों के बाद मुख्य वक्ता के नाते मुझे बोलना था। जब मैंने पूछा की पूर्ववक्ताओं में से जिनके बेटे अविवाहित हैं क्या वे बिना दहेज़ के पुत्रवधुएँ स्वीकार करेंगी?, जिनके बेटे विधुर हैं क्या वे विधवाओं से विवाह मंजूर करेंगी?  सब यहाँ वहां बगलें झाँकने लगीं। इन विमर्शों का समाज में कोई स्थान नहीं है। विमर्शों में नवगीत का स्थान केवल रस परिवर्तन तक सीमित है। नवगीत में इन विमर्शों का महत्त्व शून्य है। इन्हें सुनकर कोी नवगीत नहीं लिखता किन्तु ये मुद्दे समाचार के रूप में रचनाकार तक पहुँचते हैं और रचनाकार बिना किसी संवेदना या आत्मानुभूति के केवल बुद्धि की दम पर कागज काले करने लगता है। 

प्रश्न २१ - वर्तमान नवगीतकारों के नवगीतों को दृष्टिगत रखते हुए, आपको नवगीत विधा का भविष्य कैसा प्रतीत होता है?

उत्तर - नवगीतों के मठाधीशों में नवता ही नहीं है। विषय पुनरावृत्ति के कारण आकर्षण खो बैठे हैं। कथ्य में अनुभूत सत्य न होने के कारण मर्मस्पर्शिता नहीं है। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, यायावर, निर्मल शुक्ल और मैंने जड़ता को तोड़कर नवगीत में नवत्व रोपने का प्रयास किया है। आंचलिक बोलिओं में प्रदीप शुक्ल का प्रयास महत्वपूर्ण है। नवगीत में हर रस का समावेश हो तो ताजा हवा की अनुभूति होगी। नवगीत में नए रुझान लोक धुनों (फाग, आल्हा, राई, रास आदि) के प्रयोग, यांत्रिक-वैज्ञानिक प्रगति जनित शुभाशुभ प्रभावों, नव बिम्ब-प्रतीकों, नवीन शब्द-प्रयोग, अछूते विषयों के रूप में यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं। इस कारण उज्जवल भविष्य के प्रति आशान्वित हूँ।     

प्रश्न २२ - अनेक महाविद्यालयों / विश्व विद्यालयों में नवगीतों पर हुए शोधों/हो रहे शोध कार्य को आप नवगीत के विकास में कितना अहम मानते हैं?

उत्तर - गीत ही क्या सभी साहित्यिक शोधों का महत्व शोधार्थी को नौकरी मिलने और शोध ग्रंथ के बिकने से प्रकाशक का महल तनने तक सीमित है। इन शोध ग्रंथों का मक़बरा सरकारी पुस्तकालय हैं, जहाँ इनके कफ़न-दफन की पूरी व्यवस्था है। न तो ये शोधग्रंथ नवगीतकार तक पहुंचते हैं, न ही वह इन्हें खोजकर पढ़ता और तब इनमें की गई विवेचना को समझकर लिखता है।   

प्रश्न २३ - नवगीतों पर कार्य कर रहे शोधार्थियों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?

उत्तर - शोधार्थी येन-केन-प्रकारेण शोध पूर्णकर सबसे पहले नौकरी का जुगाड़ करें। तब शोधग्रंथ छपाकर सक्रिय नवगीतकारों को दें ताकि वे पढ़कर, शोध में व्यक्त विचारों से अवगत हो सकें। बेहतर है कि रचनाकारों को महाविद्यालयों / विश्वविद्यालयों में आमंत्रित कर विद्यार्थियों / शोधार्थियों के साथ विचार विनिमय हो ताकि दोनों पक्ष एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझ सकें। इस अनुष्ठान में राजनीतिक या प्रतिबद्ध विचारों से बचना होगा। 
आपका धन्यवाद। 
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